०८ भारतीय पञ्चाङ्ग

प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी

विभिन्न आकाशीय सूचनाओं से युक्त विस्तृत तिथि पत्र एवं कालदर्शक को पञ्चाङ्ग कहा जाता है। इसमें तिथि, वार नक्षत्र योग और करण ये पाँच प्रमुख अंग होते है। इन्हीं पाँच अंगों के कारण इसे ‘पञ्चाङ्ग’ कहा भी जाता है। तिथि नक्षत्र आदि का साधन चन्द्रमा और सूर्य के योगांशों से किया जाता है। इसलिए भारतीय पञ्चांगों को चान्द्र-सौर पञ्चांग भी कहा जाता है अमान्त को आकाश में चन्द्र एवं सूर्य का क्रान्तिवृत्तीय आभासिक पूर्वापरान्तराभाव होता है। उसके पश्चात् सामान्यतया अपनी अधिक गति के कारण चन्द्र, सूर्य से आगे जाता हुआ प्रतीत होता है। जब चन्द्र एवं सूर्य के मध्य १२° का अन्तर होता है तब एक तिथि की पूर्ति होती है। इसलिए एक चान्द्रमास में (३६०° भ्रमण करने में) ३० तिथियां होती हैं। वार का मान एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय पर्यन्त होता है। नक्षत्रमण्डल अथवा क्रान्तिवृत्त को आठ सौ कलाओं से विभक्त करने पर २७ समान भाग होते हैं। प्रत्येक भाग को नक्षत्र और उसे भोगने में चन्द्र को जितना समय लगता है, उसे नक्षत्र मान कहते हैं। सूर्य एवं चन्द्र के भोगांशों को जोड़ने से योग नामक अंग का साधन होता है। सूर्य एवं चन्द्र की गति को योग ८०० कला होने में जितना समय लगता है उसे योग मान कहते हैं। इनकी संख्या २७ होती है। ‘करण’ नामक अंग तिथि का आधा माना गया है। कह सकते हैं कि सूर्य एवं चन्द्र में ६ अंश का अंतर जितने समय में पड़ता है उसे करण कहते हैं। वस्तुतः करण का अलग से साधन नहीं किया जाता है अपितु तिथिकाल के आधे को करणकाल कहा जाता है। उपर्युक्त पांच अंगों के अतिरिक्त सम्प्रति पञ्चाङ्ग पत्रकों में दैनिक व्यवहारोपयोगी दिनमान, ग्रहों के उदयास्त, ग्रहण विवरण, दैननन्दिन स्पष्ट ग्रह, दिनांक आदि सामग्रियां भी दी जाती हैं। भारतीय पञ्चाङ्ग पद्धति निरयण चान्द्र सौरात्मक हैं। वर्ष प्रमाण निरयण सौरवर्ष के अनुसार तथा मास चान्द्रमान के अनुसार दिये जाते हैं किन्तु सौर एवं चान्द्र वर्षों में प्रायः ११ दिन का अन्तर प्रत्येक वर्ष परिलक्षित होता है। इसलिए लगभग प्रति तृतीय वर्ष (३२ मास १६ दिन ४ घटी पर) एक अधिमास प्रक्षेपण का आविष्कार हमारे चिन्तकों ने किया है, जिसके कारण ऋतुओं एवं मासों में सामंजस्य बना रहता हैं। इस प्रकार भारतीय पञ्चाङ्ग पद्धति में सौर चान्द्रमासों का संतुलन स्वयमेव होता रहता हैं।

पञ्चाङ्ग की आवश्यकता

सम्प्रति संपूर्ण विश्व के साथ-साथ भारत में भी ख्रीष्टीय सौर पञ्चाङ्ग का प्रचलन अधिक है जिससे अतिसामान्य दिनांक वार-मास एवं वर्ष की ही गणना की जाती है, किन्तु धार्मिक एवं सामाजिक जीवन के लिए भारतीय पञ्चाङ्गों की उपादेयता अधिक है। हमारे व्रतपर्वोत्सव प्रायः चान्द्रमासों एवं ऋतुओं के सह संबंध पर आश्रित है। यज्ञोत्सव-व्रत-पर्वादि के सम्यक् निर्धारण के लिए पञ्चाङ्ग की आवश्यकता होती है। जैसे रामनवमी, जन्माष्टमी, रक्षाबन्धन, विजयादशमी, होली, दीपावली आदि पर्वमहोत्सव, एकादशी, चतुर्थी, पूर्णिमा आदि व्रत, ग्रहणकाल, संक्रान्ति, महावारुणी, कुम्भयोगादि, पितरों के श्राद्धतिथिज्ञान, नवरात्रि में घटस्थापनादि, यात्रा-वास्तु-गृह प्रवेश आदि मुहूर्त, षोडशसंस्कार, भद्रा-रिक्ता-पञ्चक गण्डमूलादि दोषों का ज्ञान आदि सभी पञ्चाङ्ग की सहायता से निर्धारित होते हैं। ग्रामीण अञ्चलों में वृष्टि का पूर्वानुमान तिथि-नक्षत्र वारादिकों में वायु सञ्चारण के अनुसार ही ग्रामीण जन कर लिया करते हैं। सामाजिक कार्यो में भी जैसे जलाशय-खनन-भवननिर्माणादि के लिए शुभ काल का ज्ञान एवं सामाजिक महोत्सवों के निर्धारण के लिए पञ्चाङ्ग की आवश्यकता होती हैं। इसलिए भारत सरकार द्वारा भी ‘राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग’ का प्रकाशन प्रतिवर्ष किया जाता हैं।

