०४ स्वरविद्या

डॉ. सच्चिदानन्द मिश्र स्वर विद्या के मूल प्रवर्तक भगवान् सदाशिव हैं। इसे सर्वसिद्धि प्रदायक विज्ञान कहा गया है। इसमें ज्योतिष योग तथा तन्त्रागम का समवेत मूलाधार प्रयुक्त होने से शिव-पार्वती संवाद के रूप में इसे अत्यन्त महत्व पूर्व मानने की परम्परा प्राचीनतम है।

स्वर एवं ब्रह्माण्ड

अक्षर को अविनाशी कहा है। शब्द ब्रह्म से विश्वोत्पत्ति की अवधारणा निराधार नहीं है। भगवान शिव के अनुसार तत्वों से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, तत्वगत परिवर्तन से ही परिवर्तन तथा तत्व में ही ब्रह्माण्ड का क्षय अथवा लय आदि समस्त क्रियायें तत्वों पर ही आधारित हैं। इस तथ्य की पुष्टि में वेद, आगम, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, पौराणिक वाङ्मय प्रभृति अनेक प्रबल प्रमाण हैं।

तत्व क्या हैं?

इसके प्रमाण ऋग्वेद से सांख्य योग एवं ज्योतिष शास्त्रीय स्वर विद्या तक में विद्यमान हैं। परमात्मा सब का मूल है। त्रिगुण एवं तमोगुण के आकाशादिभूम्यन्त क्रमिक विकास क्रम का मूल महत्त्व को सर्वतत्वात्मक मानते हैं। अतः प्रत्येक चराचर मात्र देहधारियों की रचना भी त्रिगुणात्मक एवं पञ्चमूलात्मक है। “समस्त उत्पत्ति स्थिति तथा संहार के समस्त नैसर्गिक तथा आयोजित चक्र २५ तत्वों की गति एवं अव्ययत्व की सम्बद्धता में संनिहित है। सृष्टि रहस्य गूढातिगूढ़ है। इन्हें जानना तथा प्रयोगगम्य करना उससे भी अधिक गूढ़ रहस्य है। शान्त, शुद्ध, सदाचारी, गुरुभक्त, मन तथा बुद्धि से निर्मल व्यक्ति ही स्वर विद्या का अधिकारी हो सकता है। अन्य के हाथ में यह विद्या केवल विध्वंस एवं विनाश को जन्म देने वाली सिद्ध होती रही है। दुष्ट, दुर्जन, क्रोधी (शीघ्र कोपी) नास्तिक, गुरुतल्यग, हीनसत्व तो असंशय ही स्वयं की तथा समाज की हानि करते हैं। स्वर-‘स्वर’ दो प्रकार के होते हैं (१) आकारादि वर्ण स्वर तथा (२) नासिका से चलने वाले वायु रूप स्वर। स्वर विद्या दोनों स्वरों का प्रभाव मन-बुद्धि और शरीर पर भी पड़ता है। यही कारण है कि केवल ज्योतिष शास्त्र ही नहीं अपितु वेदों से लेकर वेदाङ्गादि सभी शास्त्रों एवं गान्धर्व विद्या में भी स्वरों का महत्व प्रतिपादित है। मनुष्य ही नहीं जीव जन्तु सभी स्वरों से सम्बद्ध हैं। सभी के स्वरों के जीवन में महत्व है तथा एक दूसरे के लिए भी स्वर उपयोगी होते हैं। स्वर ज्ञान से रहित दैवज्ञ की तुलना अधिपतिहीनगृह, शास्त्रहीन मुख तथा सिर से विहीन शरीर से की गयी है। इतना ही नहीं राजा के लिए कहा गया है कि जिस राजा के राज्य में स्वरशास्त्र के ज्ञाता न हो उस राजा का राज्य केले के खम्भों पर टिका होता है। संलाप का अधम भी स्वर है। शकुनादि शास्त्रों में भी स्वर गति चेष्टादि विचार में स्वर मुख्य है। स्वर शास्त्र के महत्व को बताते हुये कहा गया है कि नाड़ी भेद, प्राणतत्त्व भेद, सुषुम्नादि भेद, भूतसंचारभेद, आदि को जो जानता है, वह मुक्त हो जाता है।

