०६ काल विधान

काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन

डॉ. सच्चिदानन्द मिश्रा वेदों एवं पुराणादि में सृष्टि-प्रलयात्मक अनादि एवं अनन्त काल प्रवाह के परिज्ञान तथा ब्रह्य की उत्पत्ति एवं उनकी आयु की गणना, कल्प, ब्राह्मदिन, मन्वन्तर, युग, संवत्सर, मनु, मास, पक्ष, तिथि, वार, घटी, पल, निमेष काष्ठादि सूक्ष्म एवं स्थूल काल परिमाणों का वर्णन किया गया हैं। इस काल गणना के नियामक सूर्य चन्द्रादि ग्रहों की स्थिति गति एवं निरूपण में सहायक नक्षत्रों एवं राशियों का भी विवरण उपलब्ध होता है। पुराणों में ब्राह्म दिवसादि के अतिरिक्त वैष्णव एवं रौद्र काल का भी वर्णन हुआ है जो ब्राह्म काल की अपेक्षा अति दीर्घकाल का संकेत करता है।

१-ब्रह्मा

“सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।” इस वाक्य में विधाता ब्रह्मा द्वारा सूर्य एवं चन्द्रादि ग्रहों, नक्षत्रों तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की पूर्वानुकल्पीय रचना का वर्णन किया गया है। विष्णु पुराण के प्रथम अंश के तृतीय अध्याय में ब्रह्मा की उत्पत्ति एवं उनकी आयु आदि का सुस्पष्ट वर्णन किया गया है। तदनुसार “मैत्रेय ने प्रश्न किया कि जो ब्रह्मा निर्गुण अप्रमेय शुद्ध और निर्मलात्मा है उसका सर्गादि का कर्ता होना कैसे कहा जा सकता हैं ? इसके उत्तर में पाराशर ने कहा समस्त भाव पदार्थो की शक्तियाँ ज्ञान की विषय होती है। अतः अग्नि की शक्ति उष्णता के समान ब्रह्म की भी सर्गादि रचना रूप शक्तियाँ स्वाभाविक है। उनके अपने काल मान से उनकी आयु सौ वर्ष की कही जाती है। उस सौ वर्ष के काल का नाम ‘पर’ है। इसका आधा परार्द्ध कहलाता है। विष्णु के काल स्वरूप द्वारा उस ब्रह्मा की तथा अन्य और भी जो पृथ्वी, पर्वत, समुद्र एवं चराचर जीव हैं उनकी आयु का परिमाण ज्ञात किया जाता है। वह इस प्रकार है-पन्द्रह निमिष को काष्ठा कहते है। तीस काष्ठा की एक कला तथा तीस कला का एक मुहूर्त होता हैं। तीस मुहूर्त का मनुष्य का एक अहोरात्र होता हैं। उतने ही दिन रात के दो पक्षों का एक मास तथा छ: महीनों का एक अयन होता है। दक्षिणायन और उत्तरायण इन दो अयनों का एक वर्ष होता है। दक्षिणायन देवताओं की रात्रि है और उत्तरायण दिन। देवताओं के बारह हजार वर्षों का एक महायुग होता है जिसमें सत्य, त्रेता, द्वापर और कलियुग नामक चार युग होते हैं। काल विधान, काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन

कल्प

_ कल्प ब्रह्मा का एक दिन होता है। दिन के तुल्य ही (१ कल्प की) रात्रि होती है १. श्वेतवाराह २. नीललोहित ३. वामदेव ४. गाथान्तर ५. रौरव ६. प्राण ७. बृहत्कल्प ८. कन्दर्प ६. सत्य १०. ईशान ११. ध्यान १२. सारस्वत १३. उदान १४. गरुड़ १५. कौर्म (कौर्म को ब्रह्मा की पूर्णमासी का दिन कहा जाता हैं।), १६. नारसिंह १७. समाधि १८. आग्नेय १६. विष्णुज २०. सौर २१. सोमकल्प २२. भवन २३. सुप्रमाली २४. वैकुण्ठ २५. आर्चिष २६. वल्मीक २७. वैराज २८. गौरी कल्प २६. माहेश्वर ३०. पितृकल्प। तीस कल्पात्मक दिनों से ब्रह्मा का एक मास होता है। ऐसे बारह महीनों का एक ब्राह्म वर्ष होता है। ऐसे सौ वर्षों की ब्रह्मा की परमायु होती है। इस विवरण के अनुसार वर्तमान ब्रह्मा की आयु के पचास वर्ष व्यतीत हो चुके हैं।

मन्वन्तर (मनु)

७१ महा युगों (चतुर्युगों) का एक मनु होता है आर्थात् एक मनु (मन्वन्तर) में; (७१ x १२००० दिव्य वर्ष) = ८५२००० दिव्य वर्ष तथा मानवीय मान (सौर वर्ष) के अनुसार ३०६७२०००० वर्ष होते हैं। इसी प्रमाण वाले कुल १४ मनु होते हैं। मनुओं के नाम क्रमशः निम्नलिखित हैं। १-स्वायम्भुव २-स्वारोचिष ३-उत्तम ४-तामस ५- रैवत ६- चाक्षुष। इन छ: मनुओं का काल व्यतीत हो चुका है। सम्प्रति ७-वें वैवस्वत मनु का काल चल रहा है। तदनन्तर ८-सावर्णि ६-दक्षसावर्णि १०-ब्रह्मसावर्णि ११-धर्मसावर्णि १२-रुद्रसावर्णि १३-देवसावर्णि तथा १४-इन्द्रसावर्णि। वेद एवं ब्राह्मणों वचनों में युग के प्रसंग में कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग का उल्लेख हुआ है। इसके अतिरिक्त संहिता एवं ब्राह्यण वचनों में अनेकत्र संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर एवं इद्वत्सर नामक पञ्चवत्सरों का उल्लेख प्राप्त होता है। वेदांग ज्योतिष एवं महाभारत में इस पाँच संवत्सरात्मक युग का वर्णन प्राप्त होता है। पुराणों में वर्णित सृष्टिक्रम के प्रसंग में उल्लिखित कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग नामक लाखों वर्षो वाले चार युगों के उल्लेख से यह सहज निष्कर्ष निकलता है कि यह चतुर्युगी कल्पना सृष्टिकाल के विस्तृत अवधि के मापनार्थ निरूपित है। किन्तु पञ्चसंवत्सरात्मक युग की कल्पना पञ्च वर्षव्यापी किसी वैदिक याग की अवधि को निरूपित करती है। मानव वर्ष के अनुसार सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, एवं कलियुग का कालपरिमाण क्रमशः निम्न प्रकार है सत्ययुग - १७२८००० सौर वर्ष त्रेतायुग - १२६६००० मानव वर्ष द्वापर युग - ८६४००० मानव वर्ष कलियुग ४३२००० मानव वर्ष यज्ञीय दृष्टि से परिकल्पित युग में क्रमशः संवत्सर परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर

११६ ज्योतिष-खण्ड एवं इद्वत्सर नामक पाँच वर्षों की आवृत्ति मानी जाती है। इसके लिये युग का प्रयोग औपचारिक ही प्रतीत होता है। वस्तुतः “युग’ शब्द ‘चार’ संख्या का द्योतक होता हैं। अत एव कृत आदि के अर्थ में ही ‘युग’ शब्द रूढ़ हो गया हैं।