पञ्चाङ्ग का उद्भव

धर्मपरायण भारत वर्ष में पञ्चाङ्ग का व्यवहार अति प्राचीन काल से चला आ रहा है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि पञ्चाङ्ग का प्रचलन उस काल से आरम्भ हुआ जिस काल में ज्योतिष विषयक ज्ञान प्रारम्भिक अवस्था में रहा होगा। वस्तुतः पञ्चाङ्ग का उद्भव किस समय हुआ तथा किस कालखण्ड में उसका व्यवहार में सर्वप्रथम प्रचलन हुआ, यह कहना अति कठिन है किन्तु वैदिक वाङ्मय में पञ्चाङ्ग के कतिपय अंगों का विस्तृत एवं विकसित वर्णन से अनुमान किया जाता है कि यह ज्ञान वैदिक काल से ही विद्यमान रहा होगा। अपने प्रारंभिक अवस्था में पञ्चाङ्ग के पाँचों अंग न होकर विकास क्रम में एकाङ्ग, द्वयङ्ग, त्र्यङ्ग एवं चतुरंग रहे होंगे। यद्यपि वे प्राचीन कालदर्शकपत्रक आज के मुद्रित पञ्चाङ्गों की भांति शुद्ध, स्पष्ट एवं विस्तृत नहीं रहे होंगे तथापि तत्कालीन परिस्थितियों एवं ज्ञान के अनुकूल यह एक महान उपलब्धि रही होगी। लिपि ज्ञान से पूर्व सम्भवतया यह ज्ञान भी मौखिक रूप से विद्यमान रहा होगा। हमारे देश में प्राचीन काल से ही श्रुतिपरम्परा रही है। आकाश का अवलोकन करने पर सर्वप्रथम सूर्य एवं चन्द्र ने ही मनुष्य को प्रभावित किया होगा। प्रतिदिन सूर्य के उदय के साथ ही धरती पर प्रकाश का साम्राज्य एवं उसके अस्त होने पर अन्धकार का होना तथा रात्रि में चन्द्रमा के शीतल प्रकाश के साथ उदय होना, चन्द्रमा का प्रतिदिन स्वरूप परिवर्तन करना कभी अदृश्य हो जाना तथा कभी पूर्ण विम्ब में दिखाई देना निश्चय ही मानव मस्तिष्क को आपने विषय में सोचने के लिए विवश किया होगा। परिणामतः मनुष्य सूर्य एवं चन्द्र को आश्चर्य एवं कौतूहल दृष्टियों से देखते देखते इनके उदय अस्त के रहस्यों को समझने का प्रयास किया होगा तथा सूर्योदयों की १४८ ज्योतिष-खण्ड गणना प्रारंभ की होगी। वस्तुतः चन्द्र के अनियमित उदयों की गणना की अपेक्षा सूर्य के नियमित उदयों की गणना अधिक स्वाभाविक एवं सरल हैं। अतः सर्वप्रथम पञ्चाङ्गों में ‘सावन दिन’ का ज्ञान हुआ होगा। सम्प्रति सावन दिन के स्थान पर ‘वार’ का प्रयोग होता है। सावनगणना से ही सर्वप्रथम ३० सावन दिनों का १ मास एवं १२ सावन मासों का १ वर्ष । इस प्रकार ३६० सावन दिनों का १ वर्ष प्रचलित हुआ होगा। सूर्य के उदयों की गणना के कारण संभवतया सर्वप्रथम १ सावन वर्ष को ही सौरवर्ष कहते रहे होंगे। वेदों में ३६० दिवसात्मक संवत्सर का वर्णन प्राप्त होता हैं। तत्पश्चात् चन्द्रमार्ग में आने वाले नक्षत्रों का ज्ञान हुआ। उसके बाद तिथि का ज्ञान हुआ। शंकर बाल कृष्ण दीक्षित जी का कथन है? कि वेदांग ज्योतिष काल (लगभग १४०० वर्ष शकपूर्व) तक तिथि और नक्षत्र अथवा सावन दिन और नक्षत्र ये दो ही अंग प्रचलन में थे। तत्पश्चात् ‘करण’ नामक अंग का ज्ञान हुआ। वस्तुतः करण तिथि के ही भाग होते हैं। ‘तिथ्यर्धम् करणम्’ अर्थात् तिथि का आधा एक करण होता है। अतः एक तिथि में दो करण होते हैं। रवि आदि सात बारों की गणना पञ्चाङ्गों में ६०० शकवर्ष के बाद ही हुई। इस प्रकार पञ्चाङ्ग के पाँचों अंगों का प्रचार एक साथ न होकर विकास क्रम से हुआ। सर्वप्रथम वर्ष एवं मास सावनात्मक ही रहे होंगे। धीरे-धीरे सावन मास एवं सावन वर्ष के स्थान पर चान्द्रमास एवं सौरवर्ष की स्थापना हुई होगी। भारतीय पञ्चाङ्ग पद्धति ‘चान्द्रसौरात्मक’ हुई। वस्तुतः वैदिक काल से ही पञ्चाङ्ग का ज्ञान विद्यमान था। यद्यपि उसमें सभी (पाँचो) अंगों का समावेश न रहा हो। फिर भी वैदिक वाङ्मय में पञ्चाङ्ग के कतिपय अंगों की चर्चा हमें इस ज्ञान के अत्यन्त प्राचीन होने के अनुमान को बल प्रदान करती है। भारतीय पञ्चाङ्ग १४६ आदि संज्ञायें प्राप्त नहीं होती। पूर्णिमान्त एवं अमान्त दोनों ही मासान्तों का प्रचलन होते हुए भी पूर्णिमान्त मान का ही वर्चस्व दिखाई देता है। मास के शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष के पर्याय रूप में ‘पूर्व’ एवं पर पक्ष का वर्णन प्राप्त होता हैं। पञ्चाङ्गों में तिथि नामक अंग का साम्प्रतिक अर्थ वेदों में प्राप्त नहीं होता किन्तु वहाँ ‘एकाष्टका, व्यष्टका, पूर्णमासी, अमा, उदृष्टा, इत्यादि तिथिसंज्ञक शब्द मिलते हैं। संभवतया वे रात्रिवाचक रही होंगी। बहुत समय के बाद वे ‘तिथिवाचक’ रूप में प्रयुक्त होने लगी होंगी। अमावस्या को चन्द्र सूर्य में प्रवेश करता हैं। इस वचन से अमावस्या को चन्द्र सूर्य का क्रान्तिवृत्तीय आभासिक मिलन का आशय प्रकट होता है। वेदो में सप्तवारों. योग एवं करणों की चर्चा प्राप्त नहीं होती। किन्त नक्षत्रों के विषय में विशद रूप से वर्णन प्राप्त होता है। नक्षत्रों की संज्ञा उनके देवता. उनकी तारासंख्या आदि के विषय में मनोहारी वर्णन अनेक स्थलों में प्राप्त होते हैं। साथ ही सप्तर्षितारामण्डल, नौतारापुञ्ज, श्वानतारापुञ्ज आदि के विषय में भी सुन्दर वर्णन मिलता है। सूर्य चन्द्र के अतिरिक्त शुक्र एवं गुरु का भी स्पष्ट वर्णन अनेक स्थानों में प्राप्त होता है जिससे ‘पञ्चग्रहों के ज्ञान का अनुमान होता है। खग्रास सूर्यग्रहण की चर्चा वहाँ सामान्य रूप से मिलती हैं। इससे ग्रहण गणित का उत्तम ज्ञान परिलक्षित होता है। अत्रिकुलोत्पन्न लोग अथवा अत्रिशिष्य ग्रहण गणित में निष्णात थे। ग्रहण चक्र के उल्लेख से अनुमान होता है कि ग्रहगति विषयक ज्ञान भी उस काल तक हो चुका था। दीक्षित महोदय के अनुसार वैदिक काल की उत्तर सीमा लगभग १५०० वर्ष शकपूर्व है।