हंसचार

साकार का निराकार, शुभवायु बल से हकार से निर्गमन तथा सकार से प्रवेश का सम्बन्ध प्रति पिण्ड से समबद्ध हैं। अतः जीवमात्र ‘हं सः’ इस क्रम से वायु छोड़ने तथा ग्रहण करने की क्रिया से सम्बद्ध है। _ ‘हंसचार’ नाम से श्वांस प्रक्रिया को प्रतिपादित किया गया है। हृदय में हंसचार के प्रसंग में, अष्टदल कमल की (योगशास्त्र के द्वादशदल) परिकल्पना है। हंसः क्रम से प्रत्येक दल पर आरोह और अहवरोह क्रम से पंच महाभूतों के ३०-३० श्वांस की वृद्धि क्रम से कुल ६०० श्वांस एक दल (पत्र) के चलते हैं। आठों दलों में कुल (८ x ६००) = ७२०० श्वांस चलती है। एक अहोरात्र तीन चक्र श्वांस अष्टदल में चलती हैं। इस प्रकार एक अहोरात्र में कुल (३ x ७२००) = २१६०० श्वांस चलती है। इसे ही हंसचार कहा जाता है। यही अजपाजप भी है। _अतः स्वर, सृष्टि, स्थिति तथा विनाशरूप है। इसे साक्षात् महेश्वर भी कहते हैं। शिवस्वरोदय श्लोक २२ से ज्ञात होता है, कि शत्रुनाश, मैत्री, धनयोग एवं प्राप्ति, सुख दुःखादि तथा कीर्ति-यश स्वरबल से प्राप्त होता है। _तत्व ज्ञान से ही व्यक्ति नाम, रूप के भ्रम से ऊपर उठकर यथार्थ का रूप जान पाता है। अतः ज्योतिष शास्त्र के अन्तर्गत इसका महत्व सदा से रहा है। स्वर शास्त्र में प्रवीण दैवज्ञ ही प्रश्न एवं स्वर द्वारा त्रिकाल ज्ञान में समर्थ होता है। स्वरबल से सभी कुयोग सुयोग में बदलने के योगनिष्ठ संकेत भी मिलते हैं यथा न तिथिर्न च नक्षत्रं न वारो ग्रहदेवता। न दिष्टिर्न व्यतोपाती वैधृत्याधास्तथैव च।। ६७ ज्योतिष-खण्ड कुयोगो नास्त्यतो देही भविता वा कदाचन प्राप्ते स्वरबले शुद्धे सर्वमेव शुभं फलम् ।।३०॥ . __ इतने महत्वपूर्ण कुयोगनाशक विद्या का साक्षात्संबंध देह से हैं। तिथि, नक्षत्र, दिन, ग्रह, देवता, भद्रा (दिष्टि) व्यतीपात एवं वैधृति प्रभृति समस्त कुयोग भी शुद्ध स्वर बल के योग से सुयोग में बदल जाते हैं। इस ज्ञान का हेतु-मानव का शरीर ही है। यही महामुनि पतञ्जलि का “यत्पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे, अर्थात् “यद् ब्रह्माण्डे तत्पिण्डेऽपि" के विलोम निष्पत्ति से साध्य होता है।

