०५ वास्तुविद्या

प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी

वैदिक वाङ्गमय में वास्तु का सामान्य अर्थ गृह या भवन है तथा विशेष अर्थ-गृह निर्माण हेतु उपयुक्त भूखण्ड। वास्तु शब्द की व्युत्पत्ति “वस्” वासे धातु से हुई है। यह “वस्’ धातु किसी एक स्थान में वास करने की द्योतक है। उणादि सूत्र (वसेस्तुन् १-७८) के अनुसार इसमें ‘तुन्’ प्रत्यय लगाया गया है। प्रथम अक्षर ‘व’ के ह्रस्व ‘अ’ को दीर्घ ‘आ’ इसलिए किया गया है क्योंकि इस प्रत्यय को ‘णित्’ माना जाता है। (अगारे णिच्च १-७६)। वास्तु का व्युत्पत्तिलभ्यार्थ है-वसन्त्यस्मिन्नितिवास्तुः। अर्थात् वह भवन जिसमें मनुष्य निवास करते हैं, उसे वास्तु कहते हैं। वास्तु के वैदिक देवता का नाम वास्तोष्पति है। ऋग्वेद के दो सूक्तों में वास्तु तथा भवन पर शासन करने वाले देवता “वास्तोष्पति’ से अपने सकल कल्याण की कामना से बार-बार प्रार्थना की गई है। ### वास्तु शास्त्र के प्रवर्तक प्राचीनाचार्य वास्तु विद्या की शास्त्रीय परम्परा की प्राचीनता विभिन्न प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों में संकलित वास्तु शास्त्रोंपदेष्टाओं के नामों की लम्बी-लम्बी सूचियों से स्वयं सिद्ध है। _मत्स्य पुराण की सूची में वास्तु शास्त्र के प्रवर्तक अठारह आचार्यों का नामोल्लेख मिलता है भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा। नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः।। ब्रह्मा कुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च। वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती।। २५१, २-३.. . . अर्थात् १. भृगु २. अत्रि ३. वसिष्ठ ४. विश्वकर्मा ५. मय ६. नारद ७. नग्नजित् ८. विशालाक्ष ६. पुरन्दर १०. ब्रह्म ११. कुमार १२. नन्दीश १३. शौनक. १४. गर्ग १५. वासुदेव १६. अनिरुद्ध १७. शुक्र १८. बृहस्पति। ये अठारह वास्तुशास्त्रोपदेशक मत्स्यपुराण के अनुसार हुए हैं। “अग्नि पुराण’ में वास्तुशास्त्रोपदेशकों की सूची इससे भी अधिक लम्बी है जिसमें पच्चीस आचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है। व्यस्तानि मुनिभिर्लोके पञ्चविंशतिसंख्यया। हयशीर्षं तन्त्रमाद्यं तन्त्रं त्रैलोक्यमोहनम् ।। १. ऋग्वेद, ७-५४ तथा ५५ सूक्त। ७७ ज्योतिष-खण्ड वैभवं पौष्करं तन्त्रं प्रह्लादं गायेगालवम्। नारदीयं च सम्प्रश्नं शण्डिल्यं वैश्वकं तथा।। सत्योक्तं शौनकं तन्त्रं वसिष्ठं ज्ञान-सागरम्। स्वायम्भुवं कापिलञ्च तार्क्ष्य-नारायणीयकम् ।। आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणकम्। बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः। ३६. १-५. “मानसार” की सूची और भी लम्बी है जिसमें वास्तु शास्त्र के प्रवर्तक आचार्य बत्तीस गिनाये गए हैं विश्वकर्मा च विश्वेशः विश्वसारः प्रबोधकः। वृतश्चैव मयश्चैव त्वष्टा चैव मनुर्नलः।। मानविन्मान-कल्पश्च मानसारो बहुश्रुतः। प्रष्टा च मानबोधश्च विश्वबोधो नयस्तथा।। आदिसारो विशालाक्षः विश्वकाश्यप एव च। वास्तुबोधो महातन्त्रों वास्तुविद्यापतिस्तथा।। पाराशरीयकश्चैव कालयूपो महाऋषिः। चैत्याख्यः चित्रकः आवर्यः साधकसारसहितः। ते एव ऋषयः प्रोक्ता द्वात्रिंशति संख्यया।। ६८. ५-६. “विश्वकर्मा प्रकाश’ में वास्तु के प्रवर्तक आचार्यों के बारे में संक्षिप्त उल्लेख है इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्वं गर्गाय धीमते। गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो वृहद्रथः।। वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम्। स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः।। इस प्रकार “विश्वकर्माप्रकाश" में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तु शास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुए। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है। कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुशास्त्रोपदेष्टाओं की नामावली की अपेक्षा “अग्नि पुराण” तथा “मानसार" की सूचियाँ भ्रष्ट और काल्पनिक हैं जिनमें पुनरुक्ति दोष भी है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ आचार्य हैं। वास्तुविद्या

वेदों में वास्तु विद्या

वैदिक काल में वास्तु विद्या अपने विकसित स्वरूप में थी। वैदिक वाङ्मय (वेदों में, ब्राह्मण ग्रन्थों में तथा उपनिषदों में) में वास्तु कला से संबंधित अनेक प्रसंग एवं शब्द इस बात के साक्ष्य हैं, जैसे-स्कम्भ (घरों की छत आदि को टिकाने वाले स्तम्भ), इन्द्र को स्कभीयान अर्थात् सर्वश्रेष्ठ स्तम्भ या खम्बे का स्वामी कहा गया है।’ घर के भिन्न-भिन्न भागों को खम्भों पर (स्तम्भे पर) टिकाते थे। एक मन्त्र में मजबूत आधार पर स्थापित किये गए तीन खम्भों का वर्णन है, उनके ऊपर तिकोनी या ढोलकाकार छत बनाई जाती थी। स्तम्भ की नींव को ‘धरुण’ के नाम से जाना जाता था।

वैदिक वास्तु-विन्यास

वेदों में भवन या घर के पर्याय के रूप में कई शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैसे- गृह, हर्म्य, सदन, दम, दुरोण, अस्त, शरण तथा पस्त्या। इस भवन के चार प्रमुख भाग होते थे। प्रथम भाग सामने के आँगन सहित गृह द्वार, दूसरा भाग सदस या स्थायिका (बैठक) थी जिसे सभा और कालान्तर में आस्थान मण्डप भी कहा गया है। राजमहलों का यह वह भाग था जिसमें राजदरबार का लगना तथा अतिथिस्वागतस्थल होता था। घर का तृतीय भाग पत्नी सदन हुआ करता था बाद में जिसे अन्तःपुर कहा जाने लगा। घर का चौथा भाग अग्निशाला या यज्ञशाला कहलाता था, जहाँ श्रौत अग्नियों का आधान किया जाता था इसीलिए इसे अग्निशरण भी कहते थे। कालान्तर में यही अग्निशरण देवगृह की संज्ञा से अभिहित हुआ। गृह या प्रासाद निर्माण की यह स्पष्ट योजना भारतीय परम्परा में निरन्तर चलती रही। गृह-निर्माण छोटे या बड़े अनेक रूपों में किया जाता था। बड़े गृह को बृहत्मान’ (बृहन्तंमानंवरुण स्वधावः) तथा छोटे गृह को शाला कहा जाता था। अथर्ववेद के दो शाला सूक्तों में घर के अन्य भागों का वर्णन किया गया है। घर के समस्त सौन्दर्य की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति के लिए उसकी तुलना (सद्यः विवाहिता) नववधू से की गई है । उस युग में जब कोई गृहपति घर का निर्माण करवाता था तो उसके मानस में यही होता था कि यह शाला गोमती, अश्वावती, पयस्वती, घृतवती, ऊर्जस्वती और सुनृतावती बनकर मेरे लिए कल्याणकारी और महान सौभाग्य को प्रदान करने वाली होगी इहैव ध्रुवा प्रति तिष्ठ शालेऽश्वावती गोमती सूनृतावती। ऊर्जस्वती घृतवती पयस्वत्युच्छ्रयस्व महते सौभगाय।। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार घर के दो भाग होते थे, एक पूर्वार्ध या सदस् जहाँ प्रायः पुरुषों का उठना-बैठना रहता था। इस सदस् से एक बड़ा स्तम्भ खड़ा किया जाता था,