वेदाङ्ग काल में पञ्चाङ्ग

वेदांग काल की मर्यादा लगभग १५०० वर्ष शकपूर्व से २०० वर्ष शकपूर्व तक मानी जा सकती है। वेद के षडङ्ग माने गये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, निरुक्त और छन्द। इनमें ज्योतिष नामक वेदांग की महात्मा लगध प्रणीत वेदाङ्गज्योतिषम् नामक पुस्तक मिलती है। वेदाङ्ग ज्योतिष के भी ३ विभाग हैं। १. ऋग्वेद ज्योतिष या आर्च ज्योतिष (३६ श्लोक) २. यजुर्वेद ज्योतिष या याजुष ज्योतिष (४३ श्लोक) ३. अथर्ववेद ज्योतिष या आथर्वणज्योतिष (१६५ श्लोक) इनमें आर्च एवं याजुष ज्योतिष में लगभग ३० श्लोक दोनों में एक जैसे हैं। आथर्वण ज्योतिष दोनों की अपेक्षा अर्वाचीन हैं।

पञ्चाङ्ग का वैदिककालीन स्वरूप

वैदिकसाहित्य में उपलब्ध पञ्चाङ्ग विषयक वर्णन से अनुमान होता है कि उस काल में चान्द्रसौर पञ्चाङ्ग प्रचलन में था। काल के संवत्सर, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, दिवस, मुहूर्त्तादि विभाग व्यवहार में थे। एक वर्ष में १२ मास एवं १३ मास दोनों का ही वर्णन चान्द्रसौर पञ्चाङ्ग पद्धति का समर्थन करता है। चान्द्रमासों एवं ऋतुओं के सामंजस्य के लिए अधिमास प्रक्षेपण की कोई विधि अवश्य ही उस काल में विकसित रही होगी। उस काल में मासों की ‘मधु, माधव आदि संज्ञा तथा पर्यायरूप में ‘अरुणरज आदि संज्ञाएं मिलती हैं किन्तु चैत्र वैशाख १. ऋ० सं० १/१६४/११ एवं १/१६४/४, २. भा० ज्यो० दीक्षित (हि० अनु०) पृष्ठ ५१७ ३. द्र० तै० सं. ५/६/७, ४. तत्रैव ४/४/११ तथा वाजसनेयि संहिता अ० १३,१४,१५ ५. ३ तै० ब्रा० ३.१०/१ १. ऐ० ब्रा० ४०/५. २. ऋ० सं. १/१०५/१० द्रष्टव्य-भगण समीक्षा पृष्ठ १८. ३. ऋ० सं. ५/४०/५-६. ४. भा० ज्यो० दीक्षित (हि०अनु०) पृष्ट १६२. ५. वही पृष्ठ १६६.१५० ज्योतिष-खण्ड वेदाङ्गज्योतिष पद्धति की प्रमुख विशेषता ‘पञ्चसंवत्सरात्मक युगपद्धति है। यद्यपि इसके बीज वैदिक वाङ्मय में प्राप्त होते हैं। पञ्चसंवत्सरात्मक युग का आरंभ माघ शुक्ल प्रतिपदा एवं युग की समाप्ति पौष कृष्णामान्त को होती है। उस समय यद्यपि विषुव एवं अयन का ज्ञान था किन्तु अयन-चलन की चर्चा प्रायः नहीं दिखाई देती। वेदांग युग में सौर, चान्द्र, सावन, नक्षत्र एवं आर्भमानों का व्यवहार में प्रचलन था। मास मुख्य रूप से चान्द्र थे किन्तु सौरमास का भी प्रचार था। युग में २ अधिमासो की व्यवस्था सौरचान्द्रमासों में सामंजय करने हेतु थी। ऋत्वारम्भ सूर्य नक्षत्र के अनुसार होता था। अमान्तमान का प्रचलन तथा पूर्णिमा एवं अमावस्या की पर्वसंज्ञा उस काल की विशेषता थी। उस काल में पञ्चाङ्ग के २ अंग तिथि एवं नक्षत्र का ही प्रचलन मिलता है। यद्यपि अथर्वणज्योतिष में वार एवं करणों का भी वर्णन मिलता है किन्तु उसकी रचना प्रायः वेदांग काल की उत्तरमर्यादा के आसपास की हैं। ऋग्यजुर्वेदज्योतिष काल में ‘कालदर्शक पञ्चाङ्ग पत्रक में दिनमान, सावनदिन, तिथि, सूर्यनक्षत्र एवं चन्द्र नक्षत्र ही मुख्य अंग थे। वेदांग ज्योतिषकाल में सूर्य व चन्द्र की मध्यमागति का ही ज्ञान था। अन्य ग्रहों एवं मेषादिराशियों का उल्लेख नहीं मिलता। उस समय सूर्यचन्द्र की स्थिति का निरूपण भी नक्षत्र के अनुसार ही किया जाता था। धनिष्ठादि नक्षत्र सामान्य व्यवहार में कृतिकादिगणना थी। वेदांग ज्योतिष पद्धति के अनुसार यदि एक बार ५ वर्ष का पञ्चाङ्ग निर्माण किया जाय तो प्रत्येक पञ्चवर्षीय युग के लिए वह उपयुक्त होगा, ऐसा ग्रन्थ के अध्ययन से प्रतीत होता है किन्तु वेदांग ज्योतिषोक्त वर्षादिकों के मान में त्रुटियों के कारण वह पञ्चाङ्ग शीघ्र ही अनुपयोगी हो जायेगा। इस पद्धति में क्षयतिथि, अधिकमास, नक्षत्रवृद्धि इत्यादि सभी कुछ हमेशा एक रूप हैं किन्तु वास्तविक रूप में उपर्युक्त गणनाएं एकरूप नहीं हैं उनमें ह्रासवृद्धि होती रहती है। वस्तुतः पंचसंवत्सरात्मक युग में गणना के लिए सरलता देखकर वेदांग ज्योतिषकार ने ३६६ दिन स्वीकार किये किन्तु कुछ समय बाद ही वह पद्धति प्रत्यक्ष रूप से स्थूलता का प्रदर्शन करने लगी किन्तु अन्य मनीषियों ने यथायोग्य स्थलों पर संशोधन करते हुए भी इस पद्धति को आगे भी प्रचलित रहने दिया। अतः अपने मूल स्वरूप से कुछ भिन्न रूप में भी बहुत समय तक वेदांग ज्योतिष पद्धति प्रचलित रही। इसी कारण गर्गादि ऋषियों के लेखों में इसका वर्णन प्राप्त होता है। समीक्षात्मक हष्टि से देखा जाय तो वेदांग ज्योतिष, जैन पद्धति के ग्रन्थों एवं पितामहसिद्धान्त के अति सन्निकट हैं। अन्य वेदांगों में यद्यपि ज्योतिषीय पारिभाषिक शब्द प्राप्त नहीं होते किन्तु उनमें नक्षत्र तिथि मेषादि राशियों का वर्णन प्राप्त होने से स्पष्ट है कि उस काल में भी सामान्य जन भारतीय पञ्चाङ्ग १५१ पञ्चाङ्ग पत्रकों का प्रयोग करते थे। अनुमान होता है कि वेदांग काल के उत्तर में पञ्चवर्षात्मकयुगपद्धति के स्थान पर कल्पादि युग व्यवस्था धीरे-धीरे स्वीकृत होने लगी। निरुक्त’ के वर्णन से कल्पादि युगपद्धति के प्रचलन का आभास होता है। उस समय मुहूर्त नाड़ी अहोरात्र-पक्ष मास-अयन-ऋतु वर्ष इत्यादि काल विभागों के ज्ञान का अनुमान होता है। वस्तुतः वेदांग काल में पञ्चाङ्ग ज्ञान विकासशील अवस्था में था।

