डॉ. रविशङ्कर भार्गव समस्त ज्योतिष शास्त्र, प्रत्यक्ष शास्त्र है, जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण स्वरूप आकाश में सूर्य एवं चन्द्रमा हैं। अतः आकाशीय ग्रहपिण्डों की यथार्थ स्थिति का ज्ञान जिस गणितीय विधा से होता है उसे ‘खगोल शास्त्र’ के रूप में जाना जाता है। खगोल में अनुमानादि प्रमाणों द्वारा सिद्धियाँ नहीं होतीं। खगोल में सभी प्रकार की गणनायें उनके वृत्तीय नियामक स्थानों के अनुसार ही होती हैं। गणना द्वारा ग्रहों का निश्चित मान वेध यंत्र पर यथावत दिख जाने के बाद ही वह वेध-सिद्ध ग्रह कहलाता है, यही दृग्पक्ष या दृग्गणित कहलाता है। सभी सिद्धान्तग्रन्थों के अनुसार गणितागत ग्रह भूकेन्द्रीय होते हैं, इसे भूपृष्ठीय प्राप्त करने या लाने के लिये दृक्कर्म की आवश्यकता होती है, यही दृक्कर्म संस्कारयुक्त ग्रह ही दृक्पक्षीय ग्रह कहलाता है। दृक्कर्म क्या है? इसे समझने के लिये खगोलीय स्थिति का जानना आवश्यक होगा। __ सर्वप्रथम शर का ज्ञान आवश्यक है। कोई भी ग्रह अपने कदम्बाभिमुख शर के कारण क्रान्तिवृत्त से उत्तर या दक्षिण उन्नत या नत रहता है, तथा ग्रह की क्रान्ति ध्रुव प्रोतवृत्त में नाड़ी वृत्त और क्रान्तिवृत्त का इष्ट स्थान में अन्तर रूप होती है; परन्तु ग्रह जब अपने शराग्र में है, उस समय यह अन्तर उसकी वास्तविक क्रान्ति नहीं होगी। इसलिये इस शर रूप अन्तर का उक्त दोनों वृत्तों के अन्तर रूप क्रान्ति में संस्कार करना आवश्यक हो जाता है, किन्तु शर कदम्बाभिमुख होता है, और क्रान्ति धुवाभिमुख। अतः दोनों में विजातीयता होने से उक्त कदम्बभिमुख शर को धन या ऋण नहीं किया जा सकता। इसलिये कदम्ब वृत्तगत शर का ध्रुवप्रोत वृत्त में परिणामित करते हैं। यही कारण है कि कदम्बवृत्तीय शर को मध्यम शर तथा ध्रुवप्रोत वृत्तीय शर को स्पष्ट शर की संज्ञा दी जाती है। _वस्तुतः क्रान्तिवृत्तीय ग्रहस्थान जिस समय क्षितिज में लगता है, उस समय वह ग्रह पिण्ड क्षितिज पर नहीं लगता, क्योंकि ग्रह अपने शर के कारण क्षितिज से कभी ऊपर तथा कभी नीचे रहता है। अतः वह ग्रह कितने समय बाद क्षितिज में आयेगा? इसके लिये ग्रह के उदय एवं अस्त में दृक्कर्म की आवश्यकता होती है। दृक्कर्म भी दो प्रकार का होता है, (१) आयन दृक्कर्म (२) आक्ष दृक्कर्म। (१) क्रान्ति वृत्त के झुकाव के कारण ग्रहस्थान और ग्रह जो अन्तर होता है उसका ज्ञान आक्ष दृक्कर्म से ज्ञात किया जाता है। इनके, साधन के लिये वलन की आवश्यकता होती है। ये आयन और आक्ष-वलन क्षितिज में होते हैं। इनके कारण क्षितिज से ग्रह अपने शर से, सौम्यायन वलन में उत्तर२११ २१० दृग्गणित ग्र०बि० = ग्रहबिम्ब। ग्र० = क्रान्ति वृत्त में ग्रह स्थान। गो०सं० = गोल सन्धि वि०शग्र० A चापजात्य में चापजात्यात्यल्पत्वात् सरल-जात्य-सदृशत्वात् / श बिग्र = ६०°- Zश ग्र विं = (६०°-अयनवलन) ज्योतिष-खण्ड शर द्वारा उन्नमन तथा दक्षिण शर द्वारा नमन होता है। याम्यायनवलन में, इससे विपरीत अर्थात उत्तर शर द्वारा नमन तथा दक्षिण शर द्वारा उन्नमन होता है। यह स्थिति पूर्वक्षितिज की है, इससे विपरीत स्थिति पश्चिम क्षितिज की होती है। अर्थात् सौम्यायन वलन में अपने उत्तर शर से ग्रह नामित और दक्षिण शर से उन्नमित होता है, इसी प्रकार याम्यायन वलन में उत्तर शर से उन्नमित और दक्षिण शर से नमित होता है। ग्रह की यह स्थिति निरक्ष देश में होती है, साक्ष देश में स्थिति निम्न प्रकार से होती है पूर्वक्षितिज में सौम्य आक्षवलन में उत्तर शर से ग्रह उन्नमित और दक्षिण शर से नमित होता है, तथा पश्चिम क्षितिज में, इससे भिन्न उत्तर शर से ग्रह नमित तथा दक्षिण शर से ग्रह उन्नमित होता है। इसी प्रकार याम्याक्षवलन में, पूर्वक्षितिज में ग्रह उत्तरशर से नमित तथा दक्षिण शर से उन्नमित होता है एवं पश्चिम क्षितिज में उत्तर शर से उन्नमित तथा दक्षिण शर से नमित होता है। इस प्रकार ग्रहों के उन्नमन तथा नमन के नियमों को समझना चाहिये। यदि त्रिज्या में आयन वलन ज्या मिलती है, तो मध्यम शरज्या में क्या मिलेगा? इस त्रैराशिक से प्राप्त फल आयन कर्म ज्या मिलेगी। इसका चाप आयन दृक्कर्म होगा। इसी प्रकार यदि त्रिज्या में आक्ष वलन ज्या मिलती है तो स्पशर ज्या में क्या मिलेगा? फल आक्ष दृक्कर्म ज्या मिलेगी। इसका फल आक्ष दृक्कर्म प्राप्त होगा। यहाँ आवश्यक है कि इन त्रैराशिकों से जो फल प्राप्त होंगे उनको त्रिज्या से गुणा कर धुज्या से भाग देने पर लब्ध चापांश सम्बंधी फलों के योग अथवा अन्तर से उत्पन्न अस्वात्मक काल में ग्रह क्षितिज से नत अथवा उन्नत होता है। अस्तु इस खगोलीय विवेचन का सैद्धान्तिक दृष्टि से उपपादनात्मक विचार निम्न प्रकार से है ज्या शविंग्र = ज्या (६०°-अव०) = को ज्या अय०व० = यष्टिः अथवा यष्टि त्रि-ज्या अव. __ = (६०°-अव०) = यष्टिः ज्या. बिंग x ज्या Zश बिंग्र ज्या शग्र = ज्या. बिंशग्र मध्यमशर x यष्टि अतः स्प.शद = त्रिज्या तथा ज्याबिंश = ज्याविंग्र x ज्या / बिंग्रश ज्या बिंशग्र ज्या मध्यम शर x ज्या अयनवलन अर्थात् - आयनदृक्क = - त्रिज्या न्तित -MA अस्प-TA –342प्रोत हल त्रिज्यावर्गादयनवलनज्या कृतिं प्रोड्यमूलं, यष्टिर्यष्ट्या धुचर विशिखस्ताडितस्त्रिज्ययाप्तः। यद्वा राशित्रययुतखगधुज्यकाघ्नस्त्रिमौळ, भक्तः स्पष्टो भवति नियतं क्रान्तिसंस्कारयोग्यः।। (सि०शि०गो० ग्रहच्छा० श्लो० ३.) स्पष्टार्थ क्षेत्र देखें क० = कदम्ब ध्रु० = ध्रुव २१२ ज्योतिष-खण्ड २१३ यायो त अतः _