१. ऋग्वेद, १०.११.५ २. ऋग्वेद, ८.४१.१० ३. ऋग्वेद, १.३४.२ ४. तत्रैव, १०.४४.४ ५. तत्रैव, ७.८८.५ ६. अथर्ववेद, ३.११ तथा ६.३ ७. तत्रैव, ६.३.३५ ८. अथर्ववेद, ३.१२.२ ७८ ज्योतिष-खण्ड जिसे वरसिष्ठ स्थूणाराज’ का नाम दिया गया है। घर के पीछे वाले हिस्से में पत्नी सदन . या अन्तःपुर बनाया जाता था। इसकी रचना भी पर्याप्त लम्बाई चौड़ाई में की जाती थी। जैसे सुन्दर स्त्री वरीयसी और पृथुश्रोणि होती है उसी प्रकार इस शाला के उत्तरार्ध भाग को भी बनाया जाता था। इसी बात को शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार कहा है-अथ यत् पश्चात् वरीयसी भवति। पश्चात् वरीयसी पृथुश्रोणि वै योषां प्रशंसन्ति। . घर की नींव बहुत पक्की (ध्रुवा) होती थी अर्थात् आधार या बुनियाद को अत्यधिक मजबूती दी जाती थी।

अथर्ववेद तथा शुल्व सूत्र में वास्तु

वास्तु शास्त्रीय सैद्धान्तिक विवेचन तथा निर्माण विधियों के सर्वाधिक प्राचीन अंश अथर्ववेद में उपलब्ध होते हैं। इनमें स्तम्भ रचना विधि, उन स्तम्भों पर आश्रित परस्पर प्रतिस्थापित शहतीरों से उनको जोड़ने तथा उन पर बाँस की बल्लियों को छाकर छत बनाने और उसके ऊपर घास-फूस डालकर उसे छाने (ढकने) का वर्णन है। उसमें भवन की वैदिक गोष्ठी शाला, भण्डार गृह, अन्तःपुर, यज्ञशाला तथा अतिथि गृह जैसे घर महत्वपूर्ण भागों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। अतः अथर्ववेद ऐसा सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है। जिसमें वास्तुशास्त्रीय निर्माण विधि का सैद्धान्तिक उल्लेख मिलता है। _ यज्ञ-यागादि विविध धार्मिक अनुष्ठानों के लिए आवश्यक यज्ञवेदियों के विभिन्न रूपों की निर्माण विधियों के विषय में ध्यानाकर्षक सूक्ष्म विवरण प्राप्त होते हैं। इनमें इस बात को रेखांकित किया गया है कि विभिन्न तलों पर कितनी ईंटों की चिनाई करनी चाहिए? उन ईंटों की लम्बाई-चौड़ाई का परिमाप क्या होना चाहिए? विभिन्न दोषों से रहित ईंटों की चिनाई करने के लिए विभिन्न स्तरों का विभिन्न भागों में विभाजन किस प्रकार से करना चाहिए? बौधायन तथा आपस्तम्भ शुल्व सूत्रों में श्येनचित्, कंकचित् एवं द्रोणचित् आदि की निर्माण विधियों का सूक्ष्म तथा विशद विवेचन किया गया है।

विविध शास्त्रों में वास्तुविद्या

वास्तु के निर्माण संबंधी सिद्धान्तों एवं प्रविधियों का ज्ञान अनेक प्रकार के ग्रन्थों से प्राप्त होता है। जैसे अथर्ववेद तथा शुल्वसूत्र साहित्य, कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र तथा शुक्राचार्य प्रणीत शुक्रनीति, नाट्य शास्त्र जैसे नाट्यकला प्रतिपादक ग्रन्थ एवं पुराण, तथा भुक्ति और मुक्ति का प्रतिपादन करने वाले आगम ग्रन्थ । इन ग्रन्थों में वास्तु शास्त्रीय सैद्धान्तिक सामग्री प्रसंगवश मिल जाती है। परन्तु इनके अतिरिक्त वास्तु कला संबंधी तीन प्राचीन परम्परायें हैं-१. शैव, २. ब्राह्म, तथा ३. माय। यहाँ एक बात ध्यान देने की है कि इन परम्पराओं वास्तुविद्या का उल्लेख करने वाला साहित्य उस युग में लिखा गया था जिस समय ये परम्परायें परस्पर इतनी प्रभावित हो चुकी थीं कि उनके भेद सूचक विशेष लक्षण समाप्त हो चुके थे। इन्हीं परम्पराओं के आधार पर वास्तुकला के अत्यन्त विशाल साहित्य की रचना की गई थी। वास्तुशास्त्र के ऐतिहासिक महत्व के कुछ ऐसे अवास्तुशास्त्रीय ग्रन्थ हैं जिनका रचना काल निश्चित रूप से ज्ञात है। शुक्रनीति तथा कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र ऐसे ही ग्रन्थ हैं। अतएव वास्तु कला से संबंधित जो सामग्री इनमें वर्णित है उसका अपना ऐतिहासिक महत्व है। इतिहासज्ञों के अनुसार ३२२ ई० पू० में चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से नन्दवंश को पराजित किया था। यदि यह मान लिया जाय कि कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र में उशनस के मतावलम्बियों के मत का उल्लेख शुक्रनीति के लेख के मत के अनुयायियों के मत का परिचायक है तो शुक्राचार्य अर्थशास्त्र के प्रणेता कौटिल्य के पूर्ववर्ती शास्त्रकार सिद्ध होते हैं। इस ग्रन्थ में चौथी शताब्दी ई०पू० में ज्ञात वास्तुशास्त्र का अस्पष्ट एवं धूमिलरूप मिलता है। आचार्य शुक्रप्रणीत ‘शुक्रनीति’ में देवमन्दिर एवं राजप्रसाद के समकक्ष अन्य प्रकार के भवनों के निर्माण की विधियों, नियमों तथा उपनियमों का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें दुर्ग रक्षित नगरों एवं दुर्गों के निर्माण प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन है। चाणक्य के समय में वास्तु कला विज्ञान ने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था। वास्तु कला के कुशल वैज्ञानिकों का वर्णन इन्होंने स्वकृत अर्थशास्त्र ग्रन्थ के इक्कीसवें अध्याय में किया है। कौटिल्य ने इस ग्रन्थ में एक राज्य में भूमि विभाजन प्रकार की ग्राम-निवेश एवं पुर-निवेश (नगर-निवेश) के विविध नियमों, उपनियमों तथा विधियों को विस्तार से प्रस्तुत किया है।

