प्रो. देवीप्रसाद त्रिपाठी
“भुवनानां कोशः भुवनकोशः अथवा भुवनानि कोश इवेति भुवन कोशः” इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न भुवनकोश मात्र ज्योतिष शास्त्र का ही प्रतिपाद्य विषय नहीं है, अपितु वैदिक वाङ्मय में इस विषय की व्यापक चर्चा उपलब्ध होती है। ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति का वर्णन प्रायः भारतीय चिन्तन परम्परा के सभी शास्त्रों में उपलब्ध होता है। भूः भुवः, स्वः महः, जनः, तपः, सत्यं, उर्ध्वलोक और अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल, पाताल, अधोलोक हैं। इन्हीं को चतुर्दश लोक कहा जाता है। ये लोक कौन हैं? कहाँ हैं? तथा ग्रहों, तारों, चन्द्र, पृथ्वी एवं सूर्य की उत्पत्ति कैसे हुई? यह एक महान जिज्ञासा है। इस संबंध में तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि “लोकोऽसि अनन्तोस्यपारोऽसि। अक्षितोऽस्यक्षस्योऽसि”’ अर्थात् तुम लोक हो, अनन्त हो, अपार हो, अक्षित हो, अक्षय हो, जो अपार अक्षय अनन्त है वह कहाँ से आया? क्या कोई जानता है? इस संदर्भ में ऋग्वेद की एक ऋचा में कहा गया है “कौन जानता है और कौन कहेगा कि यह सृष्टि कहाँ से और किस कारण उत्पन्न हुई? क्योंकि जिन्हें हम देवता कहते हैं अथवा जो विद्वान इस सृष्टि के रहस्य को जानने की बात करते हैं वे भी तो सृष्टि के बाद ही उत्पन्न हुए, इसलिए यह सृष्टि जिससे उत्पन्न हुई उसे कौन जानता है? इस सृष्टि को पैदा करने वाला इसका अध्यक्ष परब्रह्म इस सृष्टि का धारक है और वही इस सृष्टि को पूर्णतया जानता होगा।” केवल आकाश ही है जो उसको जानता होगा परन्तु वह भी उसको जानता है या नहीं, इसको कौन जानता है? इस सृष्टि के विषय में जितने सम्प्रदाय हैं उतने ही विचार भी हैं। ऋग्वेद में ही कहा गया है कि असत् से सत् उत्पन्न हुआ और इसके अनन्तर दिशायें आदि। वेदान्त में कहा गया है कि “तमः प्रधान विक्षेप शक्तिमदज्ञानोपहितचैतन्यादाकाशः आकाशाद्वायुयोरग्निरग्नेरापोऽभ्यः पृथिवी चोत्पद्यते” इत्यादि। अर्थात् तमस् प्रधान विक्षेप शक्तिमदज्ञानोपहित चैतन्य से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई। वेदों तथा उपनिषदों में ब्रह्माण्ड का वर्णन सम्यक् प्रकार से कई स्थानों पर दिखाई देता है। वैदिक साहित्य के इतर भी ब्रह्माण्ड का वर्णन विस्तृत रूप से मिलता है। आदिकाल से ही मनुष्यों के पास विश्वोत्पत्ति के रहस्य को जानने की १. नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु। ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह ।। प्रोद्यमाने जगन्नाथे सर्वलोकनमस्कृतम् । कौसल्या जनयद्रामं दिव्यलक्षणसंयुतम् ।। पुष्ये जातस्तु भरतो मीनलग्ने प्रसन्नधीः । सार्पे जातौ तु सौमित्री कुलीरेऽभ्युदिते रवौ ।। (बालकाण्ड, १८/६, १० तथा १५) १. तैत्तिरीय ब्राह्मण ३६११४१ २. को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः। अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत आबभूव ।। १०६१२६/६, इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ।। १०/१२६/७ २३ २२ ज्योतिष-खण्ड मुख्यतः दो प्रविधियां उपलब्ध थीं जिसमें पहली प्रविधि का नाम अध्यात्म तथा दूसरी प्रविधि का नाम भौतिक विज्ञान था। आध्यात्म विज्ञान में योग एवं दिव्य दृष्टि के द्वारा समग्र ज्ञान प्राप्त होता था जबकि भौतिक प्रविधि में पञ्चज्ञानेन्द्रिय गम्य ज्ञान ही प्राप्त हो सकता है। इनसे इतर विषयों का ज्ञान इस प्रविधि के द्वारा संभव नहीं है। यह ध्रुव सत्य है क्योंकि भौतिक प्रविधि का अधिकतर ज्ञान परीक्षण शालाओं पर आधारित रहता है। जहां परीक्षण शालाओं की सीमा समाप्त होती है, वहीं से अध्यात्म विज्ञान की सीमा प्रारंभ होती है। इसी लिए अध्यात्म विज्ञान ने ‘यत् पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ के सिद्धान्त के द्वारा ही समस्त जगत् के रहस्य को समझा और समझाने को प्रयत्न किया। भारतीय चिन्तन धारा के आधार पर ब्रह्माण्डोत्पत्ति ज्ञान को मुख्यतः चार भागों में विभक्त किया गया था। १. विश्वकर्मा द्वारा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति-‘इयं विसृष्टिर्यत आ वभूव…..।’ ऋग्वेद के अनुसार परमेश्वर ही सृष्टि में स्रष्टा (बनाने वाले) हैं। परमेश्वर के गुणों की संज्ञा ही देवता है। ब्रह्माण्ड का सृजन देवताओं ने ही किया है। वे देवता हैं विश्वकर्ता, विष्णु, सविता, इन्द्र, वरुण आदि। ये देवता सृष्टि निर्माण में विभिन्न कार्य करते हैं। इन्हीं के सहयोग से ब्रह्माण्ड निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ। सृजन में जिस पदार्थ का उपयोग हुआ इन देवताओं ने उसको अंतरिक्ष धूलि मेघ कहा जिसको आधुनिक वैज्ञानिक ‘कॉस्मिक डस्ट’ के नाम से जानते हैं। २. विराट्र पुरुष द्वारा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति-विराट पुरुष को ही लोग समग्र विश्व की आत्मा मानते हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड का यह शरीर (विराट स्वरूप) बीज मात्र है अर्थात् जैसे प्रत्येक वृक्ष के सूक्ष्म बीज में एक विशाल वृक्ष समाया रहता है उसी प्रकार एक ब्रह्माण्ड की सूक्ष्म इकाई में विराट ब्रह्माण्ड का स्वरूप समाहित रहता है। विराट पुरुष के अंगों से ही पृथ्वी, आकाश वायु, सूर्य, चन्द्र, मनुष्य आदि जीवों के साथ ही पार्थिव तत्व की भी उत्पत्ति होती है। ‘पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।‘३ ३. ब्रह्मा द्वारा ब्रह्माण्डोत्पत्ति-ऋग्वेद के नासदीय सूक्त’ में वर्णन मिलता है कि सृष्टि के आदि में न ‘सत्’ था और न ‘असत्’ था, न आकाश था, न वायुमण्डल था, न दिन था, न रात्रि थी। _ ऋग्वेद के १०वें मण्डल के १६०वें सूक्त में विशेष वर्णन मिलता है कि जाज्वल्यमान परम तेज से ऋत (सत्य) की उत्पत्ति हुई। इसके पश्चात् आकाश तथा आकश से अनन्त परमाणुओं की सृष्टि हुई तब पदार्थ का सृजन हुआ। भुवनकोश ४. प्रजापति द्वारा ब्रह्माण्डोत्पत्ति-स्वयंभू परमेश्वर ने सर्वप्रथम विश्वोत्पत्ति के लिए प्रजापति की सृष्टि की। श्रुतियों में प्रजापति को ही हिरण्यगर्भ कहा गया है, यथा ‘हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्’ । हिण्यगर्भ ही एक ऐसी अवस्था है