स्मृति-पुराण एवं महाकाव्यों में पञ्चाङ्ग

स्मृति-पुराण-रामायण-महाभारतादि धर्मग्रन्थों के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद दिखाई देता है। फिर भी स्मृतिग्रन्थों, रामायण एवं महाभारत का रचनाकाल ५०० वर्ष ई० पू० से अर्वाचीन नहीं है। पुराणों के रचनाकाल की उत्तर सीमा ५०० ईसा तक मानी जा सकती है। इसी प्रकार बौद्ध एवं जैन धर्मो का मुख्य प्रचलन काल एवं प्राचीन ग्रन्थों का लेखन काल भी ५०० ईसा तक स्वीकार किया जा सकता हैं। वस्तुतः यह समय वेदांगकाल एवं प्रसिद्ध सिद्धान्त युग का संक्रमण काल हैं। स्मृतिग्रन्थों में मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति प्रसिद्ध हैं। सर्वप्रथम मनुस्मृति में ही पुराण-सिद्धान्तज्योतिष ग्रन्थोक्त युग पद्धति का पूर्ण वर्णन मिलता है। यद्यपि व्यतिपात नामक योग का वर्णन प्राप्त होता है किन्तु उसका वर्णन ‘क्रान्तिसाम्य’ के कारण किया गया प्रतीत होता है। अन्य योगों की कहीं भी चर्चा नहीं मिलती। ऋग्गृह्यपरिशिष्ट एवं आथर्वण ज्योतिष में करणों की चर्चा है, परन्तु याज्ञवलक्य स्मृति में उपलब्ध नहीं होती। यद्यपि वारज्ञान का अनुमान होता है। इसी प्रकार मेषादि संज्ञाएं प्रचलित न होते हुए भी क्रान्तिवृत्त की द्वादशविभाग कल्पना प्राप्त होती है। ग्रहगति एवं ग्रहयुति के प्रति जिज्ञासा दिखलाई देती है। इस प्रकार स्मृति काल में पञ्चाङ्ग विज्ञान बाल्यावस्था से शैशव काल में पदार्पण करता हुआ सा आभासित होता है। रामायण एवं महाभारत दोनों के काल में संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-पक्ष-तिथि-अहोरात्र मुहूर्त आदि काल विभागों के वर्णन कई स्थलों पर उपलब्ध होते हैं। रामायण में यद्यपि ‘पञ्चसंवत्सरात्मकयुगपद्धति’ नहीं प्राप्त होती किन्तु महाभारत में मनुस्मृति में उक्त युगपद्धति के साथ-साथ पञ्चसंवत्सरात्मक युगपद्धति का भी वर्णन मिलता हैं। दोनों में चान्द्रमास का ही व्यवहार है साथ ही उनका संबंध ऋतुओं के साथ भी परिलक्षित होता है। तिथियों की संज्ञा तथा मध्यम तिथि गणना का भी उल्लेख प्राप्त होता हैं। महाभारत में पूर्णान्त एवं आमान्त दोनों मासान्तों का प्रचलन उपलब्ध होता है किन्तु रामायण में इसका स्पष्ट संकेत नहीं मिलता है। पञ्चाङ्गों में वार, योग एवं करणों की चर्चा दोनों ही में नहीं मिलती। यद्यपि तिथि व नक्षत्रों का उल्लेख कई स्थलों पर मिलता है। रामायण में कुछ स्थलों १. निरुक्त १४/४, २. मनुस्मृ० प्रथमा० ६८-७६, ३. या० स्मृ० आचाराध्या० २६७-२६८ १. द्रष्टव्यं या. ज्यो. ५, २. या० ज्यो० २८-३१, ३. ३ या० ज्यो० १३ ४. द्रष्टव्यं भा० ज्यो० दीक्षित (हि० अनु०) पृष्ठ १३१-१३३ भारतीय पञ्चाङ्ग १५३ पुराणकाल के साथ ही जैन एवं बौद्ध धर्मों का उत्थानकाल भी प्रारम्भ होता है। जैन ग्रन्थों में प्रायः वेदाङ्ग ज्योतिष पद्धति का प्रभाव परिलक्षित होता है किन्तु जैन ग्रन्थों में २ सूर्य २ चन्द्र ५६ नक्षत्र इत्यादि की भी चर्चा मिलती है। जैन ग्रन्थों में नक्षत्र गणना प्रायः अभिजित् नक्षत्र से प्रारंभ होती है। वहाँ ८८ महाग्रहों का वर्णन भी मिलता है। दिन-मास-पक्ष-अयनादि की पर्याप्त चर्चा जैनग्रन्थों में स्वीकृत है। बौद्ध धर्म में ज्योतिश्शास्त्र को अत्यन्त हेय दृष्टि से देखा जाता था। फलतः इस शास्त्र की समृद्धि में बौद्धों का सहयोग प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार प्रायः ५०० ईसावर्ष तक का यह काल ज्योतिष शास्त्र का संक्रमण काल था जिसमें सिद्धान्तों एवं गणितीय प्रविधि में क्रमशः विकासशीलता दिखलाई देती है। भारतीय ज्योतिष के प्रसिद्ध त्रिस्कन्धज्योतिर्विद महर्षियों’ में से अधिकांश का काल भी इसी समयावधि में माना जा सकता हैं। १५२ ज्योतिष-खण्ड पर राशि संज्ञा मिलती है किन्तु विद्वान् उन स्थलों को क्षेपक मानते है। महाभारत में कहीं भी राशियों की चर्चा प्राप्त नहीं होती, फिर भी क्रान्तिवृत्त के द्वादश विभाग कल्पना अवश्य परिलक्षित होती है। प्रायः ग्रहों की स्थिति का निरूपण दोनों ग्रन्थों में नक्षत्र के आधार पर किया गया है। ग्रह, ग्रह युद्ध, वक्रत्व तथा ग्रहण आदि का वर्णन दोनों ही ग्रन्थों में मिलता हैं किन्तु आश्चर्यजनक है कि दोनों ही ग्रन्थों में ‘अपर्व’ के ग्रहण की भी चर्चा मिलती है। महाभारत में १३ दिवसात्मक पक्ष की चर्चा है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय सूक्ष्मग्रहगणित का ज्ञान नहीं था तथापि स्थूलरूप से स्पष्ट गति का ज्ञान अवश्य था। महाभारत में मासादिकों के क्षयज्ञान के वर्णन से इसकी पुष्टि होती है। वस्तुतः काल के सूक्ष्म विभाग परिकल्पना, ग्रहोदयास्त वर्णन इत्यादि विषय उस काल में ज्योतिश्शास्त्र की उन्नत अवस्था को संसूचित करते हैं। पुराणों में विष्णुधर्मोत्तर,’ आग्निपुराण तथा नारदपुराणों में अन्यपुराणों की अपेक्षा ज्योतिष का विकसित शास्त्रीय स्वरूप दिखाई देता है। कालमान विभाग में मुख्यतया मुहूर्त के नीचे के कालमानों को लेकर पुराणों में परस्पर मतवैभिन्य है। यद्यपि मुहूर्त से कल्पपर्यन्त कालमान में सभी में एकवाक्यता है। ब्रह्मा की आयुप्रमाण में भी कुछ मतभेद है। इसमें विष्णुपुराण का क्रम प्रायः सभी पुराणों में स्वीकृत है। इसी प्रकार दिन के ५ विभाग प्रातः, संगव, मध्याह्न, अपराह्ण एवं सायांहून इनकी चर्चा वर्तमान युग पद्धति के साथ पञ्चसंवत्सरात्मक युग पद्धति, मासों के चैत्र वैशाखादि नाम के साथ मधुमाधवादि वेदोक्त संज्ञाएं भी प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत नारदपुराण’ मार्कण्डेयपुराण भविष्यपुराण° ब्रह्मवैवर्तपुराण" लिंगपुराण२ स्कन्दपुराण'३ प्रभृति सभी महापुराणों में कालमान की चर्चा प्राप्त होती है। पुराणों में नक्षत्रों का ६ वीथियों में विभाजन मिलता है। इन्हीं वीथियों में ग्रहभ्रमण की पुराणों की मान्यता है परन्तु इन वीथियों के नाम, नक्षत्रों का वीथियों में निवेशक्रम सभी पुराणों में अलग-अलग प्रकार से किया गया है, जिनमें विष्णुधर्मोत्तर पुराण'४ देवीभागवत मत्स्यपुराण'६ आदि प्रमुख हैं। पुराणकाल में ज्योतिषीय दृष्टिकोण से ग्रहों का निरीक्षण, विशेष रूप से किया जाता था। साथ ही ज्योतिष का परीक्षण भी किया जाता था। द्वादश राशि, २७ नक्षत्रों की तारासंख्या, नक्षत्रों के प्रकाशवर्णों की भी चर्चा पुराणों में प्राप्त होती है। पुराणों में सप्तवारों का उल्लेख कई स्थलों पर मिलता है। इस प्रकार तिथि वार नक्षत्रों का स्पष्ट वर्णन पुराणों में प्राप्त होता है।