नाडीभेद

शरीर में नाभिस्कन्द से ऊपर अंकुर के समान निकली ७२००० नाड़िया स्थित हैं। नाड़ी में स्थित कुण्डलिनी शक्ति सर्प के समान सुप्तावस्था में रहती है। उन ७२००० में २४ नाड़ियां मुख्य है। नाभि से ऊपर गयी हुई दश तथा नीचे गयी हुई दश तथा दो-दो नाड़ियां ऊपर नीचे तिरछी गई हैं। इनमें भी दश नाड़ियां प्रधान हैं, जिनमें शरीरस्थ दशवायु संचारित होते हैं। ये ऊपर नीचे तथा तिर्यक क्रम से वायु-संचार-कारिणी नाड़ियां चक्र संस्थान सम्बद्ध देहस्थ और सभी प्राण से समाश्रित हैं। उन दश उत्तम नाड़ियों में तीन नाड़ियां उत्तम-इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना संज्ञक हैं। वाम भाग में इड़ा, दक्षिण भाग में पिंगला तथा मध्यदेश में सुषुम्ना, वामनेत्र में गान्धारी, दक्षिण नेत्र में हस्तिजिह्वा, दक्षिण कान में पूषा, वामकर्ण में यशस्विनी मुख में अलम्बुषा लिङ्ग स्थान में कुहू गुदास्थान में शंखिनी, नाड़ी दश प्रकार की वायु का संचार करती हैं। इड़ा-चन्द्र नाड़ी, पिंगला-सूर्यनाड़ी सुषुम्ना शिवनाड़ी, ये तीनों प्राणमार्ग में तथा उपर्युक्त दश नाड़ियाँ देह के मध्य में अवस्थित हैं। नाड़ियों के आश्रय से ऊर्ध्वक्रम में प्राण, आपान, उदान, समान तथा व्यान एवं अधःक्रम में नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त तथा धनञ्जय अवस्थित है। हृदय प्रदेश में प्राणः तथा गुदा में अपान नाभि में समान, कण्ठमध्य में उदान तथा सम्पूर्ण शरीर में व्यान का वास हैं। नागादि पांच के स्थान-उद्गार (उगलना-बोलना) में नाग, नेत्रों के उन्मीलन में कूर्म, छींकने में कृकल, जंभाई में देवदत्त, तथा सम्पूर्ण शरीर में धनञ्जय व्याप्त होता है। धनंजय मृतक शरीर को भी नहीं छोड़ता। जीवरूप में दश वायु सभी नाड़ियों में संचार करते हैं। देहमध्य में प्राण-संचार का प्रकटीकरण इड़ा पिंगला एवं सुषुम्ना से मुख्यतः होता है। वामनासपुट से इड़ा, दक्षिण में पिंगल दोनों से सुषुम्ना का प्रवाह होता है। प्राणवायु का निर्गम हकार प्रवेश सकार है। हकार शिव रूप तथा सकार शक्ति रूप है। हकार शक्तिरूप में चन्द्रमा का सकार शिवरूप में सूर्य का प्रतिनिधि है। स्वर विद्या श्वास जब सकार में स्थित एवं संचरित हो, उस समय दिया गया दान कोटिगुण होता है। अतः एकाग्रचित्त और समाहित योगी इसी मार्ग से समस्त शुभाशुभ को जानें। अर्थात् सूर्यमार्ग तथा चन्द्रमार्ग के अभ्यास से समस्त भुवन, त्रिलोक, नक्षत्रव्यूह का ज्ञान होना पतञ्जलि ने भी साध्य कहा है। इन दोनों मार्ग “जो शरीर में दक्षिण एवं वाम स्वांस संचार नलिका (नासापुट) के रूप में विद्यमान हैं" के अभ्यास से सभी तत्व ज्ञात होते हैं। स्थिर चित्त से तत्वों का ध्यान किया जाता है, अस्थिर चित्त से नहीं। जिस समय जीव स्थिर हो, उस समय ध्यान से ही इष्ट सिद्धि महान लाभ और जय होता है। अतः चन्द्र एवं सूर्यनाड़ी में अभ्यास करने से त्रिकाल ज्ञान करतलामलकवत् हो जाता है। वामभाग की नाड़ी (इड़ा) अमृत रूप में समस्त जगत की पोषिका है। दक्षिण (पिंगला-सूर्य नाड़ी) नाड़ी में सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति संनिहित है। मध्यम नाड़ी सुषुम्ना क्रूर तथा सम्पूर्ण कर्मों में दुष्टफल प्रदायिका होती है। वामा नाड़ी सभी जगह सभी शुभकर्मों की सिद्धि प्रदान करने वाली होती है। समस्त यात्रा एवं गमन में वामनाड़ी शुभ देने वाली तथा प्रवेश में दक्षिण नाड़ी शुभ प्रदान करने वाली होती है। सभी सौम्य कार्य चन्द्र नाड़ी से तथा सभी विषम कार्य रविनाडी संचार से करना शुभप्रद होता है। चन्द्र स्त्री तथा सूर्य पुरुष संज्ञक है। चन्द्र गौर रवि कृष्ण है, अतः चन्द्र से सौम्य सूर्य से उग्र तथा सुषुम्ना संचार से भुक्ति मुक्ति सम्बद्ध कार्य प्रशस्त होते हैं। शुक्लपक्ष में प्रथम संचार चन्द्र का तथा कृष्ण पक्ष प्रतिपदा में प्रथम संचार सूर्यस्वर का होता है। प्रतिपदा से तीन तीन तिथि प्रमाण से चन्द्र एवं सूर्य क्रम से बलवान होते हैं। पुनः शुक्लपक्ष में चन्द्र से प्रथमक्रम का ज्ञान प्रत्यक्ष मे भी होता है। स्थिति परिवर्तन विकार एवं आपत्ति का द्योतक होता है। २ घटी ३० पल = १ घंटा प्रमाण से ६० घटी = २४ घंटों में दोनों की १२-१२ आवृत्तियां शुक्ल में चन्द्रसूर्य तथा कृष्ण में सूर्य-चन्द्र के क्रम से होती हैं।

