डॉ. मोहन गुप्त
वराहमिहिर
यच्छास्त्रं सविता चकार विपुलैः स्कन्धैस्त्रिभिज्योतिष तस्योच्छित्तिभयात् पुनः कलियुगे संसृत्य यो भूतलम्। भूयः स्वल्पतरं वराहमिहिर-व्याजेन सर्वं व्यधा दित्थं यं प्रवदन्ति मोक्षकुशलास्तस्मै नमो भास्वते।’ “विपुल तीन स्कन्धों से युक्त जिस ज्योतिष शास्त्र को भगवान भास्कर ने बनाया, कलियुग में उसमें विच्छेद न आ जाय, इस भय से सारी पृथ्वी का भ्रमण करके, वराह मिहिर रूपी सत्पात्र पाकर उसके व्याज से संक्षेप में जिन्होंने पूरा शास्त्र कह डाला, ऐसा जिनके बारे में मुमुक्षु जन कहते हैं उन भगवान् भास्कर को मेरा प्रणाम"।
१.१ ज्योतिष शास्त्र के भुवन दीपक सदृश आचार्य
वराह मिहिर के विषय में उनके प्रशस्त टीकाकार आचार्य भट्टोत्पल ने उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ बृहत्संहिता की टीका प्रारंभ करते समय ये विचार व्यक्त किये हैं। समुद्र की विशालता तथा गहराई को वास्तव में वही व्यक्ति समझ सकता है जिसने उसे पार किया हो। इसलिये यद्यपि आचार्य भट्टोत्पल की इस प्रशस्ति में कुछ अर्थवाद हो सकता है किन्तु आचार्य वराहमिहिर की जिस प्रतिभा का निदर्शन उनके ग्रन्थों से होता है, उस पर विचार कर यह यथार्थ ही लगता है। वराह मिहिर आधुनिक वैज्ञानिक ज्योतिष के आधार स्तम्भ हैं। उन्होंने ज्योतिष शास्त्र के तीनों स्कन्धों-सिद्धान्त होरा तथा संहिता पर प्रामाणिक तथा सांगोपांग ग्रन्थों की रचना की। वे भारतीय ज्योतिष के प्रकाश स्तम्भ हैं। उन्होंने ज्योतिष शास्त्र के अतीत पर प्रकाश डाला अन्यथा पैतामह तथा वासिष्ट जैसे अत्यन्त प्राचीन सिद्धान्त जो भारत में ज्योतिष के आविर्भाव की कहानी कहते हैं, विस्मृति के गर्त में चले जाते और विश्व के सन्दर्भ में ज्योतिर्विज्ञान के जनक के रूप में भारत की पहचान तिरोहित हो जाती। उन्होंने वर्तमान का शोधन किया। उनके समय के अनेकों पूर्वाचार्यों-प्रद्युम्न, विजयनन्दी, सिंहाचार्य, मणि, यवन, भद्रविष्णु, पादादित्य तथा आर्यभट आदि के मतों की समीक्षा की तथा अपने युग की ग्रहस्थिति को दृक्तुल्य बनाने के लिये मध्यम मान में बीज संस्कार दिये। गणित की प्रक्रिया को सरल तथा अधिक बोधगम्य बनाया एवं अनावश्यक बारीकियों को, जिनके न रहने से ग्रह गति स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता, प्रक्रिया से अलग किया। उसके स्थान पर सरलतर प्रक्रिया देकर भविष्य के लिये दैवज्ञों तथा गणकों का मार्ग प्रशस्त किया। यद्यपि १. बृहत्संहिता : वराह मिहिर, भट्टोत्पल की टीका सहित-वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय। सं० अवध बिहारी त्रिपाठी (शक १८६० सन् १६६८) पृ० १. १६० ज्योतिष-खण्ड आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान के आधार स्तम्भ के रूप में आचार्य आर्यभट का महत्व भी वराह मिहिर के समान ही है-वे वराह मिहिर से किंचित पूर्व के भी हैं, किन्तु उनका क्षेत्र गणित तथा सिद्धान्त ज्योतिष तक ही सीमित रहा जबकि वराह मिहिर ने तीनों स्कन्धों पर अपने विशाल सर्वांगपूर्ण ग्रन्थों की रचना करके अपनी मेधा की आर्ष विशालता का परिचय दिया। ज्योतिष शास्त्र के क्षेत्र में उनका अवदान, व्याकरण के क्षेत्र में महामति पाणिनि तथा अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आचार्य कौटिल्य के समकक्ष हैं। वे इतिहास के ऐसे मोड़ पर आये जब पिछली अनेक सदियों से विस्मृत, विछिन्न तथा विभ्रान्त ज्योतिष शास्त्र का उद्धार अपेक्षित था। ईस्वी पूर्व प्रथम शती की गर्ग संहिता के बाद से वराह मिहिर तक का काल ज्योतिष शास्त्र के विस्मरण का काल है। वराह मिहिर ने उसका उद्धार कर ठोस वैज्ञानिक धरातल पर उसे स्थापित किया।
१.२ जीवनवृत्त तथा काल
वराह मिहिर ने अपने विषय में अपने ग्रन्थों में कुछ विशेष नहीं लिखा। अतः आभ्यन्तर तथा आनुषंगिक प्रमाणों के आधार पर ही उनका जीवनवृत्त तथा काल उभरता है। अपने जातक ग्रन्थ बृहज्जातक में उन्होंने अपने पिता तथा जन्मस्थान के बारे में स्पष्ट संकेत दिया हैं वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका ‘कापित्याख्ये ग्रामे योऽसौ भगवान् सविता सूर्यस्तस्माल्लब्धः प्राप्तो वरः प्रसादो येन’ (कापित्थ ग्राम में जो भगवान सूर्य विराजते हैं, उनसे जिसने वरदान प्राप्त किया था)। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय ज्योतिष’ में भी ‘कापित्थक’ यही पाठ संग्रहीत किया है। केवल सुधाकर द्विवेदी ने अपने गणक तरंगिणी में ‘काम्पिल्लके’ पाठ लिया है और उसका अर्थ काल्पी नगर किया है जो उत्तरप्रदेश में है। किन्तु सन्दर्भ से यह स्पष्ट रूप से असंगत लगता है। श्लोक का ‘आवन्तिक’ शब्द इस बात का परिचायक है कि कापित्थक कहीं तो भी अवन्ती जनपद में ही होना चाहिये और आज वह उज्जैन से बीस कि०मी० दूर उज्जैन मक्सी रोड़ पर है भी। दूसरे भट्टोत्पल जो वराह मिहिर के शक ८८८ के टीकाकार हैं उन्होंने ‘कापित्थक’ यही पाठ स्वीकार किया है। इतनी प्राचीन प्रति के पाठ को अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं है। चौखम्बा वाराणसी द्वारा प्रकाशित प्रति में भी ‘कापित्थके’ यही पाठ है तथा उसका अर्थ उज्जैन के समीप एक ग्राम ही किया गया है। अतः ‘कापित्थक’ पाठ को ही शुद्ध पाठ स्वीकार किया जाना चाहिये। इस ग्राम का वर्तमान नाम ‘कायथा’ है जो ‘कापित्थक’ का ही अपभ्रंश हैं। इसके अतिरिक्त कुछ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध पुराविद् श्री वी०एस० वाकणकर के नेतृत्व में कायथा की खुदाई की गई थी। वहाँ एक अत्यन्त समृद्ध ताम्राश्मयुगीन सभ्यता के प्रमाण मिले तथा एक रथारूढ़ सूर्य की प्रतिमा भी मिली’ विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि यह वही सूर्य प्रतिमा है जिसकी उपासना वराह मिहिर किया करते थे। यह औदीच्य वेश में है जैसी कुशाणकालीन प्रतिमाएँ पाई जाती है। इससे तथा वराह मिहिर के नाम में स्थित ‘मिहिर’ शब्द से जो संस्कृत मित्र शब्द का प्रतिरूप है तथा सूर्य का वाचक है, यह अनुमान लगाया गया है कि वराह मिहिर शाकद्वीपीय ब्राह्मण थे। भट्टोत्पल ने भी उन्हें इसी रूप में स्वीकार किया है ‘तदयमप्यावन्तिकाचार्यों मगधद्विजो वराहमिहिरोऽर्कलब्धवरप्रसादः’। यहाँ मगद्विज का अर्थ मगदेशीय अर्थात् शाकद्वीपीय ब्राह्मण ही है। यहाँ पर मगद्विज के स्थान पर मगधद्विज पाठ प्रतिलिपिकार के प्रमादवश किया जान पड़ता है। सम्भावना यह है कि वराह मिहिर के पिता आदित्यदास जो स्वयं प्रसिद्ध ज्योतिर्विद रहे होंगे, उज्जैन के इस क्षेत्र में प्रसिद्धि सुनकर बालक वराहमिहिर के साथ उज्जयिनी के ‘कापित्थक’ ग्राम में आकर बस गये। वहाँ उन्होंने एक कापित्थक गुरुकुल की स्थापना की तथा बड़े होकर वराहमिहिर ने उज्जैन में आकर अपनी सारस्वत साधना की इसलिये उन्हें आवन्तिक कहलाने में गौरव का अनुभव हुआ। उज्जैन गुप्तकाल में न केवल एक समृद्ध तथा प्रसिद्ध आदित्यदासतनयस्तदवाप्तबोधः कापित्थके सवितृलब्धवरप्रसादः। आवन्तिको मुनिमतान्यवलोक्य सम्यक् होरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार।।’ ‘कापित्थक’ नामक नगर में भगवान सूर्य से वरदान प्राप्त करके, आदित्यदास के पुत्र अवन्तिकावासी वराह मिहिर ने, उन्हीं से विद्या प्राप्त करके तथा प्राचीन मुनियों के मतों का अवलोकन कर इस सुन्दर होरा शास्त्र (बृहज्जातक) को बनाया। इससे स्पष्ट है कि वे आदित्यदास के पुत्र थे तथा उन्हीं से उन्होंने ज्योतिष का प्रारंभिक ज्ञान भी प्राप्त किया था। वे अवन्तिका क्षेत्र के निवासी तथा कापित्थक ग्राम उनकी कर्मस्थली था। इस श्लोक में जो ‘कापित्थक’ शब्द आया है उसके कुछ पाठान्तर भी हैं तथा कुछ व्याख्यान्तर भी है। श्री के साम्बशिव शास्त्री द्वारा सम्पादित होरा शास्त्र में ‘कापिष्ठिल’ यह पाठ है। इसकी श्री रुद्रकृत व्याख्या के आधार पर ‘कापिष्ठिलः कपिष्ठिलगोत्रजात इत्यनेनाभिजन्म सूचितम्’ इसके अनुसार वे ‘कपिष्ठिल’ गोत्र के थे, यह व्याख्या की गई है। बम्बई से प्रसिद्ध ‘खेमराज श्री कृष्णदास’ मुद्रणालय से भट्टोत्पल की टीका सहित प्रकाशित कृति में ‘कापित्थके’ यही पाठ है। भट्टोत्पल ने इसकी इस प्रकार व्याख्या की है १. बृहज्जातक : वराह मिहिर, चौखम्बा संस्कृत सीरज ऑफिस वाराणसी १६७६ सं० पं० अच्युतानन्द झा २८/६, पृष्ठ ३२२. १. दी गोल्डन एज ऑफ मैथामेटिक्स इन इण्डिया, जी०एस० पाण्डेय, पृष्ठ ११. २. तत्रैव, पृष्ठ ६. १६३ १६२ ज्योतिष-खण्ड नगर था अपितु समूचे भारतवर्ष में विद्या का बहुत बड़ा केन्द्र था। ज्योतिर्विदाभरण की नवरत्नों की किवदन्ती जिनमें वराह मिहिर भी शामिल है, इसी का परिणाम हैं। __ कुछ विद्वान् उज्जैन को ही वराहमिहिर की जन्मस्थली मानते हैं, क्योंकि उन्होंने स्वयं आवन्तिक शब्द का प्रयोग किया हैं ‘मम मते तु ‘आवन्तिक’ इति विशेषणोपादानादनेनोज्जयिन्यस्य जन्मभूमिरासीत्। यथाऽऽर्यभटोक्ते-आर्यभट्टस्त्विह निगदति कुसुमपुरेऽभ्यर्चितं ज्ञानम्’ इत्यस्मिन् पद्ये ‘कुसुमपुरे’ इति शब्द प्रयोगेणार्यभटस्य जन्मभूरपि कुसुमपुरमेव विद्वद्भिः स्वीकृतम्।’ आचार्य वराह मिहिर के काल के विषय में ज्यादा विप्रतिपति नहीं है। उनके काल के विषय में दो सूत्र सम्यक् प्रकाश डालते हैं। एक तो ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ में गणना के प्रयोजन के लिए उन्होंने जो युगारंभ स्वीकार किया है वह शक ४२७ है ‘सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालपमास्य चैत्रशुक्लादौ। अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सोमदिवसाधः।। (पं० सि० १/८) ‘अहर्गण लाने के लिये वर्तमान शककाल में से ४२७ घटाएं तथा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा सोमवार से गणना करें।’ यह ग्रहस्थिति यवनपुर में अर्धास्त सूर्य के समय की होगी।’ चूंकि यह पद्य रोमक सिद्धान्त के सन्दर्भ में है अतः इसका स्थान ‘यवनपुर’ तथा समय अर्धसूर्यास्त लिया है। सौर सिद्धान्त के सन्दर्भ में उन्होंने उज्जयिनी मध्यरात्रि को युगारंभ माना है। दूसरा सूत्र उनके समय के विषय में ब्रह्मगुप्त के टीकाकार आमराज का यह वाक्य है वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका वर्ष उन्होंने नहीं लिये। अतः शक ४२७ का विशेष महत्व होना चाहिये। विद्वानों का यह अनुमान है कि या तो यह शक ४२७ पञ्चसिद्धान्तिका की रचना का वर्ष है या उनके जन्म का वर्ष । यदि जन्म का वर्ष मानें तो उनकी आयु ५०६-४२७=८२ वर्ष ठहरती है जो उचित है। यदि इसे पञ्चसिद्धान्तिका का रचनाकाल मानते हैं तो इतनी प्रौढ़ रचना के लिये कम से कम २५ वर्ष की आयु उस समय होना चाहिये। इस मान से उनका जन्म ४०२ शक में ठहरता है किन्तु इससे उनकी आयु १०७ वर्ष हो जायेगी जो असंभव तो नहीं किन्तु सन्दिग्ध लगती है। अतः कुछ विद्वान् उनका जन्म शक ४०२ और ४२७ के बीच ४१२ मानते हैं-‘इतिहासकारैः ४१२ शकासन्नकालोऽस्य निर्धारितः। स युक्तियुक्तः प्रतिभाति।’ . इसके सम्बन्ध में एक पोषक प्रमाण अलबरूनी का है। सन् १०३० में अलबरूनी ने लिखा है कि उसके समय से ५२६ वर्ष पहिले ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ लिखी गई। इससे वही ४२७ शक की तिथि आती है। निश्चय ही यह भी उसका अनुमान ही है जो उस करण ग्रन्थ के युगारंभ पर आधारित है। अतः शक ४२७ को ही आचार्य का जन्म मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये क्योंकि आधारहीन अनुमानों की अपेक्षा तो एक स्पष्ट उल्लिखित तिथि को स्वीकार करना ज्यादा तर्कसंगत है। ४१२ शक जन्म मानने पर शक ४२७ में उनकी आयु १५ वर्ष ही रहती है और इस आयु का बालक पञ्चसिद्धान्तिका जैसे प्रौढ़ ग्रन्थ की रचना नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त वराह मिहिर ने ‘आर्यभट’ का उल्लेख अपनी पञ्चसिद्धान्तिका में आलोचनापूर्वक किया हैं ‘लंकार्धरात्रसमये दिनप्रवृत्तिं जगाद चार्यभटः। भूयः स एव सूर्योदयात्प्रभृत्याह लङ्कायाम् ।। (पं० सिं० १५.२०)२ आर्यभट का काल शक ४२१ है। उनके ग्रन्थ तथा उनके पश्चात्वर्ती औदयिक सिद्धान्त की पर्याप्त प्रसिद्धि होने पर वराह मिहिर ने उक्त टिप्पणी की होगी। अतः आर्यभट से किंचित् पश्चात्वर्ती मानकर वराह मिहिर का जन्म शक ४२७ मानना ही समीचीन होगा। पञ्चसिद्धान्तिका की रचना उन्होंने शक ४५२ के आसपास की होगी। एक और महत्वपूर्ण आभ्यन्तर प्रमाण उनके काल के विषय में उनकी रचना ‘वृहत्संहिता’ में है। उसके शाकुनाध्याय में औलिकर शासक द्रव्यवर्धन का आवन्तिक नृपति के रूप में अत्यन्त स्पष्ट उल्लेख हैं भारद्वाजमतं दृष्ट्वा यच्च श्रीद्रव्यवर्धनः। आवन्तिकः प्राह नृपो महाराजाधिराजकः।। (बृ. सं. ८६/२) ‘नवाधिकपंचशतसंख्यशाके वराहमिहिराचार्यों दिवं गतः। ‘शक ५०६ में वराह मिहिराचार्य स्वर्ग को सिधारे’।। अतः मोटे तौर पर शक ४२७ से शक ५०६ तक का काल मिहिर का है। अपने करण ग्रन्थ में कोई भी ज्योतिर्विद अपने जीवनकाल के किसी महत्वपूर्ण वर्ष को लेता है जो ज्योतिष के प्रयोजन के लिये भी ठीक हो। शक ४२७ में मध्यम सूर्य की मेष संक्रान्ति चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही हैं। अतः यह वर्ष गणना के लिये उपयुक्त था। यों मध्यम मेष संक्रान्ति चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के आसपास शक ४१६ तथा शक ४३८ को भी है, किन्तु ये १. बृहत्संहिता (सं० १. उद्धृत) की ‘भूमिका’ द्वारा अवध बिहारी त्रिपाठी, पृ० १३. २. पञ्चसिद्धान्तिकाः वराह मिहिर, अंग्रेजी अनुवाद तथा टिप्पणी सहित सं० टी०एस० कुप्पन्न शास्त्री तथा के०वी० शर्मा, पी०पी०एस०टी० फाउण्डेशन अड्यार मद्रास, १६६३ पृ० ६. ३. भारतीय ज्योतिष : शंकर बालकृष्ण दीक्षित, हिन्दी संस्करण अनु शिवनाथ झारखण्डी, उत्तर प्रदेश हिन्दी समिति लखनऊ, तृतीय संस्करण, १६७५, पृष्ठ २६०, ४. तत्रैव, पृष्ठ २६१. १. बृहत्संहिता, सं. ५ में उद्धृत ‘अवतरिका’, पृष्ट १४. २. दी गोल्डन एज आफ मैथामेटिक्स इन इण्डिया; सं. ३ में उद्धृत, पृष्ठ १०. ३. पञ्चसिद्धान्तिका (सं. ६ में उद्धृत) पृष्ठ २८८. ४. बृहत्संहिता (सं. १ में उद्धृत) पृष्ठ ८६४. १६५ ज्योतिष-खण्ड - इसकी भट्टोत्पल कृत टीका इस प्रकार हैं यच्च शाकुनं भारद्वाजाख्यस्य मुनेर्मतं दृष्ट्वावलोक्य श्रीद्रव्यवर्धनाख्यो महाराजाधिराजवंशप्रसूत आवन्तिक उज्जयिन्या नृपो राजा प्राहोक्तवान्। ‘जिस शकुन शास्त्र को भारद्वाज नामक ऋषि के मत का अवलोकन कर उज्जयिनी के राजा महाराजाधिराज श्री द्रव्यवर्धन ने कहा था (उसे मैं कहता हूँ)।’ इसमें औलिकर नृपति द्रव्यवर्धन का निर्धान्त उल्लेख है। द्रव्यवर्धन का कार्यकाल वी०वी० मिराशी ४६५-५१५ ई० (शक ४१७ से ४३७) मानते हैं, बुद्धप्रकाश ५३० ई० (शक ४५२) तथा श्यामसुन्दर मिगम ४६१-५१५ (शक ४१३ से ४३७) मानते हैं। अतः वराह मिहिर जो द्रव्यवर्धन के किंचित् पश्चात्वर्ती प्रतीत होते हैं, उनका काल शक ४२७ से ५०६ (ई० ५०५ से ५८७) उचित ही हैं। द्रव्यवर्धन का काल इस अवधि के बीच ही है।