प्रथम सिद्धान्तकालीन युग में पञ्चाङ्ग

भारतीय ज्योतिष का यह युग स्वर्णिम युग कहा जाता है। इसकी कालावधि प्रायः ५ वीं शताब्दी से १२ वीं शताब्दी तक मानी जा सकती है। इस काल में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, लल्ल, श्रीधर, मुञ्जाल, श्रीपति, भास्कराचार्य प्रभृति विद्वानों ने अपने गणितीय कौशल से ज्योतिष शास्त्र एवं पञ्चाङ्ग विज्ञान् को समृद्ध बनाया। प्रसिद्ध वर्तमान सूर्य सिद्धान्त का काल भी इसी समयावधि के बीच विद्वान् लोग मानते हैं। वर्तमान युग पद्धति का सुदृढ़ीकरण, ग्रहगतियों का नभनिरीक्षण द्वारा सत्यापन, ग्रहभगणों के मानों का संशोधन, वेधपरम्परा का विकास, पञ्चाङ्ग के गणितीय नियमों की स्पष्ट व्याख्या करने का प्रयत्न इत्यादि इस सिद्धान्तकालीन युग की प्रमुख विशेषता थी। सर्वप्रथम आर्यभट्ट प्रथम ने अपने ‘आर्यभटीयम्’ नाम ग्रन्थ (४२१ शक) में पृथ्वी के स्वाक्षभ्रमण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। अपने वेधों के द्वारा ग्रहभगणों के मूल्यांकों में संशोधन कर उन्होंने पञ्चाङ्ग पद्धति को ‘दृक्प्रत्यपद’ करने की चेष्टा की। ग्रहण गणित एवं उसके कारणों की व्याख्या भी उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से की। वराहमिहिर (४२७ शक) ने अपने समय में प्रचलित पाँच प्रमुख सिद्धान्तों-पितामह-वासिष्ठ-रोमक-पोलिश एवं सूर्य सिद्धान्तों के गुण दोषों का सम्यक् समीक्षा कर ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ नामक करणग्रन्थ की रचना की जिसमें उक्त पाँच सिद्धान्तों के नियमों का प्रतिपादन मिलता है। उन्होंने अपने काल में ‘सूर्यसिद्धान्त’ को सर्वाधिक स्पष्ट एवं ‘दृक्प्रत्यपद’ कहा है। स्मरणीय है कि वर्तमान उपलब्ध सूर्यसिद्धान्त, वराहोक्त सूर्यसिद्धान्त से मेल नहीं खाता है। दोनों के मूल्यांको एवं अन्य गणितीय प्रविधियों में अन्तर स्पष्ट ही परिलक्षित होता है। सम्भवतया १. विध०पु० पितामहसिद्धान्त २/१६६-१७८, २. ना०पु०अ० ५४-५६, ३. वि०पु० १/३/७-२७ ४. वही २/८/६१-६३ ५. वही २/८/७०-७२, ६. वही २/८/०६, ७. श्रीमद्भागवत् ३/११/१-७ ८. ना०पु०पूर्वार्द्ध ५४/६१-६३, ६. मा०पु० ४३/२३-४४, १०. भवि०पु० १/५३-५४ ११. ब्रह्मवै०पु० ५/५-१५, १२. लिङ्ग पुराण पूर्वार्द्ध अ०४, १३. स्क०पु०नाव्हा०मा०२७२/३-७ १४. वि०ध०पु०/८५/२-६, १५. दे०भा०पु० ८/१५/१-६, १६. मत्स्य पुराण १२३/५२:५६ १. आर्यभट्टीय २. आर्यभट्टीय १५४ ज्योतिष-खण्ड नभनिरीक्षण द्वारा निरन्तर प्राचीन सूर्यसिद्धान्त को संशोधित कर ‘दृक्प्रत्यपद’ करते हुए वर्तमान सूर्य सिद्धान्त का संस्करण तैयार हुआ होगा। कुछ विद्धानों का कथन हैं कि वर्तमान सूर्य सिद्धान्त ‘लाटदेव’ द्वारा परिष्कृत हैं। इसलिए वर्तमान उपलब्ध सूर्यसिद्धान्त का रचनाकाल इसी कालावधि के अन्तर्गत है। प्रो० सेनगुप्त का कथन है कि ‘वराहमिहिर के द्वारा सूचित सूर्यसिद्धान्त ने खगोल विद्या के तत्वों को आर्यभट्ट से लिया और इस समय प्रचलित सूर्य सिद्धान्त ने ब्रह्मगुप्त से अपने तत्वों को लिया। किन्तु अधिकांश विद्वानों का मत हैं कि वराह द्वारा सम्पादित सूर्यसिद्धान्ता आर्यकष्ट और ब्रह्मगुप्त से भी प्राचीन हैं। आज भी सूर्यसिद्धान्त भारतीय ज्योतिषों द्वारा अत्यन्त श्रद्धा से देखा जाता है तथा प्राचीन पञ्चाङ्ग पद्धति का मुख्य ग्रन्थ इसे ही माना जाता हैं। ब्रह्मगुप्त ने ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त की रचना की। इसे ही ‘ब्रह्मसिद्धान्त’ के नाम से जाना जाता है। इन्होंने ग्रहभगणों एवं वर्षादिकों के मानों में प्रत्यक्ष वेधोपलब्ध मान द्वारा संशोधन किया। इस प्रकार सिद्धान्त युग में सौर, आर्य एवं ब्राह्म इन तीन पञ्चाङ्ग पक्षों की