०७ ग्रहण चन्द्र सूर्य पृथ्वी

डॉ. पी.वी.वी. सुब्रह्मण्यम्

ग्रहणसाधनप्रयोजन

ग्रहण खगोलीयपिण्डों के भ्रमण वश आकाश में उत्पन्न होने वाली एक अद्भुत घटना है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार सभी ग्रह पृथ्वी के चारों ओर वृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण करते हैं। भूकेन्द्र से इन कक्षाओं की दूरी भी विलक्षण हैं। अर्थात् ग्रह कक्षाओं का केन्द्र बिन्दु पृथ्वी पर नहीं है। इसलिए एक तरफ वृत्त की परिधि के अत्यन्त सन्निकट तथा दूसरी ओर अत्यन्त दूरी पर है। ये सभी ग्रह एक दूसरे से ऊर्ध्वाधः स्थित कक्षाओं में पूर्वाभिमुख भ्रमण करते हैं। यद्यपि इन ग्रहों की योजनात्मिका गति समान है तथापि भूकेन्द्र से विलक्षण अन्तरालों में स्थित होने के कारण इनकी अंशात्मक या कोणीय गति भी विलक्षण है। अतः ये ग्रह एक दूसरे से पूर्वापरान्तर से भी अन्तरित रहते हैं। सन्दर्भानुसार यहां रैखिक (परिधिगत, योजनात्मक या मीलात्मक) गति एवं कोणीय गति का सामान्य विचार प्रस्तत किया जा रहा है जिससे विषय का ज्ञान सगम होगा। भकेन्द्र से ग्रहभ्रमण मार्गों की या कक्षाओं की दूरी भिन्न-भिन्न है यह पूर्व में ही स्पष्ट किया गया है। दूरी में भिन्नता के कारण उन कक्षाओं के प्रमाणों में भी भिन्नता है। कक्षाओं की परिधि और व्यास का प्रमाण ऊोर्ध्व क्रम से बढ़ता जाता है। भूकेन्द्र से दूरी में भिन्नता होने पर भी ये सभी ग्रह आकाश में एक ही तल पर दृश्य होते हैं। जिसे दृश्य क्षितिज कहा जाता है। वे दृश्य ग्रह ही अभीष्ट कार्य सम्पादन हेतु उपर्युक्त स्पष्ट ग्रह माने जाते हैं। जब दृश्यमान ग्रहों की स्थिति एक ही है तो उनके भिन्न दूरी का हमें कोई प्रयोजन नहीं है। किन्तु कक्षा भेद से दूरी के कारण दृश्यमान ग्रह की गति में अन्तर तो होता ही है। दृश्यमानस्थिति वास्तव स्थिति से अलग होने के कारण वास्तविक ग्रहों की अपनी अपनी कक्षाओं में जो गति होती है वह ग्रहसाधन हेतु निरुपयुक्त है। ग्रहों की स्व कक्षा गति के कारण दृश्य (स्पष्ट) ग्रहों के स्थान में जो अन्तर आता है वही ग्रह की गति मान्य होती है। अर्थात् ग्रह अपने कक्षा में आगे बढ़ते हुये दृश्यमान ग्रहबिम्ब के स्थान में जो कोण उत्पन्न करता है वही ग्रह की वास्तव गति है। और इस गति से ग्रह जो राश्यादि स्थान प्राप्त करता है वही कालसाधन हेतु या कार्यसम्पादन हेतु उपयुज्यमान स्पष्ट ग्रह है। ग्रह जहां दृष्टिपथ में आता है उसे राशिचक्र कक्षावृत्त या काल्पनिक दृग्वृत्त भी कहते हैं। प्रथम पौरुष सिद्धान्त ग्रन्थकार आर्यभट के अनुसार वही काल्पनिक दृग्वृत्त है जहाँ एक स्वस्थ पुरुष आकाशस्थ समस्त ज्योतिष्पिण्डों को उनके ऊपर नीचे की अन्तर के बावजूद एक स्थान में देखता हैं। अतः ग्रहों की अपने अपने कक्षाओं की गति के अपेक्षा उनके चलने से भूकेन्द्र में उत्पन्न होने वाले कोण ही महत्वपूर्ण होते हैं जिसे हम कोणीयगति कहते हैं। ग्रहण चन्द्र सूर्य पृथ्वी १३३ भूकेन्द्र से ग्रहों की दूरी भिन्न-भिन्न होने के कारण उनके कक्षाओं का प्रमाण भी भिन्न-भिन्न होता है। पृथ्वी से जैसे-जैसे ग्रह की दूरी बढ़ती है वैसे-वैसे ग्रह कक्षा का प्रमाण भी बढ़ता जाता हैं। जिस ग्रह की कक्षा बड़ी होती है उसे भोगने के लिये उस ग्रह को अधिक समय की आवश्यकता होती है। जिसका ग्रह की कक्षा का प्रमाण कम होता हैं वह अल्प समय में ही अपने कक्षा का भोग कर लेता है। यही ग्रहों की कोणीय गति विलक्षण होने का मुख्य कारण हैं। __ ग्रहों की कोणीय गति विलक्षण होने के कारण, ग्रहकक्षा में उच्च पात आदि कालमूर्तियों के कारण स्पष्टग्रहसाधन जटिल होता है। उच्च पातादि के कारण स्पष्टग्रहसाधन हेतु अनेक उपकरणों का साधन करना पड़ता है। जैसे त्रैराशिक से मध्यमग्रह, वेध एवं गणित के माध्यम से मन्द एवं शीघ्रपरिधि, वेध से अन्त्यफलज्या आदि। इनके साधन में स्थानवश अथवा उपयुज्यमान वेधयन्त्रवश, अथवा प्रक्रिया की स्थूलता के कारण इनकी सहायता से साधित ग्रह शास्त्रोक्त स्पष्टग्रहलक्षण से रहित हो सकता है। शास्त्रोक्त स्पष्टग्रह का लक्षण है दृग्गणितैक्य होना। अर्थात् गणितागत ग्रह एवं वेधादिना साधित ग्रह में दृक्तुल्यता या एकरूपता होना अनिवार्य है तभी वह स्पष्ट ग्रह कहा जाता है। उसी स्पष्टग्रह के ऊपर लग्न और लग्न के ऊपर ज्योतिषशास्त्र का फल निर्भर होता है। यात्रा विवाहोत्सवजातकादि कार्यो का सम्पादन भी स्पष्टग्रह से ही हो सकता हैं। । उपरोक्त विचार से स्पष्ट है कि प्रयोग में लेने से पहले साधित स्पष्टग्रहों की प्रमाणिकता सिद्ध होनी चाहिये। अतः साधित ग्रहों को उपपन्न या सिद्ध करने हेतु प्रत्यक्षगोचर सूर्य और चन्द्र का प्रयोग किया जाता है। समय समय पर सूर्य और चन्द्र के कारण उत्पन्न होने वाला खगोलीय दृग्विषय के अतिरिक्त इस कार्य में सहायक और कुछ भी प्राप्त नहीं है। ये खगोलीय दृग्विषय शास्त्रज्ञ एवं शास्त्रज्ञान से रहित सामान्य जन के लिये भी अनुभव योग्य होता है। इसी विषय को लगधाचार्य का यह वचन स्पष्ट करता है कि ‘प्रत्यक्षं ज्योतिष शास्त्रं चन्द्रार्को यत्र साक्षिणौ’। __संहितास्कन्ध के अनुसार भी इन ग्रहणों का साधन आवश्यक हैं। जहाँ निरवशेष शास्त्रविषय का विचार होता है और जहाँ समष्टि रूप से जनकल्याण हेतु खगोलीय घटनाओं के आधार पर शुभाशुभ प्रगट किया जाता है वह संहितास्कन्ध है। यह त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषशास्त्र का एक मुख्य और प्राचीन स्कन्ध है। ग्रहण के समय में स्नान दान जपादि के महत्व का वर्णन इस स्कन्ध में उपलब्ध है। ‘प्रकृतेः परीत्यमुत्पातः’ इस वचन में बृहत्संहिताकार आचार्य वराहमिहिर कहते हैं कि प्रकृति के विरुद्ध जो घटना घटती है उसे उत्पात कहते हैं और उत्पात जन कल्याण और लोककल्याण के विरुद्ध फल देने वाले होते हैं। अतः इस कारण से भी ग्रहण का साधन वा विचार करना अनिवार्य हैं। १३४ ज्योतिष-खण्ड