- दृग्गणित अतः कदम्ब प्रोत तथा समप्रोत वृत्तों का अन्तर स्पष्ट वलन होता है। आयन दृक्कर्म : ग्रह बिम्ब गत क्रान्ति पर ध्रुव प्रोत-कदम्ब प्रोत वृत्तों का अन्तर है। अतः मध्यम शर X आयनवलन = आयन दृक्कर्म त्रिज्या . आक्षदृक्कर्म : ग्रहबिम्ब गत क्रान्ति वृत्त पर ध्रुवप्रोत समप्रोत वृत्तों का अन्तर है। _ स्पष्ट शर X आक्षवलन ज्या अतः. 1 = आक्षदृक्कर्म .. त्रिज्या स्पष्ट दृक्कर्म : आयन दृक्कर्म तथा आक्षदृक्कर्म का अन्तर होता है। अर्थात् कदम्बप्रोत समप्रोत वृत्तों के बीच क्रान्तिवृत्ति स्पष्ट दृक्कर्म होता है।’ सूर्य सिद्धान्त की गणनायें अपने काल में दृक्तुल्य थीं। भगवान भास्कर ने कहा है तत्तद्गतिवशान्नित्यं यथा दृक्तुल्यतां ग्रहाः। प्रयान्ति तत् प्रवक्ष्यामि स्फुटीकरणमादरात्।। (सू०सि० स्पष्टा० १४)। अर्थात् अपनी-अपनी गति के अनुसार ग्रह जिस प्रकार दृक्तुल्य (वेध द्वारा दृश्य) होते हैं उसी विधि के अनुसार इनकी स्पष्टीकरण प्रक्रिया को कह रहा हूँ। रंगनाथ ने अपनी टीका में “दृक्तुल्यताम्" - वेधित ग्रह-समतां गच्छन्ति” ऐसा अर्थ किया है। वस्तुतः सभी सिद्धान्त ग्रंथों में ग्रहों के अलग-अलग भगण मानों को कहा गया है। किसी के भी भगणमान एक समान नहीं हैं। इसका मुख्य कारण है केन्द्र का विस्थापन। ध्रुव बिन्दु ही सभी ग्रहों के भगणादिमानों का नियामक होता है। यह बिन्दु स्थिर नहीं है, इसमें भी गति है, अतः ग्रंथकारों ने अपने अपने काल में केन्द्र की स्थिति को जान कर सभी ग्रहों के भगणों का मान निर्धारित किया है। यही कारण है कि भगणों में एकवाक्यता का अभाव है। यही कारण है कि सूर्य सिद्धान्त के मध्यमाधिकार में स्पष्ट रूप से कहा है “युगानां परिवर्तेन कालभेदोऽत्र केवलम्” ।।६।। अर्थात् शास्त्र वही है किन्तु युग भेद से अर्थात् काल भेद से परिवर्तन (अन्तर) होना स्वाभाविक है। “जो लोग दृक्तुल्यता के अर्थ में यहाँ जिस गणना का वर्णन करते हैं उनके अनुसार अदृश्य दृष्टि से अपने स्पष्ट किये हुये स्थान पर दिखाई देना है, अन्यथा इस मध्यम शर : कदम्ब प्रोत वृत्त में ग्रह बिम्ब-ग्रह के मध्य में होता है। स्पष्ट शर : ग्रह बिम्ब ग्रह स्थान अहोरात्रवृत्तीय चापांश के बीच ध्रुव प्रोतवृत्तीयान्तर होता है। अत: मध्य. शर X अय. ज्या = स्पष्ट शर। त्रिज्या आयन वलनज्या ः ग्रह क्षितिज
- कोज्या ग्र x ज्याजिनांश __ = आयन वलन ज्या। धुज्या आक्ष वलन ज्या : गह क्षितिज पर ध्रुव प्रोत समप्रोत वृत्तों का अन्तर होता है। अतः ज्यानतांश X अक्षज्या