१.३ वराह मिहिर की रचनाएँ
(अ) प्रमुख रचनाएँ-१. पञ्चसिद्धान्तिका २. वृहज्जातक ३. वृहत्संहिता। (ब) गौण रचनाएँ-१. लघुजातक २. जातकार्णव ३. समास संहिता ४. योग यात्रा ५. विवाह पटल। कुछ अन्य ग्रन्थ जैसे ‘विवाह खण्ड’, ‘ढिकनिक यात्रा, ‘ग्रहणमण्डलफलम’, ‘पंचपक्षी’, ‘दिक्किनी यात्रा’ भी वराह मिहिर के नाम से पाये जाते हैं। किन्तु उनके आभ्यन्तर परीक्षण से विद्वानों को उनके वराहमिहिर के ग्रन्थ होने में सन्देह है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने अपने ग्रन्थ ‘भारतीय ज्योतिष’ में वराह मिहिर के ये ही ग्रन्थ माने हैं। उसमें केवल जातकार्णव का उल्लेख नहीं है। किन्तु वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित ‘बृहत्संहिता’ की भूमिका में सम्पादक श्री अवधबिहारी त्रिपाठी ने इस ग्रन्थ के अस्तित्व के विषय में निश्चयात्मक रूप से लिखा है ‘श्री-शंकर-बालकृष्ण-दीक्षितेन ‘भारतीय ज्यौतिषे’ वराहस्य “पञ्चसिद्धान्तिका" एव करणग्रन्थ इति यन्मतमुपन्यस्तम् तज्जातकार्णवदर्शनेनापास्तं भवति। वराहस्य पञ्चसिद्धा-न्तिकातिरिक्तः करणग्रन्थो जातकार्णवो नेपालदेशीय काठमण्डूस्थ वीरपुस्तकालये वर्तते। इससे स्पष्ट है कि ‘जातकार्णव’ नाम का एक और करण ग्रन्थ वराहमिहिर का नेपाल के काठमाण्डू नगर के वीर पुस्तकालय में हैं। वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका वराह मिहिर ने अपने इन ग्रन्थों के पौर्वापर्य का संकेत भी इन ग्रन्थों में दिया हैं। अपनी ‘बृहत्संहिता’ के पहिले ही अध्याय में उन्होंने लिखा हैं वक्रानुवक्रास्तमयोदयाद्यास्तारा-ग्रहाणां करणे मयोक्ताः। होरागतं विस्तरतश्च जन्म-यात्राविवाहैः सह पूर्वमुक्तम्।।’ (बृहत्संहिता सं. १/१०) ‘ग्रहों के वक्रत्व, मार्गत्व, उदयास्त तथा तारा-ग्रहों के स्फुटीकरण आदि विषयों को मैंने अपने करण ग्रन्थ (पञ्चसिद्धान्तिक) में बतलाया है। और जन्म संबंधित जातक शास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया है एवं उसके साथ यात्रा तथा विवाह सम्बधी ग्रन्थ भी लिखे हैं। इससे स्पष्ट है कि बृहत्संहिता से पूर्व उनके ग्रन्थ ‘पञ्चसिद्धान्तिका’, बृहज्जातक, योगयात्रा और ‘विवाह पटल’ लिखे जा चुके थे। इनमें भी ‘विवाह पटल’ तथा ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ बृहज्जातक के पूर्व के हैं, क्योंकि बृहज्जातक उपसंहाराध्याय में वे स्वयं लिखते हैं-‘विवाहकालः करणं ग्रहाणां प्रोक्तं पृथक् तद् विपुला च शाखा।। (२८/६) _ ‘योग यात्रा’ का प्रणयन बृहज्जातक के बाद का हैं। ‘लघुजातक’ और ‘समाससंहिता’ अपने बृहत् स्वरूपों-‘बृहज्जातक’ तथा ‘बृहत्संहिता’ के संक्षिप्त रूप हैं-विषय में प्रवेश करने वाले अध्येताओं के लिये। संस्कृत वाङ्मय में इस प्रकार विशाल ग्रन्थों के लघु संस्करण बनाने की परम्परा रही है जैसे ‘सिद्धान्त कौमुदी’ की ‘लघु सिद्धान्त कौमुदी’, ‘बृहत्पाराशर होताशास्त्र’ की ‘लघु पाराशरी’ आदि।
१.४ ग्रन्थों में प्रतिपादित विषय
‘बृहज्जातक’ जैसा कि उसके नाम से ही स्पष्ट है, उसमें व्यक्तियों के जन्म के आधार पर जो ग्रह स्थिति होती है उसके फल का निरूपण है। इसी को ‘जातक’ या ‘होरा शास्त्र’ कहते हैं। इसमें आचार्य ने संबंधित सभी विषयों का समावेश किया है जैसे राशि प्रभेद, ग्रहभेद, वियोनिजन्म, निषेक, सूतिका, अरिष्ट, आयुर्दाय, दशान्तर्दशा, अष्टकवर्ग, कर्माजीव, राजयोग, नाभसयोग, ऋक्षशील, राशिशील, भावफल आश्रमयोग, अनिष्ट स्त्रीजातक तथा नष्ट जातक आदि। आचार्य की विशेषता यह है कि उन्होंने इस ग्रन्थ में पूर्वाचार्यों के मतों की समीक्षा की है तथा अपना निर्धान्त मत स्थापित किया है। उनसे समय तक यवन देशों से भारतवर्ष का गहन सांस्कृतिक सम्बन्ध हो गया था और इस आदान-प्रदान के फलस्वरुप जो ज्ञान यवनों से प्राप्त हुआ उसका भी उन्होंने उपयोग किया है तथा उनकी शब्दावली का भी प्रयोग किया है। यावनी भाषा की बारह राशियों के नाम उन्होंने बृहज्जातक में इस प्रकार दिये हैं १. ए रिएप्रेजल ऑफ औलीकर हिस्ट्री इन द लाइट ऑफ नैगमकुल : डॉ० श्याम सुन्दर निगम : दी बाउन्टियस ट्री : ट्रेजर्स इन इण्डियन आर्ट एण्ड कल्चरः के०के० चक्रवर्ती, पृष्ठ ३५१. २. भारतीय ज्योतिष : शंकर बालकृष्ण दिक्षित (संख्या ७ में उद्धृत) पृष्ठ २६३-२६४. ३. बृहत्संहिता, अवतरिका (संख्या ५ में उद्धृत), पृष्ठ १४. १. बृहत्संहिता (सं. १ में उद्धृत), पृष्ठ ११. २. बृहज्जातक (सं. २ में उद्धृत) पृष्ट ३२०. __१६७ ज्योतिष-खण्ड ‘क्रिय तावुरि जितुम कुलीर लेय पाथोन जूक कौाख्याः। तौक्षिक आकोकेरो हृद्रोगश्चान्त्यभश्चेत्थम्।।’ (बृ०जा० १/८) _ अर्थात् मेष = क्रिय, वृषभ = तावुरि मिथुन = जितुम, कर्क = कुलीर, सिंह = लेय, कन्या = पाथोन, तुल = जूक, वृश्चिक = कौM, धनु = तौक्षिक, मकर = आकाकेर, कुम्भ = हृद्रोग, मीन = अन्त्यभ। इनमें कुछ राशियों का मूल यूनान प्रतीत होता है, जैसे तावुरि = ताउरस, जितुम = जेमिनि, कुलीर = कैंसर, लेय = लियो तथा कौH = स्कोर्पियो किन्तु कुम्भ तथा मीन के लिये हृद्रोग तथा अन्त्यभ ये नाम भारतीय मूल के ही प्रतीत होते हैं। शेष नाम अन्य प्राचीन भाषाओं के मूल के प्रतीत होते हैं। . वराह मिहिर की दशा अन्तर्दशा पद्धति प्रचलित पाराशरी पद्धति से भिन्न है जिसमें विंशोत्तरी या अष्टोतरी परमायु के आधार पर दशाओं का निर्णय किया गया है। वराह मिहिर की दशा पद्धति क्लिष्ट तथा अनिश्चित हैं। इसमें दशाओं का क्रम भी निश्चित नहीं हैं तथा ग्रहों के बलाबल के आधार पर तय किया जाता है। जन्मपत्र से यह निर्धारित करना इतना सरल नहीं होता कि अपेक्षाकृत कौन सा ग्रह अधिक बली है। इसका दशाक्रम इस प्रकार बताया गया है १. लग्न, रवि, चन्द्र इन तीनों में जो अधिक बलवान हो पहिले उनकी दशा होती है। २. फिर उसके बाद जो चार केन्द्र स्थान हैं उनमें स्थित ग्रहों की दशा होती है। यहाँ भी पौर्वापर्य बलाबल के आधार पर होता है। ३. फिर उसके बाद मध्यवय में प्रथम दशाप्रद से पणफर स्थित ग्रहों की दशा होती है। ४. उसके बाद अन्तवय में प्रथम दशाप्रद से आपोक्लिम में स्थित ग्रहों की दशा होती है। यदि केन्द्र या पणफर में कोई ग्रह न हो तो प्रथम और मध्य वय में फल नहीं होता। किन्तु इस स्थिति में अन्त वय में आपोक्लिम स्थान स्थित ग्रहों की ही दशा होती है। दशाओं के वर्ष वे ही होते हैं जितना ग्रह का आयुर्दाय होता है। यह दशापद्धति यवन देशों से प्राप्त प्रतीत होती है तथा ज्योतिर्विदों के अनुभव पर खरी न उतरने एवं अपनी क्लिष्टता के कारण विद्वानों में समादृत नहीं हो सकी। आचार्य ने बृहज्जातक में आयुर्दाय, निषेक, अरिष्ट, स्त्रीजातक तथा नष्टजातक से संबंधित कुछ अद्भुत बातें लिखी हैं जो फलित ज्योतिष के लिये बहुत उपयोगी है। दशापद्धति को छोड़कर सम्पूर्ण ग्रन्थ का आज भी विद्वानों में बहुत समादर है। ‘बृहत्संहिता’ जीवनोपयोगी व्यावहारिक ज्ञान का महासागर है। आचार्य ने स्वयं कहा वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका ज्योतिः शास्त्रमनेकभेदविषयं स्कन्धत्रयाधिष्ठितं तत्कात्स्योपनयस्य नाम मुनिभिः संकीर्त्यते संहिता’।। (बृह० सं० १/६) ‘स्कन्धत्रयात्मक ज्योतिष शस्त्र के अनेक भेद हैं। किन्तु जिसमें उन सबकी सम्पूर्णता है, उसे मुनियों ने संहिता कहा है।’ यह ग्रन्थ ज्ञान विज्ञान की सबसे अधिक श्रीवृद्धि करने वाला तथा लोक का सर्वाधिक उपकार करने वाला ग्रन्थ है। इसमें कुल १०७ अध्याय हैं। इनमें सूर्यादि ग्रहों के चार, धूमकेतुओं के लक्षण तथा प्रभाव, सप्तर्षियों के उदयादि, नक्षत्रव्यूह, सांवत्सरिक फल, पर्जन्य गर्भ लक्षण, भूमि में जल ज्ञात करने की विधि, भूकम्प, अर्घकाण्ड, वास्तु, प्रतिमालक्षण, उत्पात, वृक्षायुर्वेद, विभिन्न पशु पक्षियों के लक्षण, अंगविद्या, शकुन आदि अनेक लोकोपयोगी विषयों का समावेश हैं। इसका कूर्मचक्राध्याय अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें बृहत्तर भारतवर्ष के ६ विभाग मानकर उन विभागों तथा तदन्तर्गत देशों को एक नक्षत्र के आधिपत्य में माना है १. भद्र, मरू, मत्स्य, पांचाल, कृत्तिकादि तीन नक्षत्र अर्थात् कृत्तिका, हस्तिनापुर आदि मध्यदेश रोहिणी, मृगशिरा। | २.| माल्यवान्, सुहम मगध, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य। प्राग्ज्यौतिष क्षीरोद समुद्र आदि पूर्व के देश ३. कौशल, कलिंग, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी। वंग विदर्भ आदि आग्नेय देश लंका, मलय, दुर्दुर, महेन्द्र पर्वत, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा। केरल कर्णाट आदि दक्षिण के देश ५. पहलव, काम्बोज, सिन्धु सौवीर | स्वाति, विशाखा, अनुराधा। आदि नैऋत्य देश मणिमान् अस्तागोरे अपरान्तक आदि | ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा। पश्चिम दिशा के देश माण्डव्य, भद्र, मरूकच्छ आदि उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा। वायव्य देश | कैलाश, हिमवान् क्रौंच, मेरू, शतभिषा, पूर्वाभाद्रापद, उत्तराभाद्रपद। उत्तर कुरु, कैकय आदि उत्तर के देश ६. कश्मीर, किरात, चीन, गन्धर्व देश आदि | रेवती, अश्विनी, भरणी। ईशान कोण के देश १. तत्रैव, पृष्ठ १३. २. तत्रैव, पृ० १४६-१४७. १. बृहत्संहिता (सं० १ में उद्धृत), पृ० १०. वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १६६ ‘इन सात मुनियों के द्वारा उत्तर दिशा नाथवती सुन्दरी सी प्रतीत होती है जिसने एकावली हार पहन रखा है तथा श्वेत रत्नों की माला पहने हुए मानों मुस्करा रही है।’ बृहत्संहिता का ही संक्षिप्त स्वरूप ‘समास-संहिता’ होना चाहिये। उसका ज्ञान हमें भट्टोत्पल की टीका में उद्धृत उसके वचनों से होता है। लघुजातक स्पष्ट ही बृहज्जातक का संक्षिप्त रूप है। योगयात्रा राजाओं के अभियान हेतु उपयुक्त मुहूर्तों का संग्रह तथा विवरण है। विवाह पटल भारतीयों के इस अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्कार का सांगोपांग मार्गदर्शक निरूपण है। यह भी मुहूर्त ग्रन्थ ही है। ‘जातकार्णव’ की प्रति केवल नेपाल में उपलब्ध है। किन्तु उसके विषय में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह ऐसा ग्रन्थ है जिसमें ज्योतिष के तीनों स्कन्धों का समावेश रहा होगा क्योंकि बृहत्संहिता के एक श्लोक में आचार्य ने कहा है १६८ ज्योतिष-खण्ड _ इसके अतिरिक्त आग्नेय आदि नव वर्गों में क्रमशः पांचाल, मगध, कलिंग, अवन्ती, आनर्त, सिन्धु सौवीर, हारहौर, भद्र तथा कालिन्द देशों को भी रखा गया है।’ इसके अतिरिक्त तत्कालीन ‘जनों’ का अत्यन्त उपयोगी सन्दर्भ इस महाग्रन्थ में है। अपरान्तक, कुकुर, कोटिवर्ष, शूलिक इत्यादि लगभग ६५ प्रकार के ‘जनों’ का उल्लेख इस ग्रन्थ में है जो तत्कालीन मानवभूगोल का एक दुर्लभ आकर है। नक्षत्र व्यूहाध्याय में प्रत्येक नक्षत्र के प्रभाव में कौन-कौन वस्तु तथा कौन-कौन से आजीवक हैं यह वर्णन है। स्त्री प्रशंसा में एक पूरा अध्याय लिखा गया है ब्राह्मणाः पादतो मेध्याः गावो मेध्याश्च पृष्ठतः। अजाश्वा मुखतो मेध्याः स्त्रियो मेध्यास्तु सर्वतः ।। (बृ० सं० ७३/८) ‘ब्राह्मण चरणों से पवित्र होते हैं, गायें पृष्ठ भाग से पवित्र होती हैं, बकरी तथा घोड़े मुख से पवित्र होते हैं किन्तु स्त्रियाँ सब ओर से पवित्र होती हैं। रत्नपरीक्षा, अन्तःपुर विवरण तक इस ग्रन्थ में है। उपयोगी मानवीय ज्ञान विज्ञान का यह विश्वकोष सदृश ग्रन्थ हैं।
१.५ भाषा तथा साहित्यिक सौष्ठव।
बृहत्संहिता में आचार्य की कवित्व शक्ति, भाषासमृद्धि तथा साहित्य सौष्ठव भी दर्शनीय है। आचार्य ने बृहत्संहिता में साठ प्रकार के छन्दों का सफल सार्थक प्रयोग किया है, जो किसी भी प्रतिष्ठित महाकवि के लिये भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है। इनमें न केवल प्रचलित शिखरिणी, बसन्ततिलका, उपजाति, मन्दाक्रान्ता, वंशस्थ, भुजंग-प्रयात, द्रुत विलम्बित, शार्दूल विक्रीड़ित, मालिनी आदि छन्द हैं अपितु सत्रह रगण विशिष्ट समुद्रदण्डाक नामक अत्यप्लज्ञात गद्यगन्धी पद्य का भी प्रयोग उन्होंने किया है। छन्दों संबंधी उनकी बहुविध छटा के दर्शन ग्रहगोचराध्याय में होते हैं, जहां गोचर फल के साथ उन्होंने छन्द का लक्षण भी दिया है। उनकी भाषा सरल प्रसाद-गुणयुक्त होने पर भी अत्यन्त प्रौढ़ है। उन्होंने सन्नन्त प्रयोग-बिभक्षयिषु, यङन्त प्रयोग पेपीयते, जेगीयते बोभुज्यते इत्यादि तथा यङ्लुगन्त-नरीनर्ति आदि का भी प्रयोग किया है। उनकी उत्प्रेक्षाएँ हृदयग्राही हैं तथा उपमाएँ मनोहारिणी हैं। सप्तर्षिचार अध्याय का पहला श्लोक जिसमें सप्तर्षियों को एकावली हार की उपमा दी गई है। अन्यन्त मनोहारी है युद्धं यथा यदा वा भविष्यमादिश्यते त्रिकालज्ञैः। तद्विज्ञानं करणे मया कृतं सूर्यसिद्धान्तात्’ ।। (बृ० सं० १७/१) यद्यपि भट्टोत्पल की सुधाकर-संशोधित टीका में इस श्लोक में पञ्चसिद्धान्तिका का संकेत बताया गया है किन्तु वह समीचीन नहीं जान पड़ता। ‘सूर्यसिद्धान्ते’ पाठ लेने पर करण ग्रन्थ का नाम ही सूर्यसिद्धान्त हो जायेगा। किन्तु पञ्चसिद्धान्तिका को सूर्य सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता। उसमें पुलिश सिद्धान्त का वर्णन सौर से ज्यादा है तथा सौर सिद्धान्त के नाम से वर्णित अध्यायों में ग्रहयुद्धाध्याय भी नहीं है मध्यम मान, स्पष्टमान, सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण ये चार ही अध्याय उसमें हैं। अतः ‘सूर्यसिद्धान्ते’ पाठ की अपेक्षा ‘सूर्यसिद्धान्तात्’ पाठ ही उपयुक्त है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने यही पाठ लिया है। ऐसी स्थिति में यह सन्दर्भ पञ्चसिद्धान्तिका से अतिरिक्त किसी अन्य करण ग्रन्थ का प्रतीत होता है, मेरे मत से यह संकेत ‘जातकार्णव’ की ओर है जो उनका एक अन्य ‘करण ग्रन्थ’ है। आचार्य की समास-कथन की प्रवृत्ति तथा ‘जातकार्णव’ नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि इस एक ग्रन्थ में आचार्य ने सम्पूर्ण ज्योतिश्शास्त्र को समाहित किया है- जातक, सिद्धान्त संहिता।
२. वराह मिहिर का ज्योतिःशास्त्र को अवदान