जहां से आज के वैज्ञानिक को सृष्टि प्रक्रिया ठीक से समझ आती है। क्यों जब तेज (इनर्जी) हिरण्यगर्भ के रूप में परिणत होता है तभी विस्फोट होता है। विस्फोट के पूर्व की स्थिति ही हिरण्यगर्भ है। कह सकते हैं कि तेज़ की एक स्थिति (अवस्था) का नाम ही हिरण्यगर्भ है। शतपथ ब्राह्मण में इसी प्रसंग में हिरण्यगर्भ को ‘अर्ध’ ज्योति कहा गया है। यथा- ‘ज्योतिर्वै हिरण्यम ज्योतिरेषोऽमतं हिरण्यम। निश्चित ही ‘हिरण्यम’ एक अखण्ड मूल तत्वरूप ज्योति है। अमरकोशकार ने हिरण्यगर्भ का निर्वचन इस प्रकार किया है। यथा- ‘हिरण्यं हिरण्यमयं अण्डं तस्य गर्भ इव’। अर्थात् ज्योतिर्मय पिण्ड जिसके गर्भ में है वह हिरण्यगर्भ हुआ। वैदिक साहित्य में हिरण्यगर्भ का विवेचन विस्तृत रूप से उपलब्ध होता है। वेद दर्शन एवं विज्ञान संबंधी रहस्यों के आगार हैं किन्तु वैदिक साहित्य की भाषा परोक्ष प्रतीकात्मक, संकेतात्मक अलंकारों एवं रूपकों से परिपूर्ण है। सामान्यतया वैदिक मन्त्रों के अर्थ एवं भाव समझ में नहीं आते हैं क्योंकि वेदों के भी अपने प्रतीक हैं। वेद की परिकल्पनाओं के प्रतिपादन मे प्रतीकों का महत्वपूर्ण योगदान है। वेदों के भाव एवं अर्थ को समझाने से पूर्व प्रतीकों को समझना आवश्यक है। सामान्यतया जहां ग्रह, नक्षत्र, तारे, दैत्य, मानव, देवतादि समस्त जीव एवं भूर्भुवादि चतुर्दश लोकों का एक समन्वित स्वरूप परिकल्पित होता है उसे ही ब्रह्माण्ड कहते हैं। यह भी कह सकते हैं कि चतुर्दश लोकों के समूह को ही ब्रह्माण्ड कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक सौर मण्डल को भी एक ब्रह्माण्ड कहा जाता है। सूर्य सिद्धान्त में कहा गया है कि “आकशकक्षा सा ज्ञेया करव्याप्तिस्तथा रवेः’ इस प्रकार के अनेक सौर मण्डल हैं। वेदों में चतुर्दश लोकों का वर्णन ‘रोदसी’ ‘कन्दसी’ एवं संयती के रूप में मिलता है। इस ब्रह्माण्ड में स्थित सात उर्ध्व लोकों एवं सात अधः लोकों का प्रकारान्तर से जो वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है वैसा अन्य किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलता है। गार्गी और याज्ञवल्क्य ऋषि के संवाद में कई लोकों का उल्लेख मिलता है। “कस्मिन्न खलु वायुरोतश्च प्रोतश्चेत्यन्तरिक्षलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु खल्वन्तरिक्षलोका ओताश्च प्रोताश्चेत्यादयः"३ __इसके अतिरिक्त वेदों में घु-अन्तरिक्ष पृथ्वी का पृथक-पृथक वर्णन मिलता है। समग्र विश्व के विषय में कुछ कहते समय रोदसी, द्यावापृथिवी (आकाश और पृथ्वी) को इंगित १. ऋग्वेद संहिता १०/१२६/७ २. ऋग्वेद संहिता १०/८१-७, ऋग्वेद संहिता १०/८२/१.७ ऋग्वेद संहिता १०/६०/०२, साम ६१६, अथर्व १६, ६, ४ शुक्लयजु सं० ३१/१२ ४. ऋग्वेद १०/१२६/१.७ ५. ऋग्वेद १०/१६०/३, वृहदारण्यकोपनिषद् २/६/२०, विष्णुपुराण १/२/२३ १. यजुर्वेद संहिता १३/१४, ६०/१६ ऋग्वेद १०/१२१/१.