- = आक्ष वलन ज्या। धुज्या अन्तर होता ह। १. सि०शि०गो० दृक्कर्म वासना. २१४ ज्योतिष-खण्ड गणना के अनुसार कभी भी दृश्यग्रह सिद्ध नहीं ही हो सकते थे क्योंकि जितने संस्कार दृश्यग्रहों के लिये आज निकाले गये हैं, ये ही होने चाहिये थे।" वस्तुतः इस विषय में यह भी विचार करना अनिवार्य होगा कि जिस प्रकार से काल के सापेक्ष्य ध्रुव बिन्दु में विचलन जैसे-जैसे बढ़ा, कुछ अनिवार्य संस्कार प्रारंभ में शून्य के सामानान्तर रहे होंगे। किन्तु दीर्घकालावधि में विचलन बढ़ने से उनकी शून्यता काल में अन्तरित होने लगी। उससे पड़ने वाले प्रभाव भी स्पष्ट लक्षित होने लगे। उदाहरण के रूप में उदयान्तर संस्कार की प्रारंभ में (सूर्यसिद्धान्त काल में) कहीं भी चर्चा नहीं थी। इस संस्कार की सर्वप्रथम चर्चा श्रीपति ने ग्रंथ सिद्धान्त शेखर में की। यथा अन्त्यभ्रमेण गुणिता रविबाहुजीवा ऽभीष्टभ्रमेण विहता फलकार्मुकेण। बाहोः कलासु रहितास्ववशेषकं ते, यातासवौ युगयुजोः पदयोर्धनर्णम् ।। (सि०शे० ग्रहयुद्ध श्लो० १) अर्थात् रविभुजज्या और मिथुनान्त धुज्या के गुणन फल को इष्टद्युज्या से भाग देने से लब्धफल कला के चाप को रावि भुजज्या से रहित करने पर जो शेष हो उसे सम और विषम पदों में धन-ऋण करने से स्फुट रवि के गत असु होते हैं। इस वास्तविकता को भास्कराचार्य ने सैद्धान्तिक रूप में परणित किया तथा उसका नाम उदयान्तर’ दिया। वर्तमान में दृक्प्रत्यय कारिता के लिये अन्य जिन संस्कारों की आवश्यकता पड़ी एवं वे सैद्धान्तिक रूप में ग्रहों में किये जाने लगे हैं, तो इनको यह मानकर कि ये सभी संस्कार हमारे आचार्यों ने नहीं किये इसलिये वैदेशिक होने से अग्राह्य हैं, यह भ्रम है। आगे आने वाले काल में और भी संस्कार विकसित हो सकते हैं, क्योंकि हमारा मूल बिन्दु ध्रुव चल है। यही कारण था कि कमलाकर भट्ट ने अपने ग्रंथ सिद्धान्ततत्त्वविवेक में क्षयाधिमास विवेचन के समय आक्षेप किया। भास्काराचार्य के अनुसार क्षय मास कार्त्तिकादित्रय में ही हो सकते हैं, तथा जिस वर्ष क्षयमास होगा उस वर्ष दो अधिक मास होंगे। यथा दृग्गणित २१५ इस विषय में यह विचारणीय है कि भाष्कराचार्य के समय में सूर्य का मन्दोच्च २ राशि १७° अंश था। अतः छ राशि के अन्तराल पर (८.