जैसा कि पहिले कहा जा चुका है आचार्य आर्यभट्ट प्रथम तथा आचार्य वराह मिहिर इतिहास के ऐसे मोड़ पर आये जब यह शास्त्र विस्मरण के गर्त में डूब रहा था तथा विज्ञान एवं अन्धविश्वास मिलकर इस शास्त्र की विश्वसनीयता को ही संकट में डाल रहे थे। आर्यभट्ट ने गणित स्कन्ध को ठोस आधार प्रदान किया तथा आचार्य वराह मिहिर ने तीनों ही स्कन्धों को वैज्ञानिक आधार पर सैकावलीव राजति ससितोत्पलमालिनी सहासेव। नाथवती च दिग् यैः कौबेरी सप्तभिर्मुनिभिः ।। (बृ० सं० १३/१) १. ४. तत्रैव, पृ० २५६ से २६८, २. तत्रैव पृ० ८२१, ३. तत्रैव, पृ० २४७ (१२/६) तत्रैव, पृ० २५४. १. तत्रैव, पृ० २६०.ज्योतिष-खण्ड १७० १७१ प्रतिष्ठित किया और पूर्व आचार्यों के अवदान को संग्रहीत कर सुरक्षित किया। संक्षेप में उनके द्वारा प्रतिपादित विशिष्ट सिद्धान्त तथा प्रक्रियाएं इस प्रकार हैं। १. शास्त्रोक्त उत्तरायण/दक्षिणायन का परीक्षण आश्लेषाद्दक्षिणमुत्तरमयनं रवेर्धनिष्ठार्यम् । नूनं कदाचिदासीत् येनोक्तं पूर्वशास्त्रेषु।। साम्प्रतमयनं सवितुः कर्कटकाद्यं मृगादितश्चान्यत्। उक्ता भावो विकृतिः प्रत्यक्ष-परीक्षणैर्व्यक्तिः ’ ।। (बृ० सं० ३/१) ‘पूर्व शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि किसी समय सूर्य का दक्षिण गमन आश्लेषा के आधे भाग से होता था तथा उत्तर गमन धनिष्ठा के आदि से। किन्तु इस समय (वराह मिहिर के समय) सूर्य का दक्षिणायन कर्क राशि के प्रारंभ से तथा उत्तरायण मकर राशि से होता है। यह जो अभाव है वह एक विकृति है जो प्रत्यक्ष परीक्षण से स्पष्ट है।’ इसमें आचार्य ने तत्कालीन सूर्य के दक्षिणायन/उत्तरायण गमन की वास्तविक स्थिति बतलाई है। किन्तु इसे वे विकार कहते हैं जिससे स्पष्ट है कि उस समय उन्हें अयनचलन का ज्ञान नहीं था क्योंकि उस समय अयनांश शून्य था। २. ब्रह्माण्ड में पृथ्वी की स्थिति पंचमहाभूतमयस्तारागणे महीगोलः। खेऽयस्कान्तस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः।। (पं० सि० १३-१) ‘इस तारागण के मध्य में पंचमहाभूतात्मक पृथ्वी का गोला आकाश में उसी प्रकार स्थित है जिस प्रकार चारों ओर से चुम्बक लगे घेरे में लोह’। उन्होंने पृथ्वी को शून्य में अधर लटका हुआ माना क्योंकि चारों ओर से गुरुत्वाकर्षण से वह टिकी है। किन्तु वे पृथ्वी को स्थिर मानते थे। घूमती हुई नहीं। ३. दक्षिण ध्रुव पर मनुष्य उल्टा लटका हुआ रहता है किन्तु अपने को सीधा समझता है। सलिलतटासन्नानाम् अवाङ्मुखी दृश्यते यथा छाया। तद्वद्गतिरसुराणां मन्यन्ते तेऽप्यधो विवुधान् ।। (पं० सि० १३/२) ‘नदी या तालब कि किनारे खड़े हुए व्यक्ति की छाया जिस प्रकार नीचे मुख तथा ऊपर पैर किये दिखती है, दक्षिण ध्रुव पर रहने वाले असुरों की वही गति है। वे उत्तर ध्रुव के देवताओं को भी वैसा ही मानते हैं अर्थात् नीचे शिर तथा ऊपर पैर।’ वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका ४. पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त गगनमुपैति शिखि-शिखा क्षिप्तमपि क्षितिमुपैति गुरुः किंचित्। तद्वदिह मानवानामसुराणां तद्वदेवाधः’ ।। (पं०सि० १३/४) अग्नि चूंकि वायवीय तत्व है (वह वायु से ही उत्पन्न है) अतः अग्नि की शिखा आकाश की ओर जाती है। उसी प्रकार कोई भी पार्थिव तत्व जो जरा भी भारी हो पृथ्वी की तरफ आता हैं यही यहाँ मनुष्यों की स्थिति है। उसी प्रकार नीचे (दक्षिण ध्रुव में) वही असुरो की स्थिति है। (वे आकाश में गिरते नहीं, पृथ्वी से चिपके रहते हैं भले ही यहां की अपेक्षा से वे अधोमुख हैं)। ५. पृथ्वी स्थिर है, तारामण्डल प्रवह वायु के द्वारा घूमता है। तत्र निबद्धो मरुता प्रवहेन भ्राम्यते भगणः। भ्रमति भ्रमिस्थितेव क्षितिरित्यपरे वदन्ति नोडुगणः।। यद्येवं श्येनाद्याः न खात्पुनः स्वनिलयमुपेयुः। (पं०सि० १३-५,६) ‘यह नक्षत्र चक्र प्रवह वायु से आबद्ध होकर घूम रहा हैं कि चक्र पर स्थित के समान पृथ्वी घूमती है। यदि ऐसा होता तो श्येन आदि पक्षी आकाश से पुनः अपने घोंसलों को नहीं लौट पाते। आचार्य पृथ्वी के घूमने के सिद्धान्त के विरोधी थे। जबकि आर्यभट्ट ने यह स्थापित किया कि पृथ्वी घूमती है, नक्षत्र चक्र नहीं। ६. सूर्य की परम उत्तरा क्रान्ति २४° थी तथा उस समय सूर्य उज्जैन के ऊपर घूमता था। ‘मिथुनान्ते च कुवृत्तादंश-चतुर्विंशतिं विहायोच्चैः। भ्रमति हि रविरमराणां समोपरिष्टात्तदावन्त्याम् ।। (पं० सि० १३-१०) जब सूर्य मिथुन के अन्त में अर्थात् कर्क राशि में प्रवेश करता है, उस समय विषुवत् रेखा से २४° ऊपर सूर्य उत्तरी गोलार्ध में अवन्तिका के ऊपर घूमता है। यह इस बात का द्योतक है कि उस समय उज्जैन कर्क रेखा पर था तथा सूर्य उज्जैन के खमध्य में आकर दक्षिण की ओर लौटता था। ७. पृथ्वी की परिधि का परिमाण ३२०० योजन माना तथा पृथ्वी के चतुर्थाशके ६० विभाग किये। अतः ६०° त्र ८०० योजन, १० = = योजन, उज्जैन से सुमेरु की दूरी ५८६ - योजन। १. तत्रैव, पृ० ७६, २. २. पञ्चसिद्धान्तिका (सं० ६ में उद्धृत) पृ० २४८. ३. तत्रैव, पृ० २४८. १. तत्रैव, पृ० २४८ २. तत्रैव, पृ० २४६ ३. तत्रैव, पृ० २४६ १७२ ज्योतिष-खण्ड वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १७३ ‘योजन-शतानि भूमेः परिमाणं षोडश द्विगुणितानि’ (पं० सि० १३-१८) ‘भूमि का परिमाण सोलह का दुगुना अर्थात् ३२ सौ योजन है।’ ‘षडशीतिं पंचशतीं त्रिभागहीनं योजनं च गत्वा। क्षितिमध्यमुदगवन्त्या लंकाया योजनाष्टशतीम् ।। (पं० सि० १३-१६) ‘उज्जयिनी से ५८६ - योजन उत्तर की ओर जाने पर उत्तर ध्रुव की पृथ्वी का मध्य भाग मिलेगा तथा वही स्थान लंका से ८०० योजन है।’ उज्जैन से उत्तर ध्रुव की दूरी ६०-२.१ = ६६° है। अतः ६०० - ८०० योजन . . ६६४८०० = १७६० - . लंका विषुवत् रेखा पर होने से उसकी दूरी ६०° = ८०० योजन है। भूमि की परिधि का आचार्य का यह मान सूर्य सिद्धान्त से भिन्न है। वहां भूमि का परिमाण ‘योजनानि शतान्यष्टौ भूकर्णो द्विगुणानि तु। तद्वन्तो दशगुणात् पदं भूपरिधिर्भवेत्।। (सू०सि० १/५६) पृथ्वी का व्यास ८०० x २ योजन है। उसके वर्ग के दशगुने का वर्गमूल भूपरिधि होता है। 1१६००२४१० = १६०००/१० = ५०५६६४ योजन यहाँ ८ का मान १० बताया गया है। ८. सूर्य तथा राशियों का दृश्यादृश्यत्व-आचार्य ने उज्जैन के सन्दर्भ से सूर्य किन-किन अक्षांशों में कितना दिखेगा तथा राशि चक्र की राशियां कहां कहां अदृश्य हो जायेंगी इसका बड़ा स्पष्ट विवरण दिया है। किसी भी अक्षांश पर सम्पात के सूर्य का नत उसके अक्षांश के बराबर होता है तथा उत्तर की ओर उसका ध्रुव पृथ्वी से उतना ही उठा होता है जितना वहां का अक्षांश । उज्जैन से ३७३ ३ योजन उत्तर जाने पर (अर्थात् ६६° उत्तर अक्षांश पर) भचक्र में विचित्रताएँ आने लगती हैं। वहाँ सूर्य २४ घण्टे उदित रहेगा और जितना उत्तर की ओर बढ़ेंगे दिन बढ़ता जायेगा तथा सुमेरु (उत्तर ध्रुव) पर यह छ: माह का होगा। इसी प्रकार ६६०-२४’ उत्तर अक्षांश के पश्चात् धनु और मकर राशियाँ दिखाई नहीं देंगी। ७८०-१६’ उत्तर के बाद वृश्चिक और तुला भी दिखाई नहीं देंगे तथा ध्रुव पर तुला से मीन छः राशियाँ दिखाई नहीं देंगी। ६. आकाश में ग्रहों की क्रमिक स्थिति तथा समान गति ‘चन्द्रादूर्ध्व बुधसित-रविकुज-जीवार्कजास्ततो भानि। प्राग्गतयस्तुल्यजवा ग्रहास्तु सर्वे स्वमण्डलगाः ।। (पं० सि० १३-३६) चन्द्रमा के ऊपर क्रमशः बुध, शुक्र सूर्य, मंगल, गुरु, शनि हैं तथा उनके ऊपर नक्षत्रगण, ये सभी पूर्व की ओर जाने वाले तथा समान गति के हैं। सभी ग्रह अपनी कक्षा में विचरण करते हैं। १०. वार प्रवृत्ति अनिश्चित होने से उन्होंने तिथि को प्रामाणिक माना। ११. ज्योतिर्गणित की प्रक्रिया को उन्होंने सरल किया (अ) युगीन भगणों के स्थान पर छोटे काल के भगण लिये। सूक्ष्मता के लिये संशोधन सुझाये। (ब) मन्द तथा शीघ्र परिधियों को स्थिर किया, सूर्य सिद्धान्त में ये फैलती तथा सिकुड़ती हैं। (स) लघुज्या की कल्पना उनका अपना अवदान है। ३४३८’ त्रिज्या के स्थान पर १२०’ की त्रिज्या मानी तथा ज्याएँ त्रिवर्ग प्रमेय (बोधायन प्रमेय) के आधार पर निकाली। यह प्रक्रिया सूर्य सिद्धान्त से सर्वथा भिन्न है। (द) स्फुटीकरण की प्रक्रिया को सरल बनाया। १२. परिधि तथा विष्कम्भ का अनुपात सूक्ष्मतर माना। यद्यपि वे १० की बात करते हैं, जो ३.१६२२ होता है किन्तु वास्तव में उन्होंने जो ज्याएँ निकाली उसके अनुसार सबसे छोटी ज्या ७’-५१" की मानी जो चाप के बराबर होती है। यह वृत्त की १/६६ होती है। अतः यदि इसको ६६ से गुणा किया जाय तथा २ x त्रिज्या से भाग दें तो ७’-५१" x ६६/१२० x २ = ३.१४ आता है जो आधुनिक मान ३.१४१६ के अत्यन्त समीप है। १. तत्रैव, पृ० २५३ २. सूर्यसिद्धान्त (१/५६) चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस वाराणसी, सं० प्रो० रामचन्द्र पाण्डेय, .. २०००, पृ० ३७ १. पञ्चसिद्धान्तिका (सं० ६ में उद्धृत) पृ० २५४-२५५, २. तत्रैव पृ० २५६. १७४ वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १७५ ज्योतिष-खण्ड १३. जातक के क्षेत्र में योगों की उपपत्ति यथास्थान दी। पूर्वाचार्यों-मयासुर, यवनाचार्य, सत्याचार्य आदि के मतों की समीक्षा की। १४. सिद्धान्तों को व्यावहारिक धरातल पर परीक्षण कर अपने मत स्थापित किये। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र को अन्धविश्वास, पुराण तथा विज्ञान के मिश्रण से निकाल कर वैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया। १५. सूर्यग्रहण आदि से संबंधित अन्धविश्वासों का निराकरण किया।
३. पञ्चसिद्धान्तिका
आचार्य ने यदि पञ्चसिद्धान्तिका नहीं लिखी होती तो भारत के प्राचीन सिद्धान्त विस्मृति के गर्त में खो जाते और हमारा ज्योतिष का वैश्विक ज्ञान उधार लिया हुआ माना जाने लगता। अतः आचार्य ने पञ्चसिद्धान्तिका लिखकर न केवल ज्योतिष शास्त्र की अपितु भारत की सांस्कृतिक अस्मिता की भी सुरक्षा की। वराह मिहिर की पञ्चसिद्धान्तिका में ज्योतिष के सिद्धान्त स्कन्ध से संबंधित प्राचीन पाँच सिद्धान्त हैं। सिद्धान्त, गणित की एक विशिष्ट पद्धति है जिसके द्वारा किसी भी दिन के सूर्य तथा चन्द्रमा के मध्यम तथा स्पष्ट मान, तिथि, नक्षत्र, दिनमान, संक्रान्तियाँ, ग्रहों के मान, अस्तोदय, ग्रहण नक्षत्र-युति इत्यादि निकाले जाते हैं। वैदिककाल से लेकर आचार्य वराह मिहिर तक ऐसे पाँच सिद्धान्त प्रचलित थे जो कालक्रम से इस प्रकार हैं १. पैतामह सिद्धान्त। २. वासिष्ठ सिद्धान्त। ३. रोमक सिद्धान्त। पौलिश सिद्धान्त। ५. सौर सिद्धान्त। इस संबंध में सूर्यारुण संवाद के रूप में यह सिद्धान्त परम्परा सुरक्षित है यह वासिष्ठ सिद्धान्त कहलाया। अंशावतार के समय भगवान विष्णु ने जब कमलोद्भव ब्रह्मा को यह आदेश दिया उसी समय सृष्टि के निमित्त काल की सिद्धि के लिये यह ज्ञान प्रसारित करने के लिये मुझे भी आदेश दिया। मैंने जो ज्ञान प्रसारित किया वह ‘सौर’ सिद्धान्त कहलाया। मैंने यह ज्ञान मय नामक शिष्य को उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर दिया। उधर वसिष्ठ ने यह ज्ञान अपने पुत्र पाराशर को दिया। उन्होंने अनेक मुनियों को यह ज्ञान दिया। उनमें से पुलिश मुनि ने जो ज्ञान गर्ग आदि ऋषियों को दिया वह पौलिश सिद्धान्त कहलाया। ब्रह्मा के शाप से यवन जातियों में जन्म लेने के कारण मैंने रोमक सिद्धान्त रोमक को दिया। उसको रोमक ने रोमक नगर में प्रचारित किया। इस प्रकार ये ही पाँच पुराण गणित के कहे जाते हैं।’ इस सूर्यारुण संवाद के अनुसार ये सिद्धान्त इस क्रम में प्रादुर्भूत हुए परात्पर विष्णु ब्रह्मा (पैतामह सिद्धान्त) वसिष्ठ (वासिष्ठ सिद्धान्त) मय रोमक (सूर्य सिद्धान्त) (रोमक सिद्धान्त) x पाराशर (पाराशर सिद्धान्त) पुलिश पैतामहं च सौरं च वासिष्ठ पौलिशं तथा। रोमकं चेति गणितं पञ्चकं परमाद्भुतम् ।। वेदैः सह समुद्भूतं वेद-चक्षुः सनातनम्। रहस्यं वेदमध्यस्थं स्मृतवान् यद् पितामहः’। ‘इस अद्भुत गणित शास्त्र के पाँच सिद्धान्त हैं-पैतामह, सौर, वासिष्ठ, पौलिश तथा रोमक। यह शाश्वत ज्ञान जो वेदों के नेत्रों के समान है, वेदों के साथ ही उत्पन्न हुआ तथा वेद में ही समाहित था। पितामह ने उसका स्मरण किया। इसलिये वेदसम्मत पैतामह सिद्धान्त ही आद्य सिद्धान्त हैं। पितामह ने यह ज्ञान अपने पुत्र महात्मा वसिष्ठ को दिया। (पौलिश सिद्धान्त) गर्ग आदि इस क्रम में महर्षि पाराशर का भी नाम है। किन्तु उनके सिद्धान्त को अलग से मान्यता नहीं दी गई है। यद्यपि एक पाराशर सिद्धान्त भी उपलब्ध है, जिसके भगणादि का ज्ञान आर्यभट द्वितीय से होता हैं। १. पञ्चसिद्धान्तिकाः वराह मिहिर, जी. थीबो तथा सुधाकर द्विवेदी, चौखम्बा सं.सि. आ., वाराणसी, १६६८, संस्कृत टीका, पृ. २ १७६ ज्योतिष-खण्ड वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १७७
३.१ पैतामह सिद्धान्त
पैतामह सिद्धान्त भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष का सबसे प्राचीन सिद्धान्त है। वराह मिहिर ने अपनी पञ्चसिद्धान्तिका के १२ वें अध्याय में इसका निरूपण किया है। इसमें केवल पाँच आर्याएं हैं और उनमें निहित सिद्धान्तों से स्पष्ट है कि इसमें वेदांग ज्योतिष के सभी तत्त्व यथावत् हैं। इस सिद्धान्त में मध्यमान के सूर्य और चन्द्र की गणना की गई है तथा तिथि, नक्षत्र, पर्व आदि की गणना भी मध्यमान से की गई है। इस सिद्धान्त के अनुसार वर्ष ३६६ दिन का है तथा पाँच वर्ष का युग है। युग के अन्त में आवश्यकता पड़ने पर एक दिन छोड़ने की भी व्यवस्था थी। जैसा कि वेदांग ज्योतिष के इस वाक्य से स्पष्ट है-“स्यात्तदादि युगं माघः तपः शुक्लो दिनं त्यज।" इसमें जो ‘दिनं त्यज’ का निर्देश हैं, वह इस बात को बताता है कि युग के अन्त में आवश्यकता पड़ने पर वे एक दिन छोड़ दिया करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उस अत्यन्त प्राचीन काल में वर्ष ३६५ १/२ से अधिक तथा ३६६ दिन से कुछ कम रहा होगा। इसके संकेत हमें तैत्तिरी संहिता तथा निदान सूत्र से भी प्राप्त होते हैं।’ बाद में वासिष्ठ सिद्धान्त के समय से वर्ष ३६५ १/४ दिन का माना जाने लगा। एक युग ५ वर्ष सौर मास ५ x १२ = ६० अधिमास प्रति तीस माह में = २ चान्द्रमास ६० + २ = ६२ नक्षत्र मास या चन्द्रमा के भगण ६२+५=६७ तिथियां ६२ x ३० = १८६० सावन दिन ५४ ३६६ = १८३० क्षय तिथि १८६०-१८३० = ३० अयन ३६६/२ = १८३ दिन … युगारंभ की तिथि एवं नक्षत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा धनिष्ठा। ज्योतिर्वैज्ञानिक गणना में सबसे पहला कार्य अहर्गण निकालना होता है। ये अहर्गण किसी युग विशेष के आरंभ से निकाले जाते हैं। सूर्य सिद्धान्त में ये अहर्गण कलियुग के आरंभ से निकाले जाते हैं। पञ्चसिद्धान्तिका के सौर सिद्धान्त में इन अहर्गणों का युगारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा शक ४२७ से है। वहीं पैतामह सिद्धान्त के प्रयोजन के लिए अहर्गण का युगारंभ माघ शुक्ल प्रतिपदा धनिष्ठा नक्षत्र से है। यद्यपि विश्व का यह प्राचीनतम सिद्धान्त मध्यममान के गणित पर आधारित है किन्तु इसकी पद्धति इतनी वैज्ञानिक है कि आज के समय में भी इसके आधार पर किसी तिथि विशेष का चान्द्र नक्षत्र शुद्ध निकाला जा सकता है। तिथि की भी सही गणना की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए यदि श्रावण शुक्ल अष्टमी शक १६२७ सूर्योदय का अहर्गण निकालना है तो सिद्धान्त की पद्धति के अनुसार १६२७-२=१६२५ । १६२५ : ५=३८५ और कोई शेष नहीं बचा। मास गणना माघ शुक्ल प्रतिपदा से श्रावण शुक्ल अष्टमी तक करना है जो ६ मास और ८ तिथि होती है। युगारम्भ से ६ माह में कोई अधिमास नहीं है। तिथि ६ x ३० + ८ = १८८ से तीन क्षय तिथि घटाने पर युगारम्भ से अहर्गण १८८-३ = १८५ सौर दिन होता है।