७ २. शतपथ ब्राह्मण ६/७ ३. शतपथ ब्राह्मण १४/६/६/१ २४ ज्योतिष-खण्ड करके किया हुआ वर्णन बहुत से स्थलों में पाया जात है। इससे ज्ञान होता है कि विश्व के दो भाग माने गये हैं परन्तु कहीं-कहीं धुलोक तीन बताये गये हैं। अधिकांश स्थलों पर धु-अंतरिक्ष और पृथ्वी विश्व के तीन विभाग माने गये हैं। धु और पृथ्वी के बीच को ही अन्तरिक्ष कहा गया है। इसी मे वायु मेध एवं विद्युत का स्थान है तथा इसी में पक्षी भी उड़ते हैं। नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्णोद्यौः समवर्तत पद्भ्यां भूमिः।’ पुरुष सूक्त की इस ऋचा में तीनों विभाग स्पष्ट रूप में परिलक्षित होते हैं। संभवतः उक्त लोकों की ऊर्ध्वाधः स्थिति को ध्यान में रखकर ही विराट् पुरुष के मस्तक, नाभि एवं पादों से इनकी उत्पतित की कल्पना की गयी। ऋग्वेद के एक प्रसंग में इस प्रकार वर्णन मिलता है कि ‘जिसने कांपती हुई पृथ्वी दृढ़ की, जिसने विस्तीर्ण अन्तरिक्ष को व्यवस्थित किया जिसने द्यु को धारण किया है मनुष्यों/वह इन्द्र है। जैमिनीय ब्राह्मण में सात लोकों का वर्णन व नाम इस प्रकार मिलता है यथा- उपोदक, ऋतधामा, अपराजित, अभिद्यु, प्रद्यु, रोचन, विष्टप (ब्रह्मलोक)। एक अन्य प्रसंग में जैमिनीय ब्राह्मण में ही लोकों का क्रम - उपोदक, ऋतधामा, शिव, अपराजित, अभिद्य, प्रद्य, तथा रोचन कहा गया है। रोचन पद दीप्ति वाचक है। यह सूर्य (रोचन) लोक और उससे प्रदीप्त लोकों का भी वाचक है। शतपथ ब्राह्मण के कथनानुसार आदि में सूर्य, चन्द्र आदि लोक सुस्थिर न होने के कारण पहले कांपते थे। बहुत काल पश्चात् ये लोक नियमित गतियों में प्रतिष्ठित हुए-तद् यथा ह वै। इदं रथचक्रं वा कौलालचक्रं वा प्रतिष्ठितं क्रन्देद एवं हैवेमा लोका अध्रुवा अप्रतिष्ठिता आसुः। स ह प्रजापतिरीक्षञ्चक्रे। कथनिन्ववमे लोका ध्रुवाः इमाम् अदृहदं वायोभिश्च मरीचिभिश्चान्तरिक्षम्। जीमूतैश्च नक्षत्रैश्च दिवम् ।६। _ तब जैसे यह रथ का चक्र वा कुम्हार का चक्र अस्थिर क्रन्दन करता है, ऐसे ही ये लोक अध्रुव और अप्रतिष्ठित थे। उस प्रजापति ने ईक्षण किया कि कैसे ये लोक ध्रुव तथा प्रतिष्ठित हों। उसने इन पर्वतों और नदियों से इस पृथ्वी को दृढ़ किया। वायु और मरीचियों (रश्मियों) ने अन्तरिक्ष लोक को तथा जीमूतों और नक्षत्रों ने दिव लोक को दृढ़ किया। भुवनकोश २५ शतपथ ब्राह्मण एवं जैमिनीय ब्राह्मण के वर्णन से लोकों के विषय में एक वैशिष्ट्य दृष्टिगोचर होता है। यहां सूर्य, चन्द्र के अलग-अलग लोकों के रूप में वर्णन मिलता है तथा ब्राह्मण के वर्णन से ज्ञात होता है कि सूर्य चन्द्र के साथ ही भूभ्रमण की अवधारणा भी स्पष्ट होती है। जहां बादल एवं विद्युत का स्थान पृथ्वी के समीप ही है जबकि सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रादि तेजवान् पुञ्जों का स्थान पृथ्वी से दूरतर है। __ स्वर्गमृत्युपातालादि लोकों का वर्णन वेदों में प्रायः नहीं मिलता है परन्तु पौराणिक साहित्य में सप्तपाताल एवं सप्त उर्ध्व लोकों का वर्णन विशद रूप से उपलब्ध होता है।
पुराणों में चतुर्दश लोकों का वर्णन