आगम साहित्य में वास्तु

हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों के पुरातात्विक भग्नावशेषों से यह सिद्ध होता है कि शैव आगम और वास्तुकला में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध था। अतः यह अनुमान तर्कसंगत है कि शैवागमों में निरूपित वास्तुकला की निर्माण विधि सर्वाधिक प्राचीन है। शैवागमों की संख्या ६२ है। सामान्यतः एक शैवागम के चार पाद अथवा भाग होते हैं। ज्ञानपाद-योगपाद-चर्यापाद तथा क्रियापाद क्रियापाद में वास्तुकला का प्रतिपादन किया गया है। उदाहरण स्वरूप-कामिका आगम में कुल ७५ अध्याय हैं इनमें से १६ अध्यायों का विषय वास्तुकला एवं मूर्तिरचना कला से जुड़ा है। कारणागम में तृतीय अध्याय से लेकर ६ अध्यायों तक वास्तु कला के सिद्धान्तों एवं प्रविधियों का वर्णन है। सुप्रभेदागम के लगभग १५ अध्यायों में वास्तु विद्या का वर्णन किया गया है। काश्यप रचित अंशुमद्भेद भी वास्तुविद्या विषयक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। ऐसा लगता है द्वैत शैवमत के प्रतिपादक अंशुमान आगम में लिखित प्राचीन सामग्री १. शतपथब्राह्मण ३.५.१.१ २. ३.५.१.११ ८० ज्योतिष-खण्ड

पौराणिक साहित्य में वास्तु

पौराणिक साहित्य का अनुशीलन करने से यह ज्ञात होता है कि लगभग बारह पुराणों में वास्तु कला संबंधी वर्णन मिलता है जिनमें मुख्यतः मत्स्यपुराण के आठ अध्यायों में वास्तुविद्या का वर्णन किया गया है। गरुड़ पुराण में वास्तुविद्या प्रतिपादक ४ अध्याय हैं। अग्निपुराण में वास्तुकला का वर्णन केवल तीन अध्यायों में ही किया गया है। भविष्य पुराण के एक अध्याय में वास्तुकला का उल्लेख किया गया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इस वास्तु विद्या का प्रतिपादन ४३ अध्यायों में किया गया है, जिसमें वास्तु की समस्त विधाओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

प्राचीन साहित्य में वास्तु

आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के ५०वें सर्ग से लेकर ५३वें सर्ग तक भूगर्भ में वर्तमान गिरिदुर्ग का बड़ा मनोहारी वर्णन किया गया है। इसकी रचना मय ने अपनी लोकोत्तर शक्तियों से की थी। सुन्दरकाण्ड में आदि कवि ने लिखा है कि लंका के बने हुए रावण के भवनों का सौन्दर्य तथा सर्वाङ्गीण रमणीयता अत्यधिक विलक्षण थी। महाभारत के सभापर्व के प्रथम अध्याय में वास्तुशास्त्र के जनक विश्वकर्मा और मय का वर्णन किया गया है। महाभारत में लिखा है कि “देवताओं में जो प्रतिष्ठा विश्वकर्मा की है असुरों में वही प्रतिष्ठा मय की है।” विलक्षण सौन्दर्य से युक्त पाण्डवों के सभा भवन की रचना मय ने ही की थी, जिसमें जल के स्थान पर स्थल और द्वार के स्थान पर दीवार दिखाई देती थी।

नाट्यशास्त्र में वास्तु

नाट्य शास्त्र के जनक भरतमुनि ने स्वरचित नाट्यशास्त्र में वास्तु नियमों के अनुसार रंगशाला की रचनाविधि के नियमों को स्पष्ट करते हुए उस के महत्व को भी प्रदर्शित किया है। भरतमुनि ने आकार के अनुसार रंगशाला को तीन श्रेणियों में रखा है। १. वर्गाकार, २. आयताकार और ३. त्रिकोणाकार। पुनः इन तीन आकारों के तीन परिमाण भेद भी बताए हैं, विशाल, मध्यम, लघु। इस प्रकार वास्तुकला सम्बन्धी सामान्य बातों से लेकर गृह-भूमि का चुनाव, उसका शोधन, विस्तार के परिमाण निर्धारण, नाट्यशाला का नक्शा, शिलान्यास विधि, भित्ति रचना, द्वारों से युक्त प्रसाधन प्रकोष्ठ, रंगमंच का चबूतरा, चार स्तम्भों पर आधारित रंगमंच के पार्श्व भागों में पूरी लम्बाई में बने हुए छज्जे या प्रग्रीव । भरतमुनि ने यह भी निर्देश किया है कि रंगमंच का फर्श कच्छप अथवा मच्छली की पीठ के समान वर्तुलाकार न होकर-दर्पण की भांति समतल होना चाहिए। ज्योतिष-खण्ड वास्तुविद्या

पूर्वमध्यकालीन युग में वास्तुविद्या

पूर्वमध्यकालीन युग में भारतीय ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सक्रियता निरन्तर बनी रही। विदेशी आक्रमणों की मार से भारत वर्ष को राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भारी आघात पहुँचा था। परन्तु भारतीय संस्कृति के पाये इतने दृढ़ एवं सशक्त थे कि आघात की भीषणता की तुलना में भारतीय चिन्तनधारा एवं भारतीय संस्कृति को कलात्मक दृष्टि से क्षति तो हुई; परन्तु सुरक्षात्मक प्रतिरोध की दिशा में भी नाना प्रयास होने लगे। प्राचीन ग्रन्थों एवं सांस्कृतिक शिष्टपरम्पराओं के संरक्षण का सराहनीय प्रयास हुआ। वास्तु एवं शिल्प शास्त्रीय विवेचन में इस युग में प्रचुर मात्रा में मौलिक ग्रन्थों एवं रचनाओं का प्रणयन हुआ। इस युग के वास्तु विद्या विशारदों ने पूर्वकालिक महनीय परम्पराओं का सम्यक् निर्वहन और संकलन करके नूतन उद्भावनाओं और प्रयोगों के प्रति अपनी मजबूत इच्छाशक्ति तथा दृढ़ आस्था को अभिव्यक्त किया है। प्राचीन और नवीन मान्यताओं और परम्पराओं का समन्वयात्मक निर्वाह जितना इस युग में हुआ है उतना अन्य किसी भी युग में नहीं हुआ है। जो कुछ जीर्ण-शीर्णावस्था में था उसको भी तत्कालीन वास्तु एवं शिल्प शास्त्रोपदेष्टाओं ने ऐसा भव्य एवं मनोहारी रूप दिया है कि “पुरा नवं भवति" की उक्ति यहाँ पूर्ण रूपेण चरितार्थ होती है। यद्यपि इस युग के वास्तु एवं स्थापत्य संबंधी शास्त्रीय ग्रन्थों की कोई क्रमबद्ध प्रामाणिक सची सम्प्रति उपलब्ध नहीं है क्योंकि उस यग के वास्तुशास्त्रीय “कर्तृत्व” का बहुलांश या तो अज्ञात है, अथवा ज्ञात का भी अधिकांश खण्डित, अप्रकाशित और अप्राप्य है। उनमें से कुछ विशिष्ट ग्रन्थों की चर्चा वास्तु शास्त्र की गुप्तोत्तर परम्परा के ज्ञान के लिए आवश्यक है। “मानसार" और “मयमत” ग्रन्थ तो गुप्तोत्तर काल के हैं किन्तु इनमें वास्तु और शिल्प की अत्यन्त प्राचीन एवं महती परम्परा सुरक्षित है। ग्यारहवीं सदी में धाराधिपति भोज विरचित “समराङ्गण-सूत्रधार” तो वास्तु शास्त्रीय नियमोपनियमों एवं प्रविधियों विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाने वाला अनुपम ग्रन्थ है। वास्तव में यह काल खण्ड भौतिक विज्ञान और मानसिक पवित्रता दोनों के मेल का युग था। वस्तुतः वास्तु विद्या की अनूठी युक्तियाँ सर्वविध-सुरक्षा एवं सुविधा के लिए ही थीं। और इनमें सामान्यतया उन्हीं अनुभूत परम्पराओं का संकलन था, जो युगों-युगों से भारतीय वास्तु-विशारदों के व्यवहार में थीं। इन शास्त्रीय युक्तियों और विधानों से वास्तु विद्या को सामाजिक उत्थान के लिए एक सशक्त माध्यम तथा अत्यधिक व्यवहारोपयोगी बनने में सुविधा मिली। वास्तुकलाविद् स्थपतियों को आदेश था कि वे भवन-निर्माण-विधान में सौन्दर्य-भावना की उपेक्षा न करें। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि व्यक्तिगत सौन्दर्यानुभूति ही सौन्दर्य का मानदण्ड नहीं है अपितु शास्त्रीय परम्परा तथा सामाजिक भावनाओं के आधार पर जिसे सुन्दर कहा जा सके वही सुन्दरता का मानदण्ड है। “शुक्रनीति" में सौन्दर्य एवं रमणीयता की व्याख्या इसी दृष्टि से की गई है शास्त्रमानेन यो रम्यः स रम्यो नान्य एव हि।. . शास्त्रमानविहीनं यत्तदरम्यं विपश्चिताम् ।। ४/५२७ वस्तुतः भारतीय दृष्टिकोण में (वैदिक चिन्तन के अनुसार) कलात्मक सौन्दर्य की पूर्णता आध्यात्मिक सौन्दर्य के साथ ही है। भारतीय वास्तु विद्या का उद्देश्य सौन्दर्यानुभूति के साथ-साथ देव-सान्निध्यानुभूति भी है। भारतीय वास्तुकला के प्रति इस युग की उपयोगितावादी दृष्टि का ही यह परिणाम है कि गुप्तकालीन सौन्दर्यनुभूति, प्रक्रिया और प्रवृत्ति का स्वाभाविक विकास है, जिसमें भौतिक सौन्दर्य और आध्यात्मिक उत्कर्ष का समन्वय है।