काल विधान, काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन ११७ के परिवर्तन (चक्कर) को संवत्सर या वत्सर कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सभी ऋतुयें जब एक बार समाप्त हो जाती हैं और जब उनका दूसरा चक्कर आरम्भ होता है, तब एक संवत्सर पूर्ण होकर दूसरा संवत्सर आरम्भ होता है। इसीसे यह कहा जाता है कि संवत्सर के भीतर सभी ऋतुयें रहती हैं। सभी प्राणियों की आयु की गणना भी इन्हीं संवत्सरों के द्वारा होती है। अतएव यह भी कहा गया है कि जिसमें सभी प्राणी रहते हैं उस काल-विभाग का नाम संवत्सर हैं। वस्तुतः यदि मानव को संवत्सर का ज्ञान न होता तो वह न ऋतु विभाग को समझता और न प्राणियों के आयु की गणना ही कर पाता। यह संवत्सर अर्थात् ऋतु-विभाग सूर्य के परिभ्रमण से सम्बन्धित हैं। सूर्य के परिभ्रमण के विषय में मतभेद है। आधुनिक विद्वानों का यह मत है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। किन्तु प्राचीनों का यह मत है कि ‘सूर्य’ ही पृथ्वी की परिक्रमा करता है। इसी से संस्कृत के कोशों में पृथ्वी के पर्यावाची शब्द ‘अचला’ एवं ‘स्थिरा’ पाये जाते हैं। भारतीय ज्योतिष में दोनों प्रकार के मत पाये जाते हैं। अस्तु, “सूर्य के परिभ्रमण’ का अर्थ “पृथ्वी द्वारा सूर्य का परिभ्रमण" इस प्रकार का अर्थ करने से दोनों प्रकार के मतों का समन्वय हो जाता है। सूर्य संवत्सर अथवा काल का अधिदेवता कहा जाता है। क्योंकि यदि सूर्य न हो तो न संवत्सर रहे और न काल-विभाग। प्रकृत में ऋग्वेद का निम्न मन्त्र द्रष्टव्य है।

संवत्सर

भारतीय संवत्सर पाँच प्रकार के हैं। सावन, सौर, चान्द्र, नाक्षत्र और बार्हस्पत्य। इनमें नाक्षत्र और बार्हस्पत्य संवत्सर का उपयोग ज्योतिष विषयक गणना में प्रमुख रूप से होता है। अन्य तीन संवत्सरों का विवरण क्रमशः निम्नांकित हैं: सावन वर्ष -यह वर्ष ३६० दिनों का होता हैं। एक दिन का मान सूर्योदय से सूर्योदय तक होता है। संवत्सर की स्थूल गणना इसी के अनुसार होती है। इसमें एक महीना तीस दिनों का होता है। चान्द्र वर्ष-यह वर्ष ३६० चान्द्र दिनों (प्रायः ३५४ सावन दिनों) का होता है। अधिक मास का निर्धारण इसी संवत्सर के अनुसार माना जाता है। अधिक मास होने पर इसमें १३ मास अन्यथा १२ मास होते हैं। इसमें एक मास शुक्ल प्रति पदा से अमावस्या तक अथवा कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक माना जाता है। प्रथम को अमान्त मास एवं द्वितीय को पूर्णिमान्त मास कहते हैं। दक्षिण भारत में अमान्त मास एवं उत्तर भारत में पूर्णिमान्त मास प्रचलित हैं। सौर वर्ष-यह वर्ष ३६० सौर दिनों (प्रायः ३६५ सावन दिनों) का होता हैं। यह सूर्य की मेष संक्रान्ति के आरम्भ से प्रारम्भ होता है और पुनः मेष संक्रान्ति आने तक चलता है। सूर्य प्रतिदिन १ अंश की गति से चलता प्रतीत होता है। सूर्य के एक अंश का भोग काल एक सौर दिन होता हैं। भारत के व्रत-उत्सवादि में प्रायः चान्द्र संवत्सर ही उपयोग में आता है किन्तु बंगाल, पंजाब, नेपाल तथा कहीं-कहीं अन्यत्र सौर वर्ष भी व्यवहृत होता है। _अस्तु, भारतवर्ष में प्रायः चान्द्र एवं सौर यही दो संवत्सर सम्प्रति उपयोग में आते हैं। स्थूल दृष्टि से ३६० दिनों के संवत्सर की चर्चा की जाती है। किन्तु व्यवहार में प्रायः इसका उपयोग नहीं होता है। क्योंकि व्यवहार में दिन के रूप में सावन दिन तथा वर्ष के रूप में सौर-वर्ष ही लिए जाते हैं। अतः एक वर्ष में सावन दिनों की संख्या ३६५ दिन १६ घटी के आसन्न मानी जाती हैं। _ “संवसन्ति ऋतवोऽस्मिन् संवत्सरः” (क्षीर स्वामी, अमरकोश, कालवर्ग २०) तथा “संवत्सरः संवसन्तेऽस्मिन् भूतानि"।’ निरुक्त की उपर्युक्त व्युत्पत्तियों के अनुसार ऋतुओं “सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा। त्रिनाभि चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः।।’ अर्थात् एकाकी विचरण करने वाले एक पहिये वाले रथ (अर्थात् सूर्य) को सात (वर्ण वाली) रश्मियां अपने साथ जोड़ती हैं। अकेला सब को व्याप्त करने वाला वह सूर्य सात रश्मियों से रस लेता हुआ अथवा सप्तर्षियों से स्तुति किया जाता हुआ जा रहा है। यह (ग्रीष्म, वर्षा, और हेमन्त इन) तीन नाभियों वाला कभी जीर्ण न होने वाला और किसी के सहारे न चलने वाला चक्र (संवत्सर) हैं। इसमें यह सब लोक स्थित हैं:- “संवत्सर प्रधान उत्रोऽधर्चः'२ ऋग्वेद के उपर्युक्त मन्त्र के पूर्वार्ध में सूर्य का एवं उत्तरार्धमें संवत्सर का वर्णन किया गया हैं। _सौर और चान्द्र वर्ष के सदृश भारतीय ज्योतिष में बृहस्पति की गति के कारण एक बार्हस्पत्य वर्ष भी माना जाता है। दैनिक व्यवहार में इस वर्ष का कोई महत्व नहीं है। किन्तु संहिता-प्रकरण की दृष्टि से वर्ष के शुभाशुभ का निर्धारण करने में इस संवत्सर का विशेष उपयोग होता है। बार्हस्पत्य वर्षों के नाम निम्न प्रकार से हैं। १. ऋग्वेद-२।२६४।२ २. निरुक्त अ-४ पा० ४ ख-२६ १. निरुक्त अ-४ पा० ख-२६ ११८ ज्योतिष-खण्ड ११६ काल विधान, काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन देव तत्व और अन्धकार को असुरतत्व कहा गया है। अतः उत्तरायण को देवताओं का दिन और दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि मानते हैं। १. प्रभव २. विभव ३. शुक्ल ४. प्रमोद ५. प्रजापति ६. अंगिरा ७. श्रीमुख ८. भाव ६. युवा १०. धाता ११. ईश्वर १२. बहुधान्य १३. प्रभाथी १४. विक्रम १५. वृष १६. चित्रभानु १७. सुभानु १८. तारण १६. पार्थिव २०. व्यय २१. सर्वजित् २२. सर्वधारी २३. विरोधी २४. विकृतः २५. खर २६. नन्दन २७. विजय २८. जय . २६. मन्मथ ३०. दुर्मुख ३१. हेमलम्ब ३२. विकारी ३३. शर्वरी ३४. प्लव ३५. शुभकृत् ३६. शोभन ३७. क्रोधी ३८. विश्वावसु ३६. पराभव ४०. प्लवंग ४१. कीलक ४२. सौम्य ४३. साधारण ४४. विरोधकृत ४५. परिधावी ४६. प्रमाथी ४७. आनन्दो ४८. राक्षस ४६. नल ५०. पिंगल ५१. कालयुक्त ५२. सिद्धार्थ ५३. रौद्र ५४. दुर्मति ५५. दुन्दुभि ५६. रुधिरोद्गारी ५७. रक्ताक्ष ५८. क्रोधन एवं ५६. क्षय। इनकी गणना प्राचीन काल में ‘प्रभव’ से न होकर ‘विजय’ संवत्सर से होती थी।