१६° पर) मन्दनीच था। उस समय भास्कराचार्य ने “क्षयः कार्त्तिकादित्रये नान्यन्तः स्यात्’ ऐसा कहा। इस पर कमलाकर भट्ट ने आक्षेप किया कि सूर्य का मन्दोच्च चल है, तथा ग्रंथ किसी काल विशेष के लिये नहीं लिखा जाता। ग्रंथ की रचना सार्वदेशिक तथा सार्वकालिक होती है, इस स्थिति में भास्कराचार्य का कार्तिकादित्रय में क्षय मास होता है यह उचित नहीं है। वस्तुतः कमलाकर भट्ट का ऐसा कहना युक्ति संगत है। सूर्य का मन्दोच्च चल होने से कार्त्तिकादित्रय के अतिरिक्त अन्य मासों में भी क्षय मास हो सकता है। मन्दोच्च के चल होने में कारण ध्रुव बिन्दु का विचलन होता है। वर्तमान में मन्दोच्च की स्थिति राशि २ अंश २०° के आसन्न है। यही कारण है कि केन्द्रच्युति होने से सभी ग्रहों के भगण पूर्तिकाल अब वे नहीं है जिनको कि हमारे आचार्य मानते चले आ रहे हैं। इन्हीं भगणादिकों में संस्कार कर मकरन्द कार ने अथवा ग्रहलाघव कार गणेश दैवज्ञ ने दृक्पक्षीय गणनायें की तथा अपने काल में शुद्ध एवं दृश्य गणना के पञ्चांगों को विस्तारित किया, इस परिप्रेक्ष में गणेश दैवज्ञ ने स्पष्ट रूप से अपने करण ग्रंथ ग्रहलाघव में स्पष्ट संकेत किया है कि-सूर्यसिद्धान्तानुसार साधित स्पष्टसूर्य और चन्द्रोच्च वेध द्वारा देखने से ठीक मिलते हैं। गुरु-मंगल तथा राहु आर्य सिद्धान्तानुसार मिलते हैं। बुध केन्द्र ब्रह्म सिद्धान्तानुसार मिलता है। ५० अंश सहित शनि आर्य सिद्धान्त में मिलता है। शुक्र केन्द्र ब्रह्म सिद्धान्त और आर्य सिद्धान्त के मध्य में (अर्थात् दोनों पक्ष से साधन कर दोनों पक्ष के योगार्ध में) मिलता है। इस प्रकार ये ग्रह दृक्तुल्य होते हैं। इस ग्रंथ (ग्रह लाघव) में उन्हीं पक्षों से साधित ग्रह हैं। अतः इस समय इन्हीं ग्रहों के द्वारा व्रत पर्व-धर्म नीति आदि सभी शुभ कार्य करना चाहिये। इतना ही नहीं “गणेश दैवज्ञ” ने “वृहत्तिथिचिन्तामणि’ नामक ग्रंथ लिखा है, उसमें स्पष्ट रूप से कहा है श्रीकेशवः स्फुटतरं कृतवान् हि सौरा र्यासन्नमेतदपि षष्ठिमिते गतेऽब्दे। दृष्ट्वा श्लथं किमपि तत्तनयो गणेशः स्पष्टं यथा यकृत दृग्गणितैक्यमत्र ।।१।। क्षयः कार्त्तिकादित्रये नान्यतः स्यात् तदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं च।। १. सू०सि० विज्ञान भाष्य टीका श्लो० १४ पृ० १०७. २. सि०शि० गोलाध्याये मध्यमगति वासना-श्लो० १६. ३. सि०शि० मध्यमा० अधिमास निर्णय श्लो० ६। १. सुधाकर द्विवेदी द्वारा सि०त०वि० की टीका-मध्यमाधिकार श्लो० ५३ टिप्पणी में। २. सित० विवेक मध्यमाधिकार श्लो० ५३-५४ । २१७ २१६ ज्योतिष-खण्ड कथमपि यदिदं चेत् भूरिकाले श्लथं स्या न्मुहुरपि परिलक्ष्येन्दुग्रहावृक्षयोगम्। सदमलगुरुतुल्य-प्राप्तबुद्धिप्रकाशैः कथितसदुपपत्त्या शुद्धिकेन्द्रेप्रचाल्ये’ ।।