भूर्भुवादि चतुर्दश लोकों का वर्णन पुराणों में ठीक प्रकर से उपलब्ध होता है। पुराणों के अनुसार अनन्त ब्रह्माण्ड हैं प्रत्येक ब्रह्माण्ड मे चतुर्दश लोक विद्यमान हैं। पृथ्वी से आरंभ कर भू; भुव; स्व; मह; जन; तप; और सत्य ये सात ऊर्ध्व लोक हैं तथा अतल, वितल, सुतल तलातल, रसातल, महातल और पाताल ये सात अधो लोक हैं। पुराणों के अनुसार ऊर्ध्व लोकों में देवों का तथा अधो लोकों में असुरों का निवास कहा गया है। ये चतुर्दश लोक मध्य, ऊर्ध्व अधो लोकों के क्रम में विभाजित किये गये हैं। इनमें से भू लोक को मध्यलोक कहा गया है। पृथ्वी को छोड़कर ऊर्ध्व के छः लोकों को ऊर्ध्वलोक कहा गया है। अधो लोकों में उपर्युक्त सातों पाताल लोक कहें गये हैं। पुराणों में ‘भूर्भुवस्वः लोकों के समूह को कृतकत्रैलोकी, महर्लोक को कृतकाऽकृतक त्रैलोकी तथा “जनतपसत्य’ लोकों के समूह को अकृतकत्रैलोकी संज्ञा प्रदान की गयी है। सभी अधो लोकों को पाताल लोकों के नाम में जाना जाता है, इन्हें ही बलिस्वर्ग भी कहा गया है यथा ऊर्ध्वलोक सत्यलोक तपोलोक (ब्राह्मस्वर्ग) जनलोक (दिव्यस्वर्ग) महर्लोक (प्राजापत्यस्वर्ग) कृतका ऽकृतकत्रैलोकी स्वर्लोक (माहेन्द्रस्वर्ग) भुवलोक (भौमस्वर्ग) कृतम त्रैलोकी मध्यलोक भूर्लोक कृतकत्रैलोकी अकृतकत्रैलोकी १. भारतीय ज्योतिष पृष्ठ २२३ २. ऋ.सं० २/१२/०१, अथर्व सं० २०/३४/०२ ३. जैमिनीय ब्राह्मण १/३३४ ४. जैमिनीय ब्राह्मण ३/३४७ ५. शतपथ ब्राह्मण ७/१/१२४ शतपथ ब्राह्मण ११/८/१/२ १. वायुपुराण ४६/१५०, पद्मपुराण ७/२/१२, श्रीमद्भागवत २/५/३५/४२, श्रीमद्देवीभागवत स्कन्ध ८, पुराणपर्यालोचन पृ. १७३ तथा चतुर्दशलोक रहस्य पृ. ६, १० २७ २६ ज्योतिष-खण्ड अधोलोक : अतल वितल सुतल तलातल बलिस्वर्ग रसातल महातल पाताल पुराणों में भूर्भुर्वादि सात ऊर्ध्व लोकों की व्यवस्था तीन भागों में विभक्त की गयी है। ये तीन भाग हैं- रोदसी, क्रन्दसी, संयती। इनका वर्णन पुराणों एवं वेदों के आधार पर म. म.श्री गिरिधरशर्माचतुर्वेदी ने अपने ‘वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति; में भी प्रतिपादित किया है। जिस पर हम निवास करते हैं उसे पृथ्वी कहते हैं। इसे ही भूलोक भी कहा जाता है। यह भूलोक पूर्ण रूप से सूर्यमण्डल से आबद्ध है और इसी के आकर्षण के कारण यह अपने अक्षय भ्रमण एवं कक्षीय भ्रमण को पूर्ण करता है। सूर्यमण्डल को स्वर्ग अथवा स्वर्लोक भी कहा जाता है। भ और स्वर्लोक के मध्य के अवकाश स्थान को अंतरिक्ष या भवः कहते हैं। भूः, भुवः, स्वः इन तीनों की एक त्रिलोकी बनती है जिसे श्रुतियों में ‘रोदसी’ कहा गया है। यह रोदसी शब्द द्विवचनान्त रूप में उल्लिखित किया गया है। वस्तुतः इसमें दो लोक ही विद्यमान हैं भूः एवं स्वः अर्थात् पृथ्वी एवं सूर्य भुवः तो शून्य है। इसीलिए इसे द्विवचनान्त रूप में दिया गया है। इसी प्रकार सूर्य भी किसी अन्य प्रधान मण्डल से आबद्ध है। वह मण्डल है परमेष्टि मण्डल। परमेष्ठि मण्डल को ही ‘जनलोक’ या जनः शब्द से जाना जाता है। सूर्य और जन लोक के मध्य अन्तरिक्ष को ‘मह’ लोक के नाम से जाना जाता है। स्वः, महः, जनः इन तीनों की दूसरी त्रिलोकी कही जाती है जिसे श्रुतियों में ‘क्रन्दसी’ नाम से जाना जाता है। क्रन्दसी शब्द भी द्विवचनान्त प्रयोग ही है। इस त्रिलोकी में सूर्यमण्डल (स्वः) एवं परमेष्ठिमण्डल (जनः) के कारण