अयन

सूर्य की गति को अयन कहते हैं। “अयने द्वे गतिरुदग् दक्षिणार्कस्य’ (अमरकोश, काल वर्ग १३)। “इण्’ धातु से भावार्थक ल्युट् प्रत्यय करने से “अयन” शब्द बनता है। इस का अर्थ “गति” होता हे। अयन दो होते हैं:- दक्षिणायन और उत्तरायण। कर्क संक्रान्ति से लेकर धनु संक्रान्ति तक अर्थात् सौर श्रावण से सौर पौष ये छ: महीने होते हैं। इसी प्रकार मकर संक्रान्ति से मिथुन संक्रान्ति पर्यन्त उत्तरायण होता है। इसमें माघ, फाल्गन. चैत्र, वैशाख. ज्येष्ठ और आषाढ ये छ: मास होते हैं। “तस्मादादित्यः षण्मासो दक्षिणेनैति षडुत्तरेण’’। ‘अयन’ शब्द का अर्थ “गति और मार्ग’ होता है। सूर्य सदा पूर्व दिशा के मध्य विन्दु पर नहीं रहता। अपितु चैत्र (मेष संक्रान्ति) से श्रावण (कर्क संक्रान्ति) के आरम्भ तक पूर्व के दक्षिण भाग से उत्तर की ओर आता है। इसी प्रकार श्रावण से कार्तिक (तुला संक्रान्ति) के आरम्भ तक लौटकर पूर्व के मध्य-विन्दु पर आ जाता है। कार्तिक से माघ (मकर संक्रान्ति) के आरम्भ तक पूर्व के उत्तर भाग से दक्षिण में बढ़ता है। पुनः वहाँ से लौटकर वैशाख (मेष संक्रान्ति) के आरम्भ में पूर्व के मध्य बिन्दु पर आ जाता है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि श्रावण से लेकर पौष तक जिन मासों में उत्तर के अन्तिम छोर से दक्षिण के अन्तिम छोर तक सूर्य हटता है उन ६ महीनों का दक्षिणायन और माघ से आषाढ़ तक जिन महीनों में दक्षिण के अन्तिम छोर से उत्तर के अन्तिम छोर तक सूर्य हटता है उन ६ मासों को उत्तरायण कहते हैं। उत्तरायण में दिन बड़ा होता हैं। अतः समय प्रकाश की अधिकता रहती हैं। दक्षिणायन में रात्रि बड़ी होने से अन्धकार की अधिकता रहती है। शास्त्रों में प्रकाश को १. तै०स० ६.५.३

ऋतु

संवत्सर के प्रकरण में यह लिखा गया है कि ऋतुओं के परिवर्तन का नाम ही संवत्सर है। तात्पर्य यह कि ऋतुएं ही संवत्सर या काल का परिज्ञान कराती हैं। वस्तुतः ऋतुओं का ज्ञान न होने पर समय या काल का परिज्ञान असम्भव प्राय होता है। अतः यह कहना सर्वथा यथार्थ है कि ऋतुएँ ही समय का स्वरूप अथवा लक्षण हैं। _. ‘ऋतु’ शब्द “ऋ गतौ’ धातु से निष्पन्न है। अमरकोश के टीकाकार क्षीर स्वामी ने लिखा है “इयर्ति ऋतु’ एवं पाणिनि के उणादि प्रकरण के अनुसार “अर्तेश्च तुः (१-७१)” इस प्रकार ऋतु शब्द की निष्पत्ति होती हैं। “ऋग्वेद के “त्रिनाभिचक्रं (२-३-१४)’ इस अंश की व्याख्या निरुक्त में है। “ऋतुः संवत्सरो ग्रीष्मो वर्षा हेमन्त इति” अर्थात् सवत्सर में तीन ऋतुएं ग्रीष्म, वर्षा एवं हेमन्त होती है। वस्तुतः ऋतुएं तीन ही होती है। कालान्तर में इन तीनों के दो-दो विभाग होकर छः ऋतुएं मानी गयी। यथा वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त एवं शिशिर । वेदों में कहीं-कहीं पाँच ऋतुएं भी मानी गयी है। यथा “पञ्चारे चक्रे परिवर्तमाने’’ इति पञ्चर्तुतया। यथा “पञ्चर्तवः संवत्सरस्येति च ब्राह्मणम् । हेमन्तशिशिरयोः समासेन"२ “पञ्च शारदीयेन यजेत। पञ्च वा ऋतवः, संवत्सर"३ पाँच ऋतुओं की गणना में हेमन्त एवं शिशिर नामक ऋतुओं का संयुक्त नाम हेमन्त माना गया है। किन्तु इन दोनों ऋतुओं से लक्षित होने वाली विशेषताओं के कारण दोनों की पृथक् गणना की जाने लगी। चैत्र और वैशाख इन दो महीनों को वसन्त, ज्येष्ठ आषाढ़ को ग्रीष्म, श्रावण, भाद्रपद को वर्षा, आश्विन-कार्तिक को शरद, मार्गशीर्ष-पौष को हेमन्त एवं माघ फाल्गुन को शिशिर कहते हैं। शास्त्रों में ऋतु के अनुसार ही वस्तुओं का परिणाम बताया गया है। प्रत्येक प्राणी, वृक्ष, लता इत्यादि का विकास ऋतु के अनुसार ही होता है। अस्तु वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर ऋतुओं को काल का लक्षण कहा जाना यथार्थ प्रतीत होता हैं। वेदों में चन्द्रमा को ऋतुओं का विधाता (निर्माणकर्ता) कहा गया है। , पूर्वापरं चरतो माययैतो शिशू क्रीडन्तौ परियातो अध्वरम्। विश्वान्यन्यो भुवनानि चष्टे ऋतूरन्यो विदधज्जायते पुनः।।’ उपर्युक्त ऋचा के अनुसार सूर्य और चन्द्रमा दोनो ऋतुओं के विधाता हैं। वस्तुतः चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। अतः चन्द्रमा की गति के अनुसार पृथ्वी को प्रतिदिन सोमरस १. ऋ०स० १-१६४-१३, २. नि० ४-४-२६, ३. तै०ब्रा० २/६/१०, ४. ऋग्वेद १०-८५-१० . १२० ज्योतिष-खण्ड काल विधान, काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन १२१ समानरुप से प्राप्त होता रहता है किन्तु सूर्य का प्रभाव पृथ्वी पर सदा समान नहीं पड़ता। उत्तरायण में सूर्य की किरणें पृथ्वी पर सीधी पड़ने से सोम के प्रभाव को क्रमशः कम करती है। अतः उष्णता की वृद्धि होती जाती है। उष्णता एवं शीत के इस न्यूनाधिक्य के कारण ही ऋतुयें बनती हैं। जब हम एक वर्ष में तीन ऋतुओं को ही ग्रहण करते हैं तब एक-एक ऋतु का एक-एक चातुर्मास्य होता है। फाल्गुन से ज्येष्ठ तक चार महीनों की ग्रीष्म ऋतु, आषाण से आश्विन तक वर्षा ऋतु तथा कार्तिक से माघ तक हेमन्त ऋतु होती हैं। जिस ऋतु में सूर्य की किरणें रसों को ग्रसित करती है उसे ग्रीष्म कहते हैं। जब मेघ बरसते हैं उस काल को वर्षा कहते है। जिस ऋतु में हिम (शीत अथवा बर्फ) रहता है उसे हेमन्त कहते हैं।