३.१.१ युग के तत्व तथा अहर्गण
रविशशिनो पञ्चयुगं वर्षाणि पितामहोपदिष्टानि। अधिमासास्त्रिंशद्भिर्मासैरवमो द्विषष्ठ्यऽनाम् ।।१।। यूनं शकेन्द्रकालं पंचभिरुद्धृत्य शेषवर्षाणाम्। धुगणं माघसिताद्यं कुर्याधुगणानि तदहन्युदयात् ।।२।। पैतामह के सिद्धान्त के अनुसार सौर चान्द्र युग पांच वर्ष का होता है। तीस चान्द्र मास के बाद एक अधिमास होता है तथा बासठ तिथियों के बाद एक क्षय तिथि। शक वर्ष में से दो घटाईये तथा वर्षों को पाँच से भाग दीजिए। युगारंभ से अहर्गण की गणना माघ शुक्ल प्रतिपदा से की जाती है तथा यह गणना सूर्योदय से मानी जाती है। इन श्लोकों के आधार पर तथा इस सिद्धान्त के वेदांग ज्योतिष से साम्य के आधार पर म०म० सुधाकर द्विवेदी ने पैतामह सिद्धान्त के विभिन्न युगीन तत्व निम्नानुसार दिए हैं।
३.१.२ नक्षत्र एवं तिथि आनयन
पैतामह सिद्धान्त का श्लोक क्रमांक ३ इस प्रकार है त्रिंशत्वं चेयुगणे तिथिर्भमार्क नवाहतेऽक्ष्यः । दिग्रसभागैः सप्तभिरूनं शशिभं धनिष्ठाद्यम् ।। थीबो और सुधाकर द्विवेदी के पञ्चसिद्धान्तिका के संस्करण में इस आर्या के प्रथम चरण को ‘सैकषष्ट्यंशे गणे’ इस प्रकार संशोधित कर दिया गया है तथा कुपन्नशास्त्री एवं १. निदानसूत्र : पतञ्जलि सं. के.एन. भटनागर, महेरचंद लक्ष्मनदास, दिल्ली, १६७१, पृ. ६३ तथा आर. शामशास्त्रीः वैदिक केलेण्डर, पृ. २६. २. पञ्चसिद्धान्तिका पृष्ठ, २४६. १७८ वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १७६ किया जाना चाहिए! इसके आधार पर आर्या के प्रथम चरण का तिथि आनयन संबंधी जो गणित किया गया है, वह सही हैं। ज्योतिष-खण्ड के०वी० शर्मा के संस्करण में ‘सैकाशे धुगणे’ ऐसा संशोधन किया गया है। मेरे विचार से दोनों ही संशोधन अनावश्यक हैं। पद्य की प्रक्रिया का आशय ठीक से स्पष्ट नहीं होने से संभवतः उन्होंने ऐसा किया। किन्तु इस प्रथम चरण में ‘त्र्यंशत्व’ के स्थान पर मात्र ‘त्रिंशत्वं’ करने से आर्या का अर्थ ठीक बैठ जाता है। जो संशोधन सुधाकर द्विवेदी और कुपन्नशास्त्री ने किया है, उसके अनुसार इस आर्या का अर्थ होता है _ ‘अहर्गणों में उसका १/६१ जोड़ दें तो तिथियों की संख्या आ जाती है। इसके अनुसार हमारे उदाहरण में १८५ में उसका १/६१ भाग अर्थात् ३ जोड़ दें तो तिथियां १८५+३=१८८ हो जाती हैं। यह एक अजीब सा निष्कर्ष है क्योंकि १८८ तिथियां तो हम पहले ही निकाल चुके हैं और उसी के आधार पर क्षय तिथियां घटाकर हमनें १८५ सावन दिन निकाले हैं। यदि सावन दिन से तिथियां निकालनी हों तो उनमें क्षय तिथियां जोड़कर ही तिथि निकाली जा सकती हैं। इसलिए यह संशोधन और यह प्रक्रिया समीचीन नहीं जान पड़ती। इसके स्थान पर मूल आर्या के आधार पर हम अर्थ निकालें तो सुगमता से तिथि निकाली जा सकती है। तद्नुसार इसका अर्थ यह होता है कि अहर्गण के १/३० भाग की एक तिथि लें। यह प्रक्रिया अहर्गण में से क्षय तिथि घटाने के बाद करनी होगी। उपर्युक्त उदाहरण में अहर्गण १८५ है, उसमें से क्षय तिथि ३ घटाने पर १८२ हुआ इसमें ३० का भाग देने पर ६ भागफल आया तथा २ शेष है. अतः ६+२ = अष्टमी तिथि हई। ग्रन्थकार का आशय यह है कि अहर्गण में से क्षय तिथि घटाकर ३० दिन के पीछे एक तिथि मानना चाहिये और ३० का भाग देने पर जो शेष तिथियां बचती हैं, उसमें इसे जोड़ देना चाहिये। इस प्रकार १/६१ का भाग देने की आवश्यकता नहीं है तथा मूल में इसका कहीं कोई जिक्र भी नहीं है। इस संशोधन के बाद उपर्युक्त आर्या का अर्थ इस प्रकार होगा ‘अहर्गण के प्रत्येक ३० दिन के लिए एक तिथि माने (उसमें ३० का भाग देने पर जो तिथियां बचें उसे जोड़ दें) तो वर्तमान तिथि आ जायेगी : अहर्गण को.६ से गुणा कर १२२ से भाग दे दें, इस प्रकार सौर नक्षत्र प्राप्त होगा, जिसकी गणना धनिष्ठा से की जायेगी। ७ में ६१० का भाग दें तथा अहर्गण में से उसे घटा दें तो चान्द्र नक्षत्र प्राप्त होगा। इसकी गणना भी श्रविष्ठा या धनिष्ठा नक्षत्र से ही की जायेगी। इस आर्या की ऊपर जो व्याख्या की गई है, उसकी उपपत्ति इस प्रकार है चूँकि ६० सौर माह के १८३० दिनों में १८६० अर्थात् ३० तिथि अधिक हैं। .. ६० सावन माह के १८०० दिन में १८६० तिथि होंगी अर्थात् +६० तिथि। .. ६० सावन माह में +६० तिथि। .:. १ सावन माह में अर्थात् ३० दिन में १ तिथि। ६० सौर मासों को ६० सावन मासो में परिणत करने के लिए अहर्गण में से क्षय तिथियां घटानी होंगी। इसलिए उक्त गणित अहर्गण में से पहले क्षय तिथियां घटाने पर ही नक्षत्र जहाँ तक सौर और चान्द्र नक्षत्रों का प्रश्न हैं, वे युगीन सावन दिनों का अहर्गण से जो अनुपात है तथा युग में सूर्य और चन्द्रमा जितने नक्षत्रों का भोग करते हैं, उसके आधार पर निकाले गए हैं। उदाहरण के लिए पाँच वर्ष के एक युग में १८३० दिन होते हैं और सूर्य ५४२७=१३५ नक्षत्रों का भोग करता है तो दिए हुए अहर्गणों में कितने नक्षत्रों का भोग करेगा . सौर नक्षत्र : १३५ :: अहर्गण : १८३० .:. सौर नक्षत्र = १३५ x अहर्गण /१८३० = अहर्गण x ६/१२२ यही बात ‘भमार्कं नवाहतेऽक्ष्यः ’ में कही गई है अर्थात् सूर्य का नक्षत्र अहर्गण में ६ का गुणा कर १२२ से भाग देने से प्राप्त होता है। इसी प्रकार चन्द्रमा एक युग में ६७ ४२७ = १८०६ नक्षत्रों का भोग करता है। चन्द्र नक्षत्र : १८०६ :: अहर्गण : १८३० ..चन्द्र नक्षत्र = अहर्गण x १८०६/१३३०=६०३ x अहर्गण /६१० (१.७/६१०) अहर्गण। यही बात इस आर्या की दूसरी पंक्ति में कहीं गई हैं ‘दिग्रसभागैः सप्तभिरूनं शशिभं धनिष्ठाद्यम्’ अर्थात् अहर्गण में (१-७/६१०) का गुणा करने पर धनिष्ठा आदि चान्द्र नक्षत्र प्राप्त होता है। उदाहरण- श्रावण शुक्ल अष्टमी के उदाहरण में अहर्गण १८५ हैं। .. .:: सौर नक्षत्र = १८५ x ६/ १२२ = १३ ७६ १२२ - इसका अर्थ यह हुआ कि धनिष्ठा से गणना करने पर १३ नक्षत्र व्यतीत हो गए और १४वां नक्षत्र वर्तमान है। यह नक्षत्र आश्लेषा हुआ। चित्रा पक्ष के पंचांग के अनुसार श्रावण शुक्ल अष्टमी शक १६२७ को सूर्य का नक्षत्र वास्तव में आश्लेषा ही हैं। . .:. चन्द्र नक्षत्र = १८५ (१.७/६१०) = १८२.८७७ इसको २७ से भाग देने पर शेष २०.८७७ बचता है। इसका आशय यह हुआ कि धनिष्ठा से २१ वां नक्षत्र वर्तमान है। धनिष्ठा से २१ वा नक्षत्र विशाखा है अर्थात् श्रावण शुक्ल अष्टमी शक १६२७ को चान्द्र नक्षत्र विशाखा था। पंचांग के अनुसार वास्तव में उस दिन विशाखा नक्षत्र है। इससे स्पष्ट है कि हजारों वर्ष पूर्व प्रतिपादित किए गए इस मध्यममान के सिद्धान्त के आधार पर भी आज की परिस्थिति में भी सूर्य और चन्द्र के सही नक्षत्र निकाले जा सकते हैं। यह इस सिद्धान्त की वैज्ञानिकता का द्योतक हैं। वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १८१ १२० ज्योतिष-खण्ड
३.१.३ व्यतिपात
पैतामह सिद्धान्त की चौथी आर्या इस प्रकार हैं ‘प्रागर्धे पर्व यदा तदोत्तरातोऽन्यथा तिथिः पूर्वा। अर्कने व्यतिपाता धुगणे पंचाम्बर हुताशैः।।’ ‘यदि पूर्णिमा या अमावस्या का पर्व दोपहर के पूर्व हो तो दूसरी तिथि ग्रहण करना चाहिये अन्यथा पहली।’ ‘अहर्गणों को १२ से गुणा कर ३०५ से भाग देने पर व्यतिपात प्राप्त होता है।’ इस आर्या की पहली पंक्ति पर्व के निर्णय के लिए है। जिस दिन का निर्णय करना है, उस दिन यदि पूर्णिमा या अमावस्या दोपहर के पूर्व प्राप्त होती है, तो उस दिन प्रतिपदा गिनी जानी चाहिये। अन्यथा उस दिन पूर्णिमा या अमावस्या ही मानी जानी चाहिये। इससे यह प्रतीत होता है कि मध्यममान के इस गणित में तिथि का निर्णय सूर्योदय के आधार पर नहीं अपितु मध्याह के आधार पर होता था। यदि पर्व मध्याह्न के पूर्व हो गया तो मध्याह्न के बाद प्रतिपदा होने से उस दिन को प्रतिपदा ही माना गया। किन्तु यदि पर्व मध्याह्न के बाद हुआ तो उस तिथि को पूर्णिमा या अमावस्या ही माना गया। __इस आर्या की दूसरी पंक्ति एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्व की ओर इंगित करती हैं और वह है व्यतिपात। ‘व्यतिपात’ और ‘वैधृति’ ये अत्यन्त महत्वपूर्ण योग हैं तथा सायन, सूर्य और चन्द्रमा के भोगों का योग १८०° और ३६०° होने पर ये घटित होते हैं। इस आर्या में यह बताया गया है कि जिस दिन का विचार करना है, उस दिन से व्यतिपात कितना आगे या पीछे है और उसके निकालने की प्रक्रिया क्या है। प्रक्रिया के विषय में इसमें लिखा है कि अहर्गण को १२ से गुणा करो और ३०५ से भाग दे दो तो व्यतिपात प्राप्त होगा। उपपत्ति-व्यतिपात का निर्णय भी सौर, चन्द्र नक्षत्रों की तरह युगीन व्यतिपात संख्या और युगीन अहर्गण का जो वर्तमान अहर्गण से अनुपात है, उसके आधार पर किया गया है। एक युग में चन्द्रमा के ६७ भगण होते हैं तथा सूर्य के ५ भगण होते हैं। इन दोनों का योग ७२ होता है। इस प्रकार युग के १८३० दिनों में ७२ व्यतिपात होते हैं। व्यतिपात : ७२ :: अहर्गण : १८३० व्यतिपात = अहर्गण x ७२/१८३० = १२ x अहर्गण /३०५ .. यही इस आर्या की दूसरी पंक्ति में बताया गया है कि अहर्गण में १२ का गुणा करो और ३०५ का भाग दो व्यतिपात आता है। उदाहरण-अहर्गण = १८५. व्यतिपात = १८५ ४१२/३०५ = ४४४/६१ = ७ १७/६१ = ७ ८५/३०५
- इसका आशय यह हुआ कि ७ व्यतिपात चले गये। चूंकि ३०५ दिन में १२ व्यतिपात होते हैं, इसलिये १ व्यतिपात २५ दिन २५ घड़ी में होता है। जो ८५/३०५ शेष बचा है, उसमें १२ से भाग देने पर ७ दिन और ५ घड़ी का समय आता है और ३०५ में से ८५ घटाने पर तथा १२ का भाग देने पर १८ दिन २० घटी आता है। इसका आशय यह हुआ कि जिस दिन का विचार हम कर रहे हैं, उस दिन पिछले व्यतिपात को घटित हुए ७ दिन ५ घटी व्यतीत हो गया और अगला व्यतिपात १८ दिन २० घटी बाद आयेगा। __व्यतिपात के सिद्धान्त से, इस सिद्धान्त के काल के विषय में अत्यन्त महत्वपूर्ण संकेत मिलता है। व्यतिपात सूर्य और चन्द्रमा के सायन भोग पर आश्रित होता हैं। युगारंभ के नक्षत्र धनिष्ठा होने से यह स्पष्ट है कि युगारंभ के समय सूर्य और चन्द्र दोनों २२ नक्षत्र पार कर चुके थे। अश्विनी से श्रवण तक २२ नक्षत्र होते हैं। दोनों के निरयन भोगों का योग ४४ नक्षत्र होता है। इसमें अगर २७ का भाग दें तो १७ बचता है। इसका आशय यह हुआ कि उस दिन सूर्य और चन्द्रमा का निरयन भोग सायन भोग से १० नक्षत्र कम था। अर्थात् प्रत्येक के मामले में ५ नक्षत्र कम था। यह पांच नक्षत्र ६६०-४०’ के बराबर होता है। इसका आशय यह हुआ कि पैतामह सिद्धान्त के निर्माण के समय अयनांश -६६०-४०’ था। यही वेदांग ज्योतिष की भी स्थिति है और उससे स्पष्ट हुआ कि वेदांग ज्योतिष और पैतामह सिद्धान्त के समय अयनांश रेवती से ५ नक्षत्र पहिले अर्थात् धनिष्ठारंभ में था। अयनांश की ४८.५" प्रतिवर्ष की गति लेने पर यह समय ईसा पूर्व २१५०० के लगभग आता है। इस काल के संबंध में आश्चर्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि उस समय वर्षमान जो ३६६ दिन का दिया गया है वह भी यही संकेत करता है कि इस सिद्धान्त का निर्माण ईसा से हजारों वर्ष पूर्व हुआ था। वेदांग ज्योतिष में धनिष्ठा में सूर्य और चन्द्रमा के एक साथ स्वर्ग गमन की बात कही गई है तथा यह भी कहा गया है कि उस समय युग का प्रारंभ होता है, माघ मास शुक्ल पक्ष तथा अपेक्षाकृत ऊष्म ऋतु (वसन्त) का प्रारंभ होता है। स्वराक्रमेते सोमार्को यदा साकं सवासवौ। स्यात्तदादि युगं माघः तपः शुक्लो दिनं त्यज।।"
३.१.४ दिनमान
पैतामह सिद्धान्त की यह पांचवी और अंतिम आर्या है। धृतिमयनादुत्तरतो रसमृणं तदपि च याम्यस्य। द्विघ्नं शशिरसभक्तं द्वादशहीनं दिवसमानम्।। ५।। १. ऋज्योतिष (१-५) सुधाकर द्विवेदी, पृ० ६२. २. पञ्चसिद्धान्तिका (पूर्व उद्धृत), पृ० २५. १. तत्रैव, पृष्ठ २४४. वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १८३ का प्रतिपादन ऐसे समय में हुआ जिस समय विश्व में कहीं भी व्यवस्थित ज्योतिर्वैज्ञानिक . गणना उपलब्ध नहीं थी। वस्तुतः भारतीयों ने ही विश्व भर में इस अद्भुत ज्ञान-विज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। १८२ ज्योतिष-खण्ड इस आर्या को सुधाकर द्विवेदी तथा कुप्पन्न शास्त्री दोनों के ही संस्करणों में अत्यन्त विकृत कर दिया गया है। जिनसे यद्यपि गणितीय अर्थ तो ठीक लग जाता है किन्तु मूल से उनका कहीं कोई साम्य नहीं दिखता। सुधाकर द्विवेदी ने इसका पाठ इस प्रकार बनाया है द्वयग्निनगेषूत्तरतः स्वमितमेष्यदिनमपि याम्यायनस्य’। तथा कुप्पन्न शास्त्री ने इसका पाठ इस प्रकार बनाया है (गतमयानादुतरतो) (धूनां) (गन्तव्य) मपि च याम्यस्य’। ये दोनों ही पाठ अनावश्यक हैं और इससे मूल को पूरी तरह से बदल दिया गया है। अतः स्वीकार करने योग्य नहीं है। बिना इन परिवर्तनों के मूल का समीचीन अर्थ प्रकट हो रहा है। वह इस प्रकार है __ ‘अयन से परम उत्तर में दिनमान १८ मुहूर्त होता है (धृति = १८) तथा अयन से परम दक्षिण में यह उससे ६ कम अर्थात् १२ मुहूर्त होता है। न्यूनतम दिनमान से जितने भी दिन व्यतीत हुए हों अथवा न्यूनतम दिनमान के दिन में जितने भी दिन शेष हों उसको २ से गुणा करो और ६१ से भाग दो तो यह १२ से रहित दिनमान होता है। अर्थात् इसमें १२ जोड़ने से दिनमान आ जाता है।’ उदाहरण-अहर्गण = १८५ वसंत संपात से १८३ दिन शरद संपात तक व्यतीत हुए। इसलिए परम दक्षिण गमन तक के लिए शेष दिन रहे १८३/२.२=८६.५. .:. ८६.५ x २/६१ = १७६.६१ = २.६३४४ मुहुर्त १२ जोड़ने पर १४.६३४४ मुहूर्त अर्थात् २६.८६८८ घटी या २६ घटी ५२ पल उस दिन का दिनमान हुआ। इस प्रकार यद्यपि पैतामह सिद्धान्त के लिए वराह मिहिर ने केवल पांच आर्याएं दी हैं किन्तु इन पांच आर्यायों के माध्यम से वेदांग ज्योतिष के लगभग सभी तत्व आ गए हैं। यह बात इस बात की भी पुष्टि करती है कि ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थ वेदों की रचना के साथ-साथ ही निर्मित हो रहे थे। आधुनिक आचार्यों के भारतीय इतिहास की प्राचीनता के विषय में कुछ भ्रान्त मत होने के कारण हम इन प्राचीन सिद्धान्तों के सही काल का ज्ञान नहीं कर पा रहे हैं। किन्तु अब समय आ गया है, जब पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सिद्धान्त में दिए गए संकेतों के आधार पर ही हम उनका निर्णय करें। पैतामह सिद्धान्त
३.२ वासिष्ठ सिद्धान्त