(२) ग्रहयुद्ध

ग्रहों में ऊपर नीचे का अन्तर रहने पर भी जब ये राशिवृत्त में अथवा दृश्यमानवृत्त (दृश्यक्षितिज) में एक स्थान में आ जाते है तो उसे ग्रहयुद्ध कहते हैं। ग्रह बिम्बों के एक स्थान में आने पर होने वाले ये युद्ध भी भेद, उल्लेख, अंशुमर्दन और अस्त नाम से चार प्रकार का होता है। ग्रहों के बीच में युद्ध होना शुभ नहीं माना जाता हैं। यदि दोनों बिम्ब एक ही स्थान में आ जाते हैं अर्थात् दोनों बिम्ब मिलकर एक ही बिम्ब लगता है तो उसे भेद नामक युद्ध कहते है। यह भेद संज्ञक ग्रहयुद्ध अनावृष्टि और मित्र राजाओं में कलह उत्पन्न करता है। यदि दो बिम्बों के परिधियों का स्पर्श होता है तो उसे उल्लेख कहते हैं जो शस्त्रों से भय, मन्त्रियों में विरोध और दुर्भिक्ष का भय उत्पन्न करता है। आसन्नवर्ति ग्रहों के किरणों के एक दूसरे से मर्दन होने पर अंशुमर्दन नामक ग्रहयुद्ध होता है जो राजाओं में युद्ध उत्पन्न करता है और जनों को शस्त्र रोग और क्षुधा से पीड़ित करता हैं। इन बातों से यह स्पष्ट होता है कि ग्रहबिम्बों का एक स्थान में रहना, जिसे हम ग्रहयुद्ध कहते हैं, शुभफलदायी नहीं होता है। इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि भिन्न भिन्न प्रकृति के ये ग्रह एक दूसरे से मिलने पर विकृत हो जाते है। फलस्वरुप प्राणियों को इनके विपरीत फल भोगना पडता हैं। यह सर्वविदित है कि पृथ्वी को अधिक रूप से प्रभावित करने वाले दो ग्रह हैं। वे है सूर्य और चन्द्रमा। सूर्य किरणों के अभाव में कोई भी प्राणी इस पृथ्वी पर जीवित नहीं रह सकता है। अतः सभी प्राणियों को जीवित रखने के कारण तथा काल का नियमन करने के कारण सूर्य को काल की आत्मा माना जाता हैं। मन को प्रभावित करने वाला चन्द्रमा हैं। अतः दोनों का ग्रहण होने से उनका विकृत फल प्राप्त होने के कारण संहिता स्कन्ध में इनका होना अशुभ माना गया हैं। अतः ग्रहणकाल में ग्रस्त ग्रह के विमोचन हेतु, उत्पन्न होने वाले अशुभ को भंग करने हेतु स्नानादि की व्यवस्था की गई है। ज्योतिर्निबन्धकार के अनुसार स्पर्शकाल में स्नान, मध्यस्थिति में जप होम और सुरार्चन, मोक्ष के आसन्न स्थिति में दान और विमुक्ति में (स्नान) करना चाहिये। महर्षि पराशर के अनुसार ग्रहण समय में जन्मलिया जातक दरिद्र अथवा विकलांग आदि होता है। अतः आचार्य ग्रहण के कारण वा सूर्य चन्द्र राहु वा केतु के कारण उत्पन्न सकल अरिष्ट के शमन हेतु प्रयास करने का निर्देश स्वकीय ग्रन्थ बृहत्पराशरहोराशास्त्र में दिये हैं। इसी प्रकार की चर्चायें अन्य होरा ग्रन्थों में भी उपलब्ध है। अतः शान्ति की कामना वाले या अपनी सन्तानों का शुभ चाहने वाले व्यक्ति स्वाभाविक रूप से इस आपदा से बचना चाहते हैं। इस उददेश्य से भी सर्य एवं चन्द्रग्रहण का साधन आवश्यक हो जाता है। भास्कराचार्य ने भी सिद्धान्त शिरोमणि में ग्रहणसाधनविधि के वर्णन के पहले ग्रहण प्रयोजन का इस प्रकार का वर्णन किया है “ग्रहणसमय में जप दान हवनादि बहुफल को देने वाला है ऐसे स्मृति और पुराण के वेत्ता कहते हैं, और चमत्कार भी है जो जानने की इच्छा को उत्पन्न करता है अतः मैं सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण को कह रहा हूँ।" ग्रहण चन्द्र सूर्य पृथ्वी १३५