ऋतुओं के नामों की सार्थकता

रूप से प्रकाशित नहीं होता उस काल को ‘नभस्’ कहते हैं। तात्पर्य यह कि जिस पदार्थ के द्वारा ‘रस’ अर्थत् जल पहुँचाया जाता है अथवा जो प्रकाश को अवरुद्ध करता है उस तत्व का नभस् है। जिस ऋतु में प्रकाश का आच्छादक तत्त्व प्रधान रहता है उस ऋतु को वर्षा ऋतु कहते हैं। अभिप्राय यह कि आठ महीने तक जो जल सूर्य की किरणों से वाष्प बनकर आकाश में अव्यक्त रूप से स्थित रहा उसे व्यक्त रूप में लाकर जल का स्वरूप देने वाले तत्त्व अर्थात् सूर्य को आच्छादित करने वाले तत्त्व को ‘नभस्’ कहते हैं। यह तत्त्व जिस काल में क्रियाशील रहता है उस ऋतु का नाम वर्षा हैं। यथाः “अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं वसु। स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते।।’ है

वसन्त
शरद्

“सा नो मन्द्रेषमूर्ज दधाना इस ऋगंश की व्याख्या में कहा गया है “इषम् अन्नम् ऊर्जम् पयोघृतादि रूपं रसं च”। जिस ऋतु में अन्न और घृत एवं दुग्ध इत्यादि रस का परिपाक एवं प्राप्ति होती है उस ऋतु को शरद् कहते हैं। इस व्युत्पत्ति से यह भी सिद्ध होता है कि जिस ऋतु में औषधियाँ (फसलें) पक जाती हैं अथवा जल निर्मल हो जाता है उसे शरद् ऋतु कहते हैं। “शारच्छता अस्यामोषधयो भवन्ति, शीणां आप इति। ‘मधु’ एवं “माधव” ये दोनों ही शब्द मधु से निष्पन्न है। ‘मधु’ का अर्थ होता है एक प्रकार का रस। यह वृक्ष, लता तथा प्राणियों को मत्त करता है। इस रस की जिस ऋतु में प्राप्ति होती है उसे वसन्त कहते हैं। अतएव यह देखा जाता है कि इस ऋतु में वृष्टि के बिना ही वृक्ष, लतादि पुष्पित होते हैं एवं प्राणियों में मदन-विकार होता है। अतएव क्षीर स्वामी ने कहा है “वसन्त्यस्मिन् सुखम्’ अर्थात् जिसमें प्राणी सुख से रहते हैं। निष्कर्ष यह कि जिस ऋतु में सर्वत्र आनन्द एवं माधुर्य की व्याप्ति होती है उसे वसन्त कहते हैं।

ग्रीष्म

“शुक्रः शोचतेः। शुचिः शोचतेचलित कर्मणः। इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘शुक्र’ व शुचि’ शब्द “शुच्” धातु से निष्पन्न हैं। शुच्’ का अर्थ है जलना या सुखाना। अस्तु जिस ऋतु में पृथ्वी का रस (जल) सूखता या जलता है उस ऋतु का नाम “ग्रीष्म” हैं। है। अतः यह देखा जाता है कि ग्रीष्म ऋतु में वसन्त के उत्पन्न फल, पुष्प आदि में जल के आधिक्य से जो कोमलता होती है उसे त्याग कर वे परिपक्व हो जाते हैं। इस प्रकार पृथ्वी भी शुष्क हो जाती हैं। अतएव ग्रीष्म उस ऋतु को कहते हैं जो पदार्थो को सुखाती एवं परिपक्व करती है।

हेमन्त

“सहस्’ शब्द का अर्थ निघण्टु में बल किया गया है। क्योंकि सहन करना प्रकारान्तर से बल का कार्य हैं। ‘सहाः’ और ‘सहस्य’ शब्द इसी ‘सहस्’ शब्द से बने हैं। तात्पर्य यह कि जिस ऋतु में अन्न-पानादि के उपयोग से बल की वृद्धि होती है उस ऋतु को हेमन्त कहते हैं। यह एक स्पष्ट तथ्य है कि अन्नपानादि अन्य ऋतुओं की अपेक्षा हेमन्त में अधिक बलप्रद होते हैं एवं प्राणियों की कार्य क्षमता भी हेमन्त में अधिक हो जाती हैं।

शिशिर

“शिशिरं श्रृणारोः शम्नातेर्वा'५ ‘तपस्’ शब्द “तप सन्तापे” धातु से बना है। अभिप्राय यह कि जिस ऋतु में उष्णता की वृद्धि होने से वृक्षादि के पत्रादि पक कर गिरते हैं उसे शिशिर कहते हैं। अस्तु “शीर्यन्ते पर्णानि अस्मिन्निति शिशिरः” यह भी व्युत्पत्ति की गयी है।

वर्षा

_ “नभ आदित्यो भवति। नेता रसानाम् । नेता भासाम् । ज्योतिषां प्रणयः, अपि वा मन एव स्याद्विपरीतः। न भातीति वा’ अर्थात् नभ का अर्थ आदित्य होता है। (सूर्य) जब पूर्ण निरुक्त २/४/१४ १. श्रीमद्भागवत १०/२०/५, २. ऋ. ६/७/५, ३. निरुक्त ४/४/२५, ४. निघण्टु २/६/१६ ५. निरुक्त १/३/१०. १२२ ज्योतिष-खण्ड १२३ निष्कर्ष यह कि काल अथवा समय के कारण वर्ष में जो विभिन्न परिणाम भिन्न-भिन्न अन्तराल पर दिखलायी पड़ते हैं उसका कारण ऋतु नामक काल का अवयव ही होता है। ये परिणाम जब अपना रूप दिखलाकर अपनी पुनरावृत्ति करते हैं तब सब ऋतुएँ समाप्त हो जाती है और नवीन संवत्सर का आरम्भ होता है। अतः काल के स्वरूप को यथार्थतः प्रकट करने वाली ऋतुयें ही होती हैं। अतएव भारतीय व्रतोत्सवों में ऋतुओं को प्रधानता प्राप्त हैं। काल विधान, काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन कार्तिक-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “कृत्तिका नक्षत्र’ पर स्थित हो। मार्गशीर्ष-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “मृगशिरा नक्षत्र” पर स्थित हो। पौष-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “पुष्य नक्षत्र" पर स्थित है Ac हो। माघ-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “मघा नक्षत्र’ पर स्थित हो।