वास्तुशास्त्र के मूल आधार पञ्चमहाभूत

प्राच्य चिन्तन धारा के अनुसार समस्त जीव एवं जगत् की रचना पञ्चमहाभूतों से ही हुई है। अतः जीव और ब्राह्माण्ड के बीच पाँच भौतिक सन्तुलन से ही प्राणी में निरन्तर सक्रियता एवं स्फूर्ति की वृद्धि के साथ-साथ मानव मात्र की शारीरिक, मानसिक आध्यात्मिक क्षमताओं का सहज विकास होता है। पाञ्चभौतिक असन्तुलन से निष्क्रियता की वृद्धि होती है जिससे प्राणी निराशा एवं हताशा के भंवर में फंस कर रह जाता है। वास्तुशास्त्र में प्रकृति का अनुसरण करते हुए गुरुत्वशक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का समुचित प्रबन्ध न तथा पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश इन पञ्चमहाभूतों के साथ उचित तालमेल, जिससे जीवन स्वतः स्फूर्त, रोगमुक्त, सुरक्षित तथा सुविधामय हो, इस महनीय उद्देश्य की पूर्ति के मूल आधार हैं।

पृथ्वी

संसार में उत्पन्न समस्त प्राणियों को मातृवत् आश्रय देने के कारण यह वसुन्धरा हमारी माता है। पञ्चमहाभूतों के आनुपातिक सम्मिश्रण से निर्मित प्राणी के शरीर में बहुलांश पृथ्वी तत्व का ही होता है। यह पृथ्वी गुरुत्वशक्ति एवं चुम्बकीय शक्ति का केन्द्र है। वैज्ञानिकों के अनुसार लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी की रचना हुई थी। तब से लेकर लगातार अपने अक्षीय एवं कक्षीय भ्रमण के कारण ही पृथ्वी को गुरुत्व एवं चुम्बकीय शक्ति की प्राप्ति हुई है। गुरुत्व शक्ति तथा चुम्बकीय शक्ति द्वारा ही पृथ्वी हमारे जीवन को गतिशीलता तथा अपने धरातल पर निर्मित भवनों को ठोस आधार प्रदान करती है। अतः भवन निर्माण में इस महत्वपूर्ण पृथ्वी तत्व का विस्तार से विचार किया जाता है।

जल

पञ्चमहाभूतों में पृथ्वी के अनन्तर जल हमारे जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। धरती पर अधिकतम लोगों का वास ऐसे स्थान पर है जहाँ पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध होता है। इसी सन्दर्भ में भवन निर्माण में जल की उपयोगिता के साथ-साथ भवनवासियों को जल की उपलब्धि उचित मात्रा में हो इस हेतु जलापूर्ति एवं भण्डारण के विविध संसाधनों की उपयुक्त स्थिति के साथ-साथ जल का निकास कहाँ से हो? इत्यादि का विचार इस शास्त्र में किया जाता है। वास्तुविद्या

तेज (अग्नि)

शरीर रचना में जल तत्व के बाद तेज (अग्नि) का क्रम आता है। विश्व में जितनी गति या स्पन्दन है वह तेज (अग्नि) के कारण ही है। पञ्चमहाभूतों से बना हुआ शरीर तो काष्ठ-पञ्जर को जोड़कर बनाये गए निर्जीव शकट के समान है। यह अग्नि ही है जो उसमें चेतना का संचार करती है। अग्नि या तेज का मुख्य स्रोत सूर्य है। सूर्य की जीवनदायिनी रश्मियों का वास्तुशास्त्र में सर्वाधिक महत्व है। भवन निर्माण करते समय सूर्य के प्रकाश, ताप तथा ऊर्जा की समुचित प्राप्ति को ध्यान में रखते हुए भूखण्ड की स्थिति के साथ-साथ मुख्य द्वार, प्रवेश द्वार, बरामदा, रसोईघर, खिड़कियों झरोखों तथा खुले स्थान आदि का विचार अग्नितत्व की समुचित उपलब्धि के लिए ही किया जाता है।

वायु

पृथ्वी पर न केवल स्थलचर, नभचर और जलचर अपितु पेड़-पौधे व वनस्पति भी वायु के सहारे ही जीवित रहते हैं। वैदिक विज्ञान के अनुयायियों ने वायु को पाँच प्रकार का माना है जो शरीर का संचालन करता है। यह वायु जब तक शरीर में सक्रिय रहता है तब तक जीवन चलता है। वायु की इस महत्ता को देखते हुए वास्तुशास्त्र में भवन-निर्माण में विशुद्ध वायु के समुचित आवागमन के लिए भूखण्ड के आस-पास के वातावरण, खुली जगह, खिड़कियों, दरवाजों तथा छल की ऊँचाई आदि के विचार के साथ-साथ पर्यावरण की दृष्टि से वृक्षारोपण का विचार भी किया जाता है, जिससे भवन वासियों को शुद्धवायु प्राप्त हो।

आकाश

चारों महाभूतों को अपने में व्याप्त करके रहने वाले आकाश तत्व का अपना विशेष महत्व है। अवकाश प्रदान करना आकाश का स्वभाव है। प्रत्येक क्रिया या गतिविधि के लिए आकाश अर्थात् खुला स्थान चाहिए। जिस प्रकार प्राणी के शरीर के समस्त अंग अपनी-अपनी स्वाभाविक क्रियायें आकाश की उपलब्धि एवं सहायता से ही करते हैं उसी प्रकार भवन के भीतर एवं बाहर समस्त गतिविधियाँ आकाश की व्यवस्थित उपलब्धि से ही चलती है। वस्तुतः मानवजीवन में खुले आसमान का महत्व निर्विवाद है। इसी कारण वास्तुशास्त्र में भवन निर्माण के सिद्धान्तों में भवन में चारों ओर तथा भवन के मध्य खुला स्थान छोड़ने के निर्देश के साथ-साथ एकशाला, द्विशाला, त्रिशाला, चतुःशाला आदि भवनों की ऊँचाई एवं छत की ऊँचाई आदि का विशेष विचार किया जाता है। जिससे आकाश तत्व का भवन निर्माण में समुचित उपयोग किया जा सके।