ग्रहणपरिचय

‘ग्रह उपादाने’ धातु से ग्रहण शब्द निष्पन्न है। ग्रहण का अर्थ स्वीकार करना है। आकाशीय ग्रहपिण्डों के द्वारा दूसरे ग्रहपिण्डों को स्वीकारना या अपने में समाहित करना (तात्कालिक रूप से) ही यहाँ ग्रहण कहा जाता है। ग्रहण के समय ग्रस्त बिम्ब भूमिस्थित द्रष्टा को नहीं दिखाई देता है। इस अदृश्य होने की स्थिति को ग्रहण कहते हैं। दूसरे ग्रहपिण्ड के द्वारा स्वीकार करने पर भी यदि ग्रहबिम्ब जनों को दिखाई देता है तो वह ग्रहण नहीं कहा जाता है। खगोलीयपिण्डों के स्थिति के अनुसार एवं पृथ्वी से उनकी दूरी के अनुसार दूसरे ग्रहों वा तदुत्पन्न छाया के द्वारा स्वीकार करने के बाद न दृश्य होने वाले वा अनुभव में न आने वाले ग्रहबिम्ब दो ही है। वे है सूर्य और चन्द्रमा। अतः ज्योतिष शास्त्र में सूर्य और चन्द्रमा के ही ग्रहण वर्णित है। यद्यपि ग्रहण की स्थिति प्रायः सभी ग्रहों के साथ होती है तथापि सामान्यदृष्टिगोचर होने के कारण सूर्य और चन्द्र के ही ग्रहण स्वीकार किये गये है। इसी प्रकार पृथ्वी का भी ग्रहण होता है। छादक चन्द्रमा छाद्य पृथ्वी को आच्छादित करने के कारण चन्द्रकक्षा के ऊपर स्थित लोगों को अथवा चन्द्रकक्षोपरि प्रदेश की स्थिति के अनुसार पृथ्वी का कुछ भाग अथवा पूरी पृथ्वी आच्छादित होती है जिसे पृथ्वीग्रहण कहते है। यह सत्य है कि पृथ्वी पर स्थित लोगों को यह ग्रहण दृश्य नहीं होता है।

ग्राह्य और ग्राहक

ग्रहण के समय में जो ग्रहबिम्ब ग्रहण का कारण होता है अथवा जो दूसरे बिम्ब को आच्छादित करता है उसे ग्राहक या छादक और ग्रस्त होने वाले बिम्ब को ग्राह्य अथवा छाद्य बिम्ब कहते है। सूर्यग्रहण में ग्राहक चन्द्रमा और ग्राह्य सूर्य होते हैं। सूर्य बिम्ब को चन्द्रबिम्ब मेघ की तरह आच्छादित कर देता है। चन्द्रग्रहण में ग्राह्य चन्द्र ग्राहक भूभा में पूर्वाभिमुख प्रवेश कर लेता है। स्वाभाविक बात यह है कि ग्राहक के द्वारा ग्राह्य को स्वीकार करने के लिये दोनों बिम्बों को एक स्थान में रहना अनिवार्य होता है। उस प्रकार दोनों बिम्बों के एक स्थान में रहने वाले समय में ही ग्रहण सम्भव हो सकता है।