मास

‘मास’ शब्द का अर्थ होता है “चन्द्रसम्बन्धी”। अमरकोश के टीकाकार श्री क्षीरस्वामी ने कहा है “माश्चन्द्रः तस्यायं मास’ अर्थात मा (चन्द्र) का जो हो उसे “मास" कहते हैं। चन्द्रमा से ही मास का ज्ञान होता है एवं चान्द्रमास ही मुख्य हैं। यही कारण है कि मासों के चैत्रादि प्रचलित नाम पूर्णिमा को जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा की स्थिति रहती है उसी के अनुसार पड़ा है। अमरकोश के निम्न श्लोक से यह तथ्य सुस्पष्ट होता है। “पुष्ययुक्ता पौर्णमासी पौषी मासे तु यत्र सा। नाम्ना स पौषो माघाद्याश्चैवमेकादशापरे।। अर्थात् जिस पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र पर रहता है उस पूर्णिमा का नाम पौषी है एवं वह पूर्णिमा जिस मास में हो उसे “पौष’ कहते हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्र “सास्मिन् पौर्णमासीति (४/२/२१) से “पौषी’ से “अण्’ प्रत्यय होकर “पौष" शब्द निष्पन्न होता हैं। इसी प्रकार माघ इत्यादि अन्य ग्यारह मास भी होते हैं। अस्तु, यह सिद्ध होता है किः • चैत्र-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “चित्रा नक्षत्र" पर स्थित हो। वैशाख-उस मास का नाम है जिसकी पूणिमा के दिन चन्द्रमा “विशाखा नक्षत्र" पर हो। ज्येष्ठ-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “ज्येष्ठा नक्षत्र" पर हो। आषाढ़-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “आषाढ़ा नक्षत्र" पर हो। श्रावण-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “श्रवण नक्षत्र" पर हो। भाद्रपद-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “भाद्रपद नक्षत्र" पर हो। आश्विन-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “अश्विनी नक्षत्र" पर स्थित हो। . फाल्गुन-उस मास का नाम है जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा “उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र’ पर स्थित हो। मासों का उपर्युक्त विवरण पूर्णिमा के दिन विभिन्न नक्षत्रों पर चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार है। किन्तु, वैदिक-विज्ञान के अनुसार मासों का विवरण किञ्चित् भिन्न प्रकार से होता है। यथा तैत्तिरीय संहिता’ में इन नामों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया गया है। “मधुश्च माधवश्च शुक्रश्च शुचिश्च नभश्च नभस्यश्चेषोर्जश्च सहश्च सहस्यश्च तपश्च तपस्यश्चोपयामगृहीतोसि स सर्पोस्य हस्पत्याय त्वा।।” अर्थात् है सोम। उपयाम (स्थाली) द्वारा गृहीत तुम हो, माधव हो, शुक्र हो, शुचि हो, नभ हो, नभस्य हो, ऊर्ज हो, सह हो, सहस्य हो, तप हो एवं तपस्य हो तथा संसर्प और अंहस्पति हो। इस मन्त्र में मधु आदि बारह मासों के अतिरिक्त अधिमास के लिये संसर्प तथा क्षयमास के लिये अंहस्पति नाम का प्रयोग हुआ है। अस्तु वैदिक नामों के अनुसार चैत्रादि मासों का विवरण निम्न प्रकार से होगा। यथाः • चैत्रः इस महीने का नाम ‘मधु’ है। इस मास में मधु रस की उत्पत्ति होती है जिससे वृक्षादि पुष्प एवं फल से युक्त हो जाते हैं। मधु मक्ख्यिाँ इस मास से प्रायः मधु सञ्चय करती देखी जाती हैं। वैशाखः इस मास को ‘माधव’ कहते हैं। क्योंकि इस समय चैत्र मास में उत्पन्न होने वाले मधुरस का परिपाक होता हैं। ज्येष्ठः इस महीने का नाम शुक्र हैं। क्योंकि इस मास में सूर्य की उष्णता बढ़ती हैं। आषाढ़ः इस मास का नाम “शुचि’ है। इस मास में सूर्य के ताप से उत्पन्न परिणाम की प्रतीति होती है। इस काल में आम्रादि फल परिपक्व हो जाते हैं। तथा उष्णता की अधिकता के फलस्वरुप वृष्टि के आरम्भ की सूचना प्राप्त होती हैं। श्रावण : इस महीने का नाम ‘नभस्’ है। इस मास में जल को रोकने वाले तत्वों का विनाश होता है। १. १/४/१५ १२४ ज्योतिष-खण्ड काल विधान, काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन १२५ जिस पक्ष में चन्द्रमा की कला में ह्रास होने से अन्धकार की वृद्धि होती है उसे कृष्णपक्ष कहते हैं। अमावस्या के बाद पूर्णिमा के १५ दिनों का शुक्ल पक्ष एवं पूर्णिमा के बाद अमावस्या तक के १५ दिनों का कृष्ण पक्ष होता है। भाद्रपद : इस मास का नाम ‘नभस्य’ है। इस समय जल को अवरुद्ध करने वाले तत्वों के विनाश का परिणाम प्रतीत होता है। आश्विन- इस महीने का नाम ‘इष’ है क्योंकि इस मास में नवीन अन्न परिपक्व होता है। कार्तिक-इस मास का नाम “ऊर्जा’ हैं। इस समय अन्न-तृण आदि से गौ इत्यादि प्राणियों में घृत-दुग्ध आदि रसों का परिपाक होता है। मार्गशीर्ष-इस मास का नाम “सहस्’ है। इस समय बल की वृद्धि होती है। पौष-इस मास का नाम “सहस्य’ है। इस मास में प्राणियों का बल स्थिर होता है। माघ-इस मास का नाम ‘तपस्’ है। इस महीने में ताप की क्रमशः वृद्धि होने लगती है। अतः शीतकालीन सस्य का परिपाक प्रारम्भ होता हैं। फाल्गुन- इस महीने का नाम ‘तपस्य’ है। क्योंकि इस मास में ‘जौ, गेहूँ, चना आदि का परिपाक होता है। मधु-माधव आदि नामों के अतिरिक्त पूणिमाओं के आधार पर प्रचलित “चैत्रादि’ महीनों के नामों का भी उल्लेख वेदों में हुआ है। यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता’ में फाल्गुनी पूर्णमास और चित्रापूर्णमास का उल्लेख हुआ है। तैत्तिरीय ब्राह्मण’, शतपथ ब्राह्यणरे में भी ‘फाल्गुनी पौर्णमासी का वर्णन हैं। इसी प्रकार सांख्यायन ब्राह्मण तथा सामविधान ब्राह्मण में फल्गुनी, रौहिणी (ज्येष्ठी) और पौषी पूर्णमासी का उल्लेख है। कौषीतकि ब्राह्मण’ में तैषस्य (पौषस्य) एवं माघस्य तथा पञ्चविंश ब्राह्मण में फाल्गुन एवं गृह्य सूत्र में श्रावण्याम् पौर्णमास्याम् और मार्गशीर्ष्याम् चतुर्दश्याम् तथा पारस्कर गृह्य सूत्र में ‘मार्गशीर्ष्याम् पौर्णमास्याम्’ का उल्लेख हुआ है। वैदिक-संहिताओं एवं गृह्य सूत्रों के सदृश ही महाभारत, पुराण एवं मनुस्मृत्यादि में भी यह सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में भी आजकल की तरह चैत्रादि मासों का प्रचलन था। है