दिशा की अनुकूलता का विचार

निवास हेतु उपयुक्त ग्राम या नगर का चयन करने के अनन्तर ग्राम या नगर के किस हिस्से (किस दिशा) में किस व्यक्ति को आवास हेतु भूखण्ड का चयन करना चाहिए? इसका विचार भी दो तरह से ही किया जाता है १. व्यक्ति की नाम राशि के अनुसार ज्योतिष-खण्ड २. व्यक्ति के वर्ग के आधार पर। व्यक्ति की नाम राशि के अनुसार ग्राम या नगर की दिशा-व्यक्ति की नाम राशि के अनुसार ग्राम या नगर की आठों दिशाओं में से मनोऽनुकूल एवं उपयुक्त दिशा का चुनाव किया जाता है। ग्राम या नगर के दक्षिण भाग में कन्या, नैर्ऋत्य में कर्क, पश्चिम में धनु, वायव्य में तुला, उत्तर में मेष, ईशान में कुम्भ, पूर्व में वृश्चिक तथा आग्रेय में मीन राशि वालों को अपने आवास हेतु भूखण्ड नहीं चुनना चाहिए। शेष राशि वालों को ग्राम या नगर के मध्य में निवास नहीं करना चाहिए। व्यक्ति के वर्ग के आधार पर ग्राम या नगर की दिशा-पूर्वादि आठों दिशाओं में अवर्गादि आठों वर्ग क्रमशः बली होते हैं। अपने वर्ग से पञ्चम वर्ग शत्रुवर्ग होता है। जैसे७ गरुड़ के वर्ग से पञ्चम वर्ग सर्प का, मार्जार के वर्ग से पञ्चम वर्ग मूषक का, सिंह के वर्ग से पञ्चम मृग का, श्वान के वर्ग से पञ्चम वर्ग मेष का, सर्प के वर्ग से पञ्चम वर्ग गरुड़ का, मूषक के वर्ग से पञ्चम वर्ग मार्जार का, मृग के वर्ग से पञ्चम वर्ग सिंह का और मेष के वर्ग से पञ्चम वर्ग श्वान का शत्रु वर्ग होता है। अतः निवासेच्छु व्यक्ति को ध्यान रखना चाहिए कि अपने वर्ग से पञ्चम वर्ग की दिशा (शत्रु वर्ग की दिशा) को छोड़कर ग्राम, या नगर के किसी भाग में आवास का चयन करना चाहिए। इस प्रकार जो दिशा उपरोक्त दोनों तरीकों से विचार करने पर शुभ आये, ग्राम, या नगर की उसी दिशा में निवास का चयन करना श्रेष्ठ होता है। उदाहरण-मान लो विचार करना है किसी विनोद कुमार के लिये गुड़गाँव के किस भाग में रहना उपयुक्त होगा? अब चूँकि वृष, मिथुन, सिंह एवं मकर राशि वालों को नगर के मध्य भाग में नहीं रहना चाहिए, श्री विनोद कुमार की नाम राशि वृष से स्पष्ट हो गया कि वे नगर के मध्यभाग को छोड़कर नगर के शेष किसी हिस्से में ही रह सकते हैं। श्री विनोद कुमार जी “य वर्ग” में आते हैं अतः वर्ग के आधार पर नगर या ग्राम के उत्तरी हिस्से में निवास करना इनके लिए सर्वाधिक उपयुक्त रहेगा। लेकिन अगर ये नगर के उत्तरी हिस्से में किसी कारणवश नहीं रह सकते हों तो अपने वर्ग से पाँचवें वर्ग “च वर्ग” की दिशा (दक्षिण दिशा) वाले हिस्से को छोड़कर अन्य किसी भी हिस्से में रहें तो लाभदायक होगा। चूँकि कुछ आचार्यों का मत है कि सम्भव हो तो अपने शत्रुवर्ग के पूर्वापरवर्ती वर्गों की दिशाओं को भी छोड़ देना चाहिए। इस तरह यदि सम्भव हो तो इन्हें अपने शत्रु वर्ग की पूर्वापरवर्ती आग्नेय तथा नैर्ऋत्य दिशाओं वाले भाग को भी छोड़ देना चाहिए। इसके अतिरिक्त ग्राम या नगर में वास की अनुकूलता का विचार करने की अन्य विधियाँ भी है। (क) ग्राम के नामाक्षर की वर्ग संख्या के अनुसार ग्राम के नामाक्षर की वर्ग संख्या को ४ से गुणा करके मनुष्य के नामाक्षर की वर्ग संख्या को उसमें जोड़ें। योगफल में वास्तुविद्या ८५ सात ७ का भाग देने पर यदि एक १ शेष बचे तो उस ग्राम या नगर में वास करने से पुत्र लाभ, २ शेष बचे तो धन प्राप्ति, ३ शेष बचे तो व्यय, ४ शेष बचे तो आयुलाभ, ५ शेष बचे तो शत्रुनाश, ६ शेष बचे तो राज्य लाभ और ७ शेष बचे तो मरण होता है। उदाहरण- मान लीजिए पंकज शर्मा को देहरादूर में निवास करना है तो देहरादून के प्रथम नामाक्षर की वर्ग संख्या ५ को ४ से गुणा करके पंकज के प्रथम नामाक्षर की वर्ग संख्या ६ को उसमें जोड़कर (५ x ४ + ६ = २६), योगफल को सात का भाग दिया तो पांच शेष बचा इसलिए उक्त नगर में निवास करने से श्री पंकज शर्मा के शत्रुओं का नाश होगा अर्थात् वास लाभदायक होगा।’ इस प्रकार वास्तुशास्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार गृहस्वामी के निवास हेतु उपयुक्त ग्राम या नगर तथा ग्राम या नगर के विशिष्ट भाग का निर्णय करने के उपरान्त गृहस्वामी के लिए कल्याणकारी भूमि का चयन भी वास्तुशास्त्रीय नियमानुसार करें। (ख) ग्राम वास नक्षत्र चक्र एवं नराकार चक्र द्वारा ग्रामवास फल विचार-वास्तुशास्त्रीय अवकहड़ाचक्रानुसार ग्राम के नक्षत्र से निवास के इच्छुक व्यक्ति के नाम नक्षत्र तक गिनने पर इसका विचार किया जाता है। इस तरह ग्राम के नक्षत्र से गिनने पर व्यक्ति का नक्षत्र यदि क्रमशः पहले पाँच नक्षत्रों में पड़े तो लाभ, उससे आगे के तीन नक्षत्रों में पड़े तो धनक्षय, उससे आगे के पाँच नक्षत्रों में पड़े तो धन-धान्य की प्राप्ति, उससे आगे वाले छ: नक्षत्रों में पड़े तो स्त्री हानि, उससे अग्रिम एक नक्षत्र हो तो पद हानि, उससे आगे के चार नक्षत्रों में पड़े तो सम्पत्ति लाभ, उससे आगे का एक नक्षत्र हो तो भय, उससे आगे एक अशुभ उससे आगे एक में भय की प्राप्ति होती है। ग्राम नक्षत्र से अपने नक्षत्र तक गिनने पर ग्रामवास नक्षत्र चक्र स्थान | मस्तक | मुख कुक्षि । पाद | पृष्ठ | नाभि । गुह्य दायाँ-हाथ बाँया-हाथ | नक्षत्र | ५ | ३ | ५ । ६ । १ । ४ । १ । १ । १ । । लाभ | धनक्षय | धनधान्य | पदहानि | सम्पत्ति | भय | क्रन्दन | अशुभ | भय ग्राम या नगर के नाम नक्षत्र से व्यक्ति के नाम नक्षत्र तक गिने। यदि ग्राम के नक्षत्र से प्रथम सात नक्षत्रों के भीतर व्यक्ति का नक्षत्र पड़े तो वह ग्राम या नगर उस व्यक्ति को धनमासम्मानदायक होता है। यदि उससे आगे के सात नक्षत्रों में व्यक्ति का नक्षत्र पड़े तो वह नगर/ग्राम व्यक्ति के लिए हानि एवं निर्धनता का द्योतक होता है। उससे आगे के १. वास्तुरत्नाकर, १/१४ २. तत्रैव, १/१५-१७ ८६ ज्योतिष-खण्ड सात नक्षत्रों में पड़े तो फल सुखसम्पत्तिदायक होता है और यदि अन्तिम सात नक्षत्रों में. व्यक्ति का नक्षत्र आये तो फल अस्थिरता, पर्यटन एवं प्रवास होता है। ग्राम वास नराकार चक्र’ . स्थान __ मस्तक | पृष्ठ । हृदय । पाद | मान नक्षत्र फल धन-सम्मान | हानि-निर्धनता | सुख-सम्पत्ति । पर्यटन (ग्राम तथा वासकर्ता दोनों की राशीश मैत्री हो या एकाधिपत्य हो तो वास करना उत्तम, समता हो तो सामान्य, शत्रुता हो तो वास करना हानिकर होता है।) काकिणी विचार-अपने वर्ग (निवास कर्ता) की संख्या को २ से गुणा कर ग्राम के वर्ग की संख्या को जोड़कर ८ से भाग देने पर शेष अपनी काकिणी होती है। इसी प्रकार ग्राम के वर्ग की संख्या को २ से गुणाकर अपने (निवास कर्ता) के वर्ग की संख्या को जोड़कर ८ से भाग देने पर शेष ग्राम की काकिणी होती है। जिसकी काकिणी अधिक होती है वह होता है। अर्थात् ग्राम की काकिणी अधिक तथा निवासकर्ता की काकिणी अल्प हो तो शुभ होता है। यथा-पंकज को देहरादून में रहने हेतु विचार करना है। पंकज की वर्ग संख्या ६ तथा देहरादून की वर्ग संख्या ५, ६ x २ = १२ + ५ = १७, १७ : ८ = शेष १ = पंकज की काकिणी। ५ x २ + ६ = १६, १६ : ८ = शेष ८ = देहरादून की काकिणी। यहाँ देहरादून की अधिक है अतः यहाँ रहना पंकज के लिए उत्तम है।