ही इसे भी द्विवचनान्त प्रयोग किया गया है। परमेष्ठि मण्डल (जनः) भी किसी अन्य प्रधान मण्उल से आबद्ध है और उस मण्डल का नाम है स्वयंभू मण्डल। स्वयंभू मण्डल को ही ‘सत्यलोक’ या सत्यम् कहा गया है। परमेष्टि मण्डल एवं स्वयंभू मण्डल के मध्य के अंतरिक्ष को श्रुतियों में तपः के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार सात लोकों का वर्णन मिलता है। उक्त वर्णन में दो लोकों का नाम दो बार आया है। इन सातों का स्मरण वेदानुयायी सन्ध्योपासना में सात व्याहृतियों के रूप में करते हैं। भूः, भुवः स्वः, महः, जनः तपः सत्यम् में चर मण्डल एवं तीन अन्तरिक्ष हैं। भुवः नामक अंतरिक्ष में एक मण्डल ‘सोममण्डल’ अर्थात् ‘चन्द्रमण्डल’ का वर्णन भी उपलब्ध होता है। चन्द्रमण्डल का भूमण्डल के साथ घनिष्ठ संबंध है। इसलिए कई स्थानों मे भुवः के स्थान भुवनकोश पर चन्द्र मण्डल का वर्णन उपलब्ध होता है। इस आधार परपांच मण्डल एवं दो अंतरिक्ष रह जाते हैं। तीन त्रिलोकियों, तीन पृथ्वियों एवं तीन घुलोकों का वर्णन ऋग्वेद संहिता के अनेकों मंत्रों में आया है।’ _ सप्त ऊर्ध्व लोकों के पारस्परिक समन्वय से स्पष्ट प्रतीति होती है कि एक लोक दूसरे लोक से पूर्णतया आबद्ध है। भूलोक स्वर्लोक से आबद्ध है अर्थात् बिना स्वर्लोक (सूर्यमण्डल) के भूलोक का अस्तित्व नहीं है। भू लोक के लिए स्वर्लोक का होना परमावश्यक है। स्वर्लोक बिना भूलोक के अपने अस्तित्व में रह सकता है परन्तु स्वः के बिना भू लोक नहीं रह सकता है। इसी प्रकार स्वर्लोक (सूर्यमण्डल) के लिए भी परमेष्ठिमण्डल का होना आवश्यक है। बिना परमेष्ठिमण्डल के स्वर्लोक का अस्तित्व समाप्त प्राय होगा। स्वर्लोक (सूर्यमण्डल) पूर्वरूप से परमेष्ठिमण्डल के आकर्षण के कारण ही अपनी कक्षा में घूमते हुए पूरे सौर परिवार के साथ आकशगंगा में गतिमान है। इसी तरह परमेष्ठिमण्डल (जन) लोक भी सत्यलोक (स्वयम्भूमण्डल) से पूर्णरूपेण आबद्ध है। बिना सत्य के परमेष्ठिमण्डल (जन) का अस्तित्व नहीं होगा। शुक्ल यजुर्वेद मे परमेष्ठिलोक का व्यवहार धाता नाम से भी मिलता है। प्राचीन वैदिक ऋषि यह स्वीकार करते हैं कि सभी तारों, ग्रहों एवं नक्षत्रों की उत्पत्ति परमेष्ठी लोक से हुई है। सम्भवतः आधुनिक वैज्ञानिक इसी परमेष्ठी (धाता) लोक को ‘स्पायरल नौबुला’ (काश्यपी नीहारिका) के रूप में स्वीकार करते हैं तथा मानते हैं कि सूर्य सहित सभी ग्रहों की उत्पत्ति आकशगंगा के एक पार्श्व में स्थित काश्यपी नीहारिका से हुई है। इस मत का प्रतिपादन पुराण भी करते हैं। ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है कि ‘चन्द्र ऋक्षाः ग्रहाः सर्वे विज्ञेयाः सूर्य-सम्भवाः । ऋग्वेद की एक ऋचा में तीन अंतरिक्ष एवं तीन लोकों का वर्णन प्राप्त होता है। ऊर्ध्व लोकों की अपेक्षा पाताल लोकों का वर्णन सामान्य जनों की मान्यता से भिन्न मिलता है। सामान्य जनों की मान्यता के अनुसार पाताल लोक सदा अंधकार से आच्छन्न रहते हैं तथा प्राणियों के निवास के लिए अयोग्य स्थान हैं। परन्तु पुराणों में इस अवधरणा के विपरीत वर्णन उपलब्ध होता है। विष्णु एवं बह्मपुराण में वर्णन मिलता है कि पाताल लोक स्वर्गलोक से भी अधिक सुरम्य एवं सुन्दर है। १. तिस्त्रों मातृस्त्रीन् पितृन् बिभ्रदेकं, ऊर्ध्वस्तस्थौ नेमव ग्लापयन्ति। मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वविदं वाचमविश्वमिन्वाम्। ऋग्वेद १/१६४/१०, तिस्त्रो भूमीर्धारयन्त्रीरुत यून् त्रीणि व्रता विदध्ये अन्तरेषाम् । ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु।। ऋग्वेद २/२७/८ २. ब्रह्माण्ड पुराण २४/४६ ३. त्रिरन्तरिक्षं सविता महित्वना त्रीरजांसि परिभूस्त्रीणि रोचना। तिस्त्रो दिवः पृथिवीस्तिस्त्र इन्वति त्रिभिव्रतैरभि नो रक्षति त्मना।। ऋग्वेद ४/५३/०५ ज्योतिष-खण्ड भुवनकोश २६ । उत्तर भवन महामेरु स्वर्लोकादपि रम्याणि पातालानीति नारदः। प्राह स्वर्गसदोमध्ये पातालेभ्यो गतो दिवम् ।।’ पुराण विमर्श में पं० श्री बलदेव उपाध्याय ने पाताल लोकों की भौगोलिक स्थिति पर विचार करते हुए प्रतिपादित किया कि पाताल की पहचान समग्र पश्चिमी गोलार्थ से की जा सकती है जिसे आजकल अमेरिका महाद्वीप के नाम से पुकारा जाता है। श्रीमदभागवत पुराण के अनुसार अतल नामक पाताल लोक में मय नाम का असुर रहता है। यह प्रामाण्य सारवान् प्रतीत होता है, क्योंकि मध्य अमेरिका के मुख्य देश मेक्सिको की प्राचीन संस्कृति मय संस्कृति के नाम से विख्यात है और आज भी लोग अपनी प्राचीन संस्कृति के उपासक है। मय, भव्य एवं अद्भुत प्रसादों का निर्माता अर्थात् असुरों का अभियन्ता (इंजीनियर) था। मेक्सिकों तथा पेरु आदि देशों की समृद्ध शिल्पकला तथ भास्कर्यकला के प्रसादों का निरीक्षण कर आधुनिक शिल्पशास्त्री आश्चर्यचकित हो उठते हैं। विशद कलाकृतियों की विस्मयकारिणी समृद्धि की सत्ता के कारण ही मय असुर को मायावी भी कहा जाता था। मैक्सिको वासियों का रहन-सहन, खान-पानादि व्यवस्था आज की भारतीयों जैसा ही है। अतः समग्र अमेरिका की पाताल से साम्यता करना सर्वथा सत्य, प्रामाणिक एवं युक्तिसंगत ज ऐसलैंड /प्रटिश टापू कुलसस कास्पयन … ..xx., . . . . . सहारा… . . अ दुस्थान सा ग र सिताना मा गर मैदागास्कर सिंहलतका तला तल पण दीप नरक लोक रसातत पण्डित प्रवर अनन्त शास्त्री फड़के ने इस भूमण्डल में ही ऊर्ध्व एवं अधोलोकों की कल्पना प्रस्तुत की है। उनके कथनानुसार उत्तरी गोलार्ध में ऊर्ध्व लोक और दक्षिणी गोलार्ध में अधः लोक (पाताल) हैं। फड़के के लेख एवं मानचित्र से काल्पनिक पाताल एवं नरकलोकों की स्पष्ट स्थिति परिलक्षित होती है। इन्होंने नरकलोकों को कल्पना के संदर्भ में श्रीमदभागवत का एक अंश उद्धृत किया है। __ भास्कराचार्य ने चतुर्दशलोकों के प्रसंग में सिद्धान्तशिरोमणि में पुराणों के मत का प्रतिपादन करते हुए उसे सम्यक् प्रकार से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। इन्होंने पाताल लोकों का वर्णन भी पुराणों के ही अनुसार दिया है। पाताल लोकों के विषय में आधुनिक भूभागों से तुलना करते हुए श्री प० मीठालाल ओझा ने एक सम्यक् वर्णन प्रस्तुत किया है। जो इस प्रकार हैं: जीवा आस्टेलिया . महातल। कि यम लोक टाकावYA जम्बूदीप-भारतवर्ष- भारत-पाताल