२।। भावार्थ यह है कि केशव दैवज्ञ ने सूर्यसिद्धान्त ब्रह्मसिद्धान्त और आर्य सिद्धान्त इनकी गणना से मेल रखने वाला एक शुद्ध ग्रंथ बनाया। वह भी उनके पुत्र गणेश दैवज्ञ ने ६० वर्षों के बाद उनकी गणना में स्थूलता को देखकर स्वयं वेध करके दृग्गणितैक्य शुद्ध ग्रंथ का निर्माण किया। (१) __ काल क्रम के अनुसार गणेश दैवज्ञ कृत इस ग्रंथ (ग्रहलाघव) में जब स्थूलता आ जावेगी तब बृहस्पति के समान निर्मल बुद्धि वाले सुबुद्ध विद्वान लोग चन्द्र ग्रहण सूर्यग्रहण ग्रह नक्षत्र एवं इनकी युति आदि को भली भांति बार-बार देखकर पूर्वोक्त सिद्धान्तों में परिष्कार कर चालन आदि द्वारा उन्हें शुद्ध करें। (२) भास्कराचार्य ने सिद्धान्तशिरोमणि में स्पष्ट रूप से कहा है “यात्राविवाहोत्सवजातकादौ खेटैः स्फुटैरेव फलस्फुटत्वम्। स्यात्प्रोच्यते तेन नभश्चराणां स्फुटक्रिया दृग्गणितैक्यकृया" (सि०शि० स्पष्टा. श्लो० १) वस्तुतः ग्रहों की गणना किसी भी सिद्धान्त अथवा विधि से की जाये उसमें दृग्गणितैक्यता का होना परमावश्यक है। समस्त सिद्धान्तकारों एवं आचार्यों का यही मत रहा है। वशिष्ठ का वचन है। यस्मिन्पक्षे यत्र काले येनदृग्गणितैक्यकम्।। दृश्यते तेन पक्षेण कुर्यात्तिथ्यादिनिर्णयम् ।। (वशिष्ठ संहिता) अर्थात् जिस किसी के मत में, जिस काल में जिस गणित से दृष्टि और गणित का ऐक्य देख पड़े उस मत से तिथि आदि का निर्णय करें। अर्थात् तिथ्यादि का भोग उसी गणना से निकालें। ऐसा कोई भी ग्रंथ नहीं है, जिसकी गणना से आये हुये सभी ग्रह बेध सिद्ध हों। बार-बार ग्रहों का बेध करके उनमें और गणित में जो अन्तर देखने को मिलता है वही “बीज’ कहलाता है। इसीलिये सौर भाष्य में ब्रह्म सिद्धान्त का बचन है दृग्गणित संसाध्य स्पष्टतरं बीजं नलिकादियंत्रेभ्यः। तत्संस्कृतग्रहेभ्यः कर्त्तव्यौ निर्णयादेशौ ।। अर्थात् ज्योतिषी को चाहिये कि वह नलिकादि यंत्रों के द्वारा ग्रहों का वेध करके उसमें और गणित में जो “बीज’’ अर्थात अन्तर हो उसको स्पष्ट सिद्ध करके उसका ग्रहों में संस्कार करे। उन संस्कृत ग्रहों से ही तिथि आदि शुभाशुभ का निर्णय करे। ब्रह्मगुप्त ने अपने बाह्मस्फुट-सिद्धान्त के आदि में ही लिखा है ब्रह्मोक्तं ग्रहगणितं महता कालेन यत् खिलीभूतम्। अभिधीयते स्फुटं तज्जिष्णुसुतेन ब्रह्मगुप्तेन ।। (ब्राह्म स्फु० सिद्धा० मध्य० श्लो० २) अर्थात् साक्षात् ब्रह्माने जो ग्रहों का गणित कहा है कालक्रम से वह स्थूल हो गया है। इसलिये जिष्णुसुत ब्रह्मगुप्त उसी गणित को स्पष्ट अर्थात् जो अन्तर हो उसे दूर कर (उसे शुद्ध) कर प्रस्तुत कर रहे हैं। नृसिंहदैवज्ञ जिनका समय शक संवत् १५०८ है (गणक तंरङ्गिणी, सुधाकर द्विवेदी) ने जातक सारदीप नामक फलित ग्रंथ लिखा है। इनकी और भी अनेक रचनायें हैं। इस फलित ग्रंथ में दृक्पक्ष के विषय में अनेकों पक्ष प्रस्तुत