भूखण्ड का चयन

वास्तु शास्त्रीय नियमों के अनुसार वास योग्य ग्राम/नगर के चयन के बाद उस नगर या ग्राम के किस हिस्से में वास करना चाहिए? इसका भी शास्त्र-सम्मत निर्धारण कर लेने के उपरान्त उत्तम भूखण्ड का चयन ही निर्माण का मुख्य आधार होता है। स्थल निश्चित हो जाने के बाद उस स्थल की भूमि के शुभाऽशुभत्व का निर्णय वास्तु के सिद्धान्तों के आधारों पर करना आवश्यक है। सामान्यतया भूखण्ड की मिट्टी शल्यादि दोष से रहित, चिकनी तथा ठोस होनी चाहिये। इसके अतिरिक्त अन्य लक्षणों का ज्ञान इस प्रकार करना चाहिये।

भूमि के प्रकार व गुण-दोष

मिट्टी के गुण-दोषों का विचार उसके शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्धादि के अनुसार करने का विधान है। भारतीय वास्तुशास्त्र में भवन-निर्माण हेतु उपयुक्त भूमि को चार श्रेणियों में रखा गया है। १. बृहदैवज्ञरञ्जन

वास्तुविद्या १. ब्राह्मणी भूमि-ऐसी भूमि जिसका वर्ण श्वेत, स्वाद मधुर, गन्ध घी के सदृश, कुशायुक्त, स्पर्श करने पर जो स्निग्ध एवं सुखद लगे तथा उत्तर की ओर झुकाव वाली हो उसे ब्राह्मणी भूमि कहते हैं। ब्राह्मणी भूमि को सर्व-सुखदा कहा गया है। इस प्रकार की भूमि मन्दिर, मठ, धर्मशाला, न्यायालय, बैंक (वित्तीय संस्थानों) तथा शैक्षणिक संस्थानों आदि के निर्माण के लिए श्रेष्ठ होती है। २. क्षत्रिया भूमि-ऐसी भूमि जिसका रंग लाल हो, गन्ध रक्त जैसी हो, स्वाद कषैला हो, स्पर्श कठोर हो, शर (पूँज) आदि से युक्त, तथा रक्तवर्णीय पुष्प अधिक हों तो ऐसी भूमि क्षत्रियाभूमि कहलाती है। यह भूमि वर्चस्व, पराक्रम एवं शासकीय गुणों को बढ़ाने वाली होती है। ऐसी भूमि शासकीय कार्यालय, सैनिकछावनी, सैन्य अकादमी, पुलिस थाना, शस्त्रागार, शासक, मन्त्री, राज्याधिकारी, सेना, पुलिस एवं प्रशासन के बड़े अधिकारियों के आवास तथा कार्यालय के निर्माण हेतु उपयुक्त होती है। ऐसी भूमि पर स्टेडियम एवं खिलाड़ियों के लिए प्रशिक्षणस्थल का निर्माण करना उत्तम होता है। ३. वैश्या भूमि-दक्षिण की ओर झुकाववाली यह भूमि हरे-पीले रंग वाली होती है। इसमें अन्न जैसी गन्ध पाई जाती है, इसका स्वाद अम्लीय होता है। कुश एवं कास इस प्रकार की भूमि पर उगते हैं। यह मिट्टी उपजाऊ होने के कारण कृषिकार्य के लिए तथा व्यापारिक कार्यों के लिए उत्तम मानी गई है। अतः इस प्रकार के लक्षणों से युक्त भूमि वाले भूखण्ड पर व्यापारिक प्रतिष्ठानों, दुकानों, व्यावसायिक संस्थानों, औद्योगिक कारखानों एवं व्यावसायिक केन्द्रों का निर्माण करना अच्छा होता है। वास्तु ग्रन्थों में इस प्रकार की भूमि को धन-धान्य प्रदायक कहा गया है।’ ४. शूद्राभूमि-शूद्रा संज्ञक भूमि काले रंग की होती है। ऐसी भूमि में मद्य जैसी गन्ध होती है तथा स्वाद कड़वा होता है। पश्चिम की ओर झुकी हुई होती है इसमें कास आदि घास उगती है। निवास की दृष्टि से यह अच्छी नहीं मानी गई है। ५. भूमि के दोष-किसी भी प्रकार के भवन-निर्माण हेतु भूखण्ड की मिट्टी का प्रमुख गुण चिकनापन (स्निग्धता) तथा ठोस होना है। इसके विपरीत जिस भूखण्ड की मिट्टी रेतीली या पोली (खोखली) हो, बड़े-बड़े पत्थरों वाली हो, नीरस हो, सर्प-बिच्छु एवं चींटियों के बिलों से व्याप्त हो, वाल्मीक वाली हो, शल्ययुक्त हो, जहाँ दल-दल हो, जो बहुत ऊँची-नीची होने के कारण असमान हो ऐसी भूमि वाले भूखण्ड पर कभी भी गृह-निर्माण नहीं करना चाहिए। ६. प्रशस्त भूमि-जहाँ उत्तमोत्तम औषधियाँ, वृक्ष, लतायें, खूब हरी भरी रहें, मिट्टी में स्निग्धता (चिकनापन), समानता तथा उपजाऊपन हो ऐसी भूमि मनुष्यों के आवास हेतु १. बृहद्वास्तुमाला, श्लोक-३२। २. वास्तुरत्नाकर, १/६१-६२ ८८ ज्योतिष-खण्ड AD उत्तम होती है। थका हुआ पथिक जिस धरती पर विश्राम के लिए बैठे और वहाँ बैठने पर जो प्राकृतिक ऊर्जा पाकर आनन्द का अनुभव करे ऐसी भूमि गृह निर्माण हेतु श्रेयस्कर मानी गई है। वास्तुशास्त्रोपदेष्टाओं के अनुसार जिस भूमि पर जाने से नेत्र और मन सन्तुष्ट हो जाय वह भूमि वास हेते उत्तम होती है। ७. जीवित भूमि-जिस भूमि पर हरे-भरे वृक्ष लहलहा रहे हों और खेती की ऊपज उत्तमोत्तम हो वह भूमि जीवित भूमि होती है। ऐसी जीवित भूमि पर गृहनिर्माण से ही गृहपति का जीवन सुखमय होता है। ८. प्रकारान्तर से भूमि का जीवितादिज्ञान (क) भूखण्ड की लम्बाई और चौड़ाई के योग में ग्राम के नामक्षर की वर्ग संख्या को जोड़कर योग फल को चार से गुणा करें, इस गुणनफल में निवास करने वाले के नामाक्षर की वर्ग संख्या को भी जोड़ दें। अब इस योग फल में तीन का भाग देने से यदि एक शेष बचे तो भूमि जीवित, दो शेष बचे तो सम और यदि तीन शेष बचे तो भूमि मृत कहलाती है, जहाँ रहने से धन-जन-चतुष्पद आदि सांसारिक सुखों की हानि होती है। (ख) जागृतादि भूमिज्ञान-गृह-निर्माण करने वाले के नाम, ग्राम और दिशा के स्वरों के योग में तीन का भाग देने से एक शेष रहने पर भूमि जागृत अवस्था में होती है, दो शेष रहने पर समफल देने वाली और तीन शेष रहने पर राक्षसी भूमि कहलाती है। इस पर निवास करने से मृत्यु या मृत्यु तुल्य कष्ट होता है। (ग) सूर्यनक्षत्र और चन्द्रनक्षत्र के आधार पर भूशयन का विचार-सूर्य के नक्षत्र से ५/७/६/१२/१६/२६ इन नक्षत्रों में भूमि सुप्तावस्था में होती है। भूमि की इस सुप्तावस्था में गृह-निर्माण, तालाब, वापी, कूप इत्यादि के लिए खनन आरम्भ करना शुभ नहीं होता।