घटी

द्वितीय दिन प्रथम दिन के ६० घटी भुक्त होने पर शुक्ल पक्ष में फिर से सूर्योदयकाल में चन्द्र स्वर का संचार होता है। प्रत्येक ढाई घटी अर्थात् १ घंटे में पांचों भूत तत्त्व क्रम से उदित होते हैं। अर्थात् ३० पल = १२ मिनट तक १ तत्व का संचार होता है। इस प्रकार पांचों तत्त्व १ घंटा अर्थात २ घटी ३० पल के मध्य संचरित होते हैं। प्रतिपदादि तिथियों में शुक्ल कृष्ण भेद से जो चन्द्र तथा सूर्य नाड़ी का प्रथम संचार तथा क्रम है, अगर उसके विपरीत संचार हो तो उस दिन को अशुभ मानकर छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार कृष्ण प्रतिपदा में प्रथम सूर्य क्रम से नैसर्गिक न्यास होता है। ६८ ज्योतिष-खण्ड ६६ अतः शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से लेकर प्रथम वाम तथा कृष्णपक्ष में प्रथम दक्षिण नाड़ी को योगी एकाग्र मन से ध्यान करें। शिव स्वरोदय आदौ चन्द्रः सिते पक्षे भास्करो हि सितेतरे। प्रतिपत्तो दिनान्याहुस्त्रीणि त्रीणि कृतोदयाः।।६२ ।। सार्थद्विघटिके ज्ञेयः शुक्ले कृष्णे शशी रविः। वहन्त्येकदिनेनैव यथाषष्टि घटीक्रमान् ।।६३।। वहेयुस्तद् घटीमध्ये पञ्चतत्वानि निर्दिशेत्। प्रतिपत्तो दिनान्याहुर्विपरीते विवर्जयेत् ।।६४।। शुक्लपक्षे भवेद् वामा कृष्णपक्षे च दक्षिणा। जानीयात्प्रतिपत्पूर्वं योगी तद्गतमानसः ।।६५।। ये तत्त्व नियमित प्राणायामपरायण के लिए प्रत्यक्ष गम्य हैं । चन्द्र को सूर्य में तथा सूर्य को चन्द्र में बदलना दीर्घ काल तक प्रणायाम के अभ्यास में निरन्तर दत्तचित्त के लिए संभव है। यथा स्वर विद्या महाभूतोदयक्रम-प्रथम वायु, द्वितीय-अग्नि तृतीय-भूमि चतुर्थ-जल तथा पञ्चम आकाश तत्व का उदय होता है। २ घटी ३० पलके भीतर क्रम से इन तत्वों का पृथक् पृथक उदय होते हैं। _एक अहोरात्र के अन्दर १२ संक्रान्तियां होती हैं। वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर तथा मीन संक्रमण के अधिपति चन्द्रमा तथा मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु तथा कुम्भ संक्रमण के अधिपति सूर्य होते हैं। इस प्रकार उदय तथा वाम दक्षिणक्रम से शुभ एवं अशुभ का निर्णय अभ्यासगम्य प्रक्रिया है। यात्राकाल में स्वर विचार-चन्द्रमा-पूर्व तथा उत्तर, सूर्य पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में ठहरता है। अतः सूर्यनाड़ी में दक्षिण पश्चिम तथा चन्द्रनाड़ी में पूर्व तथा उत्तर दिशा में यात्रा निषिद्ध है। इससे शत्रुभय तथा लौटने की संभावना नहीं रहती। स्थर संचार का प्रभाव-शुक्ल द्वितीया सूर्यप्रवाह में चन्द्रप्रवाह हो तो लाभप्रद तथा उस समय सौम्य कार्यारम्भ सुखद होता हैं सूर्योदय काल में सूर्य तथा चन्द्रोदय काल में चन्द्रमा का प्रवाह सम्पूर्ण अहोरात्र को सर्वसिद्धिप्रद बनाता है। सामान्यतः चन्द्र में सूर्य तथा सूर्य में चन्द्र संचार उद्वेग, कलह तथा हानिप्रद एवं सम्पूर्ण शुभ के विनाशक होते हैं। सूर्य प्रवाह में विद्या, ज्ञान, अगम्य का निश्चय तथा चन्द्रप्रवाह में भोग, विलास, स्थिर एवं सौम्यकार्य सिद्ध होते हैं। विपरीत स्वरोदय का प्रभाव-यदि प्रातः काल विपरीत प्रवाह में दिवसारम्भ तथा सायं के पश्चात रात्र्यारम्भ हो, वह दिन १. उद्वेग, २. धनहानि, ३. निरर्थक यात्रा एवं ४. इष्ट का नाशक होता है। वें में राज्यनाश ६वें में सर्वनाश ७वें रोग, वें मृत्यु आदि प्रभाव कहा गया है। यदि तीनों सन्ध्या, प्रातः, मध्याह्न तथा सायं काल विपरीत स्वर का संचार ८ दिनों तक बराबर चले तो दुष्ट फलद होता है। कुद कम दिन चले तो विपरीत कर्म शुभफलद होता है।