किये हैं। इसमें एक अध्याय ही दृक्पक्ष से संबंधित है। उपर्युक्त विचारों से यह निर्धान्त स्पष्ट हो जाता है कि सूर्यसिद्धान्त, ग्रहलाघव, मकरन्द आदि ग्रंथों की दृश्य गणितीय प्रामाणिकता अपने-अपने काल विशेष में थी; किन्तु वर्तमान में उनकी प्रामाणिकता सैकड़ों वर्षों से उचित बीज संस्कार के अभाव में संदिग्ध हो गई। प्रत्येक सिद्धान्तकार ने गणनाओं में दृग्गणितैक्यता को ही स्वीकार किया है। वर्तमान में दृश्य एवं अदृश्य पक्षों के भेद से तिथ्यादिकों के मान में “सप्तवृद्धिदशक्षय’ एवं “वाणवृद्धिरसक्षय” का अन्तर मात्र बौद्धिक विवाद है। हमारी सृष्टि की संरचना ही इस प्रकार है कि एक कालावधि में सभी स्थानों पर एक मान से सूर्योदय का होना असंभव है। अतः दिनमान की भिन्नता रहती ही है। कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहां अत्यधिक दिनमान होता धर्मशास्त्रों का निर्माण उस काल में हुआ है, जिस समय सभी ऋषि कालातीत ज्ञान मुद्रा में निमग्न रहते थे। उन्हें समस्त काल में आने वाले भेद का ज्ञान था। अतः उनके निर्णय धर्मशास्त्रों में सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक हैं। उनके निर्णयों में “सप्तवृद्धिदशक्षय” एवं “वाणवृद्धिरसक्षय” की कहीं बाध्यता नहीं है। अतः धर्मशास्त्रीय निर्णयों में कालातिक्रम १. सुधाकर द्विवेदी कृत गणक तरंगिणी-गणेश दैवज्ञ परिचय २१८ ज्योतिष-खण्ड के अनुसार आने वाले परिवर्तनों के अनुकूल सभी प्रकार के मार्ग निर्दिष्ट हैं। उन्होंने अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा सभी प्रकार के परिवर्तनों को समझाया। यह श्रुति सम्मत है कि तिथि के ठीक-ठीक ग्रहण करने से अनुष्ठानों का फल भी कल्याणकारी होता है। तिथि की शुद्धता के लिये चन्द्रोदय प्रत्यक्ष प्रमाण है। संकष्ट चतुर्थी या चतुर्थी के दिन चन्द्रोदय का ठीक-ठीक समय पर मिल जाना ही तिथि की शुद्धता होती है। क्योंकि तिथियों से अमृत श्राव का संबंध है। वेदों में कहा गया है कि सूर्य की एक किरण चन्द्रमा को प्रकाशित करती है। वह सुषुम्णा नाम की रश्मि है- यथा अथाप्यस्यैको रश्मिश्चन्द्रमसं प्रतिदीप्यते। (निरुक्त-२।२।२) सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वः (शुव्य०सं० १८/४०) सुषुम्णः सुष्ठुमुखः अर्थात् अमृतस्वरूपं सुखम्। (दुर्गाचार्यवृत्तिः निरुक्ते २।२।२) इस प्रकार तिथि के ठीक ठीक गृहीत हो जाने से उनके द्वारा होने वाले अमृतश्राव के द्वारा इष्टफल की निश्चित सिद्धि होती है। __ अतः यह निर्धान्त सत्य है, कि दृक्प्रत्ययकारिता युक्त ग्रहों से ही ज्योतिष का वेदांगत्व सिद्ध होता है।