भूमि परीक्षण

व्यक्ति जिस भूखण्ड पर गृह निर्माण करना चाहता है वहाँ की भूमि परीक्षण हेतु वास्तुग्रन्थों में अनेक सरल रीतियों का वर्णन मिलता है। १. जिस भूमि पर गृह-निर्माण करना हो उसके बीचों-बीच (मध्यभाग में) गृहपति के हाथ के माप के आधार पर एक हाथ लम्बा, एक हाथ चौड़ा तथा एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसी से निकली हुई मिट्टी से पुनः उस गड्ढे को भर दें। यदि गड्ढा भरने से मिट्टी बच जाय तो उत्तम, बराबर हो जाए तो सम और मिट्टी कम हो जाय तो निषिद्ध होता है। इस निषिद्ध भूमिपर मकान नहीं बनाना चाहिए।’ वास्तुविद्या ८६ २. गृहपति के हाथ के परिमाप के अनुसार एक हाथ लम्बा, एक हाथ चौड़ा तथा हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसमें पानी भर दें। यदि पानी यथावत् रहे तो निवास हेतु उत्तम, उसी क्षण जल सूख जाय तो नाश, जल स्थिर रहे तो स्थिरता तथा दक्षिणावर्त घूमे तो सुखदायक और वामावर्त घूमे तो मृत्युदायक होता है।’ ३. समराङ्गण-सूत्रधार में भवन निर्माण हेतु भूमि के घनत्व के परीक्षण की विधियाँ इस प्रकार बताई गई हैं- भूखण्ड के मध्य में एक हाथ लम्बा-चौड़ा-गहरा गड्ढा खोदकर उसे पूरा पानी से भर कर सौ कदम आगे जाकर लौट आए और जलपूरित उस गड्ढे को देखें, यदि चौथाई से कम जल शेष रहे तो अनिष्ट, चौथाई से अधिक और आधे से कम बचे तो मध्यम और आधे से अधिक बचे तो उत्तम फल जानना चाहिए। ४. पूर्वोक्त प्रकार से गड्ढ़ा खोदकर सायं काल पानी से पूरी तरह भरकर प्रातः काल देखने पर यदि जल शेष बचा दिखाई दे तो वृद्धि, केवल कीचड़ ही बचा रहे तो समता और उसमें यदि दरारें पड़ जायें तो नाश होता है। ५. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्गों के लिए सफेद, लाल, पीला, और काले रंग का फूल इकट्ठा कर उसे गड्ढे में सायं काल के समय रख कर सुबह देखें कि जिस वर्ण का फूल न कुम्हलाया हो उस वर्ण के लिए वह भूमि उत्तम फल प्रदान करने वाली होती है। इस प्रकार उपरोक्त भूमि परीक्षण विधियों में से पहली चार विधियों के माध्यम से भूखण्ड की मिट्टी के घनत्व का परीक्षण तथा पाँचवीं विधि से भूखण्ड के वातावरण का परीक्षण किया जा सकता है। वास्तु भवन का मुख्य आधार भूमि है। यह भूमि जितनी निर्दोष, ठोस और विभिन्न प्रकार के शुभ लक्षणों से युक्त होगी उस पर बनने वाला भवन भी उतना ही मजबूत, स्थायी तथा सुखदायी होगा। लवत्व का फल वास्तु भूमि के झुकाव फल की दिशा-उपदिशा श्री तथा सुख सम्पत्ति की प्राप्ति अग्निकोण दाह, आगजनी व्याधि, भय, मरण दुर्व्यसन, रोग पश्चिम अर्थक्षय, व्याधि । वायव्य अस्थिरता, प्रवास पूर्व दक्षिण नैर्ऋत्य १. तत्रैव, १/६०, २. तत्रैव, १/६३, ३. तत्रैव १/६६-६७, ४. वास्तुरत्नाकर, १/६८-६६। ५. तत्रैव, १/७०। १. वास्तुरत्नाकर, १/७२-७३, २. स.सू., अध्याय-१०, ३. वास्तुरत्नाकर, १/७८ तथा स.सू., १०/७३.११० ज्योतिष-खण्ड. १११ अनुसार भी गृहारम्भकालीन शुभ नक्षत्रों का निर्णय “दिग्द्वारनक्षत्रचक्र’’ द्वारा करने का निर्देश मुहूर्तग्रन्थों में दिया गया है। वास्तुविद्या कक्षों आदि का विभाजन कर, प्रत्येक कार्य के लिए पृथक्-पृथक् दिशाओं का उल्लेख किया गया है। कक्ष विभाजन ऐशान्य आग्नेय पूजागृह | सर्ववस्तुसंग्रह स्नानागार | मन्थनगृह पाकशाला शलाका सप्तके देयं कृत्तिकादि क्रमेण च। वामदक्षिणभागं तु प्रशस्तं शान्तिकारकम् ।। अग्रे पृष्ठे न दातव्यं यदीच्छेच्छ्रेयमात्मनः। ऋक्षं चन्द्रस्य वास्तोश्च ह्यग्रे-पृष्ठे न शस्यते।।’ अर्थात् कृत्तिका से आरम्भ करके सात-सात नक्षत्र पूर्वादि दिशाओं में विभाजित हैं। पूर्वद्वार गृह के लिए कृत्तिका से आश्लेषा तक सम्मुखस्थ नक्षत्र और पश्चिमाभिमुख द्वार के लिए पृष्ठस्थ नक्षत्र होंगे। अतः कृत्तिकादि सात-सात नक्षत्र पूर्वादि दिशाओं के दिग्द्वार नक्षत्र हैं, उनमें सम्मुख व पीछे के नक्षत्रों में गृहारम्भ निषिद्ध व दक्षिण, वाम भाग के नक्षत्रों में गृहारम्भ विहित है। औषधगृह घृतागार उत्तर कोषागार ब्रह्मास्थान शयनकक्ष दक्षिण रतिगृह शौचालय धान्यागार रोदनकक्ष भोजनकक्ष अध्ययनकक्ष शत्रागार