पैतामह सिद्धान्त से वासिष्ठ सिद्धान्त पर आने पर भारतीय ज्योतिष में बहुत बड़ा । परिवर्तन होता है। जहां पैतामह सिद्धान्त में मध्यममान का गणित था और केवल सूर्य और चन्द्र से संबंधित गणनाएं थीं, वहीं वासिष्ठ सिद्धान्त में आकर हम स्पष्ट मान के गणित पर पहुँचते हैं। किन्तु स्पष्ट मान का यह गणित, गणित पर उतना आधारित नहीं है जितना कि वेध और छाया पर आधारित है। यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। स्पष्ट सूर्य, दिनमान, लग्न इत्यादि निकालने के लिए १२ अंगुल के शंकु की छाया का प्रयोग किया गया है जो प्राचीनकालीन ज्योतिर्गणित पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है। इस समय तक वर्षमान ३६५ सही १/४ दिन हो गया है, जो इस बात का प्रमाण है कि ज्योतिष वासिष्ठ सिद्धान्त तक आते-आते वैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित हो रहा था। इसके अतिरिक्त अन्य ग्रहों के विषय में दीर्घकाल तक वेध लेकर के इस सिद्धान्त में उनकी गतियों का निरूपण किया गया है तथा यह भी बताया गया है कि कितने अंतराल के बाद कौन सा ग्रह वक्री होता है, कब मार्गी होता है, और फिर कितने अंतराल पर उसकी गति क्या रहती है, इत्यादि। इसके आधार पर सूर्य, चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य पंच ताराग्रहों के भी स्पष्ट मान व्यावहारिक प्रयोजन के लिए काफी शुद्ध निकाले जा सकते हैं। पञ्चसिद्धान्तिका का जो संस्करण श्री सुधाकर द्विवेदी और थीबो ने निकाला था, उसमें वे वासिष्ठ सिद्धान्त को बिल्कुल नहीं समझ सके। किन्तु कुप्पन्न शास्त्री और के०वी० शर्मा ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ जो संस्करण निकाला, उसमें उन्होंने वासिष्ठ सिद्धान्त के रहस्यों को सम्यक् रूप से खोला है। यद्यपि वासिष्ठ सिद्धान्त भी अन्य सिद्धान्तों जैसे रोमक और पॉलिश से अत्यन्त प्राचीन है किन्तु वह पैतामह सिद्धान्त से काफी बाद में बना होगा और इसका प्रमाण दोनों के वर्षमान हैं। जहां पैतामह सिद्धान्त में ३६६ दिन का वर्षमान आधुनिक वर्षमान के अत्यन्त समीप होने से दोनों सिद्धान्तों के बीच बहुत अन्तराल रहा होगा। वासिष्ठ सिद्धान्त के कुछ मुख्य तत्व निम्न प्रकार के हैं।
३.२.१ स्पष्ट सूर्य
वासिष्ठ सिद्धान्त में स्पष्ट सूर्य निकालने की बड़ी उत्तम और सरल विधि दी हुई है। इसमें ३६५ १/४ दिन के वर्ष को चौथाई दिनों में विभक्त किया गया है और इस प्रकार एक वर्ष के १४६१ चौथाई दिन होते हैं। अनेक वर्षों तक लगातार वेध लेने के पश्चात् इस सिद्धान्त में स्थिर किया गया है कि सूर्य मेष आदि राशियों में क्रमशः १२५, १२६, १. तत्रैव, पृ० २४६. २. तत्रैव, पृ० २४६. १८४ ज्योतिष-खण्ड वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १८५ १२६, १२६, १२४, १२२, ११६, ११७, ११७, ११८, १२० तथा १२१ (कुल १४६१) चौथाई दिनों में यात्रा करता है। इसका आशय यह हुआ कि सूर्य मेष में ३१.१/४ दिन, वृषभ में ३१. १/२ दिन, मिथुन में ३१. १/२ दिन, कर्क में ३१. १/२ दिन, सिंह में ३१ दिन, कन्या में ३०. १/२ दिन, तुला में २६. ३/४ दिन, वृश्चिक में २६. १/४ दिन, धनु में २६. १/४ दिन, मकर में २६. १/२ दिन, कुम्भ में ३० दिन तथा मीन में ३० १/४ दिन रहता है। इसी के आधार पर उन्होंने स्पष्ट सूर्य निकालने के लिए यह सुन्दर सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कृतगुणमृतुयुतमेकर्तुमनुहृतं षड्यमेन्दुभिर्विभजेत्। शशि ख ख ख यमकृत स्वर नव नव वसु षट्क विषयोनैः ।। अहर्गणों को ४ से गुणा करो, उसमें ६ जोड़ों, इसको १४६१ से भाग दो तथा शेष को क्रमशः १२६ प्रति राशि गिनो, जिनमें से क्रमशः १, ०, ०, ०, २, ४, ७, ६, ६, ८, ६ व ५ घटाओ। (१२६ में से इन राशियों को घटाने पर वे ही राशियां १२५ १२६ इत्यादि प्राप्त होती हैं, जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका हैं।) ६ जोड़ने की बात इसलिये कही गई है कि इस सिद्धान्त का युगारंभ स्पष्ट मेष संक्राति से ११ दिन बाद प्रारंभ हुआ २६ अगस्त २००५ तक के कुल दिवस = २३८ १ जनवरी से १४ अप्रैल तक के दिवस = -१०४ २३८-१०४ = १३४ आधे दिन के लिए घटाया = -१/२ १३४- १ = १३३.५ उक्त सिद्धानत के अनुसार १३३. ५ x ४ = ५३४ इसमें ६ जोड़ा = ५४० चौथाई दिवस. मेष १२५, वृष, मिथुन एवं कर्क १२६ कुल चौथाई दिन हुए ५०३ ५४० में से घटाने पर ३७ शेष रहते हैं। सिंह राशि में सूर्य १२४ चौथाई दिन रहता है, अतः .:. १२४ चौथाई दिन = ३०° … ३७ चौथाई दिन = ३७ x ३०/१२४ = ८.६५° = सिंह ८°५७’ २६ अगस्त २००५ की लाहिरी की एफेमरीज के अनुसार उस दिन सूर्य का स्पष्ट सिंह में ८° -५५’-३८” हैं। इससे स्पष्ट है कि हजारों वर्ष पहिले बनाया गया यह सिद्धान्त आज के युग में प्रयोग करने पर भी कितना शुद्ध है। यह उनके वेध की वैज्ञानिकता को प्रमाणित करता है। Ch सुधाकर द्विवेदी ने इस श्लोक की व्याख्या करते समय लिखा है ‘अनेन श्लोकेन किं साधयतीति न ज्ञायतेऽत्यशुद्धत्वात्।’ जिससे स्पष्ट है कि उनको इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट नहीं हो सका तथा थीबो ने यह टिप्पणी दी है- ‘अ स्टेजा ओफ ओब्स्क्योर इंपोर्ट'३ इससे स्पष्ट है कि दोनों ही वासिष्ठ सिद्धान्त के इस महत्वपूर्ण आधारभूत तत्व को नहीं समझ सके। उदाहरण मान लीजिए हमें जन्माष्टमी भाद्रपद कृष्ण अष्टमी शक १६२७, (२६ अगस्त २००५) का स्पष्ट सूर्य निकालना हैं। चूंकि सिद्धान्त में युगारंभ नहीं दिया गया है, इसलिये हमने १५ अप्रैल २००५ को मध्यान्ह में युगारंभ माना। क्योंकि इससे डेढ़ दिन पूर्व १४ अप्रैल २००५ को शून्य घण्टा ६ मिनिट पर स्पष्ट मेष संक्राति हुई थी।
३.२.२ स्पष्ट चन्द्र
वासिष्ठ सिद्धान्त का स्पष्ट चन्द्र बहुत जटिल है। यद्यपि यह भी वेध पर आधारित है किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि किसी प्राचीन प्रचलित सिद्धान्त का आधार लेकर इसको बनाया गया है। इसमें चन्द्रमा के ३०३१ दिन के मन्द केन्द्रीय चक्र (११० भगण) को लिया गया है, जिसको उन्होंने ‘घन’ कहा है। इसके बाद मन्द केन्द्र के एक भगण को लिया है, जो २४८/६ दिन का होता है, जिसे उन्होंने ‘गति’ कहा है तथा उसके पश्चात् दिन के नौवें भाग का ग्रहण किया गया है, जिसको उन्होंने ‘पद’ कहा है। एक पद में उन्होंने १०-२७ २०६/२४८ की चन्द्रमा की मध्यम गति मानी है और इन्हीं के आधार पर मध्यमान निकालने की प्रक्रिया दी है। मध्यमान निकालने के पश्चात् स्पष्ट मान निकालने के लिए कुछ सूत्र दिए है। यह सारी प्रक्रिया पञ्चसिद्धान्तिका के मूल वासिष्ठ सिद्धान्त में देखी जा सकती है। १. पञ्चसिद्धान्तिका (सं० ६ में उद्धृत), पृ० २५. २. तत्रैव (सं. ४० में उद्धृत), संस्कृत टिप्पणी, पृ. ७. ३. तत्रैव, पृ. ८
३.२.३ नक्षत्र तथा तिथि
चन्द्र स्पष्ट निकालने के बाद नक्षत्र और तिथि निकालने की प्रक्रिया बहुत सरल है। उन्होंने यह बताया है कि २, १/४ नक्षत्र की एक राशि होती है और इसलिए चन्द्र स्पष्ट वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १८७ कन्या तुला वृश्चिक १८६ ज्योतिष-खण्ड में ६ का गुणा कर ४ का भाग देने की बात कही गई है। ऐसा करने पर राशियों के स्थान पर जो अंक आये, वह गत नक्षत्र होगा और अंशों के स्थान पर जो अंक आये वह उस नक्षत्र का गत मुहूर्त होगा। यह इसलिए ठीक है क्योंकि जिस प्रकार ३०° की एक राशि होती है, उसी प्रकार ३० मुहूर्त का एक नक्षत्र होता है। इसलिए अंश और मुहूर्त का साम्य रखा गया है। तिथि के विषय में यह बताया गया है कि चन्द्रमा के स्पष्ट मान में से सूर्य का स्पष्ट मान घटाइये तथा इसमें ५ का गुणा कर २ का भाग दीजिए। जो अंक राशियों के स्थान पर आयेगा वह गत तिथि है तथा जो अंक अंश के स्थान पर आयेगा वह गत मुहूर्त है। यह गणना स्थूल ही है किन्तु व्यावहारिक प्रयोजन के लिए पर्याप्त है। क्योंकि यहां पर एक तिथि को भी ३० मुहूर्त का माना गया है। ३०-(५+६) ३०-(६+६) ३०-(७+६) ३०-(८+६) E+३ १०+३ धनु 珊珊珊珊珊珊 मकर कुम्भ मीन ११+३
३.२.४ दिनमान
दिनमान निकालने के लिए इस सिद्धान्त में आधार वही लिया गया है जो पैतामह सिद्धान्त में है। अर्थात् सूर्य की परमोत्तर स्थिति में १८ मुहूर्त का दिनमान होता है और परम दक्षिण स्थिति में १२ मुहूर्त का दिनमान होता है। किन्तु इसका विवरण उन्होंने सूर्य की संक्रान्तियों के आधार पर दिया है। अर्थात् सूर्य के मेष आदि राशियों में रहते हुए कितना दिनमान होगा, यह गणित बताया गया है। सिद्धान्त इस प्रकार है मकरादौ गुणयुक्तो मेषादौ तिथियुतो रविर्दिवसः। कर्कटकादिषु सत्सु त्रयस्त्रिका शर्वरीमानम्।। अर्थात् सूर्य जब मकर आदि तीन राशियों में रहे तब गत राशि में ३ जोड़ने पर दिनमान आता है, मेष आदि तीन राशियों में रहने पर १५ जोड़ने पर दिनमान आता है। किन्तु कर्क आदि ६ राशियों में जब सूर्य रहता है तो गत राशि में ६ जोड़ने पर रात्रिमान आता है। अतः दिनमान निकालने के लिए इसे ३० में से घटाना चाहिये। उक्त व्याख्या के अनुसार सूर्य की प्रत्येक संक्रांति में निम्नानुसार दिनमान रहता है मेष ०+१५ १५ मुहूर्त वृषभ १+१५ । १६ मुहूर्त मिथुन २+१५ १७ मुहूर्त कर्कट ३०-(३+६) सिंह ३०-(४+६) = १७ मुहूर्त
३.२.५ शंकु की छाया से सूर्य स्पष्ट निकालना
कर्कटकादिषु भुक्तं द्विगुणं माध्यन्दिनी छायाम्। मकरादिषु चाप्येवं कि चास्मिन्मण्डलाच्छोध्यम् ।। मध्याहूनच्छाया) सत्रिभमर्कोऽयने भवेद्याम्ये। उदगयने संशोध्यं पंचदशभ्यो रविर्भवति ।। ‘जब सूर्य कर्क आदि ६ राशियों में हो तो कर्क से जितनी राशियां व्यतीत हुई हैं, उसका २ से गुणा करो तो मध्याहून की छाया प्राप्त होती है। जब सूर्य मकर आदि ६ राशियों में हो तो भी गत राशियों को २ से गुणा करो किन्तु इसे १२ में से घटाओ, उतने ही अंगुल शंकु की छाया रहती है।’ ‘जब सूर्य दक्षिणायन की ओर गमन कर रहा हो तो मध्याह्न छाया के आधे में ३ जोड़ने पर सूर्य की राशियां प्राप्त होती हैं। जब सूर्य उत्तरायण के मार्ग में हो तो १५ में से मध्यान्ह छाया का आधा घटाने पर सूर्य की राशियां प्राप्त होती हैं।’ Dinarr ana 16 18 Karka Mes 12.00 14 Tula Makara 12 १. पञ्चसिद्धान्तिका (सृ० ६ में उद्धृत), (११.८ पृ० ३४). १. तत्रैव, (११.६-१०) पृ० ३५. १८८ ज्योतिष-खण्ड यह अत्यन्त ही स्थूल सिद्धान्त है तथा केवल व्यावहारिक प्रयोजनों के लिए है। इसके अनुसार जब सूर्य की क्रान्ति २४° उत्तर को होती है तो मध्याह्न शंकु की छाया शून्य होती है और यह प्रति राशि दो अंगुल बढ़ती है। इस प्रकार कर्क राशि के अंत में यह छाया १- २ = २ अंगुल रहती है, सिंह के अंत में ४ अंगुल तथा कन्या के अंत में ६ अंगुल। सूर्य के परम दक्षिण बिन्दु पर यह छाया १२ अंगुल रहती है और प्रति राशि २ अंगुल कम होती जाती है। इस प्रकार मकर के अंत में १० अंगुल, कुम्भ के अंत में ८ अंगुल तथा मीन के अंत में ६ अंगुल मध्याह्न छाया रहती है। सम्पात बिन्दुओं पर छाया ६ अंगुल रहती है। इसी के आधार पर छाया से सूर्य की राशि निकालने का सिद्धान्त दिया गया है। जब सूर्य दक्षिणायन को गमन कर रहा होता है तो मध्याह्न छाया में २ का भाग देने से कर्क आदि सूर्य की राशि आ जाती है और इसलिए ३+ छाया/२ = सूर्य की राशि यह सिद्धान्त दिया गया है। जब सूर्य उत्तर की यात्रा कर रहा होता है तो १२ में से मध्याह्न सूर्य की छाया/२ घटाने पर तथा उसे १५ में से घटाने पर सूर्य की राशि आती है। जैसे परम दक्षिण बिन्दु पर सूर्य की छाया १२ रहती है तो १५-१२/२ = € यह सूर्य की राशि हुई। इसी प्रकार इस सिद्धान्त में छाया के आधार पर लग्न और लग्न के आधार पर शंकु की छाया निकालने का सिद्धान्त भी दिया गया है। आशय यह है कि धार्मिक प्रयोजनों के लिए तथा ज्योतिष सम्बन्धी गणना के लिए इस छाया वेघ के द्वारा सभी आवश्यक क्रियाएं की जा सकती थीं। यही इस सिद्धान्त की सबसे बड़ी विशेषता है। वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १८६ (४) यहां से वक्री हो जाता है। अगले १५ दिन में २° इसके आगे ५ दिन में २° इसके बाद पश्चिम में अस्त हो जाता है तथा १० दिन बाद पूर्व में उदय होता है। अपनी वक्र गति के २० दिन में सूर्य ४° चलता है। (५) इसके बाद मार्गी गति में विपरीत गति और दिनों के क्रम से शुक्र पश्चिम में अस्त हो जाता है। उसके बाद ६० दिन में २५° चलकर पश्चिम में उदय हो जाता है। इसका आशय यह है कि २३७+६०=३२७ दिन के चक्र में वह सूर्य के साथ संक्रमण करता है।" इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कितना विस्तारपूर्वक तथा सूक्ष्म वेध इस सिद्धान्त ने लिया है। यह इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि बेबीलोनिया के ज्योतिर्विज्ञान को इस आधार पर सराहा जाता है कि उसमें शुक्र के कोष्टक दिए गए हैं। किन्तु वासिष्ठ सिद्धान्त में तो इस प्रकार के वेध आधारित कोष्ठक सभी ग्रहों के दिए हुए हैं जबकि वासिष्ट सिद्धान्त बेबीलोनिया के ज्योतिर्गणित से अत्यन्त प्राचीन है। ३.३ रोमक सिद्धान्त वराह मिहिर ने अपनी ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ का प्रारंभ वस्तुतः रोमक सिद्धान्त से ही किया है जिसके सभी महत्वपूर्ण तत्त्व पहले अध्याय में ही हैं। पहले उन्होंने अहर्गण निकालने की प्रक्रिया बताई है तथा युगारंभ, चैत्र शुक्ला प्रतिपदा शक ४२७ सोमवार माना है। युग के महत्वपूर्ण तत्वों को उन्होंने आगे १४वीं और १६वीं आर्या में बताया है। रोमक युगमर्केन्द्वोर्वर्षाण्याकाशपंचवसुपक्षाः। . खेन्द्रियदिशोऽधिमासा स्वरकृतविषयाष्टयः प्रलयाः।।’ ‘रोमक सिद्धान्त का सौर चान्द्र युग २८५० सौर वर्षों का होता है। इसमें १०५० अधिमास होते हैं और १६५४७ क्षय तिथियां होती हैं।’ __ जहां तक अन्य तत्वों का सवाल है, सौर वर्षों को १२ से गुणा करने पर सौर मास आ जाते हैं, उनमें अधिमास जोड़ने पर चान्द्र मास आ जाते हैं तथा इन चान्द्र मासों में ३० का गुणा करने पर तिथियां आ जाती हैं और इन तिथियों में से यदि आप क्षय तिथियां घटा देते हैं तो सावन दिन आ जाते हैं। इस प्रकार रोमक सिद्धान्त के सभी युगीन मान निम्नानुसार बनते हैं २८५० वर्ष के एक युग में १. सूर्य भगण २८५०
३.२.६ ग्रहों के उदयास्त तथा स्फुटीकरण
इस सिद्धान्त की एक और विशेषता यह है कि इसमें भौम आदि पांच ग्रहों के वेध के आधार पर उनकी गतियां दी गई हैं तथा उनके वक्री और मार्गी होने के काल भी दिये गये हैं। इसके आधार पर थोड़ी सी गणना करने पर इन ग्रहों के वेध आधारित स्पष्ट किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए शुक्र के विषय में इस सिद्धान्त में यह बताया गया है कि “(१) अहर्गण में से १७४ घटाईये तथा ५८४ से भाग दीजिए, जो भागफल आयेगा, उतने शुक्र के उदय होंगे। इस अवधि में शुक्र का भोग ७०-५०-३०’-२०" होता है। (२) कन्या में २६° जाने पर शुक्र पूर्व की ओर उदय होता है। (३) ६०-६० दिन की तीन अवधियों शुक्र क्रमशः ७४°, ७३° और ७२° चलता है। ४० दिन में यह ३२° चलता है तथा १७ दिन में ५, १/४ अंश। इस प्रकार २३७ दिन में २५६ १/४ डिग्री चलता है। १. तत्रैव, (१.१५) पृ० १५.ज्योतिष-खण्ड ४. राहु २. चन्द्र भगण ३८१०० ३. चन्द्रोच्च५४ ३२२ २२८/३०३१ १५३ २६८८६/१६३१११ ५. सौर मास ३४२०० ६. अधिमास १०५० ७. चान्द्र मास ३५२५० ८. तिथियां १०५७५०० ६. क्षय तिथियां १६५४७ १०. सावन दिन १०४०६५३ इनमें से कुछ आंकड़े पञ्चसिद्धान्तिका के अध्याय ८ के लिये गये हैं, जिसमें रोमक सिद्धान्त के अनुसार सूर्यग्रहण का विवरण दिया गया है।