स्थापना हुई। इसके बाद के प्रायः सभी आचार्यों ने इन तीनों पक्षों में से ही एक का आश्रय लेकर अपने-अपने ग्रन्थों की रचना की है। जैसे आर्यसिद्धान्त का पक्ष लेकर लल्ल ने शिष्यधीवृद्धि नामक ग्रन्थ की रचना की। इसी प्रकार सूर्यसिद्धान्त पक्षीय, भास्वतीकरण, ब्राह्मपक्षीय-राजमृगाक’ ‘करणकमलमार्तण्ड, आर्यपक्षीय ‘करणप्रकाश’ प्रभृति करणग्रन्थ इस काल के प्रमुख करणग्रन्थ हैं। मुञ्जाल (८५४ शक) ने सर्वप्रथम अयन-चलन के संपूर्ण भ्रमण की बात कही। इस प्रकार यह सिद्धान्त युग वस्तुतः भारतीय ज्योतिष का स्वर्णयुग है जिसमें निरन्तर वेध परम्परा गणित कुशलता एवं पञ्चाङ्गीय पद्धतियों का विकास दृष्टिगोचर होता है। भारतीय पञ्चाङ्ग १५५ पुत्र प्रमुख ज्योतिर्विद हुए। इन्होंने वेध द्वारा ग्रहों के भगणादिकों का शुद्ध मान स्थिर किया तथा क्रमशः ‘ग्रहकौतुक’ एवं ‘ग्रहलाघव’ नामक करण ग्रन्थों की रचना की, किन्तु केशव का ‘ग्रहकौतुक’ ग्रन्थ अपने पुत्र गणेश के ‘ग्रहलाघव’ के सामने अधिक प्रसिद्ध नहीं हो पाया। इस का एक मात्र कारण यही है कि ग्रहलाघव ज्या चाप आदि गणितीय जटिलताओं से मुक्त था। अत्यन्त सरल होने के कारण ही यह ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ। आज भी कतिपय स्थानों में ग्रहलाघव के अनुसार पञ्चाङ्ग बनते हैं किन्तु लाघव के कारण आज इसके ग्रहादिकों में अत्यधिक अन्तर आचुका है। गणेशादैवज्ञ ने ‘तिथि चिन्तामणि’ नामक सारिणी ग्रन्थ की भी रचना की। गणेशदैवज्ञ के उपरान्त प्रायः ज्योतिर्विदों ने ग्रहलाघव आदि ग्रन्थों के अनुसार पञ्चाङ्गनिर्माणोपयोगी सारिणियों के निर्माण पर ही अधिक बल दिया। यद्यपि कमलाकर, मुनीश्वर सदृश ज्योतिर्विदों ने कुछ सिद्धान्तग्रन्थों की रचना की किन्तु पञ्चाङ्ग निर्माण के क्षेत्र में तथा वेध परम्परा में कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हुआ।

अर्वाचीन काल

इस काल का प्रारंभ प्रायः १७ वीं शताब्दी से माना जा सकता है। इस काल में सर्वप्रथम आमेर के राजा जयसिंह (राज्याभिषेक शक १६१५) ने पञ्चाङ्ग के क्षेत्र में सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण कार्य किया। भारतीय यवन एवं तत्कालीन यूरोपियन ज्योतिषग्रन्थों से दृक्प्रत्यय न होता देखकर इन्होंने जयपुर, दिल्ली, उज्जैन, काशी एवं मथुरा में वेधाशालाएं बनवाई। जयप्रकाशयन्त्र, सम्राट्यन्त्र, भित्तियन्त्र वृत्तषष्ठांश राम यन्त्र दिगंशयन्त्र, चक्रयन्त्र आदि कुछ नवीन यन्त्रों का निर्माण करवाया तथा उत्तम ज्योतिषज्ञों के द्वारा कई वर्षों तक वेध कराकर अरबी में जिजमहम्मद (शक १६५०) तथा संस्कृत में पण्डित जगन्नाथ द्वारा सिद्धान्त सम्राट नामक (१६५३) ग्रन्थों की रचना करवाई। यह गर्व की बात है कि तत्कालीन यूरोपियन ग्रन्थागत ग्रहगति स्थिति की अपेक्षा जयसिंह की गणना अधिक सूक्ष्म होती थी। किन्तु अत्यन्त खेद की बात है कि उनके बाद उनकी वेधशालाओं का उपयोग बन्द हो गया। न तो उनके ग्रन्थ प्रचलित हुए न उनके अनुसार दृक् पञ्चाङ्ग निर्माण परम्परा प्रारंभ हुई यद्यपि पाश्चात्य ज्योतिष का प्रवेश भारत में इसी समय होने लगा था। बापूदेव शास्त्री, विनायक केरो, लक्षमण छत्रे, विराजी लेले, रघुनाथ चिंतामणि, शंकरबाल कृष्ण दीक्षित, बालगंगाधर तिलक प्रभृति विद्वानों ने नाटिकल अल्मनाक के आधार पर पञ्चाङ्ग निर्माण कर नवीन पद्धति का सूक्ष्म पञ्चाङ्ग प्रचलित करने का प्रयास किया। इसी दिशा में चन्द्रशेखर सिंह सामन्त (१७५७ शक) ने स्वनिर्मित स्थूल यन्त्रों की सहायता से ‘दृक्प्रत्ययद’ परिणाम प्राप्ति हेतु ग्रहों के मूल्यांकों का संशोधन कर ‘सिद्धान्त दर्पण’ नामक ग्रन्थ की रचना की। वेंकटेशबाबूजी केतकर ने ग्रहलाघवीय ढंग पर संस्कृत श्लोकों