  • प्रातः तथा मध्याह्न में चन्द्र, सायंकाल में सूर्य संचार जयलाभादि प्रदायक तथा विपरीत वर्जनीय होता है। __ स्वरानुरोध से यात्रा आदि विधान-जिस समय जो स्वर संचरित हो, उस कदम को आगे बढ़कर की गयी यात्रा सिद्धिप्रद होती है। चन्द्रमा में समपद २-४-६ तथा सूर्य में विषमपद १-३-५ रखने से सिद्धि होती है। जिस अंग का स्वर संचरित हो, उस हाथ की सहायता से शय्यात्याग कर मुख स्पर्श शशाङ्क वारयेद्रात्रौ दिवा वारय भास्करम्। इत्याभ्यासरतो नित्यं स योगी नात्र संशयः।।६६ ।। सूर्येण बध्यते सूर्यं चन्द्रश्चन्द्रेण वध्यते। यो जानाति क्रियामेतां त्रैलोक्यं वशगं क्षणात् ।।६७।। अर्थात् रात्रि में चन्द्र स्वर तथा दिन में सूर्यस्वर के निरोध का अभ्यासी व्यक्ति सिद्धयोगी हो जाता है। सूर्य के स्वर से सूर्य तथा चन्द्रस्वर से चन्द्र बन्द होता है। जो इस योग क्रिया को जानता है, उसके वश में त्रिलोक क्षणमात्र में होता है। इस प्रकार योग, ज्योतिष तथा तन्त्रागम के समन्वित स्वरूप पर अवस्थित स्वर विद्या में अनेक चमत्कार के साथ स्वरप्रश्न तन्त्राभिप्रायिक प्रयोग तथा दृष्टान्त भी मिलते हैं। _ चन्द्रस्वर में सूर्योदय तथा सूर्यस्वर में सूर्यास्त अनेक गुणों का संगठन करता है, वहीं उल्टा होने पर विपरीत प्रभाव जानें। चन्द्र, बुध, गुरु तथा शुक्र दिन में वामनाड़ी शुक्लपक्ष में सर्वसिद्धि प्रदायक होते हैं। रवि, मंगल तथा शनि दिन एवं कृष्णपक्ष में दक्षिणनाडी संचार में कृत कार्य विशेष रूप से सिद्ध होते हैं। चर एवं उग्र कार्य दक्षिण नाड़ी में उग्रवारों में तथा सौम्य एवं स्थिर कार्य वामनाडी में सद्यः सिद्धि प्रदायक होते हैं।७० ज्योतिष-खण्ड भी वांछित फलदायक है। जो स्वर बहे, उस अंग के वाम या दक्षिण हाथ से दान देना, लेना, तथा उस पैर को आगे बढ़ा कर यात्रा एवं प्रवेश करना सभी प्रकार से शुभद होता हैं। _ इस प्रकार समय एवं स्वर संचार के संबंध से योग निष्ठ जन सर्वत्र लाभ सिद्धि एवं विजय को प्राप्त करता है।
  • शून्य स्वर सुषुम्ना में योगाभ्यास एवं ईश्वराधनेतर सभी कर्म विपरीत फलद होते इडा संचार में कर्तव्याकर्त्तव्य, पिंगला संचार में कर्त्तव्याकर्त्तव्य, सुषुम्ना संचार में कर्त्तव्याकर्त्तव्य निर्धारण इसके प्रश्न-तन्त्रात्मक स्वरूप को प्रकट करता है। गरे हैं। सुषुम्ना संचार लक्षण क्षणं वामे क्षणं दक्षे यदा वहति मारुतः। सुषुम्ना सा च विज्ञेया सर्वकार्यहरा स्मृता।। अतः दो श्वांस का संचार का स्तम्भन काल को सुषुम्ना जानना चाहिए। जब अपने-अपने स्वाभाविक क्रम का उल्लंघन कर दोनों नाड़ी का संचार हो, वह अशुभप्रद होता है। सुषुम्ना संचार में केवल ईश्वर चिन्तन कर्तव्य । नाड़ी संक्रमण तथा तत्त्व संक्रमण में भी कुछ भी सिद्ध नहीं होता। स्वर विद्या चाहिए। पृथ्वी तथा जल से सर्व सिद्धि, अग्नि से मारण, वायु से क्षय तथा आकाश से कार्य की हानि होती है। इनके लक्षण तथा प्रभाव सम्बद्ध अनेक चमत्कार विभिन्न ग्रन्थों में मिलते हैं फिर भी वे साधना-गम्य होने से सामान्य जनों के लिए सुगम नहीं हो सके। हंस स्वर संचार पर अद्वितीय स्वर प्रश्न तन्त्र का केवल संकेत मात्र यहाँ किया गया है। - दक्षिण स्वर संचार में अग्नि तत्व से रवि पृथ्वी से मंगल, जल से शनि, वायु से राहु की स्थिति का प्रभाव ज्ञात होता है तथा वाम स्वर में जल से चन्द्र, पृथ्वी से बुध, वायु से गरु तथा अग्नि से शक्र ग्रह के प्रभाव का बोध होता है। पृथ्वी का बुध से, जल का चन्द्र और शुक्र से, अग्नि की सूर्य और मंगल से वायु का शनि और राहु से तथा आकाश का गुरु से संबंध बताया गया है। ये ग्रह तत्तद् तत्वों के अधिपति भी कहे गये हैं। स्वर एवं तत्वों के उदय से यात्रा विचार, तत्वों के बल दिशा एवं समय भेद से, तत्वों से शरीरस्थ अस्थि आदि सप्तसारों की उत्पत्ति एवं आधिपत्य, ग्रहाधिपत्य, गुणाधिपत्य, मानव देह में तत्त्वों की मात्रा, सिद्धि एवं असिद्धि में तत्व सम्बन्ध, तत्व सम्बद्ध नक्षत्र या नक्षत्र संबद्ध तत्व, आदि इसके प्रक्रियात्मक विभाग हैं। तत्वों के क्षेत्र एवं बीज निर्धारण योग एवं आगम का समन्वित रूप है। किस क्रिया को करने में प्राण वायु की क्या गति होती है, तथा योगाभ्यास से इन्हें नियन्त्रित करने पर क्या-क्या सिद्धियां मिलती हैं? आदि प्रश्न, युद्ध, युद्धगत विशेष विधान, वशीकरण, स्त्री आकर्षण एवं वशीकरण, गर्भधारण, प्रभृति विषय भी इनके प्रयोग से साध्य एवं गम्य हैं। संवत्सर प्रभाव, वर्षफल, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, राष्ट्रोपद्रव एवं शान्ति, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, रोग, काल परीक्षण, जीवन मृत्यु, मृत्युपूर्वलक्षण संबंधियों के जीवन एवं मृत्यु का निर्धारण एवं मृत्यु स्तम्भन आदि क्रियायें सम्भव है। योग निष्ठा से ब्रह्माण्ड ज्ञान के जो संकेत-शिव पार्वती संवाद रूप शिवस्वरोदय में मिलते हैं। उन्हें इस युग में पुनः आनुपूर्विक प्रकट करना कठिनतम है। यह ग्रन्थ हंस-स्वर संचार सम्बद्ध है। ‘नरपति जयचर्या’ में भी हंसस्वरचार का संक्षिप्त रूप मिलता है। पातञ्जल योग प्रदीप में भी हंस स्वर संचार के यौगिक क्रियात्मक विधान मिलते हैं। इस युग में अकारादि पांच स्वरों पर आधारित अ, इ, उ, ए, ओ को मूल मानकर नरपतिजयचर्या आदि ग्रन्थों में निरूपित विधानों का संकेत मात्र करता हूँ, जिससे दोनों पक्षों में समन्वय हो सके।
  • योग और तन्त्र के अनेक ग्रन्थों के आधार पर पंच स्वरों तक श्वांस के माध्यम से सूर्यादि स्वरों को आधारभूत मानकर उनमें शुभाशुभ ज्ञान की प्रक्रिया दी गई है। स्वरशास्त्र का प्रमुखत्व, स्वरबल की प्रशंसा तथा स्वरबल से सभी प्रकार के युद्ध में विजयार्थ साधन बताये गये हैं। इस प्रकार का अध्ययन सिद्धियों का कारक बन सकता है। यामल तन्त्र तथा स्वर शास्त्र में २० प्रकार के स्वर चक्र कहे गये हैं।