३.३.१ अहर्गण
अहर्गण की वही प्रक्रिया दी गई है जो सूर्य सिद्धान्त आदि में है। अधिमास और क्षय तिथियां इस सिद्धान्त के अनुसार ली गई हैं इस सिद्धान्त में गणना के सौकर्य के लिए कुछ छोटी संख्याएँ दी हुई हैं। संभवतः रोमक सिद्धान्त के आचार्य का यह मत प्रतीत होता है कि गणना के लिए जितनी छोटी संख्या हो उतना अच्छा। किन्तु इससे गणना की सूक्ष्मता चली जाती है। इस सिद्धान्त के अनुसार हमनें भाद्रपद कृष्ण अष्टमी शक ४२७ (अर्थात् २६/८/२००५) का अहर्गण निकाला, जो ५४७६६२ आता है। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार यही अहर्गण ५४८०२१ दिन आता है। इस प्रकार दोनों में २६ दिन का अन्तर इस १५०० वर्ष की अवधि में हो जाता है। इसका मुख्य कारण रोमक सिद्धान्त द्वारा स्वीकार किया हआ गलत वर्षमान है। रोमक सिद्धान्त का वर्षमान ३६५ दिन १४ घटी ४८ पल है जबकि सूर्य सिद्धान्त आदि का वर्षमान ३६५ दिन १५ घटी ३१ पल ३० विपल है। इससे यह तो स्पष्ट है कि रोमक सिद्धान्त का वर्षमान साम्पातिक है और यह तत्व संभवतः रोमक सिद्धान्त के आचार्य ने यूनानी परंपरा से लिया है। किन्तु भारतीय पद्वति में नक्षत्र वर्ष का प्रयोग करने पर ही शुद्ध सूर्य और चन्द्र स्पष्ट निकाले जा सकते हैं और इसलिये रोमक सिद्धान्त के अनुसार रोमक के अहर्गण के आधार पर वर्तमान में सूर्य या चन्द्र का कोई भी मध्यमान या स्पष्ट मान सही नहीं आता। इसी कारण से तिथि, नक्षत्र, योग, करण इत्यादि कुछ भी शुद्ध नहीं आता।
३.३.२ मध्यम एवं स्पष्ट सूर्य और चन्द्र
तथापि रोमक सिद्धान्त में मध्यम सूर्य और मध्यम चन्द्र की प्रक्रियाएं दी गई हैं। वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १६१ उदाहरण के लिए मध्यम सूर्य के लिए यह बताया गया है कि अहर्गण को १५० से गुणा करो, उसमें से ६५ घटाओ तथा उसमें ५४७८७ का भाग दो तो मध्यम सूर्य आयेगा। इसी प्रकार मध्यम चन्द्र के लिए यह बताया गया है कि अहर्गण में ३८१०० का गुणा करो, उसमें १६८४ घटाओ और १०४०६५३ से भाग दो तो मध्यम चन्द्र आयेगा। ये प्रक्रियाएं उसी प्रकार की है जिस प्रकार सूर्य सिद्धान्त इत्यादि में हैं। किन्तु इनके आधार पर मध्यम चन्द्र या मध्यम सूर्य निकालने पर शुद्ध मान नहीं आता। उदाहरण के लिए भाद्रपद कृष्णा अष्टमी शक १६२७ का मध्यम सूर्य रोमक सिद्धान्त के अनुसार १२००-४८-२२" आता है जबकि सूर्य सिद्धान्त के अनुसार इस दिन का मध्यम सूर्य १३००-२५’-३” आता है। इस प्रकार रोमक के अनुसार मध्यम चन्द्र ४७°-२२'४०" आता है तो सूर्य सिद्धान्त के अनुसार २८-०-४५" आता है। अतः स्पष्ट है कि रोमक सिद्धान्त द्वारा लाये गये चन्द्र और सूर्य के मध्यम मान बहुत अशुद्ध आते हैं। इसी प्रकार स्पष्ट सूर्य और चन्द्रमा निकालने के लिए इस सिद्धान्त में मन्द केन्द्र की आधी-आधी राशियों के लिए मन्दफल दिए हुए हैं। ये मन्दफल आचार्य ने किसी कोष्टक से ग्रहण किए हैं। इनके अनुसार पहली तीन राशियों में ये ऋणात्मक होते हैं, दूसरी तीन राशियों में ये धनात्मक होते हैं, तीसरी तीन राशियों में ये पुनः धनात्मक होते हैं तथा चौथी तीन राशियों में फिर ऋणात्मक होते हैं। इनका क्रम भी अलग-अलग होता है। अर्थात् पहली तीन राशियों में सीधे गणना होती है, दूसरी तीन राशियों में विपरीत गणना होती है, तीसरी तीन राशियों में सीधी गणना होती है और चौथी तीन राशियों में फिर विपरीत गणना होती है। इस प्रकार मन्दफल लाने के लिए प्रत्यक्षतः मन्द परिधि का उपयोग इनमें दिखाई नहीं देता किन्तु. आचार्य ने जो मन्दफल दिए हैं, उनका आधार कोई. मन्द परिधि की कल्पना ही लगती है, या फिर सीधे ही किन्हीं कोष्ठकों से लिया गया है। इन मन्दफलों के आधार पर जो स्पष्ट सूर्य और चन्द्रमा आते हैं, वे भी अशुद्ध आते हैं। स्पष्ट है कि जब चन्द्र और सूर्य का स्पष्ट मान ही शुद्ध नहीं है तो तिथि, नक्षत्र आदि भी शुद्ध नहीं हो सकते। इस सिद्धान्त में सूर्य और चन्द्र की दैनिक गतियां निकालने की पद्धति भी दी गई है। इसमें सूर्य की दैनिक मध्यम गति ५६’-८" तथा चन्द्रमा की दैनिक मध्यम गति ७६०’ मानी गई है तथा इसे स्पष्ट करने के लिए उन्हीं मन्दफलों का प्रयोग करने की बात कही गई है जो सूर्य के स्पष्टीकरण में प्रयोग में लाये जाते हैं।
३.३.३ रोमक सिद्धान्त कितना देशी कितना विदेशी?
यद्यपि हमारी परम्परा इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार करती है कि रोमक सिद्धान्त रोमक देश में ही बना और भगवान सूर्य को शाप के कारण यवन देश में जन्म १६२ ज्योतिष-खण्ड लेना पड़ा वहां इस सिद्धान्त का उपदेश किया। इस परम्परा से तथा सिद्धान्त के नाम से यह तो स्पष्ट है कि रोमक सिद्धान्त विदेशी मूल का है, किन्तु इसके आधार पर विद्वानों ने जो यह निष्कर्ष दिया कि भारतीय ज्योतिष पर यूनानी ज्योतिष का प्रभाव है, यह बात सही प्रतीत नहीं होती। सूर्य सिद्धान्त के प्रसिद्ध अनुवादक बर्जेस ने ग्रन्थ के अन्त में अपनी टिप्पणी में यह प्रश्न ठीक ही उठाया है कि यद्यपि कुछ विद्वान ये कहते आये हैं कि भारतीय ज्योतिष पर ग्रीक ज्योतिष का प्रभाव है, किन्तु यह कोई नहीं बताता कि यह प्रभाव क्या है? या कि किस सीमा तक कौन सा तत्व भारतीय ज्योतिष ने यूनान से लिया है? उनका मानना है कि किसी भी मामले में दोनों सिद्धान्तों के तत्व नहीं मिलते और जहां तक कुछ महत्वपूर्ण तत्वों का सवाल हे, उदाहरण के तौर पर अयन की वार्षिक गति या कि सूर्य और चन्द्रमा के बिम्बों का माप या कि सूर्य का अधिकतम मन्दफल, इन सभी मामलों में यूनानियों की अपेक्षा हिन्दुओं के मान अधिक शुद्ध हैं।’ _बर्जेस की इस टिप्पणी के प्रकाश में यदि हम दोनों देशों के कुछ सिद्धान्तों पर नजर डालें तो बात और स्पष्ट हो जायेगी १. ग्रहों के स्पष्टीकरण के लिए मन्द परिधि की प्रक्रिया भारत की एक विशेष पद्धति है किन्तु रोमक सिद्धान्त में वह नहीं है। लेकिन टॉलेमी के सिद्धान्त में वह है। टॉलेमी ईसा की दूसरी शताब्दी में हुए और टॉलेमी का सिद्धान्त निश्चित रूप में रोमक सिद्धान्त के बाद का है। इससे तो यही प्रमाणित होता है कि यूनान ने भारत से मन्द परिधि का सिद्धान्त लिया क्योंकि टॉलेमी से पूर्व के हिप्पार्कस के पास यह सिद्धान्त नहीं था तथा रोमक में भी मन्द परिधि का सिद्धान्त नहीं है। २. रोमक सिद्धान्त की अहर्गण पद्धति शुद्ध रूप से भारतीय है, इसमें अधिमास हैं, क्षय तिथियां हैं, चान्द्र मास हैं तथा सम्पूर्ण पद्धति ठीक वैसी ही है जैसी सूर्य सिद्धान्त आदि में है। अतः इस पद्धति के विदेशी होने का प्रश्न नहीं उठता। ३. रोमक ने ३०३१ दिन में चन्द्रमा के मन्द केन्द्र के ११० भगण होने के सिद्धान्त को वासिष्ठ सिद्धान्त से लिया है। . ४. जिसे जूलियन केलेण्डर कहा जाता है, उसका वर्षमान ३६५.२५ दिन का होता है। यह वर्षमान भी वासिष्ठ सिद्धान्त से लिया गया है। ५. वर्षमान का सिद्धान्त रोमक का अपना है किन्तु इसके कारण गणित में अशुद्धियां ही हुई है। एक छोटी अवधि के लिए रोमक सिद्धान्त सही परिणाम दे सकता है पर किसी भी लम्बी अवधि के लिए उसके परिणाम सही नहीं आते। वर्षमान के अलावा सूर्य का परम मन्दफल तथा अयनांश भी रोमक सिद्धान्त के अशुद्ध हैं। ये अशुद्ध तत्व संभवतः उन्होंने अपनी परंपरा से लिए हैं। कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १६३ कि रोमक सिद्धान्त के आचार्य ने अपनी देशज परंपरा में भारतीय सिद्धान्तों को मिलाकर एक ऐसा सिद्धान्त बनाया, जो छोटे काल के व्यावहारिक प्रयोजन के लिए ठीक था किन्तु उसके देशज तत्व अशुद्ध होने के कारण किसी भी लम्बी अवधि के लिए वह ठीक नहीं रहा। इसके संबंध में पौलिश सिद्धान्त के आचार्य ने ठीक ही लिखा है मार्गादपेतमेतत् काले लघुता न तावदतिदूरे। सविषयभूताष्टरसैरब्दैः पश्यास्य विनिपातम् ।। ‘यह रोमक सिद्धान्त थोड़े ही दिनों में अपने रास्ते से भटक गया, केवल ६८५५ वर्षों में इसका पतन तो देखो। ३.३.४ रोमक सिद्धान्त के काल का अनुमान रोमक सिद्धान्त के विषय में पुलिशाचार्य ने दो महत्वपूर्ण संकेत दिए हैं और उनसे इस सिद्धान्त के काल निर्धारण में बड़ी सहायता मिलती है। उनमें से एक श्लोक तो ऊपर उद्धृत किया गया है तथा दूसरा इस प्रकार है रोमकमहर्गणं पादमर्कमिन्दुं च गणयता ग्राया। चैत्रस्य पौर्णमास्यां नवमी नक्षत्रमादित्यम् ।। ‘रोमक के अहर्गण को ग्रहण करते समय सूर्य और चन्द्र में एक पाद अर्थात् ६०° जोड़ देना चाहिये अन्यथा चैत्र मास की पूर्णमासी को चित्रा नक्षत्र के स्थान पर नवमीं का पुनर्वसु नक्षत्र आ जायेगा।’ इन दोनों कारिकाओं के विषय में सुधाकर द्विवेदी तथा थीबो ने लिखा है उससे स्पष्ट है कि वे इन दोनों का आशय नहीं समझ पाये। अपनी संस्कृत टीका में सुधाकर द्विवेदी ने रोमक सिद्धान्त की ६ आर्याओं के विषय में यह टिप्पणी दी है (३२-३७) इदानीमस्मिन्नध्याये विशेषमाह। तिथि नक्षत्रेत्यादि। अत्राशुद्ध्याधिक्यादानुपूर्व्या सर्वेषामाशयो न विदितो भवति। इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि इन कारिकाओं का आशय उनको स्पष्ट नहीं है। यही बात थीबो ने भी लिखी है- “३२-३७ सिक्स स्टेंजाज ऑफ ओबस्क्योर इंपोर्ट। वी०आर० अनेविल टु एलिसिट, फ्रोम द टेक्स्ट कोनेक्टेड मीनिंग। १. पञ्चसिद्धान्तिका (सं० ६ में उद्धृत), पृ० ७१. २. पञ्चसिद्धान्तिका (सं० ४० में उद्धृत), संस्कृत टीप, पृ० १६. ३. तत्रैव, अंग्रेजी अनुवाद, पृ० २१. १. सूर्यसिद्धान्तः बर्जेस का अनुवाद, इन्डोलॉजिकल बुक हाउस, दिल्ली, १६७७, पृ० ३६२. १६४ ज्योतिष-खण्ड किन्तु कुप्पन्न शास्त्री और के०वी० शर्मा ने जो संस्करण दिया है, उससे इनका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है रोमक का वर्षमान साम्पातिक होने से अशुद्ध है और इसके कारण तिथि, नक्षत्र शुद्ध नहीं आ सकते। पुलिशाचार्य ने ६८५५ वर्ष में यह अशुद्धि ६ ३/४ नक्षत्र के बराबर बताई है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण संकेत है। पुनर्वसु से चित्रा के अंत तक ६०° का अन्तर होता है। अगर ६० में ६८५५ का भाग दें तो प्रतिवर्ष ४८” की गति आती है। यह अयनांश गति के बराबर है और इसलिए यह स्पष्ट होता है कि रोमक सिद्धान्त के समय अयनांश ६०° था। इसलिये उसके अहर्गण में सूर्य और चन्द्रमा के लिए अगर ६०° जोड़कर गणना करेंगे तो चैत्र की पूर्णिमा को पुनर्वसु के स्थान पर चित्रा नक्षत्र ही आयेगा। दूसरा संकेत जो उन्होंने ६८५५ वर्ष का दिया उसके संबंध में यह विचार योग्य है कि ये ६८५५ वर्ष कबसे माने जायें। जिस प्रकार वर्तमान में कलियुगारंभ से अहर्गण निकालकर ग्रहों की गणना की जाती है तथा जिस प्रकार सूर्य सिद्धान्त में गत कृत युग के अंत में युगारंभ मानकर ग्रह गणना की बात की गई है, उसी प्रकार रोमक और पौलिश सिद्धान्त के समय गणना का आधार संभवतः वह वर्ष था जब चित्रा में सम्पात था। इसका संकेत कात्यायन शुल्बसूत्र की कर्काचार्य की व्याख्या में दिया गया है वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १६५ यद्यपि यह काल निर्धारण आधुनिक विद्वानों को अटपटा सा लग सकता है किन्तु इसके पीछे आभ्यन्तर गणितीय प्रमाण हैं। इससे पूर्व थीबो या शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने इसके काल निर्धारण के संबंध में जो तर्क दिये है, वे सभी युक्ति शून्य हैं। थीबो ने जो इसका काल ४०० ई० के आसपास दिया है, उसके पीछे उन्होंने कोई तर्क नहीं दिया तथा हम यह भी जानते कि वासिष्ठ और पौलिश सिद्धान्त के अत्यन्त महत्वपूर्ण अंशों को थीबो नहीं समझ सका। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने भी युगीन धारा में बहते हुए हिप्पार्कस के आधार पर इसका काल लगभग १५० ई०पू० माना और इसका एकमात्र आधार यह माना कि हिप्पार्कस में वर्षमान रोमक के वर्षमान से मिलते है। किन्तु उन्होंने यह भी लिखा ‘सम्प्रति हिप्पार्कस का ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है पर मान्य यूरोपियन ज्योतिषियों का कथन है कि उन्होंने केवल सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति लाने के लिए कोष्टक बनाए थे, ग्रह साधन के नहीं।’ इससे स्पष्ट है कि बिना किसी आधार के हिप्पार्कस से रोमक सिद्धान्त को जोड़ दिया गया है। जब उसका कोई ग्रन्थ ही नहीं मिलता तो तुलना के लिए कोई आधार ही शेष नहीं रहता तथा एकमात्र वर्षमान के मिल जाने से यह नहीं कहा जा सकता कि रोमक सिद्धान्त पर हिप्पार्कस का प्रभाव है। यह भी तो हो सकता है कि हिप्पार्कस ने रोमक सिद्धान्त से अपना वर्षमान लिया हो। दक्षिणायने तु चित्रां यावदादित्य उपसर्जति। उदगयने स्वातिमेति। विषुवतीये त्वहनि चित्रास्वात्योर्मध्य एवोदयः’। ‘दक्षिणायन में सूर्य चित्रा पर्यन्त गमन करता है, उत्तरायण में वह स्वाति में आ जाता है किन्तु विषुवतीय दिवस (अर्थात् वसंत सम्पात) को वह चित्रा व स्वाति के बीच में रहता है। यह ध्यान देने योग्य है कि वैदिक काल में उदगयन का अर्थ सूर्य के विषुवत् वृत्त से उत्तर में भ्रमण से था तथा दक्षिणायन का अर्थ विषुवत वृत्त से दक्षिण में भ्रमण से, और इसलिये सम्पात के दिन चित्रा में सूर्य के होने की बात कही गई है। मैंने इसकी गणना की है तथा यह काल ईसा पूर्व १२६०० आता है। इसमें से ६८५५ घटा दिए जायें तो ६०४५ ई० पू० रोमक/पौलिश सिद्धान्त का काल ठहरता है। अयनांश के मान से गणना करने पर यह काल ६००/४६.०’ = ६११३ ई०पू० सिद्ध होता है। इस प्रकार रोमक सिद्धान्त का काल उसके आभ्यन्तर साक्ष्य से ६१०० ई०पू० के आसपास ठहरता है। इससे हम यह समझ सकते हैं कि रोमक सिद्धान्त ने सूर्य का मन्दोच्च ७५° क्यों लिया जबकि यदि वह ईस्वी सन् के आसपास रहा होता तो ७७° मन्दोच्च ग्रहण करता तथा यदि उसे यूनान का ही मान लेना होता तो ६५०-३०’ लिया होता, जिसको की टॉलेमी ने ग्रहण किया। ७५° सूर्य का मन्दोच्च लेना सिद्धान्त के अत्यन्त प्राचीन होने का प्रमाण है।
३.४ पौलिश सिद्धान्त
पञ्चसिद्धान्तिका का तीसरा अध्याय, पांचवा, सातवां, छटा तथा अठारहवा पौलिश सिद्धान्त के लिए समर्पित है। आचार्य बराह मिहिर ने इस सिद्धान्त का अत्यन्त विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया है। जहां तक युगमानों का सवाल है, पौलिश सिद्धान्त के युगमान उस तरह नहीं दिए गए हैं, जिस तरह रोमक या सौर सिद्धान्त के दिए गए हैं। किन्तु जिन आर्याओं में सूर्य एवं राहु की गति दी गई है, उसके आधार पर पौलिश सिद्धान्त का वर्षमान ३६५ दिन १५ घटी ३० पल है तथा ४३२०००० के एक महायुग में १५७७६१६००० सावन दिन होते हैं। राहु के एक युग में भगण २३२२२७ से कुछ अधिक होते हैं। अहर्गण निकालने की इसकी पद्धति रोमम सिद्धान्त जैसी है, किन्तु इसमें कुछ संशोधन किया गया है। चूंकि इसका वर्षमान शुद्ध है इसलिये इसके अहर्गण भी शुद्ध आते हैं। हमने २६ अगस्त २००५ का अहर्गण पौलिश सिद्धान्त के अनुसार निकाला तो वह ५४८०२१ आता है। यही अहर्गण सौर सिद्धान्त से भी आता है। अतः इसे शुद्ध माना जाना चाहिये, क्योंकि इसके आधार पर जो मध्यम और स्पष्ट सूर्य निकाले जाते हैं, वे सही आते हैं। १. कात्यायन शुल्बसूत्रः कर्काचार्य भाष्य, वैदिक संशोधन मण्डल, पूना, पृ० १. १. भारतीय ज्योतिष (ऊपर उद्धृत), पृ० २१६ १६६ ज्योतिष-खण्ड