ग्रहणसम्भवकाल

सभी ग्रह पृथ्वी के चारों ओर वृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण करते हैं। सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा की कक्षा पृथ्वी के समीप है। चन्द्रमा का कोणीय वेग भी सूर्य की अपेक्षा अधिक है। सूर्य और चन्द्रमा के गति का दैनिक अन्तर १२ अंश का होता है जिस को एक चान्द्र दिन कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के १८० अंश के अन्तर में दोनों ग्रह एक सरलरेखा के दो अन्तिम बिन्दुपर रहते है या आमने सामने रहते है। यह स्थिति चन्द्र के पन्द्रहवें दिन १३७ १३६ ग्रहण चन्द्र सूर्य पृथ्वी ज्योतिष-खण्ड के अन्त में सम्भव होती है। इस पन्द्रहवे दिन को पूर्णिमा कहते है। सूर्य बिम्ब के प्रकाश के कारण सूर्य के विरुद्ध दिशा में पृथ्वी की सूच्याकार छाया बनती है जिसको कुभा भूभा इत्यादि नामों से व्यवहार करते है। सूर्य बिम्ब की पृथुता के कारण उससे अल्प भूगोल की छाया आरम्भ में स्थूल एवं बाद में सूची का आकार धारण करती है। यह छाया सर्वदा सूर्य से भार्ध (१८००) में सूर्य की समान गति से भ्रमण करती है। सूर्य से भार्ध (१८०° अंश के दूर) में चन्द्रमा इस छाया में ही प्रवेश करता है जिससे उसका अदर्शन भूवासियों के लिये होता है, और इसी दृग्विषय को चन्द्रग्रहण कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा की युवि अमान्त को होती है। अर्थात् अमान्त को सूर्य और चन्द्रमा एक ही दृक्सूत्र में स्थित होते हैं। उस स्थिति में चन्द्र सूर्य के नीचे मेघ जैसे रहने के कारण वहां के लोगों को सूर्य का दर्शन नहीं होता है जिसे सूर्य ग्रहण कहते है। उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट है कि सूर्यग्रहण अमान्त को चन्द्रग्रहण पूर्णिमान्त को लगता है।