तिथि-विचार

भारतवर्ष में दो प्रकार की तिथियाँ प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं। सौर-तिथिः सौर तिथि दो प्रकार से मानी जाती है। एक प्रकार यह है कि जिस-जिस दिन सूर्य की संक्रान्ति लगती है उस दिन को प्रथम तिथि मानी जाय। दूसरा प्रकार यह है कि संक्रान्ति के दूसरे दिन से प्रथम तिथि मानी जाय। बंगाल एवं पञ्जाब में इन तिथियों का प्रयोग विशेष रूप से होता है। अन्यत्र भी सौर तिथि के नाम से इनका प्रचलन है। किन्तु, भारत में प्रचलित व्रतों एवं उत्सवादि में इन तिथियों का प्रयोग प्रायः कम ही होता हैं। चान्द्र तिथि-भारत के धार्मिक कर्यो में विशेषरूप से चान्द्र तिथियों का ही प्रयोग होता है। इन तिथियों का नाम क्रमशः प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी एवं कृष्ण पक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की पन्द्रहवी तिथि को पूर्णिमा कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा जिस दिन एक बिन्दु पर आ जाते हैं उस तिथि को अमावस्या कहते हैं। अमरकोश की टीका में क्षीरस्वामी ने कहा है “अमा सह सवतोऽस्यां चन्द्रार्को’। इसी प्रकार जिस तिथि को सूर्य एवं चन्द्रमा परस्पर आमने-सामने रहते हैं, उस तिथि को पूर्णिमा या पौर्णमासी कहते हैं। सामान्यतः अमावस्या या पूर्णिमा में पन्द्रह दिन का अन्तर रहना चाहिए। किन्तु, प्रत्येक तिथि एक दिन-रात अर्थात् २४ घण्टे अथवा ६० घटी में समाप्त नहीं होती। अतएव अमावस्या से पूर्णिमा और पूर्णिमा से अमावस्या कभी १५ दिनों के अन्तर पर कभी १४ दिनों, कभी १६ दिनों अथवा कभी १३ दिनों के अन्तर पर आती हैं। इस अन्तर का कारण यह है कि तिथियाँ सूर्य एवं चन्द्रमा की गति से सम्बन्धित होती है। अतः जब सूर्य एवं चन्द्रमा की गति का अन्तर अधिक रहता है तब चन्द्रमा १५ दिनों की अपेक्षा १४ दिनों में ही सूर्य के सामने से साथ अथवा साथ से सामने आ जाता है। यदि गति का अन्तर मन्द रहता है तो १६ दिन लग जाते हैं। इसे ही तिथियों की क्षय-वद्धि अर्थात् घटना और बढ़ना कहा जाता है। स्पष्टार्थ यह कि अमावस्या के दिन चन्द्रमा और सूर्य एक राशि पर समान अंशादि में रहते हैं। अतएव अमावस्या को सूर्येन्दु संगम भी कहा जाता हैं।

पक्ष-विचार

एक मास में दो पक्ष होते हैं। शुक्लपक्ष एवं कृष्ण पक्ष। प्रत्येक पन्द्रह दिनों (तिथियों) का होता है। शुक्ल पक्ष को पूर्वपक्ष एवं कृष्ण पक्ष को अपर पक्ष कहते हैं। यद्यपि महीने के दोनों पक्षों में प्रकाश और अन्धकार समान ही रहता है। किन्तु जिस पक्ष में चन्द्रमा की कलाओं की वृद्धि के कारण प्रतिदिन प्रकाश की वृद्धि होती है उस पक्ष को शुक्ल पक्ष एवं १. ८. ६/४/८, २. १/१/२/८, ३. २/६, ४. १६/२/३, ५. ५/६/६, ६. २/१/१, ७. २/३/१ ३/१२ . काल विधान, काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन १२७ १२६ ज्योतिष-खण्ड _ चन्द्रमा को पुनः उसी स्थान पर पहुंचने में प्रायः ३६ दिन लगते है। प्रायः इतने ही दिनों में सूर्य अपनी एक राशि समाप्त कर पाता है। इस प्रकार सूर्य के दूसरी राशि पर चन्द्रमा पुनः सूर्य के साथ सम्मिलित होता है। उदाहरणार्थ यदि चैत्र मास की अमावस्या को सूर्य और चन्द्रमा मीन राशि पर थे तो वैशाख की अमावस्या के दिन उन दोनों को मेष राशि पर होना चाहिये। इस प्रकार सूर्य से पुनः मिलने के लिये चन्द्रमा को तेरह राशियों का चक्कर लगाना पड़ेगा। यह चक्कर उपर्युक्त प्रकार से ३० दिनों में पूर्ण होगा। एक राशि में ३० अंश होते हैं। इस प्रकार अमावस्या से अमावस्या अथवा पूर्णिमा से पूर्णिमा तक चक्कर लगाने के लिये चन्द्रमा को ३० x १२ = ३६० अर्थात् ३६० अंश चलना पड़ेगा। इन ३६० अंशो को यदि ३० तिथियों में विभाजित किया जाय तो एक तिथि में प्रायः १२ अंश होते है। अस्तु, सूर्य से चन्द्रमा के १२ अंश हटने को एक तिथि कहते है। यह १२ अंश जब कभी चन्द्रमा शीघ्र चलता है तो ५४ घटी में ही समाप्त हो जाता है। और जब चन्द्रमा की गति मन्द होती है तो उक्त १२ अंशो के समाप्त होने में ६५ घटी का समय लगता है। अर्थात् चन्द्रमा को सूर्य से १२ अंश आगे जाने में कभी २१ घण्टे या २२ घण्टे और कभी २४ घण्टे के स्थान पर २६ घण्टे लगते है। इसी ह्रासवृद्धि को धर्मशास्त्र में “बाणवृद्धि रसक्षय’ कहा गया है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जब चन्द्रमा सूर्य से १२ अंश आगे बढ़ता है। तो शुक्लपक्ष की प्रतिपदा समाप्त होती है एवं २४ अंश आगे बढ़ने पर द्वितीया समाप्त होती है। इसी क्रम से दिन-रात की की जितनी घटियों पर प्रत्येक १२ अंश समाप्त होते रहते है तदनुसार ही प्रतिपदा एवं द्वितीयादि तिथियाँ क्रमशः समाप्त होती हैं। अहोरात्र से आगे बढ़ जायेंगें। यदि १२-१२ अंशो का चतुर्थ भाग चौथे अहोरात्र में समाप्त न होकर पाँचवे अहोरात्र में कुछ शेष रह गया तो इसे चतुर्थी की वृद्धि कहा जायेगा, क्योंकि वह भाग चतुर्थ अहोरात्र में तो रहा ही तथा पञ्चम अहोरात्र के सूर्योदय के समय भी वही रहा। यह नियम है कि सूर्योदय के समय १२-१२ अंशो वाले भाग में से जिस संख्या का भाग चल रहा होगा वही उस दिन की तिथि होगी। अस्तु पहले सूर्योदय को भी चतुर्थी रही और दूसरे दिन के सूर्योदय के समय भी चतुर्थी रही। इस प्रकार दो चतुर्थियाँ हो जाती है। इसे ही तिथि की वृद्धि कहते हैं। उपलब्ध वैदिक संहिताओं में तिथियों का स्पष्ट उल्लेख नहीं प्राप्त होता। किन्तु वेदों के ब्राह्यण भाग में तिथियों का वर्णन प्राप्त होता है। ऋग्वेद ज्योतिष, यजुर्वेद ज्योतिष एवं अथर्ववेद ज्योतिष के वचनों में भी तिथियों का उल्लेख प्राप्त होता है “तृतीयां नवमीञ्चैव पौर्णमासी त्रयोदशीम षष्ठीञ्च विषुवान् प्रोक्तो द्वादश्यां समं वैत् ।।३३।। चतुर्दशीमुपवसथस्तथोदितचन्द्रमाः।।१ तिथिरेकगुणा प्रोक्ता नक्षत्रञ्च चतुर्गुणम्। वारश्चाष्टगुणः प्रोक्तः करणं षोडशान्वितम् ।। ६०।।