तत्वप्रत्यक्षीकरण

पृथ्वी का पीत, जल श्वेत, अग्नि लाल, वायु-श्याम तथा आकाश का चित्र वर्ण है। नेत्र प्रान्तपर दर्पण पर श्वांस को छोड़कर तत्ववर्ण जान सकते हैं। चतुर्भुज, अर्धचन्द्र, त्रिभुज, वृत्त तथा बिन्दु-रूप से पृथिव्यादि तत्व का संचार जाना जाता है। दोनों कन्धों पर अग्नि, नाभि मूल में वायु, जानुदेश में पृथ्वी, चरण के अन्त में जल तथा मस्तक में आकाश तत्त्व की स्थिति योग-गम्य है। .

स्वाद से तत्वज्ञान

पृथ्वी = मीठा, जल = खारा, अग्नि = तीखा, वायु = अम्ल एवं आकाश = कटु स्वाद का द्योतक होता है। इस प्रकार भोज्य रस प्रमाण से भी पंच तत्वों को जाना जाता है।

श्वांसगति से तत्वज्ञान

वायु-८, पवन-४, पृथ्वी-१२, जल-१६, आकाश-२० अंगुल तक प्राणवायु की प्रवाह गति होती है। ऊर्ध्वस्वर-मरण, निम्न स्वर-शान्ति, तिर्यक-उच्चाटन, मध्य स्वर-स्तंभन तथा आकाश तत्व सभी कार्य में मध्य फलद होता है। पृथ्वी तत्व में स्थिर, जल में चर, तेल में उग्र, पवन में क्रूर कर्म तथा उच्चाटन एवं आकाश तत्त्व में योग का सेवन करना ज्योतिष-खण्ड स्वर विद्या १. मात्रा २. कर्म ३. ग्रह ४. जीव ५. राशि ६. नक्षत्र ७. पिण्ड तथा ८. योग मुख्य स्वर भेद दर्शक चक्र हैं। ६. द्वादशवार्षिक १०. वार्षिक ११. अर्धवार्षिक १२. ऋतु १३. मास १४. पक्ष १५. दिन १६. घटी १७. तिथि वार १८. दिशा १६. तात्कालिक तथा २०. दिलफल के योग से बीस स्वर चक्र हैं। ८४ प्रकार के चक्रों में-१. एकाशीतिचक्र २. शतपद ३. नवांश ४. छत्र ५. सिंहासन ६. पांच प्रकार के कूर्मचन्द्र-भूकूर्म, देश कूर्म, नगरकूर्म, क्षेत्रकूर्म, गृहकूर्म, ७. पद्म ८.१ फणीशाख्य-राहु कालानल ६.२ सूर्य कालानल १०.३ चन्द्र कालानल ११.४ घोर काला नल १२.५ शूलकालानल १३.६ सूर्यचन्द्रयोग जनित कालानल १४.७ संधर ये सात कालानल चक्र हैं। १५. तिथि १६. वार १७. नक्षत्र १८. कुलाकुल १६.१ राशि कुम्भ २०.२ नक्षत्रकुम्भ २१. वर्ग २२. प्रस्तार २३. वेध २४. तुम्बरू २५. भूचर २६. खेचर २७. नाड़ी चक्र-दो प्रकार २८. कालचक्र २६. फणिचक्र-दो प्रकार के (सूर्यफणिचक्र एवं चन्द्रफणि चक्र) ३०. कविचक्र स्थानस्वामी एवं नक्षत्र सम्बद्ध ३१. खलक चक्र-कृत्तिकादि नक्षत्र सम्बद्ध तथा स्थान सम्बद्ध, ३२. कोटचक्र-आठ प्रकार के चतुरनादि भेद से ३३. गज ३४. अश्व ३५. रथ ३६. व्यूह ३७. कुन्त ३८. खग ३६. धुरिका ४०. डिंभ ४५. पक्षि ४६. वर्ग ४७. आय ४८. वर्षण ४६. सप्तशलाका ५०. पञ्चशलाका ५१. चन्द्र ५२. सूर्य ५३. मातृका चक्र-तीन प्रकार के ५४. श्येन- ५५. तोरण ५६. अहिबल ५७. लांगल ५८. बीजोप्ति ५६. वृष ६०. सप्तनाड़ी ६१. सांवत्सर ६२. स्थान ६३. मास. ६४. दिन फल ये ८४ प्रकार के चक्र अनेक प्रकार के कार्यों में