उत्तरसिद्धान्तकालीन युग

इसकी कालावधि प्रायः १३ वीं शताब्दी से १६ वीं शताब्दी पर्यन्त मानी जा सकती है। यह काल भारतीय ज्योतिष की दृष्टि से अन्वेषण एवं शोध के ह्रास का काल है। यद्यपि मकरन्द, केशव, गणेश, कमलाकर, प्रभृति, उद्भट विद्वान् इस काल में हुए तथापि इस काल के अधिकांश ज्योतिर्विदों ने अपना परिश्रम प्रायः उपपत्ति, पञ्चाङ्ग सारिणीनिर्माण एवं अपने-अपने पक्ष का अभिमानी ग्रन्थ लिखने में ही लगा दिया। नवीन शोध एवं अन्वेषण इस काल में कम ही हुए जबकि इसी काल के उत्तरार्ध से यूरोप में ज्योतिर्विज्ञान संबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त होने लगी। मकरन्दरचित सूर्यसिद्धान्त की पञ्चाङ्ग निर्माणोपयोगी सारिणी मकरन्द-प्रकाश सौर पक्षीय प्रमुख सारिणी ग्रन्थ है। इसमें सूर्यसिद्धान्त के भगणों का संस्कार किया गया है। इस काल में केशवाचार्य और गणेशदैवज्ञ दोनों पिता १. उद्धृत-पञ्चाङ्ग सुधार समिति का प्रतिवेदन हि.अनु. पृ. ४७६. १. उद्धृत भाज्यो० दीक्षित (हि०अनु०) पृष्ठ ४०१ ज्योतिष-खण्ड १५७ भारतीय पञ्चाङ्ग आजकल प्रायः सम्पूर्ण भारत में निरयण पद्धति एवं आधुनिक गणित द्वारा ही पञ्चाङ्ग निर्माण का प्राधान्य है। में अर्वाचीन ज्योतिष के आधार पर पञ्चाङ्गनिर्माणोपयोगी ‘केतकी ग्रहगणित’ नामक ग्रन्थ की रचना १८६८ शक में की। इसके गणितीय परिणाम पर्याप्त शुद्ध हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने नाटिकल अल्मनाक के आधार पर ही पञ्चाङ्ग निर्माणोपयोगी ज्योतिर्गणित नामक कोष्ठक सारणी ग्रन्थ, वैजयन्ती पंचांग नामक सारणी ग्रन्थ, ‘सौरार्यब्राह्मपक्षीय-तिथिगणितम्’ प्रभृति अनेक ग्रन्थों की रचना की। केतकर मुख्यतया ‘चित्रापक्षीय अयनांश’ के समर्थक थे। शक १६५१ में ग्रहलाघव के ढंग पर ही गोविन्द सदाशिव आप्टे महोदय ने नाटिकल आल्मनाक के आधार पर ही ‘सर्वानन्द करण’ नामक ग्रन्थ की रचना की। ये रैवतपक्षीय आयनांश के समर्थक तथा केतकर के चित्रापक्षीय अयनांश के प्रबल विरोधी थे। भारतवर्ष के स्वतन्त्र होने के समय विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न मतानुसार पञ्चाङ्ग पत्रकों का निर्माण होता था जिस कारण व्रत पर्वोत्सवों के उचित निर्णय करने में अत्यन्त कठिनाई लगी। इसके अतिरिक्त सायन एवं निरयण पक्षाभिमानी अपने-अपने पक्षों के अनुसार पञ्चाङ्गनिर्माण का आग्रह करने लगे थे। अतः भारत सरकार ने अखिल भारतीय पञ्चाङ्ग के बारे में सुझाव देने के लिए नवम्बर सन् १६५२ में प्रो० मेघनाद साहा की अध्यक्षता में पञ्चाङ्ग सुधार समिति का गठन किया। इस समिति ने सायन वर्ष सौर पञ्चाङ्ग एवं सायनवर्ष चान्द्र सौर पञ्चाङ्ग की संस्तुति की। सरकार द्वारा सायनवर्ष सौरपञ्चाङ्ग स्वीकृत कर २२ मार्च १६५७ ई० से ‘राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग’ में गणित नाटिकल आल्मनाक पद्धति से किया जाता है। किन्तु पञ्चाङ्गकर्ताओं एवं पारम्परिक दैवज्ञों तथा धर्मशास्त्रियों ने इसे स्वीकार नहीं किया। वे अपनी-अपनी पद्धतियों से पञ्चाङ्ग निर्माण करते रहे। फरवरी सन् १९८६ ई० में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने प्रो० एस० पी० पांड्या की अध्यक्षता में “भारतीय पञ्चाङ्ग एवं अवस्थानिक खगोलशास्त्र समीक्षा” समिति द्वारा जनवरी १६८७ में मुम्बई में एक विचार गोष्ठी आयोजित की जिसमें निश्चित दिनों वाले निरयण सौर महिनों तथा आधुनिक पद्धति के गणित की संस्तुति की गयी थी किन्तु समिति ने अन्तिम रिपोर्ट में ५ वर्ष की और अवधि राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग के प्रचार-प्रसार के लिए देना उचित समझा। इससे राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग के अपेक्षित उपयोग में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। अप्रैल सन् १६६४ में दिल्ली में श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली एवं महर्षि सन्दीपनी राष्ट्रीय वेद विद्यापीठ ने एक ‘अखिल भारतीय पञ्चाङ्गकर्ता सम्मेलन’ आयोजित किया जिसमें विचार विमर्श के बाद निरयण सौर पद्धति एवं आधुनिक गणित द्वारा पञ्चाङ्ग निर्माण धार्मिक एवं सामाजिक उपयोग के लिए युक्ति संगत स्वीकार किया गया।