पात वा राहु विचार

ग्रहण हर एक अमान्त और पूर्णिमान्त को नहीं लगता है। प्रत्येक पूर्णिमा को और अमान्त को ग्राहक और ग्राह्य के बीच में पूर्वापरान्तर तो शून्य हो जाता है किन्तु उन दोनों के बीच में दक्षिणोत्तरान्तर रहने के कारण ग्राहक ग्राह्य का ग्रहण करने में सक्षम नहीं होता है। इसका विवरण इस प्रकार है। ग्राहक और ग्राह्य की कक्षा स्थिति एक धरातल में नहीं होती है। भिन्न धरातलों में कक्षाओं की स्थिति के कारण दोनों बिम्बों में दक्षिणोत्तरान्तर रहता है। यह दक्षिणोत्तरान्तर दोनों कक्षाओं के योग बिन्दु में शून्य रहता है। सूर्य और चन्द्रमा के कक्षाओं के योगबिन्दुओं को पात कहते है और इनका सम्पात भी नाम है। इनमें पूर्व सम्पात को राहु और पश्चिम सम्पात को केतु भी कहते हैं। पौराणिक गाथाओं में तो स्पष्ट रूप में उपलब्ध है कि ग्रहण का कारण सिंहिका का पुत्र राहु और केतु है। ये राहु और केतु एक ही शरीर के दो भाग है ऐसा कहा जाता है। राहु नामक असुर को भगवान विष्णु अमृतवितरण के समय में चक्र से संहार करने का प्रयास करते हैं किन्तु तब तक राहु के द्वारा अमृत निगलने के कारण उसकी मृत्यु नहीं होती है और शिर और धर अलग अलग प्राण से युक्त रह जाते हैं। अमृत वितरण के समय में राहु का देवताओं की पंक्ति में अमृत लेने की बात विष्णु को सूर्य और चन्द्रमा ने बतलाया था। अतः ये दोनों सूर्य और चन्द्रमा को अवसर मिलने पर निगलते एवं छोड़ते रहते है। इसी गाथा का शास्त्रीय विश्लेषण इस प्रकार है। सूर्य और चन्द्रमा के कक्षाओं का दो सम्पात बिन्दु होता है। उनमें एक सम्पात को पार करने के बाद चन्द्र सूर्य कक्षा के धरातल के ऊपर विचरण करने लगता है। अतः इस सम्पात को आरोहण सम्पात कहते हैं। और इसी बिन्दु की संज्ञा सिद्धान्तज्योतिष में राहु है। भास्कराचार्य के अनुसार यद्यपि ग्रहण का कारक यह सम्पात बिन्दु है तथापि परम्परागत विचारों की पुष्टि हेतु इसे राहु कहने में कोई आपत्ति नहीं है। दो वृत्तों का अधिकाधिक सम्पात दो बिन्दुओं में हो सकता है और वे दोनों बिन्दु एक दूसरे से वृत्ताध की दूरी पर सर्वदा रहते है। अतः इस राहु नामक आरोहण सम्पात से १८० अंशों के अन्तराल में दूसरा सम्पात होता है जिसे प्राप्त कर चन्द्रमा सूर्य की कक्षा के धरातल के नीचे चला जाता है। अतः इसे अवरोहण सम्पात कहते है और इसी की संज्ञा है केतु। दोनों एक दूसरे से सर्वदा भार्घ में रहने के कारण और दोनों में तुल्यलक्षण और तुल्य गति के कारण इनको एक ही शरीर के दो अंग मानने में भी आपत्ति नहीं होती है। अतः हमारी परम्परा में, जनमानस में निर्विवाद स्थान प्राप्ति हेतु एवं जनसामान्य को सुलभरूप से अवगत कराने हेतु हमारे पूर्वजों ने इन गाथाओं को जन्म दिया है। जिनके कारण भारतवर्ष की जनसामान्य शास्त्रीय विषयों को न जानते हुये भी ग्रहण का कारण पीढ़ियों से जानता आ रहा है। __ अब विचार करने योग्य विषय यह है कि ये राहु और केतु ग्रहण के कारक कैसे होते हैं? सूर्य और चन्द्रमा की कक्षायें एक धरातल में नहीं रहने के कारण दोनों के बीच में दक्षिणोत्तरान्तर उत्पन्न होता है। ग्रह सभी पूर्वाभिमुख भ्रमण करते है अतः इनके भ्रमण मार्ग भी पूर्वापरस्थिति में ही रहते है। यह दक्षिणोत्तरान्तर दोनों कक्षाओं के योगबिन्दु में शून्य रहता है उस योगबिन्दु के दोनों धरातलों में उभयनिष्ठ होने के कारण। ग्राहक बिम्ब के द्वारा ग्राह्य बिम्ब का ग्रहण करने हेतु दोनों के बीच में सभी प्रकार के अन्तरों का अभाव होना अनिवार्य होता है। अतः जिस पूर्णिमान्त और अमान्त में यह राहु वा केतु नामक सम्पात बिन्दु भी उसी सूर्य वा चन्द्रमा के साथ रहते हैं उसी पूर्णिमान्त का अमान्त को चन्द्र और सूर्य के ग्रहण लग सकते हैं। अतः प्रत्येक पूर्णिमान्त और अमान्त को राहु वा केतु की स्थिति सूर्य और चन्द्र के साथ नहीं होती है और इस कारण से ग्रहण नहीं लगता है। इससे स्पष्ट है कि पूर्वापरान्तर प्रत्येक मास में एक बार शून्य होने पर भी सम्पाताभाव के कारण ग्रहण लगने से वंचित हो जाता है। अतएव ग्रहण के मुख्य कारक ये राहु और केतु नामक सम्पात ही माने जाते है। गोलविदों को यह बात स्पष्ट है कि ग्रहण का कारण राहु नामक कोई वस्तु नहीं है। किन्तु यदि इस बात का सरासर खण्डन किया जाय तो स्मृतिपुराणों में बतायी गयी बात असत्य सिद्ध होगी। यह स्थिति परम्परा एवं धर्म को संकटग्रस्त कर सकती है। अतः अधिकतर सिद्धान्तकार सामंजस्य बैठाने का प्रयास करते है। उनमें से कुछ प्रसिद्ध सिद्धान्तकार है ग्यारहवीं सदी के आचार्य भास्कर जो सिद्धान्तशिरोमणि के प्रणेता हैं, धीवृद्धिद के रचयिता आचार्य लल्ल जो आर्यभट के शिष्य माने जाते हैं, और सिद्धान्तशेखर के प्रणेता श्री श्रीपति। इन आचार्यों का विचार इस प्रकार है १३८ ज्योतिष-खण्ड ब्रह्मा से वरदान प्राप्त राहु चन्द्रग्रहण के समय में भूच्छाया में प्रवेश करके चन्द्रमा का ग्रहण करता है और सूर्यग्रहण में चन्द्रमा में प्रवेश करके सूर्य को आच्छादित कर देता है। अर्थात् इस प्रकार के विचार से गोलयुक्ति में कोई अन्तर नहीं पड़ता है और स्मृति पुराणवचन भी पुष्ट हो जाते हैं। इतना ही नहीं यह बात इस बात को भी स्पष्ट कर देता है कि स्मृतिपुराण ज्योतिषपरक ग्रन्थ नहीं होने के कारण अत्यन्त दुष्कर गोलविज्ञानयुक्तियों को न बताकर जनसामान्य को अवगमन कराने हेतु महर्षियों का यह एक अद्भुत प्रयास है जो आज भी जनमानस में निर्द्वन्द्व है।