वृष वास्तु चक्र

गृहारम्भ के समय नक्षत्र शुद्धि का विचार वृष वास्तु चक्र के आधार पर किया जाता है। जैसे-गृहारम्भ के समय सूर्यनक्षत्र से दिन नक्षत्र तक गणना करने पर प्रथम ७ नक्षत्र तक अशुभ, तदनन्तर वें नक्षत्र से १७वें नक्षत्र तक शुभ, उसके बाद १६वें नक्षत्र से २८वें नक्षत्र तक अशुभ होते हैं। (यहाँ नक्षत्र गणना साभिजित् होती है।) वृष वास्तु चक्र अंग | शिर । अग्रपाद | पृष्ठपाद| पृष्ठ । वामकुक्षि दक्षिणकुक्षि | पुच्छ । मुख | नक्षत्र । ३ ४ ४ ३ ४ । ३ । ४ । ३ । फल | ग्रहदाह । विनाश । स्थिरता | धनलाभ | लक्ष्मीलाभ | शून्यता दरिद्रता | मृत्यु वायव्य पश्चिम नैर्ऋत्य

भारतीय वास्तुविद्या के अनुरूप कक्ष विभाजन

पाकशाला, स्नानागार आदि विभिन्न कक्षों का निर्माण गृह. के किस-किस भाग में किया जाय? इस सन्दर्भ में भारतीय वास्तुग्रन्थों में जो निर्देश दिया गया है वह इस प्रकार है गृह की पूर्व दिशा में स्नानागार, आग्नेयकोण में पाकशाला, दक्षिण में शयनकक्ष, नैर्ऋत्य में शस्त्रगृह, पश्चिम में भोजनकक्ष, वायव्य में धान्यागार, उत्तर में कोषागार और ईशान में पूजाग्रह का निर्माण होना चाहिए। प्राचीन वास्तु ग्रन्थों के अनुसार १६ खण्डों में १६ कक्षों के आधार पर किये गए इस विभाजन को अगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो ज्ञात होता है कि कक्ष-निर्माण की यह व्यवस्था तत्कालीन समाज की परिस्थितियां एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की गई है और आज इनके कतिपय कक्षों की उपादेयता दृष्टिगोचर नहीं होती। इसलिए यह आवश्यक है कि जिन कक्षों की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी पहले थी उनका निर्धारण उसी दिशा क्रम में करना चाहिए। जैसे- अग्नि से संबंधित कार्य पाकशाला एवं बिजली के उपकरणादि आग्नेयकोण में, पूजा का कक्ष ईशानकोण में, शयन कक्ष, अध्ययन कक्ष, तथा अनाज के आदि का निर्धारण/भण्डारण इसी निर्दिष्ट क्रम में करना चाहिए। वास्तुशास्त्रीय सूत्रों का अनुसरण करते हुए भवन को आधुनिक स्वरूप प्रदान कर गृहस्वामी सर्वविध अभ्युन्नति, परिवार, धन-धान्य एवं मानसिक शान्ति के साथ-साथ प्राकृतिक आपदाओं से रहित व्यतीत कर सकता है। चूंकि प्रत्येक दिशा से प्रकृति की शक्ति की तरंगे सतत प्रवाहित होती रहती हैं, अतः वास्तुशास्त्र में जो-जो दिशायें जिस-जिस कक्ष-विशेष के लिए निर्दिष्ट हैं उसी क्रम से कक्षों का निर्माण एवं उपयोग करना चाहिए। १. वास्तुसौख्यम् = ४/१७-१८ ११२ ज्योतिष-खण्ड ११३ वर्तमान समय में जन-सामान्य के पास इतने विशाल भूखण्ड नहीं होते हैं कि वह वास्तु सम्मत १६ कक्षों के सिद्धान्तानुसार गृह-निर्माण कर सके। अतः उपलब्ध भूखण्ड को विभिन्न दिशाओं एवं विदिशाओं में विभक्त कर वास्तु के अनुसार गृह में कक्षों का समायोजन किया जा सकता है। वास्तुविद्या आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय। फलिनः प्रजाक्षयकराः दारुण्यपि वर्जयेदेषाम् ।। छिद्याद्यदि न तरंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्। पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ।। अर्थात् भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिए। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिए। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है।

गृहवाटिका एवं गृह के समीप वृक्ष विचार

भारतीय संस्कृति में वृक्ष संरक्षण, वृक्षारोपण तथा वृक्ष संवर्धन को विशेष महत्व दिया गया है। यही नहीं देवमयी भारतीय संस्कृति में तो वृक्षों की पूजा का विधान भी है। वृक्ष जहाँ तीव्रगति से बढ़ रहे प्रदूषण के दुष्प्रभाव को रोकने में पूर्ण सक्षम हैं वहीं प्राणिमात्र के स्वास्थ्य के लिए नितान्त लाभप्रद विशुद्ध वायु भी प्रदान करते हैं। वास्तव में पेड़ पौधों का मानव-जीवन से सीधा संबंध है, इसीलिए वास्तुशास्त्र के अनुसार आवास स्थलों में वृक्षारोपण का उल्लेख है। _गृह-भूमि के वातावरण को प्रदूषणमुक्त एवं पवित्र बनाने के लिए वास्तुशास्त्रोक्त पेड़-पौधों को लगाना महत्वपूर्ण है। इस सन्दर्भ में बृहत्संहिता में कहा है वर्जयेत्पूर्वतोऽश्वत्थं प्लक्षं दक्षिणतस्तथा। न्यग्रोधं पश्चिमे भागे उत्तरे वाप्युदुम्बरम्।। अश्वत्थे तु भयं ब्रूयात् प्लक्षे ब्रूयात्पराभवम् । न्यग्रोधे राजतः पीड़ा नेत्रामयमुदुम्बरे।। वटः पुरस्तात् धन्यः स्याद् दक्षिणे चाप्युदुम्बरः। अश्वत्थः पश्चिमे धन्यः प्लक्षस्तूत्तरतः शुभः।। ५२/६२ अर्थात् भूखण्ड की पूर्व दिशा में पीपल, दक्षिण में प्लक्ष (पलाश), पश्चिम में वट (बरगद) और उत्तर में गूलर का वृक्ष नहीं होना चाहिए। पूर्व दिशा में पीपल के होने से गृहस्वामी को भय, दक्षिण में प्लक्ष (पलाश) के होने से पराभव, पश्चिम में वट वृक्ष होने से शासन की ओर से दण्ड भय और उत्तर में गूलर का वृक्ष होने से भवनवासियों को नेत्र-व्याधि होती है। यदि पश्चिम में पीपल, उत्तर में पलाश, पूर्व में वट वृक्ष और दक्षिण में गूलर का वृक्ष हो तो शुभ होता है।

गृहवाटिका में त्याज्य वृक्ष एवं उनके दोष का परिहार

ऐसे वृक्ष जिन्हें भवन के आस-पास लगाने से भवन-स्वामी को अनेक प्रकार के कष्ट हो सकते हैं, वे गृहवाटिका में त्याज्य रखने चाहिए। वराहमिहिर ने इस विषय में कहा है ११५