३.४.१ मध्यम तथा स्पष्ट सूर्य
खार्कनेऽग्निहुताशनमपास्य रूपाग्निवसुहुताशकृतैः। हृत्वा क्रमाद् दिनेशो मध्यः केन्द्रं सविंशांशम्’ ।। ‘अहर्गणों को १२० से गुणा करो, उसमें से ३३ घटाओ और ४३८३१ से भाग दो तो मध्यम सूर्य आ जाता है। इस मध्यम सूर्य में २०° जोड़ने पर सूर्य का मन्द केन्द्र आ जाता है।’ पौलिश सिद्धान्त की यह अपनी विशेषता है कि इसमें मन्द केन्द्र मध्यम सूर्य में २०० जोड़ने से ही आ जाता है। सामान्यतया मन्दोच्च में से मध्यम ग्रह घटाने से मन्द केन्द्र आता है। _ हमारे उदाहरण में अहर्गण ५४८०२१ आया, इसमें १२० से गुणा करने पर तथा उसमें से ३३ घटाकर ४३८३१ से भाग देने पर मध्यम सूर्य निम्नानुसार आता है ५४८०२१ x १२० = ६५७६२५२०-३३ = ६५७६२४८७ : ४३८३१ = (१५००). ३४६७ = (१५००) १३१०-१८’-२५’ ४-११०-१८’.२५” चूंकि ४३८३१ दिन में सूर्य के १२० भगण होते हैं, इसी के आधार पर ४३८३१/१२० = ३६५.२५८३३ = ३६५ दिन १५ घड़ी ३० पल यह वर्षमान पौलिश सिद्धान्त के अनुसार हुआ।
३.४.२ स्पष्ट सूर्य
स्पष्ट सूर्य के लिये पौलिश सिद्धान्त में ६ राशियों के लिए मन्दफल दिए हैं, जो क्रमशः ११, ४८, ६६, ७०, ५४ तथा २६ हैं। अगली ६ राशियों के लिए ये मन्दफल १०, ४८, ७०, ७१, ५४, तथा २५ दिए गए हैं। पहली ६ राशियों के लिए ये ऋणात्मक हैं तथा अगली ६ राशियों के लिए ये धनात्मक हैं। इस प्रकार सूर्य के स्पष्टीकरण की प्रक्रिया पौलिश सिद्धान्त में अत्यन्त सरल है। अपने उदाहरण में हमने सूर्य का स्पष्ट किया तो यह ४७.६° .१३’.१८" आया। जबकि उसी दिन का लाहिरी की एफेमरीस के अनुसार स्पष्ट सूर्य ४७.६०.३३’.२३" हैं। सूर्य की दैनिक गति के लिए इस सिद्धान्त में कोई सूत्र नहीं दिया हुआ है अपितु मेष से प्रारंभ कर प्रत्येक माह में सूर्य की गति कितनी होती है, यह दिया गया है। इसके अनुसार मेषादि मासों में ये गतियां क्रमशः ५८’, ५७’, ५७’, ५७’, ५८’, ५६’, ६१’, ६१’, ६१, ६१’, ६०’, तथा ५६’ होती हैं। वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १६७
३.४.३ मध्यम एवं स्पष्ट चन्द्र
चन्द्रमा के मध्यम मान और उसके स्पष्टीकरण के लिए इस सिद्धान्त में भी वासिष्ट सिद्धान्त की भांति घन, गति तथा पद का प्रयोग किया गया है जो कि चन्द्रमा की मन्दकेन्द्रीय गति पर आधारित हैं तथा इसकी प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है। किन्तु इसका परिणाम शुद्ध आता है। (२६/८/२००५) जन्माष्टमी के लिए हमनें चन्द्रमा का स्पष्ट मान निकाला तो यह १७-०°-१३’ आया तथा उसी दिन का लाहिरी की एफेमेरीज का चन्द्रमा का स्पष्ट मान १-१०-२५.५६’ है। अतः इतने प्राचीन सिद्धान्त के सन्दर्भ में यह शुद्ध ही माना जायेगा। स्पष्ट चन्द्र से नक्षत्र, तिथि और करण निकालने की प्रक्रियाएं वे ही हैं, जो वर्तमान में प्रचलित हैं। एक नक्षत्र ८००’ का होता है, अतः चन्द्रमा के भोग में ८०० का भाग देने पर नक्षत्र आता है। एक तिथि ७२०’ की होती है, इसलिये चन्द्रमा और सूर्य के भोगों का जो अन्तर है, उसमें ७२० का भाग देने से तिथि आती है तथा आधी तिथि का एक करण होता है।
३.४.४ व्यतिपात एवं वैधृति योग
पौलिश सिद्धान्त का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व यह ‘व्यतिपात’ और ‘वैधृति’ है। इसके आधार पर इस सिद्धान्त के काल का भी संकेत मिलता है। अर्केन्दुयोगचक्रे वैधृतमुक्तं दशः-सहितेषु। यदि चक्रं व्यतिपातो वेलामृग्यार्पितेर्भागः’।। अर्केन्दुयोगचक्रे वैधृतमुक्तम् । दशर्क्ष सहितेषु यदिचक्रं, व्यतिपातः। वेला अर्पितैः भागैः मृग्या इत्यस्य श्लोकस्यान्वयः। अयमाशयः, अर्केन्दोः सूर्यचन्द्रमसोः योगस्य तयोर्भोगस्य योगस्य पूर्णचक्रतां द्वादशराशिमितत्वं सप्तविंशतिनक्षत्रतां वा प्राप्ते वैधृतंनाम योगम् । (परन्तु) यदि दशनक्षत्रसहितेषु दशनक्षत्रमितभोगं योजिते सति चक्रं षष्टयुत्तरत्रिंशदंशात्मिकतां याति तदा व्यतिपातो भवति । तयो बेला-समयः अर्पितैः दत्तैः भागैरंशैर्मृग्या अन्वेषणीयाः। यदि तयोर्योगः निरयनगणनया सप्तदशनक्षत्रात्मको विद्यते, तस्मिन् अयनांशानां दशनक्षत्रमितभोगं योजिते सति यदि चक्रं पूर्णतामेति तदा वैधृतस्थाने व्यतिपातो भवति। पैतामहसिद्धान्तप्रसंगेऽपि अस्माभिर्दृष्टम् यत् तस्मिन् काले पंचनक्षत्रात्मक अयनांशकारणात् सप्तदशे नक्षत्रे व्यतिपात आसीत् ‘अर्कने व्यतिपाता धुगणैः पंचाम्बरहुताशै रिति’। (अस्मद् व्याख्या) ‘जब सूर्य और चन्द्रमा के भोगों का योग एक पूर्ण भगण के बराबर होता है तो उसे वैधृति योग कहते हैं। किन्तु यदि दस नक्षत्र मिलाने पर पूर्ण चक्र बनता है तो वह १. तत्रैव, (३.२०) पृ. ५८. १. पञ्चसिद्धान्तिका (सं० ६ में उद्धृत), (१११.३) पृ० ४०. वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका १६६ में था। इस मान से इस सिद्धान्त की अवधारण का काल ६०४५ ई० पू० के आसपास आता है। पुलिशाचार्य ने अपने समय के द्विगुणित चरखण्ड २०, १६.५० और ६.७५ दिए हैं। वर्तमान द्विगुणित चरखण्ड १६.५, १५.५ और ६.५ हैं। पौलिश सिद्धान्त के समय सूर्य की परम क्रान्ति २४०-२१’.४१’ थी, जो अब २३०-२६’ है। इसके आधार पर यह काल ६२०० ई० पू० के आसपास आता है। अतः पौलिश सिद्धान्त का काल रोमक सिद्धान्त के कुछ पश्चात् ६००० ई० पू० के लगभग है। वासिष्ठ सिद्धान्त चूंकि उससे भी प्राचीन है, अतः उसका काल ६००० ई० पू० से भी काफी प्राचीन होना चाहिये।
३.४.६ देशान्तर
पौलिश सिद्धान्त में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें आचार्य ने उज्जैन तथा यवनपुर एवं उज्जैन तथा वाराणसी का नाड्यन्तर अर्थात् देशान्तर दिया है। इससे प्राचीन काल में इन नगरियों की स्थिति का पता चलता हैं। १६८ ज्योतिष-खण्ड व्यतिपात कहलाता है। उसके समय का निर्धारण उनके निरयण भोग में जितने अंश मिलाये जाते हैं, उसके आधार पर करना चाहिये।’ _ आशय यह हुआ कि यदि निरयन मान से सूर्य और चन्द्र के भोगों १७ नक्षत्र के बराबर हुआ और उसमें अयनांश के १० नक्षत्र मिलाकर भगण पूरा हुआ तो भी उसे वैधृति नहीं कह सकते, वह व्यतिपात ही कहलायेगा क्योंकि निरयन मान से वह पूर्ण भगण नहीं हैं। वैधृति योग तभी होता है जब दोनों के भोगों का योग निरयन मान से भी पूर्ण भगण के बराबर होता है। सिद्धान्त शिरोमणि में व्यतिपात और वैधृति की यह परिभाषा दी हुई है-सायनरविशशियोगो भार्धं (१८००) चक्रं (३६००) तदासन्नः (व्यतिपात-वैधृतिश्चेति शेषः) जब सूर्य और चन्द्र के सायन भोगों का योग१८०° होता है तो वह व्यतिपात कहलाता है और ३६०° होता है तो वैधृति कहलाता है। इस परिभाषा के अनुसार पैतामह सिद्धान्त के समय अयनांश के १० नक्षत्र जोड़कर व्यतिपात आता था, जिसका आशय होता है कि उस समय अयनांश ५ नक्षत्र के बराबर था। पुलिशाचार्य कहते हैं कि जब सूर्य अश्लेषा के आधे पर दक्षिणायन की ओर प्रस्थित होते थे, तब यह स्थिति उचित थी किन्तु अब अर्थात पौलिश सिद्धान्त के काल में अयन (अर्थात सम्पात) पुनर्वस नक्षत्र से है। इस समय सूर्य की परम क्रान्ति के समय सूर्य और चन्द्रमा के नक्षत्रों का भोग ६०° है। अतः यह विपरीतायनपात की स्थिति है। क्योंकि सूर्य और चन्द्र दोनों के भोगों का योग ६०+६० =१८०° ही होगा। विपरीतायनपातो यदार्ककाष्ठां शशिरविक्षेपः। भवति तदाव्यतिपातो दिनकृच्छशियोगचक्रा?’ ।। यह विपरीतायनपात इसलिये कहलाता है कि दोनों के निरयन भोग में ६०° का आयनांश मिलाने पर उनका सायन भोग २७ नक्षत्र के बराबर हो जाता है। किन्तु चूंकि निरयन भोग १८०° ही होता है इसलिये वैधृति के स्थान पर व्यतिपात और व्यतिपात के स्थान पर वैधृति योग होता हैं। यवनान्तरजा नाड्यः सप्तावन्त्यां त्रिभागसंयुक्ताः। वाराणस्यां त्रिकृतिः साधनमन्यत्र वक्ष्यामि’। ‘अवन्तिका से यवनपुर का नाड्यन्तर ७. १/३ नाड़ी है (कुछ विद्वान् त्रिभाग संयुक्ता का अर्थ ३/४ भी करते है) तथा वाराणसी और यवनपुर का नाड्यन्तर ६ घटी हैं।’ शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने इसे ‘यवनाच्चरजानाड्यः’ पढ़ा अतः वे इसका सही अर्थ नहीं कर पाये और चरखण्डों के गणित में खो गये। _ १ घटी ६° की होती है। इसके मान से उज्जैन और यवनपुर का अंशात्मक अन्तर ४४° हुआ तथा यवनपुर और वाराणसी का अन्तर ५४° हुआ। ऑक्सफोर्ड एटलस के अनुसार कुसतुन्तनिया का देशान्तर २६° पूर्व है जबकि उज्जैन का देशान्तर ७५° ४३’ पूर्व है। दोनों का अन्तर ४६° ४३’ हुआ। जबकि उपर्युक्त आर्या में यह ४४° दिया हुआ है। अतः आज की स्थिति में भी यह अन्तर अत्यन्त सटीक है और कुसतुन्तुनिया की पहचान यवनपुर से की जा सकती है। त्रिभागसंयुक्ता का अर्थ ३/४ लेने पर यह अन्तर ४६° ३०’ हो जायेगा जो कि एकदम ठीक बैठता है। इसी प्रकार वाराणसी का देशान्तर ८३° २६’ है, इसमें से २६° घटाने पर ५४°२६’ का अन्तर आता है। उपर्युक्त आर्या में भी ५४° ही दिया हुआ है, जो कि एकदम सही है। इससे स्पष्ट है कि उतने प्राचीन काल में भी विश्व के महत्वपूर्ण शहरों के नाड्यन्तर की एक तालिका इस पौलिश सिद्धान्त में थी। इस आधार पर प्राचीन शहर एलेक्जैण्ड्रिया की पहिचान भी यवनपुर से हाती है।
३.४.५ इस सिद्धान्त के काल का अनुमान
इसी से तथा पूर्व में रोमक सिद्धान्त के अन्तर्गत उद्धृत आर्याओं से यह स्पष्ट है कि रोमक और पौलिश सिद्धान्त के समय अयनाश ६०° था तथा सम्पात पुनर्वसु के प्रारंभ १. सिद्धान्तशिरोमणि : भास्कराचार्य : गणिताध्याय पाताधिकार, अध्याय ६. २. पञ्चसिद्धान्तिका (सं. ६ में उद्धृत), (३.२२ ) पृष्ठ ६२. १. तत्रैव, पृष्ठ ५१. (पञ्चसिद्धान्तिका, ३-१३) २०० ज्योतिष-खण्ड इसके अतिरिक्त पोलिश सिद्धान्त में चर निकालने की विधि, दिनमान निकालने की विधि, स्थानीय सूर्यस्त निकालने की विधि, देशान्तर गणना की विधि तथा सूर्य और चन्द्र के ग्रहण निकालने की विधि भी दी हुई है। वासिष्ट सिद्धान्त की तरह पौलिश सिद्धान्त में भी शुक्र आदि ग्रहों के वेध के आधार पर उनकी गतियां दी हुई हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि पौलिश सिद्धान्त के काल तक ताराग्रहों का स्पष्टीकरण गणितीय सिद्धान्तों के आधार पर नहीं होता था अपितु वेध के आधार पर होता था।
३.५ सौर सिद्धान्त
पञ्चसिद्धान्तिका के ६, १०, १६, और १७, वें अध्यायों में आचार्य वराह मिहिर ने सौर सिद्धान्त के तत्वों की विस्तृत व्याख्या की है। अध्याय ६ में सौर सिद्धान्त के अनुसार सूर्यग्रहण के गणित का विवरण दिया है, अध्याय १० में चन्द्र ग्रहण का, अध्याय १६ में ग्रहों के मध्यम मान का तथा अध्याय १७ में ग्रहों के स्पष्ट मान का विवरण उन्होंने दिया है। आचार्य वराह मिहिर सौर सिद्धान्त को अत्यन्त परिपक्व सिद्धान्त मानते हैं तथा अन्य सभी सिद्धान्तों की अपेक्षा इसे स्पष्टतर तथा शुद्धतर मानते हैं। अपनी पञ्चसिद्धान्तिका के प्रारंभ में इन सिद्धान्तों की पारस्परिक समीक्षा करते हुए उन्होंने लिखा हैं पौलिशतिथिः स्फुटोऽसौ तस्यासन्नस्तु रोमकः प्रोक्तः। स्पष्टतरः सावित्रः परिशेषौ दूरविभ्रष्टौ।। (पञ्चसिद्धान्तिका, १-४) वस्तुतः भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष में सूर्य सिद्धान्त के बाद ही पूर्ण वैज्ञानिकता आई और यही कारण था कि सूर्य सिद्धान्त के बाद यद्यपि प्राचीन सिद्धान्तों के नाम वही रहे किन्तु उनके सभी तत्व सूर्य सिद्धान्त के तुल्य हो गये। परवर्ती आचार्यों ने भी अलग-अलग नाम से अपने ग्रन्थ बनाये लेकिन उनके मूल तत्व तथा गणित की प्रक्रियाएँ सूर्य सिद्धान्तसम्मत थीं या कि उनमें अपनी युगीन आवश्यकताओं के अनुसार तथा अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने कुछ संशोधन किया। वास्तविक प्राचीन सिद्धान्त पंचक तो वही है जो वराह मिहिर ने अपनी पञ्चसिद्धान्तिका में लिखा है। नया सिद्धान्त पंचक सूर्य सिद्धान्त का ही प्रतिरूप हैं। सौर सिद्धान्त के आने पर भारतीय ज्योतिष में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ। जहाँ पहले वासिष्ठ, रोमक और पौलिश सिद्धान्तों में ग्रहों के स्पष्ट दीर्घकाल तक वेध लेने के पश्चात् निर्धारित किए जाते थे, वहीं अब ग्रहों के स्पष्ट पूरी तरह गणित की क्रिया पर आधृत हो गये और वेध का कार्य इन गणितीय परिणामों को शुद्ध करने के लिए किया गया। जहाँ वेध में और गणितीय परिणाम में कोई अन्तर होता था तो बीज शुद्धि के द्वारा उसका शोधन कर दिया जाता था। सौर सिद्धान्त में आकर पहली बार एक महायुग के
वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका २०१ पूर्ण भगणों के आधार पर ज्योतिष की क्रियाएं की जाने लगीं। इन भगणों को हमारे यहाँ आर्ष ज्ञान माना गया। ऐसा वह है भी क्योंकि कोई सामान्य मनुष्य चाहे वह कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो अपने छोटे से जीवन में केवल वेध द्वारा ग्रहों के महायुग के भगण नहीं निकाल सकता। इसके अतिरिक्त दृश्य ग्रहों के संदर्भ में तो एक बार यह बात मान भी ली जाये किन्तु जो अदृश्य गणितीय बिन्दु हैं जैसे मन्दोच्च और पात उनके भगण तो वेध द्वारा निकाले ही नहीं जा सकते। इसलिये वस्तुतः यह आर्ष ज्ञान ही है तथा इसी आर्ष ज्ञान के आधार पर समूचे विश्व में सिद्धान्त ज्योतिष का ज्ञान फैला।
३.५.१ सूर्य सिद्धान्त के एक महायुग (४३२०००० सौर वर्ष) के भगणादिमान इस प्रकार हैं
१ नक्षत्र मण्डल का भ्रमण १५८२२३७८०० २ सूर्य के भगण ४३२०००० ३ सावन दिन १५७७६१७८०० ४ चन्द्र के भगण ५७७५३३३६ ५ चन्द्रोच्च ४८८२१६ ६ राहू के भगण २३२२२६ ७ मंगल के भगण २२६६८२४ ८ बुध (शीघ्र) के भगण १७६३७००० ६ गुरु के भगण ३६४२२० १० शुक्र (शीघ्र) के भगण ७०२२३८८ ११ शनि के भगण १४६५६४ १२ सौर मास ५१८४०००० १३ अधिमास १५६३३३६ १४ चान्द्रमास ५३४३३३३६ १५ तिथियां १६०३००००८० १६ क्षय तिथियां २५०८२२८० १७ वर्षमान ३६५-१५-३१-३० मन्दोच्च और पातों के एक कल्प (४,३२००००००० वर्ष) के भगण अ-मन्दोच्च भगण एक भगण का समय (१ गति) ३८७ १,११,६२७६०.७ (५१६.८ वर्ष) २०२ ज्योतिष-खण्ड ३६८ ५३५ शुक्र गुरु ३ बुध १,१७,३६१३०.४ (५४३.५ वर्ष) ८०,७४,७६६.४ (३७३.८ वर्ष) मंगल २०४ २,११,७६,४७०.६ (६८०.४ वर्ष) ६०० ४८००००० (२२२.२ वर्ष) शनि ११,०७,६६२३०.८ (५१२८.२ वर्ष) ब-पात ४८८ ८८,५२,४५६ (४०६.८ वर्ष) शुक्र ६०३ ४७,८४०५३.२ (२२१.५ वर्ष) मंगल २१४ २,०१,८६,६१५.६ (६३४.६ वर्ष) गुरु १७४ २,४८,२७५८६.२ (११४६.४ वर्ष) शनि …६५,२५,६७८.२ (३०२.१ वर्ष)
३.५.२ अहर्गण तथा सूर्य-चन्द्र के मध्यम मान