ग्रहणसम्भवस्थिति

ग्रहण गणित में ग्रहों के बिम्ब मानकर प्रमाण योजनों में न लेकर कलाओं में लेते हैं। ग्रहण में योजनात्मक ग्रह बिम्ब का प्रयोग नहीं होकर कलात्मक बिम्ब का प्रयोग होता है। सूर्य योजनात्मक बिम्ब के रूप में चन्द्रमा से अधिक होने पर भी वह पृथ्वी से चन्द्र की अपेक्षा अधिक दूरी में स्थित होने के कारण चन्द्र से छोटा दिखाई देता है। ग्रहण में दृश्य बिम्ब का महत्व होता है। इन ग्राहक (छादक) और ग्राह्य (छाद्य) बिम्बों के व्यासा ों के योग को मानयोग दल कहते हैं। मानयोगदल और शर दोनों के मान तुल्य होने पर दोनों बिम्बों को परिधियाँ स्पर्श करती हैं। ज्यों-ज्यों शर अल्प होता जायेगा छादक बिम्ब छाद्य बिम्ब को ढकता जायेगा (आच्छादित करेगा) इस प्रकार शर पर दोनों के केन्द्रान्तर अन्तर शून्य न होकर कम होने पर भी ग्रहण हो सकता है। किन्तु इस स्थिति में ग्राहक ग्राह्य को पूर्ण रूप से न ढक कर जितना भाग ढक पाता है उतने का ही ग्रहण करता है। इस प्रकार ग्रह जब खण्डित रूप में दिखाई देता है या ग्रह का कुछ अंश अदृश्य होता है तो उस ग्रहण को खण्ड ग्रहण कहते हैं। ग्राहक एवं ग्राह्य के बीच में पूर्वापरअन्तर और दक्षिणोत्तरअन्तरों का पूर्ण रूप से अभाव होने पर पूर्णग्रहण लगता है। पूर्णग्रहण की स्थिति भी दो प्रकार की होती है। १. वलय, २. खग्रास। १. यदि ग्राह्य बिम्ब ग्राहक बिम्ब से कलादिक मान में अधिक होता है तो वलयाकार ग्रहण होता है। यह ग्रहण केवल सूर्य में होता है। इस ग्रहण में परिधि प्रकाश मान तथा मध्य भाग काला होता है। जब ग्राहक बिम्ब ग्राह्य बिम्ब से बड़ा होता है तब बिम्ब के साथ-साथ आकाश का भी कुछ भाग ढक जाता है इस प्रकार के ग्रहण को खग्रास या खच्छन्न कहा जाता है। ग्रहण चन्द्र सूर्य पृथ्वी १३६ का दक्षिणोत्तरान्तर शर कहा जाता है। और यह शर सम्पात बिन्दु में शून्य होता है। दोनों बिम्बों के मानैक्यार्ध (दोनों बिम्बों के व्यासार्थों के योग) तुल्यान्तर में दोनों बिम्बों का स्पर्श होता है। अर्थात् मानैक्यार्धतुल्य शर में ग्रहण का प्रारम्भ हो जाता है। यदि इस स्थिति के बाद वह अन्तर क्रमशः अल्प होता है तो शर का मान मानैक्यार्ध से अल्प हो जाता है। अर्थात् ग्राहक के द्वारा ग्राह्य बिम्ब का कुछ अंश ग्रस्त (ढक) जाता है। यदि वह अन्तर कम होते-होते शून्य हो जाता है तो दोनों बिम्बों का केन्द्र भी एकत्र हो जाने से सर्वग्रहण (खग्रास) का सूचक होता है। इससे स्पष्ट है कि मानैक्यार्ध से अल्प शर होने पर ही ग्रहण सम्भव होता है। ग्रहण सम्भव की सीमा निर्धारित करते हुये आचार्यों ने कहा है कि पर्वान्त में मानैक्यार्ध से शर अल्प हो तो राहु रहित सूर्य का भुजांश भी १४ अंश से अल्प हो तो चन्द्रग्रहण सम्भव होता है। इस प्रकार-सूर्य से साधित क्रान्त्यंश को अक्षांश से संस्कृत करने पर नतांश प्राप्त होते हैं। उन नतांशों के छठे भाग से संस्कृत सपातसूर्य (राहु+सूर्य) के भुजांश स्पष्ट होंगे। यदि ये भुजांश ७ अंश से कम होते है तो सूर्यग्रहण सम्भव होता है अन्यथा नहीं। सूर्यग्रहण . में सूर्य और चन्द्रमा का मानैक्यार्ध मध्यमान से ३२ कला होता है। उस मान के बराबर शर सपातार्कभुजांश के ७ अंश से कम रहने पर उत्पन्न होता है। _ किन्तु सूर्य और चन्द्रमा के कक्षाओं में ऊर्ध्वाधरान्तर के कारण पृष्ठीयचन्द्रमा गर्भीय चन्द्रमा से लम्बित होता है जिससे उपयुक्त परिस्थिति होने पर भी कभी-कभी ग्रहण सम्भव नहीं हो पाता है। उसका कारण इस प्रकार है। भूगर्भ से ग्रह बिम्बों के केन्द्र तक जाने वाली रेखा को गर्भीय दृक्सूत्र कहा जाता है तथा भू पृष्ठ स्थान से ग्रहबिम्बों के केन्द्र तक जाने वाली रेखा को पृष्ठीय दृक्सूत्र कहते हैं। अमान्त के समय में चन्द्रमा के केन्द्र से होते हुये निर्गत दृक्सूत्र क्रान्तिवृत्त में जहां स्पर्श करता है वहां चन्द्रमा का क्रान्तिवृत्तीय स्थान होता है। अमान्त काल में सूर्यबिम्ब और चन्द्रबिम्ब दोनों के केन्द्र भूगर्भीय दृक्सूत्र में रहने पर भी भूपृष्ट स्थिल द्रष्टा चन्द्र बिम्ब के स्थान को क्रान्तिवृत्त में सूर्य बिम्ब से पृथक् देखता हो अर्थात् गर्भीय दृक्सूत्र में दोनों बिम्ब एक ही स्थान पर रहते हुये भी पृष्ठीय दृक्सूत्र के अनुसार अन्तरित हो जाते हैं। क्रान्ति वृत्त में इस अन्तर को लम्बन कहा जाता है। दृक्सूत्रस्थ चन्द्रमा के लम्बित होने पर वह सूर्य बिम्ब को मेघवत् आच्छादित करने में असमर्थ रहता है ऐसी स्थिति में ग्रहण सम्भव नहीं होता। अतः सूर्यग्रहण हेतु लम्बनाभाव भी आवश्यक है। एक ही समय में किसी पृष्ठस्थान में शून्य लम्बन तथा किसी स्थान में परमलम्बन हो भी सकता है। अतः जिस अमान्त में जिस स्थान में चन्द्रमा लम्बित नहीं होता (लम्बन नहीं होता) उस स्थान में सूर्यग्रहण देखा जा सकता है। यही कारण है सूर्य ग्रहण सभी स्थानों में एक समान नहीं देखा जा सकता। लम्बन के समय में गर्भपृष्ठाभिप्रायक