सिद्धि असिद्धि लाभ एवं हानि आदि के सूचक हैं। इसलिए इन चर्कों का स्वर विद्या में अद्वितीय महत्व है। उपर्युक्त समस्त विधानों तथा चक्रों के ज्ञाता दैवज्ञ की सहायता से युद्ध आरम्भ करने वाले राजा (देशाधिपति) इन्द्र के समान शत्रु राजा को भी जीत सकता है, इसमें सन्देह नहीं। कर्तरी २५. शार्दूली २६. सिंहिली २७. तन्वी २८. महामाया २६. महेश्वरी ३०. देवकोटि ३१. शिवा ३२. शक्ति ३३. धूम्रा ३४. माला ३५. वराटिका ३६. त्रिमुण्डा ३७. मत्सरी ३८. धर्मा ३६. मृतशिष्टा ४०. क्षया ४१. अक्षया ४२. दुर्मति ४३. प्रवरा ४४. गौरी ४५. काली ४६. नारहरी ४७. बला ४८. खेचरी ४६. भूचरी ५०. गुढ्या ५१. द्वादशी ५२. वृष्टि ५३. केवला ५४. त्रैलोक्यविजया ५५. सौरी ५६. कराली ५७. वड़वा ५८. अपरा ५६. रौद्री ६०. शिशु ६१. मातङ्गी ६२. अभेद्या ६३. दहनी ६४. जित्रा ६५. बहुला ६६. वर्गभूमि ६७. कपाली ६८. अनिला ६६. अनला ७०. चान्द्री ७१. सूर्यबिम्बा ७२. ग्रहभूः ७३. राशिभूः ७४. लानभूः ७५. राहुकालानली ७६. स्वरभूमि ७७. रूद्र ७८. त्रिमासिक ७६. राहु-आठ प्रकार ८०. चन्द्र ८१. सदाविध ८२. सूर्यभूमि चार प्रकार ८३. योगिनीभूमि-तीन प्रकार ८४. काल चक्रभूमि-तीन प्रकार-तिथि, नक्षत्र तथा वारज “ये ८४ प्रकार के भूबल चक्र हैं। इस भूबलों को जानकर जो नृप युद्ध में प्रविष्ट होते हैं, उनके प्रबल शत्रु भी वैसे ही नष्ट होते हैं, जैसे प्रबल वायु वेग से मेघ। यन्त्र मन्त्र तन्त्र तथा औषधि का बल- यदि शत्रु स्वर, चक्र तथा भूबल के योग करने पर भी बराबर या अधिक हो, वहां स्थान, सेना तथा बल एवं विज्ञान युक्त शत्रु के अभङ्गत्व, अभेदत्व, असाध्यात्व तथा दुर्जयत्व की स्थिति में स्वपक्ष के राजा के विजय निमित्त मन्त्रयन्त्रादि से बल देना चाहिए। इसमें मन्त्रबल, तन्त्रबल, यन्त्रबल तथा औषधि के बल से बलाधिक्य का साधन करना कहा है। एतदर्थ १. रणाभिषेक २. रणदीक्षा ३. रणार्चा ४. रणकङ्कण ५. वीरपट्ट ६. रणपट्ट ७. जयपट्ट ८. मेखला ६. कवचन्यास १०. मुद्रारक्षा ११. कंचुक १२. औषधि १३. तिलक १४. घुटिका १५. कपर्दिका १६. योग घटित शस्त्रास्त्र १७. शस्त्ररक्षा १८. भोटन १६. विविधशस्त्रलेप २०. बाणों के पिच्छ बन्धन, २१. त्रास देने वाले २२. काहला २३. ढक्का २४. मुरज २५. भस्म साधन २६. मा रम २७. मोहन २८. स्तम्भन २६. विद्वेषण ३०. उच्चाटन ३१. वशीकरण ३२. पताका ३३. पिच्छक ३४. परकृत्या विनाशक यन्त्र ३५. अपने सैन्यबल को सभी प्रकार के उपद्रव से बचाने के लिए शान्ति के उपाय जय चाहने वाले राजा को करना एवं कराना चाहिए। इन समस्त बलों को जानकर जो मनुष्य युद्ध करता है, वह इन्द्रतुल्य पराक्रमी शत्रु को भी परास्त कर सकता है। उसके लिए असाप्य कुछ भी नहीं रहता।