सौर सिद्धान्त में भी अहर्गण की वही प्रक्रिया है, जो रोमक सिद्धान्त में बताई गई है। व्यतीत वर्षों को १२ से गुणा कर सौर मास बना लेते हैं तथा इसमें व्यतीत मासों को जोड़ देते हैं। आनुपातिक रूप से अधिमास निकालकर इन्हें सौर मासों में जोड़ देते हैं, जिससे चान्द्रमास आ जाते हैं। चान्द्रमासों में ३० का गुणा कर तिथियां आ जाती हैं तथा इसमें व्यतीत तिथियां जोड़ देते हैं। इन तिथियों में से क्षय तिथियां घटाने पर सावन दिन आ जाते हैं और यही अहर्गण है। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (२६/८/२००५) का हमनें इस आधार पर अहर्गण निकाला तो वह ५४८०२१ आता है, जैसा कि पौलिश सिद्धान्त में भी आया था। एक महायुग में उक्तानुसार १५७७६१७८०० सावन दिन बताये गये हैं। उनके आधार पर अभीष्ट अहर्गण से मध्यम मान आनुपातिक रूप से सीधे ही निकाले जा सकते हैं किन्तु इसके स्थान पर आचार्य ने छोटी प्रक्रियाएं दी हैं ताकि गणित करने में सुगमता हो। ये प्रक्रियाएं उन्होंने सूर्य और चन्द्र के विषय में तो अध्याय ६ में दी हैं। शेष ग्रहों के विषय में अध्याय १६ में दी हैं। इस गणना के आधार पर (२६/८/२००५) का मध्यम सूर्य १३००-२५’-३" आया तथा मध्यम चन्द्र २७°-५६’-१५” आया। चन्द्रमा का मन्दोच्च १२१०-५५’-२५” आया तथा मध्यम राहू ७s-२६०-६’-५७’ आया।
३.५.३ स्पष्ट सूर्य-चन्द्र
सूर्य और चन्द्र के स्पष्टीकरण के लिये मन्दोच्च, मन्द केन्द्र तथा मन्द परिधि की प्रक्रिया अपनाई गई है। मध्यम ग्रह से ग्रह का मन्दोच्च घटाया जाता है जिससे मन्द केन्द्र वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका २०३ निकलता है। इस मन्द केन्द्र की ज्या निकालकर उसका अनुपात ग्रह की मन्द परिधि से किया जाता है। यह मन्द परिधि की ज्या होती है उसका जो चाप होता है वही मन्दफल होता है। यदि मन्द केन्द्र मेषादि ६ राशियों में रहता है तो इस मन्दफल को घटाते हैं तथा तुलादि ६ राशियों में रहता हैं तो जोड़ते हैं। उदाहरण मध्यम सूर्य १३०°-२५’.३" (-) सूर्य का मन्दोच्च = ८००-०-० सूर्य का मन्द केन्द्र ५००-२५’-३” मन्द केन्द्र की ज्या २६४६’ मन्द परिधि १४° मन्दफल की ज्या (१४०/३६०) x २६४६’ इसका चाप १०३’ = १०-४३’ चूंकि मन्द केन्द्र ६ राशि से कम है इसलिये ये ऋणात्मक है। अतः स्पष्ट सूर्य = (-) १०-४३’ स्पष्ट सूर्य = १२८०-४२’ मन्दफल = १०३’ इसी प्रकार स्पष्ट चन्द्र भी निकाला जा सकता है। चन्द्रमा की मन्द परिधि आचार्य वराह मिहिर ने ३१° बताई है। सौर सिद्धान्त के ग्रह उज्जैन के लिये बनाये गये हैं। लंका और उज्जैन एक ही रेखांश पर होने से सौर सिद्धान्त या सूर्य सिद्धान्त की गणना का केन्द्र उज्जैन है। उज्जैन से अन्य स्थानों के ग्रह स्पष्ट निकालने के लिये प्रक्रिया दी हुई है जिसमें पृथ्वी की परिधि को ३२०० योजन माना गया है और एक नाड़ी को ५३. १/३ योजन माना गया है। तदनुसार किसी स्थान का जो भी नाड्यन्तर हो अगर वह पूर्व में हैं तो इस मान से घटा दिया जाता है और पश्चिम में है तो जोड़ दिया जाता है तो स्थानीय दोपहर और मध्य रात्रि निकाले जा सकते हैं। सूर्य और चन्द्रमा की दैनिक गति की पद्धति भी सौर सिद्धान्त में दी गई है। सूर्य की मध्यम गति ५६’-८" मानी गई है और चन्द्रमा की मध्यम गति ७६०’-३४” मानी गई है तथा चन्द्रमा के मन्द केन्द्र की दैनिक गति ६’-४०" मानी गई है व स्पष्टीकरण की प्रक्रिया की तरह स्पष्ट गति भी निकाली गई हैं।
३.५.४ पंच ताराग्रहों के मध्यम मान तथा स्पष्टीकरण
सूर्य और चन्द्रमा के मध्यम मान उज्जैन दोपहर के निकाले गए हैं क्योंकि वे सूर्यग्रहण के संदर्भ में बताये गये हैं। उन्हें उज्जैन मध्य रात्रि का भी बनाया जा सकता है। वराह मिहिर ने अपनी पञ्चसिद्धान्तिका के अध्याय १६ व १७ में अन्य पंच ताराग्रहों अर्थात् मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि के मध्यम मान तथा उसकी स्फुटीकरण की प्रक्रिया २०४ ज्योतिष-खण्ड वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका २०५ क्षेप्याः स्वरेन्दुविकलाः प्रतिवर्ष मध्यमक्षितिजे। दश दश गुरोविंशोध्याः शनैश्चरे सार्धसप्तयुताः।। पञ्चाब्धयो विशोध्याः सितेबुधे खाश्विचन्द्रयुताः। खखवेदेन्दुविकलिकाः शोध्याः स्युः सुरपूजितस्य मध्याः।।’ _ इन ग्रहों के स्फुटीकरण के लिये एक विस्तृत और लम्बी प्रक्रिया दी हुई है। यह आधुनिक सूर्य सिद्धान्त जैसी ही है किन्तु इसकी विशेषता यह है कि इसमें आचार्य ने मन्दोच्च और मन्द परिधियों को स्थिर कर दिया है जिससे गणना सुगम हो गई है। शेष प्रक्रिया आधुनिक सूर्य सिद्धान्त जैसी ही है। स्पष्टीकरण के प्रयोजन के लिये विभिन्न ग्रहों के मन्दोच्च तथा शीघ्र और मन्द परिधियों को इस तालिका में देखा जा सकता है स्फुटीकरण हेतु ग्रहों के आवश्यक तत्त्व । स्वयं स्वयं सर्य सूर्य को दिया है। ये मध्यम मान उज्जैन मध्य रात्रि के हैं। यद्यपि युगीन भगणों के आधार पर अभीष्ट अहर्गण के अनुपात द्वारा ये मध्यम मान निकालकर तथा इसमें युगारंभ के क्षेपक जोड़कर ये मध्यम मान आज सीधे ही निकाले जा सकते हैं क्योंकि आजकल केलक्युलेटर जैसे यंत्रों की सुविधा है जिसमें लंबी राशि के गुणा-भाग करने में कोई कठिनाई नहीं होती हैं। किन्तु आचार्य ने उस समय की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए अपने इस करण ग्रन्थ के लिये सरल पद्धति का प्रयोग किया है और इसके लिये युगीन भगणों के स्थान पर छोटी अवधि के भगणों को लिया है। उदाहरण के लिये बृहस्पति के लिये उन्होंने लिखा है कि अहर्गण को १०० से गुणा करो तथा ४३३२३२ से भाग दो, इसी प्रकार मंगल के लिये अहर्गण को १ से गुणा करो और ६८७ से भाग दो, शनि के लिये १००० से गुणा करो और १०७६६०६६ से भाग दो। इन सब का आशय यह हुआ कि इन प्रक्रियाओं में १००, १००० या १ से गुणा करना बहुत आसान है और आचार्य सन्देश देना चाहते हैं कि बृहस्पति के १०० भगण ४३३२३२ दिन में पूरे होते हैं, मंगल का एक भगण ६८७ दिन में पूरा होता है तथा शनि के १००० भगण १०७६६०६६ दिनों में पूरे होते हैं। इससे गुणा-भाग में सरलता रहती है। इस प्रक्रिया में जो न्यूनाधिकता रहती है, उसकी पूर्ति वे प्रति भगण संशोधन के द्वारा करते हैं। इस प्रकार शुद्ध मध्यम मान आने पर उन्होंने प्रत्येक ग्रह का क्षेपक भी दिया है, जो मध्य ग्रह में जोड़ा जाता है तथा सबसे अन्त में उन्होंने अपने समय की बीज शुद्धि भी दी है जिससे गणितागत ग्रहों का आकाशीय स्थिति से मेल हो सके। आचार्य ने अपने युग की इन ग्रहों की क्षेप राशियां निम्नानुसार दी हैं ८०-६’-२०" मंगल २-१५०-३५’-०" शनि ४५-२०-२८-४६" बुध (शीघ्र) ४५२८°-१७’-०" शुक्र (शीघ्र) ८५२७°-३०-३९" इसी प्रकार उन्होंने अपने समय की बीज शुद्धि भी निम्नानुसार दी है गुरु -
- १०” प्रतिवर्ष तथा कुल १४००" मंगल -
- १७” प्रतिवर्ष शनि -
- ७’/२" प्रतिवर्ष बुध (शीघ्र) - + १२०’ प्रतिवर्ष शुक्र (शीघ्र) - -४५’ प्रतिवर्ष १६० ८० गुरु तत्त्व । मंगल । बुध । गुरु शुक्र । शनि शीघ्रोच्च । मध्यम मध्यम मध्यम सूर्य की गति की गति मन्दोच्च । ११० २२० २४० मन्द परिधि । ७० । २८ । ३२ । १४ । ६० शीघ्र परिधि | २३४ । १३२ । ७२ | २६० । ४० मध्यम मान | स्वयं | मध्यम सूर्य | स्वयं । मध्यम सूर्य | स्वयं की गति की गति की गति स्फुटीकरण की प्रक्रिया जटिल है किन्तु उसके द्वारा जो स्पष्ट ग्रह आता है वह आज की स्थिति में भी अत्यन्त सटीक बैठता है। इस प्रक्रिया में लगभग ४० गणितीय पदों का उपयोग होता है। किन्तु यह प्रक्रिया ज्योतिर्विज्ञान की आधारशिला है। इसके आधार पर किसी भी समय की ग्रह स्थिति निकाली जा सकती है और हमें किसी बाहरी अल्मनेक की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हमने इसके आधार पर (२६ अगस्त २००५) जन्माष्टमी शक १६२७ का बृहस्पति का स्पष्ट मान निकाला, जो ५-२२°-५४’-३३" निकाला। लाहिरी की एफेमेरीज के अनुसार उस दिन का बृहस्पति का स्पष्ट मान ५-२३०-२८’ है। अर्थात् केवल ३३’.३७’ का अन्तर है। आधुनिक युग का बीज संशोधन देकर इसे शुद्ध किया जा सकता है। यह इस बात का प्रमाण है कि ईसा की पांचवी शदी में भी आचार्य ने भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष को कितने सूक्ष्म वैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठित किया था। १. पञ्चसिद्धान्तिका, १६/१०-११, तत्रैव, पृ० २६४. २०६ ज्योतिष-खण्ड सौर सिद्धान्त में ग्रहों के उदयास्त के समय तथा ग्रहों के शर लाने की प्रक्रिया भी दी हुई है, जो आधुनिक सूर्य सिद्धान्त से मिलती है। आधुनिक सूर्य सिद्धान्त में और वराह मिहिर के सौर सिद्धान्त में मुख्य अन्तर यह है कि वराह मिहिर ने ४३२०००० वर्ष के महायुग के स्थान पर १८०००० के एक छोटे युग को स्वीकार किया जो कि महायुग का १/२४ है। इसी मान से उन्होंने अधिकमास, क्षय तिथियों को भी कम किया। किन्तु सावन दिनों के एक महायुग की संख्या जो १५७७६१७८२८ है, उसको २४ से भाग देने पर पूर्ण संख्या नहीं आती थी। अतः आचार्य ने इसके स्थान पर महायुग के सावन दिनों की संख्या १५७७६१७८०० मानी। इसको २४ से भाग देने पर पूर्णांक संख्या ६५७४६५७५ आ जाती है। इसके अतिरिक्त ग्रहों के युगीन भगणों में जो अन्तर वराह मिहिर ने किया है, वह बीज संशोधन के स्वरूप का है। दोनों सिद्धान्तों के युगीन भगणों में अन्तर इस प्रकार है सौर सिद्धान्त सूर्य सिद्धान्त बुध (शीघ्र) १७६३७००० १७६३७०६० शुक्र (शीघ्र) ६०२२३८८ ७०२२३७६ मंगल २२६६८२४ २२६६८३२ ३६४२२० ३६४२२० शनि १४६५६४ १४६५६८
३.५.५ सौर सिद्धान्त के काल का अनुमान
यद्यपि आधुनिक विद्वानों ने वराह मिहिर के सौर सिद्धान्त को प्राचीन सौर सिद्धान्त तथा वर्तमान में उपलब्ध सूर्य सिद्धान्त को आधुनिक माना है, किन्तु जैसा की ऊपर व्याख्या की गई है वास्तव में ये दो भिन्न सिद्धान्त नहीं हैं अपितु एक ही सूर्य सिद्धान्त की दो स्थितियां हैं। मूल सूर्य सिद्धान्त को ही आचार्य ने एक रूप में स्वीकार किया है तथा जो उपलब्ध सूर्य सिद्धान्त है वो उसका अधिक विकसित रूप है। इसलिये प्रश्न यह है कि मूल सूर्य सिद्धान्त का काल क्या रहा होगा? बेन्टले आदि अंग्रेजी विद्वानों ने इस आधार पर सूर्य सिद्धान्त के काल का अनुमान लगाया है कि उसमें जो ग्रह स्थितियां दी हैं, वे कब शुद्ध बैठती हैं। किन्तु यह पद्धति ठीक नहीं है। क्योंकि हमारे आचार्य युगीन भगणों को पूर्ववर्ती आचार्यों के आधार पर दिया करते थे तथा वर्तमान सूर्य सिद्धान्त ने अपने कोई क्षेपक नहीं दिए हैं। इसलिये इस सिद्धान्त में जो आभ्यन्तर तत्व हैं उसके आधार पर ही काल निर्धारण करना वैज्ञानिक और समीचीन होगा। इसके लिये कुछ महत्वपूर्ण बातें ध्यान देने योग्य हैं १. सौर सिद्धान्त तथा सूर्य सिद्धान्त दोनों में सूर्य की परम क्रान्ति २४° दी हुई है। पञ्चसिद्धान्तिका में तो स्पष्ट ही यह परम क्रान्ति २४° अंश लिखी है तथा वर्तमान वराहमिहिर और पञ्चसिद्धान्तिका २०७ सूर्य सिद्धान्त में इस परम क्रान्ति की ज्या १३६७’ बताई है। वर्तमान में सूर्य की परम क्रान्ति २३०-२६’ है। हम जानते हैं कि यह परम क्रान्ति क्रान्तिवृत्त का झुकाव ही है, जिसमें गति है और यह गति १००० वर्ष में -७’-५६’ है। इस मान से ३४’/७’-५६" x १००० = ४२८५ वर्ष इसको २४° से २३०-२६’ आने में लगेंगे। इसका आशय यह हुआ कि लगभग २२८० वर्ष ई०पू० में सूर्य की परम क्रान्ति २४° थी। यह मान भी लें कि अनेक वर्षों तक इस परम क्रान्ति को गणना के प्रयोजन के लिये स्थिर माना जाता है तो भी १८०० ई०पू० से कम का समय इससे प्रमाणित नहीं होता। भारतीय सिद्धान्त ग्रन्थों में सूर्य का परम मन्दफल १३०’ दिया गया है जबकि आधुनिक यूरोपीय ग्रन्थों में यह ११५’ माना गया है। सूर्य सिद्धान्त में सूर्य का परम मन्दफल १३३’-४२” है। लगभग २६०० ई०पू० सूर्य का परम मन्दफल १३०’ था। इस सदी के प्रारंभ में यह लगभग १२१’ था। इससे भी यह प्रमाणित होता है कि इस सिद्धान्त का काल ई०पू० लगभग २००० होना चाहिये। हमारा परम मन्दफल यूनानियों के परम मन्दफल से अधिक शुद्ध है। इसलिये इसे प्राचीन आचार्यों का अशुद्ध वेध मानकर खारिज नहीं किया जा सकता। यह काल का बोधक है। ई०पू० लगभग ५०० से लल्ल (६३८ ई०) तक भारतीय विद्वानों को अयन चलन का ज्ञान नहीं था क्योंकि उस समय अयनांश ० से ३° के बीच था। किन्तु सूर्य सिद्धान्त में न केवल इसका वर्णन है अपितु इसकी गति प्रतिवर्ष ५४’ बताई गई है जो कि ग्रीक ज्योतिर्वैज्ञानिक टॉलेनी की गति ३६" से ज्यादा शुद्ध है। इससे भी इन सिद्धान्त की प्राचीनता सिद्ध होती है। ४. महाभारत में एक मय नाम का शिल्पकार हुआ है जिसने पाण्डवों के लिये महल का निर्माण किया था। यह संभव है कि जिस मय ने सूर्य से सूर्य सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किया हो, वह यही मय हो। महाभारत का काल आधुनिक विद्वानों द्वारा २००० ई०पू० के आसपास स्थिर किया जाता है। यह भी इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करता है। सूर्य सिद्धान्त में यह बात कही गई है कि २७° के अयन दोलन कर वापस लौटता है। परवर्ती आचार्यो ने अयन दोलन के सिद्धान्त को अस्वीकार किया है, जो आज के वैज्ञानिक सिद्धान्त के आधार पर भी ठीक है। अयन का पूर्ण भ्रमण ही होता है, उसका दोलन नहीं होता। दोलन की जो बात सूर्य सिद्धान्त में कही गई है वह इसलिये प्रतीत होती है कि यह सिद्धान्त उस समय बना होगा जब अयनांश उनकी जातीय स्मृति में स्थित २७° से लौटकर २६° या २५° के आसपास रहा होगा। इस मान से भी सूर्य सिद्धान्त का काल १६वीं या १७वीं सदी ई०पू० ठहरता है। आशय २०८ ज्योतिष-खण्ड
यह है कि यद्यपि मूल सूर्य सिद्धान्त जिसका उपयोग वराह मिहिर ने किया है, उपलब्ध नहीं है तथा वर्तमान सूर्य सिद्धान्त उसका अत्यन्त विकसित स्वरूप है, फिर भी इस सिद्धान्त में जो आभ्यन्तर तत्व निहित हैं, उसके आधार पर यह विश्वसनीय अनुमान लगाया जा सकता है कि इसकी अवधारणा ई०पू० लगभग २००० वर्ष में हुई होगी और यही महाभारत का वह काल है जबकि भारतीय कला और विज्ञान ने उन्नति की थी। यह सरस्वती सैन्धव सभ्यता के उत्कर्ष का काल भी है।
४. उपसंहार
आचार्य वराह मिहिर ने अपनी पञ्चसिद्धान्तिका लिखकर भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष की लुप्त होती परम्परा को पुनर्जीवित किया। यह लगभग वैसा ही कार्य है जैसा लुप्त होते हुए वेदों के उद्धार का। अगर पञ्चसिद्धान्तिका न होती तो न केवल भारत के प्राचीन सिद्धान्तों के विषय में विश्व को जानकारी प्राप्त न होती अपितु आज के वैश्विक संदर्भ में वैश्विक मनुष्य ने सबसे पहले इस विज्ञान की प्रतिष्ठा किस प्रकार की यह ज्ञान भी नहीं हो पाता जो कि विज्ञान के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है। आचार्य वराह मिहिर भारतीय ज्योतिष के सचमुच देदीप्यमान सूर्य की तरह हैं जिन्होंने अपना प्रकाश भूतकाल और वर्तमान तथा अपने समय के समूचे भूमण्डल पर विस्तीर्ण किया।