ग्रहणसम्भवविचार

उपर्युक्त विचार से यह स्पष्ट हुआ है कि ग्राहक एवं ग्राह्य के पूर्वापरान्तर का अभाव हो और उनके साथ पात की स्थिति हो तो ग्रहण लग सकता है। किन्तु वह कितने अन्तर पर लग सकता है इस बात का विचार यहां पर प्रस्तुत है। ग्राहक ग्राह्य बिम्बों के केन्द्रों १४१ १४० ग्रहण चन्द्र सूर्य पृथ्वी ज्योतिष-खण्ड बिम्बों के उपरिगत कदम्बप्रोतवृत्तों में जो दक्षिणोत्तरअन्तर होता है उसे ‘नति’ कहते हैं। सूर्य के मध्यलग्न के बराबर होने पर अर्थात खमध्य में रहने पर लम्बन का अभाव तथा क्षितिज के असान्न परम लम्बन होता है। इससे विपरीत खमध्य में नति का परमत्व तथा क्षितिजमें नति का अभाव होता है। चन्द्रग्रहण सभी का am

– Prahar

संहितास्कन्ध के अन्तर्गत ग्रहण का विचार

संहिताग्रन्थ में भी ग्रहण बहुधा वर्णित है। इन विचारों के अवलोकन से समसामयिक विषयों का एवं उस समय के ज्योतिषशास्त्र की स्थिति की भी जानकारी प्राप्त होती है। इन ग्रन्थों में ग्रहण का वर्णन विस्तृत रूप से उपलब्ध है। भिन्न प्रकार के ग्रहणों का भिन्न प्रदेशों में भिन्नफल, मास की दृष्टि से ग्रहण का फल आदि बहुत विषय इस स्कन्ध में प्रस्तुत है। राहु की कल्पना के सन्दर्भ में बृहत्संहिताकार आचार्य वराहमिहिर लोकश्रुति-स्मृति एवं संहिताओं में सामञ्जस्य रखने के लिये राहु को ग्रह मानने की बात कही। इस सन्दर्भ में कहते हैं कि ग्रहण काल में आचरित हवन जप दान आदि का अंश प्राप्त करने का वरदान राहु को ब्राह्मा ने दिया था। उसी राहुचाराध्याय में आचार्य मिहिर ने लोक में प्रचलित अनेक तर्कविहीन बातों का वर्णन कर उनका खण्डन भी किया है। यथा जल में तेल डाल कर ग्रहण के स्पर्श मोक्ष की दिशाओं का ज्ञान, वेलाहीन तथा अतिवेला ग्रहण आदि अनेक प्रसङ्गों को उद्धृतकर उनका खण्डन किया है। वराह मिहिर का स्पष्ट दृष्टिकोण रहा है कि गणितगत परिणामों में लोकश्रुति को कोई स्थान नहीं है गणित स्वयं प्रमाण है। सिद्धान्ततः ग्रहण की स्पर्श और मोक्ष की दिशायें सुनिश्चित हैं। … .. . . . सूर्यग्रहण …. .

एकमास में दो ग्रहण

संहितास्कन्ध के अनुसार सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण यदि एक ही मास में लगते है तो राजा अपने बल सहित नष्ट हो जाता है और उस स्थान में शस्त्र कोप होता है। इसी विषय की चर्चा महाभारत में भी प्राप्त होती है। इसी का उद्धरण आचार्य भटोत्पल ने अपनी बृहत्संहिता की व्याख्या में की है। कुरूक्षेत्र संग्राम के पहले धृतराष्ट्र को दिये उपदेश में आचार्य व्यास के कुछ वचनों से यह बात स्पष्ट होती है। व्यासवचनों के अनुसार युद्ध के पूर्व कार्तिकपूर्णिमा में चन्द्रग्रहण और उससे आगे वाली अमावास्या में सूर्यग्रहण हुआ था। एकमास में दो ग्रहण लगना अस्वाभाविक नहीं है किन्तु दोनों का एक स्थान में दीखना कम सम्भव होता है। यदि ऐसा हुआ तो उसे उत्पात माना जाता है।

ग्रहण की विभिन्न स्थितियाँ

ग्रहण में स्पर्श सम्मीलन मध्यग्रहण उन्मीलन मोक्ष ये पांच स्थितियाँ होती हैं। मानैक्यार्धतुल्य शर के होने पर ग्राहक एवं ग्राह्य के आमने सामने स्थित पालियों का स्पर्श १४२ ज्योतिष-खण्ड ग्रहण चन्द्र सूर्य पृथ्वी १४३ मध्यग्रहण (P)