सम्प्रति पञ्चाङ्गों की स्थिति

यह अत्यन्त हर्ष की बात है कि प्राचीन स्थूल पञ्चाङ्गनिर्माण पद्धति को छोड़कर अधिकांश विद्वान अर्वाचीन सूक्ष्मपञ्चाङ्गनिर्माण पद्धति को अपना रहे हैं। यद्यपि कुछ क्षेत्रों में मकरन्द सारिणी, ग्रहलाघवादि प्राचीन पद्धतियों द्वारा निर्मित पञ्चाङ्ग भी दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु उन पञ्चाङ्गों में भी ग्रहण, ग्रहों के उदयास्त आदि अंश अर्वाचीन प्रद्धति से ही साधित होते हैं। यदि प्राचीन पद्धति से ग्रहणादि प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली घटनाओं के काल का निर्धारण किया जाता है तो प्रत्यक्ष ही विषमता परिलक्षित होती हैं। इसी भय से प्रायः प्राचीन स्थूल पद्धति से निर्मित पञ्चाङ्गों में परीक्षणीय घटनाओं का निर्धारण अर्वाचीन गणित से ही दे दिया जाता हैं। . सम्प्रति अर्वाचीन पद्धति से निर्मित होने वाले पञ्चाङ्गों के मुख्यतया ३ पक्ष हैं। प्रथम-केतकरीय चित्रापक्षीयपद्धति, द्वितीय रैवतपक्षीय पद्धति एवं तृतीय सायनपद्धति। इसमें सायन पद्धति प्रत्यक्ष दृक्सिद्ध होती है। इसकी गणना वेधशालाओं एवं शुद्ध सारिणीयों द्वारा दी हुई है। रैवतपक्षीय पद्धति में रैवतीय अयनांश का संस्कार किया जाता है। केतकरीय पद्धति में चित्रापक्षीय अयनांश का संस्कार होता हैं। ‘ज्योतिर्गणित’, ‘केतकी ग्रहगणित’, ‘ग्रहगणित मालिका’, ‘वैजयन्ती पञ्चाङ्गगणित’ आदि इसके प्रमुख ग्रन्थ हैं। सम्प्रति केतकरीय चित्रापक्षीय पद्धति अधिक प्रचलित है। निरयण पक्ष का भारतीय ज्योतिष में महत्व के कारण सायनपक्षीय पञ्चाङ्ग अत्यन्त प्रचलित हैं। ध्यातव्य है कि केतकरीय पञ्चाङ्ग गणना में भी प्रत्यक्ष दृक्प्रत्ययद निरयण गणना के सापेक्ष कुछ अन्तर दृष्टिगोचर होने लगे हैं। अतः उचित संस्कार कर केतकरीय पद्धति से निर्मित पञ्चाङ् आज भी सामयिक एवं उपयोगी हो सकते हैं। पञ्चाङ् के

अवयवों के नाम एवं परिचय

१. तिथि

चन्द्रमा की दैनिक गति की सूचक होती है। इसे सूर्य और चन्द्रमा के आन्तरांश को ६२ से भाग देकर ज्ञात किया जाता है। तिथियाँ ३० होती हैं। प्रतिपदा से पूर्णिमा तक १५ तिथियाँ शुक्ल पक्ष में प्रतिप्रदा से अमावस्या तक १५ तिथियाँ कृष्ण पक्ष होती हैं। पूर्णिमा को १५ तथा अमावास्या को ३० संख्या से व्यक्त किया जाता है। पूर्णिमा और अमावास्या के आतिरिक्त शेष प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी तथा चतुर्दशी दोनों में पक्षों में समान रूप से होते हैं। १. देखिए पञ्चांग में काल गणना पृष्ट १६-२५

१५८ ज्योतिष-खण्ड २. वार- वार सात होते जिसके नाम क्रम से रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, तथा शनिवार हैं। इनके क्रम का निर्धारण भूमेन्द्रिक ग्रह कक्षा के आधार पर किया जाता है। शनि से आरम्भ कर अधोधः क्रम से चौथी-चौथी कक्षा का ग्रह वार का स्वामी होता हैं। यथा शानि से चौथी कक्षा सूर्य की अतः पहला वार रविवार रवि से चौथी कक्षा चन्द्र की अतः दूसरा वार सोमवार (चन्द्रवार), चन्द्रमा से चौथी कक्षा भौम अतः तीसरा वार भौमवार आदि। ३. नक्षत्र-नक्षत्र २७ होते हैं। इनके नाम क्रम से अश्विनी, भरणी, कृत्तिका रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, श्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफल्गुनि, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिष, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभद्रा, रेवती। उत्तराषाढ़ा के अन्तिम तथा श्रवण के आदि के अंशों को अभिजित कहा जाता है। इसको सम्मिलित करने पर नक्षत्रों की संख्या २८ हो जाती है। एक नक्षत्र का मान नक्षत्र कक्षा में ८०० कला के तुल्य होता है। ४. योग-सूर्य और चन्द्र में भोगांशों के योग से योग साधित होता है। योग भी २७ होते हैं। इनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-१. विष्कुम्भ, २. प्रीति, ३. आयुष्मान, ४. सौभाग्य, ५. शोभन, ६. अतिगण्ड, ७. सुकमी ८. धृतिः, ६. शूल, १०. गण्ड, ११. वृद्धि, १२. ध्रुव, १३. व्याघात, १४. हर्षण, १५. वज्र, १६. सिद्धि, १७. व्यतिपात १८. वरीयान, १६. परिध, २०. शिव, २१. सिद्धि, २२. साध्य, २३. शुभः २४. शुक्ल, २५. ब्रह्म, २६. ऐन्द्र, २७. वैधृति। इन्हें चर योग कहा जाता है। इनके अतिरिक्त आनन्द, कालदण्ड, धूम्र, धाता आदि २८ स्थिर योग होते हैं किन्तु इनकी गणना पाँच अवयवों में नहीं है। करण-एक तिथि के आधे भाग को एक करण कहते है। अतः एक तिथि में दो करण होते हैं। करण दो प्रकार के होते हैं-१. चर करण, २. स्थिर करण। चरकरण ७ होते हैं। क्रमशः इनके नाम हैं बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर बणिज, विष्टि। स्थिर करण-की संख्या चार होती है तथा इनके नाम हैं क्रमशः १. शकुनि, २. चतुष्पद, ३. नाग, ४. किंस्तुघ्न। इन्हीं पाँचों अवयवों के संयुक्त विवरण ही पञ्चाङ्ग कहलाता है।