तिथियों के क्षय-वृद्धि का क्रम

उपर्युक्त रीति से यदि चन्द्रमा शीघ्र चलता रहा और अपनी गति से दो-दो घण्टे कम किये तो १२ दिनों में २४ घण्टे कम होगें। इस प्रकार एक अहोरात्र पूर्व ही अर्थात् बारहवें दिन ही चन्द्रमा की गति का (१२ अंशो वाला) तेरहवाँ भाग समाप्त हो जायेगा। इसे ही त्रयोदशी का क्षय कहेंगे। क्योंकि साधारण गणना के अनुसार तो प्रत्येक अहोरात्र में चन्द्रमा के बारह अंश ही समाप्त होने चाहिये एवं इस प्रकार तेरहवें अहोरात्र में चन्द्रमा के बारह अंश ही समाप्त होने चाहिये एवं इस प्रकार तेरहवें अहोरात्र में तेरहवाँ अंश आना चाहिये। परन्तु जब यह देखा जाता है कि तेरहवें अहोरात्र में तेरहवें भाग का कोई स्थान नहीं है अपितु, उस दिन प्रातः काल से ही चौदहवाँ भाग आरम्भ हो गया है तो इस प्रकार बारहवें अहोरात्र में ही तेरहवें भाग के समाप्त हो जाने से त्रयोदशी का क्षय होना कहा जाता हैं। इसी प्रकार यदि चन्द्रमा मन्दगति से चला और उसने १२ अंश वाला भाग २४ घण्टे के स्थान पर २६ घण्टे में समाप्त किया तो ये २-२ घण्टे बचते-बचते अपने यथासंख्य

वार-विचार

“वार’ शब्द का अर्थ अवसर अर्थात् नियमानुसार प्राप्त समय होता है। तद्नुसार “वार” शब्द का प्रकृत अर्थ यह होता है कि जो अहोरात्र (सूर्योदय से आरम्भ कर २४ घण्टे अथवा ६० घटी अर्थात् पुनः सूर्योदय होने तक ) जिस ग्रह के लिये नियमानुसार प्राप्त होता है अर्थात् जो ग्रह जिस अहोरात्र का स्वामी है उसी ग्रह के नाम से वह अहोरात्र अभिहित होता है। उदाहरणार्थ जिस अहोरात्र का स्वामी रवि है वह रविवार एवं जिस अहोरात्र का स्वामी सोम है वह सोमवार इत्यादि होगा। यह खगोल में ग्रहों की स्थिति के अनुसार नहीं है। ॐ इस असंगति का समाधान यह है कि खगोलीय क्रम के अनुसार ग्रहो की होराये होती है न कि पूर्ण अहोरात्र । प्रत्येक होरा ढाई घटी अर्थात् ६० मिनट की होती है। इस प्रकार एक अहोरात्र में २४ होरायें होती है। इस क्रम में पहली होरा अहोरात्र के स्वामी की होती है बाद में उसी पूर्वोक्त खगोलीय क्रम के अनुसार क्रमशः निम्नवर्ती ग्रह की होरा आती हैं। उदाहरणार्थ यदि प्रथम होरा रवि की हुयी तो उस के निम्नवर्ती ग्रहों के अनुसार शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु मंगल की होरायें होंगी। पचीसवें घण्टे में अर्थात् दूसरे दिन प्रातः काल १. ऋग्वेद ज्योतिष, (भारतीय ज्योतिष), २. अथर्ववेद ज्योतिष (भारतीय ज्योतिष) १२८ ज्योतिष-खण्ड चन्द्र की होरा होगी। तद्नुसार रविवार के दूसरे दिन चन्द्रमा की, तीसरे दिन मंगल की, चतुर्थ दिन बुध की, पञ्चम दिन गुरु की, छठवें शुक्र की एवं सातवें दिन पुनः रवि की होरा होगी। निष्कर्ष यह कि प्रातःकाल जिस ग्रह की होरा होती है वही ग्रह उस अहोरात्र का स्वामी माना जाता है। अतः वह अहोरात्र उसी ग्रह का ‘वार’ माना जाता है। यहाँ पर शंका हो सकती है कि उपर्युक्त क्रम मानकर यदि ऊपर से चला जाय तो प्रथम दिन शनिवार होना चाहिये एवं यदि नीचे से चला जाय तो प्रथम वार सोमवार होना चाहिये। किन्तु व्यवहार में रविवार को ही प्रथम वार माना जाता है। इसका समाधान भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि में निम्न प्रकार से दिया हैं काल विधान, काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन १२६ का एक अण्डाकार मार्ग बन जाता है। इसे ही उस ग्रह की कक्षा वृत्त कहते हैं। सूर्य के कक्षा वृत्त को क्रान्ति वृत्त कहते हैं तथा उसके बारह भागों का नाम मेषादि राशियाँ हैं। क्रान्ति वृत्त क्षेत्र में आने वाले तारा समूहों को २७ भागों में विभक्त करने पर प्रत्येक खण्ड का मान १३०.२०’ का माना जाता हैं। इस क्षेत्र में आने वालों तारों को समूह को एक नक्षत्र कहते है। उनके सर्वाधिक तेजस्वी तारा को योगतारा कहा जाता है तथा वही नक्षत्र का प्रधान विन्दु होता है जहाँ से उसकी गणना होती हैं। पञ्चागों में प्रतिदिन उल्लिखित नक्षत्र इन्हीं तारा समूहों के निकट चन्द्रमा की स्थिति को सूचित करते हैं। तात्पर्य यह कि जिस दिन चन्द्रमा जिस तारा समूह के निकट रहता है उस दिन वह उसी नक्षत्र पर स्थित माना जाता है। ग्रहों के पूर्णवृत्त को सुविधानुसार अश्विनी आदि २७ तारा समूहों में विभक्त किया गया हैं। चन्द्रमा की गति के अनुसार क्रान्तिवृत्त का सत्ताइसवाँ भाग जितने समय में समाप्त होता है अर्थात् चन्द्रमा एक तारक-समूह से दूसरे तारक समूह तक जाता है उसे उस-उस नक्षत्र का भाग कहते हैं। यह भाग भी तिथि के अनुसार २४ घण्टे या ६० घटी में एवं कभी-कभी उससे अधिक या अल्प समय में चन्द्रमा पार करता है। इस प्रकार जब उक्त सत्ताइसों भाग समाप्त हो जाते हैं तब चन्द्रमा आकाश में पुनः उसी स्थान पर आ जाता हैं। “लंका नगर्यामुदयाच्च भानोस्तथैव वारो प्रथमो बभूव। मधोः सितादेर्दिनमास-वर्ष-युगादिकानां युगपत् प्रवृत्तिः।। अर्थात् लंका नगरी में सर्वप्रथम सूर्योदय रविवार को हुआ। अतः चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन, मास, वर्ष एवं युगादि की एक साथ प्रवृत्ति हुयी। निष्कर्ष यह कि काल गणना का आरम्भ ही रविवार से हुआ। अतः रविवार को ही प्रथम वार मानना युक्तिसंगत हैं। यद्यपि ऋग्वेद ज्योतिष में वारों का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं हैं। किन्तु अथर्वज्योतिष में स्पष्ट रूप से वाराधिपों का उल्लेख किया गया है। “आदित्यः सोमो भौमश्च तथा बुधबृहस्पती। भार्गवः शनैश्चरश्चैव एते सप्तदिनाधिपाः।। ६३ ।। अर्थात् आदित्य, सोम, भौम, बुध, बृहस्पति भार्गव (शुक्र) एवं शनि ये क्रमशः वारों के स्वामी होते हैं।