  • पृथ्वीग्रहण सार्श ग्राह प्रभात उन्गीलन ) माह सम्मीलन मोक्ष नार १४४ ज्योतिष-खण्ड ग्रहण चन्द्र सूर्य पृथ्वी १४५ ग्रास _ ग्राहक बिम्ब के द्वारा ग्राह्य बिम्ब का जो भाग आच्छादित किया जाता है उसे ग्रास कहते है। अर्थात् ग्रहण के समय में बिम्ब का जो भाग अदृश्य होता (ढक जाता) है उसे ग्रास कहते हैं। ग्राह्य और ग्राहकबिम्बों के योगार्ध से शर को घटाने (रहित करने) पर जो शेष होता है उसे ग्रासमान कहते हैं। अर्थात् उतना ही भाग ग्रसित होता है। होता है जो ग्रहण की प्रारम्भिक दशा होती है। इसे स्पर्श कहते है। उसके बाद जब ग्राह्य बिम्ब ग्राहक बिम्ब में पूर्ण रूप से प्रवेश कर लेता है किन्तु उसका एक पाली ग्राहक बिम्ब की पाली से युक्त रहती है, इस स्थिति को सम्मीलन कहते हैं। जब दोनों बिम्बों के केन्द्रों की युति होती है तो उसे मध्यग्रहण कहते हैं। ग्राह्य बिम्ब ग्राहक बिम्ब से बाहर आने के प्रयास में जब उसकी पाली ग्राहक की दूसरी पाली को स्पर्श करती है तो उसे उन्मीलन कहते हैं। उन्मीलन के बाद ग्राह्य बिम्ब का ग्राहक बिम्ब से बाहर आने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। सम्पूर्ण ग्राह्य बिम्ब ग्राहक बिम्ब से बाहर आ जाता है किन्तु उसकी एक पाली अभी भी ग्राहक की पाली को स्पर्श कर रही होती हो तो उस स्थिति को मोक्ष कहते हैं। यह ग्रहण की अन्तिम स्थिति होती है। इसके बाद ग्रहण समाप्त माना जाता है। ग्रहण में स्पर्श से लेकर मोक्ष तक जो समय लगता है उसे स्थिति काल कहते हैं और उसके अर्धभाग को स्थित्यर्ध कहते है। इसी प्रकार सम्मीलन से लेकर उन्मीलन कालपर्यन्त जो समय लगता है उसे विमर्दकाल कहते है और उसका जो अर्थभाग होता है उसकी विमर्दार्ध संज्ञा है।

पृथ्वीग्रहण

सूर्यग्रहण की स्थिति के समय जिस प्रदेश के जनों को सूर्य का दर्शन नहीं होता है उस प्रदेश का दर्शन सूर्य के पृष्ठ में भी नहीं हो सकता है, जिसे पृथ्वीग्रहण कहा जाता है। यह पृथ्वी ग्रहण का साधन शास्त्र पटुता को प्रगट करता है। यह ग्रहण भी संक्षेप में कमलाकर भटट जैसे महान खगोल विदों के द्वारा वर्णित है। जो विचार सूर्यग्रहण के लिये प्रस्तुत किये गये हैं तथा जो विशेष परिस्थितियाँ सूर्यग्रहण के अन्तर्गत बताई गयी है वे सभी पृथ्वीग्रहण में भी होती है। इस ग्रहण में भी ग्राहक चन्द्र ग्राह्य पृथ्वी को मेघवत आच्छादित कर लेता है। परिणामतः चन्द्रग्रहण की भाँति पृथ्वी भी चन्द्रच्छाया में प्रविष्ट होकर अदृश्य हो जाती है। इस स्थिति में चन्द्रकक्षा से ऊपर स्थित किसी भी कक्षा में भ्रमण करने वाले किसी भी खगोलीय पिण्ड के पृष्टभाग में स्थित द्रष्टा को पृथ्वी का दर्शन नहीं होगा। अतः इसे पृथ्वीग्रहण कहते है। ग्राहक ग्राह्य बिम्बों के कक्षा भिन्न होने के कारण लम्बन आदि अन्तर यहां भी विचारणीय हो सकता है, किन्तु चन्द्रग्रहण की भांति यहाँ भी चन्द्रच्छाया में पृथ्वी प्रविष्ट होकर ग्रहण ग्रस्त होगी। इस प्रकार पृथ्वी और चन्द्रच्छाया दोनों ही एक कक्षागत हो जायेगी। अतः गणित पूर्णतः चन्द्रग्रहण की तरह ही होता है। स्थिति स्थित्यर्ध विमर्द विमर्दार्ध मध्यग्रहण आदि जो स्थितियाँ उपर्युक्त ग्रहणों में वर्णित है वे सभी स्थितियाँ पृथ्वीग्रहण में भी उत्पन्न होती हैं।

ग्रहण का वर्ण

यदि चन्द्रमा का ग्रस्तभाग अर्धाल्प होता है। तब धूम्रमय वर्ण होता है। यदि अधिक बिम्ब ग्रस्त होता है तो ग्रस्त भाग का वर्ण कृष्णवर्ण होता है। मोक्षाभिमुख ग्रस्त चन्द्रबिम्ब का वर्ण कृष्णताम्र होता है और चन्द्र का सम्पूर्ण ग्रहण लगने पर बिम्ब का वर्ण कपिल अर्थात हल्का पीतवर्ण होता हैं। ग्रस्त सूर्यबिम्ब का वर्ण सर्वदा कृष्णवर्ण होता है।

एक वर्ष में ग्रहणों की संख्या

एक वर्ष में ग्रहणों की अधिकतम संख्या ७ होती है जिसमें ५ सूर्यग्रहण एवं २ चन्द्रग्रहण अथवा ४ सूर्यग्रहण और ३ चन्द्रग्रहण होते हैं। १४७