भूबलचक्र

स्वरोदय तथा उपर्युक्त ८४ चक्रों के प्रयोग से जहां शत्रुपक्ष का बल बराबर हो या अधिक हो, वहां भूबल से बल अधिक किया जाता है। कविद्वन्द, दुर्ग, चतुरङ्ग जनित महायुद्ध में भूबल की सहायता से सभी प्रकार के शत्रु को पराजित करने हेतु इन भूबलों का प्रयोग ब्रह्मयामल के आधार पर नरपति ने किया है। भूबल भी ८४ प्रकार के हैं। इनके बल योग से स्वपक्ष का राजा विजयी होता है। ये हैं- १. औड्री २. जालन्धरी ३. पूर्या ४. . कामा ५. कोला ६. एकवीरिका ७. शिलीन्ध्रा ८. महामारी ६. क्षेत्रपाली १०. वंशजा ११. रूद्रकालानली १२. कालरेखा १३. निरामया १४. जयलक्ष्मी १५. महालक्ष्मी १६. जया १७. . विजया १८. भैरवी १६. बाला २०. योगेश्वरी २१. चण्डी २२. भाषा २३. भुंभुक २४.. ७४ ज्योतिष-खण्ड

ज्योतिष का स्वर-शास्त्रीय निवेश

ज्योतिष शास्त्र जहाँ आकाशस्थ ग्रहों तथा उनकी गति आदि से उत्पन्न परिणामों के आधार पर विचार करता है वहीं ग्रहों द्वारा नियंत्रित मानव शरीर में संचरित प्राणवायु के प्रवाह द्वारा भी अनेक प्रकार के शुभाशुभ का विवेचन करता है। ‘स्वर’ शब्द से यहाँ दोनों प्रकार के स्वरों का ग्रहण किया गया है। १. नासिका से श्वांस के प्रवेश और निर्गम से संबंधित स्वर। २. अकारादि पांच प्रमुख स्वर। इन दोनों के माध्यम से तथा शरीस्थ सभी नाड़ियों एवं संबंधित वायु में प्रवाह से पञ्च महाभूतों एवं उनसे संबंधित ग्रहों से तथा विभिन्न चक्रों के माध्यम से व्यथाओं के प्रभावों का आकलन कर उनके प्रभावों का निरूपण किया गया है। यह विवेचन स्वर शास्त्र के ग्रन्थ नरपति जयचर्या के आधार पर किया गया है।