नक्षत्र-विचार

नक्षत्र २७ हैं। अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफल्गुनी, उत्तराफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा एवं रेवती। उत्तराषाढ़ा के चतुर्थ चरण एवं श्रवण के प्रथम चरण को मिला के नाम से अट्ठाइसवाँ नक्षत्र भी माना गया है। किन्तु व्यवहार में प्रायः सत्ताइस नक्षत्रों का ही उपयोग होता है। इसका उपयोग पञ्चशलाका चक्र, सप्तशलाका चक्रादि की गणना एवं कुछ अन्य कार्यो में ही होता हैं। प्रत्येक ग्रह खगोल की परिधि में पूर्ण परिभ्रमण के बाद पुनः उसी स्थान पर आ जाता है जहाँ से वह चलता है। इस भ्रमण को एक भगण कहा जाता है। इस प्रकार एक ग्रह

कालगणना की कुछ अन्य रीतियाँ

पूर्व में ब्राह्म दिन अर्थात् कल्प एवं युगादिके क्रमानुसार कालगणना का दिग्दर्शन हुआ है। किन्तु इनके अतिरिक्त ध्रुव नक्षत्र एवं सप्तर्षि-नक्षत्र के द्वारा भी काल गणना का उल्लेख वेदों में अनेक स्थलों पर प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ-ऋग्वेद (१/२४/१०), (१०/८२/२ एवं १०/१०६/४) के मन्त्रों में सप्तर्षिमण्डल का विवरण हैं। अतएव यह माना जा सकता है कि वेदों में सप्तर्षियों के परिभ्रमण से भी कालगणना की जाती रही है। ऋग्वेद (१०/१४/११) में सौरमण्डल के विशालतम ग्रह बृहस्पति और शुक्र की अश्विनी संज्ञा होने के अतिरिक्त उन्हें यमगृह के दो श्वान कहा गया हैं। पुराणों में भी अनेक स्थलों पर सप्तर्षि से कालगणना का उल्लेख प्राप्त होता हैं। उदाहरणार्थ वायु पुराण’, ब्रह्माण्ड पुराण’, मत्स्य पुराण’, भागवतपुराण’, एवं विष्णु पुराण के अंशों को देखा जा सकता हैं। पार्जिटर के अनुसार एक-एक नक्षत्र पर सप्तर्षियों की स्थिति सौ-सौ वर्षों की मानी जाती है। इनका पूर्ण परिभ्रमण सात दिव्य वर्ष और छह दिव्य माहों का माना जाता है। १. ६६/४१८-४२३, २. ३/७४/२२५-२३६, ३. २७२/३८-४३, ४. १२/२/२७-३१ ५. ४/२४/१०५-११६.१३० ज्योतिष-खण्ड यह अवधि मानव वर्षों में २६०० वर्षों के तुल्य हैं। किन्तु पुराणों में सप्तर्षि संवत्सर ३०३० वर्षों का बताया गया है। तीन सप्तर्षि संवत्सरों के व्यतीत होने पर एक क्रौञ्च अर्थात् ध्रौव संवत्सर पूर्ण होता है। इस सम्बन्ध में विष्णु पुराण में उल्लिखित है कि स्वायंभव मनु के पुत्र उत्तानपाद ने उत्कृष्ट तपस्या से सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। उसी समय क्रौञ्च संवत्सर (तीन सप्तर्षि संवत्सरों की पूर्ति होने पर) पूर्ण हुआ। अतएव उस संवत्सर को ध्रौव संवत्सर कहा जाने लगा। अधर्व ज्योतिष में तिथि, नक्षत्र, वार, करण, योग, तारा तथा चन्द्रमा के बलाबल का विचार करने का उल्लेख किया गया है। तिथिरेकगुणा प्रोक्ता नक्षत्रञ्च चतुर्गुणम्। वाराश्चाष्टगुणाः प्रोक्ताः करणं षोडशान्वितम्।।६० ।। द्वात्रिंशद् योगस्तारा षष्ठिसमन्विता। चन्द्रः शतगुणः प्रोक्तस्तस्माच्चन्द्रबलाबलम् ।।६।। तद्नुसार ही भारतीय पञ्चांगों में प्रतिदिन योग एवं करणों का विवरण दिया जाता है। योग सत्ताइस हैं। इनका नाम क्रमशः १. विष्कम्भ २. प्रीति ३. आयुष्मान् ४. सौभाग्य ५. शोभन ६. अतिगण्ड ७. सुकर्मा ८. धृति ६. शूल १०. गण्ड ११. वृद्धि १२. ध्रुव १३. व्याघात १४. हर्षण १५. वज्र १६. सिद्धि १७. व्यतीपात १८. वरीयान १६. परिघ २०. शिव २१. सिद्ध २२. साध्य २३. शुभ २४. शुक्ल २५. ब्रह्म २६. ऐन्द्र एवं २७. वैधृति हैं। काल विधान, काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन १३१ वेद एवं वेदांग ज्योतिष में राशियों का नाम नहीं मिलता किन्तु पुराणों में राशियों के आधार पर शुभा-शुभत्व का निर्णय किया गया है। __ब्राह्म दिनादि के सदृश ही विष्णु एवं रुद्र के समय का वर्णन भी ज्योतिष की गणना में उपलब्ध होता है। इस प्रसंग में सूर्य सिद्धान्त में कहा गया है। “चतुर्युगसहस्रेण ब्रह्मणो दिनमुच्यते। पितामहसहस्रेण विष्णोश्च घटिकास्मृता।। विष्णोर्वादशलक्षाणि कलार्द्धं रौद्रमुच्यते। रुद्रस्यार्बुदसंख्याभिस्ततो ब्रह्माक्षरं भवेत्।।” अर्थात् एक सहन चतुर्युगों का ब्रह्मा का एक दिन होता है। इस प्रकार ब्रह्मा के सहन वर्षों के तुल्य विष्णु की एक घटी होती है। इस परिमाण से श्री विष्णु के बारह लाख वर्षों के बराबर रुद्र की आधी कला होती है तथा रुद्र के एक अरब वर्षों के बराबर अक्षर ब्रह्म का दिवस होता है।

करण

तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। करणों के नाम निम्न हैं। यथाः-१. बव २. बालव ३. कौलव ४. तैतिल ५. गर ६. वणिज ७. विष्टि ८. शकुनि ६. चतुष्पद १०. नाग ११. किंस्तुघ्न । इन करणों में प्रथम सात चरकरण एवं अन्तिम चार स्थिर करण कहे जाते हैं।

राशिवर्णन

क्रान्तिवृत्त के ३६० अंशों को तारा समूहों के आधार पर बारह भागों में विभक्त किया गया है। इन तारा समूहों को ही राशि कहते हैं। राशियों के नाम क्रमशः निम्न हैं। यथाः १. मेष २. वृष ३. मिथुन ४. कर्क ५. सिंह ६. कन्या ७. तुला ८. वृश्चिक ६. धनु १०. मकर ११. कुम्भ एवं १२. मीन।