नरकयोधक मानचित्र चित्र-1 ३. श्रीम १. ब्रह्मपुराण २१/४, विष्णुपुराण २/५/५ २. पुराणविमर्श पृ. ३४४-३४५ श्रीमद्भागवत ५/२६/४, (चित्र-१) ४. गोलाध्यये ३/४३ ५. सिद्धान्तशिरोमणेः गोलाध्यये भुवनकोशः २३/२४ ६. सरस्वती सुषमा ३/४, २०/८/६६३० ज्योतिष-खण्ड भुवनकोश प्राचीन १. अतल २. वितल ३. नितल ४. गभस्तल ५. महातल ६. सुतल (श्रीतल) ७. पाताल आधुनिक सुमात्रा बोर्नियो जावा मलाया, इण्डोनेशिया आस्ट्रेलिया न्यूगिनि न्यूजीलैण्ड ‘तीन लोकों की रचना सिदः अलोका का शः मक का नविस्तत एकराजू कोशमक विपर कोरादाय विस्तृत लो ई आरणः आनराः महायक. ब्रम 3 प्राप्त प्रास्मसार सन्नाट श data पंचराजू प्रशाना का लो का काश मध्यलोक. (एकराजू अध्यात रत्नप्रमा. का
जैनमत में लोक परिकल्पना
इस प्रसंग में जैनों का मत भी विचारणीय है। उनके कथनानुसार पृरुषाकृति में लोक सन्निविष्ट हैं। कटि भाग से ऊपर उर्ध्व लोक तथा कटि भाग के नीचे अधोलोक का स्थान उन्होंने वर्णित किया है। जैन पुराणों में लोकों का विभाजन ‘राजू’ नामक पद द्वारा किया गया है। सूर्यकिरणों से प्रकाशित होकर इस भूमण्डल मे प्राणीमात्र का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। कुछ आचार्यों के कथनानुसार मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि सभी ग्रहों तथा चन्द्रादि सभ उपग्रहों की समष्टि का नाम ही चतुर्दश लोक हैं। लोगों ने इस प्रकार के चतुर्दश लोकों के वर्णन को आध्यात्मिक विषय के रूप में स्वीकार किया है। योगशास्त्रानुसार ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ के सिद्धान्त के अनुरूप सभी सात ऊर्ध्व लोक एवं सात अधो लोक शरीर में ही स्थित हैं और इन सबका नियमन सत्यलोक से होता है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड में भी समस्त लोकों का संचालक सुदूर स्थित सत्य लोक ही है। पुराणों में भूगोल एवं खगोल का वर्णन अत्यन्त सारगर्भित एवं मार्मिक प्रतीत होता है। वाल्मीकि रामायण में भतल की एवं मध्य एशिया की संक्षिप्त व्याख्या मिलती है। महाभारत एवं पुराणों के भुवनकोश नामक खण्ड में भौगोलिक वर्णन के साथ साथ पृथ्वी के आकार, प्रकार विस्तार उसके खण्ड, द्वीप, सागर, पर्वत एवं नदियों के साथ ही द्वीपों के उप विभागों के वर्णन भी उपलब्ध होते हैं। ऋग्वैदिक काल में मध्य एशिया का भी पर्याप्य ज्ञान था। इस सम्पूर्ण भूभाग को आधुनिक भूगोल जम्बूद्वीप के नाम से जानते हैं। जम्बूद्वीप के साथ सभी द्वीपों का वर्णन प्रायः सभी पुराणों में उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य में भी जम्बू, पुष्कर, शाक द्वीपों एवं मेरु पर्वत का वर्णन मिलता है। पुराणों में सात द्वीपों एवं वालकाप्रमा शकराप्रभा पकप्रभा लो धूमप्रमा है म तमप्रभा महातम प्रमा MP. TT घनघिधिवातवसम.. धम्मवावस्य तन्यासयतया 2000 संजन, विस्तृत 20000 योजन - विस्ता 20000 योजन-विसात __ का लो . का . श चित्र-2 १. भारतीय सृष्टिविद्या पृ. ६ (चित्र २) २. चतुर्दशलोकरहस्य पृ. १ ज्योतिष-खण्ड सात समुद्रों का वर्णन विस्तृत रूप से दिया गया है। भूगोल ज्ञान में सर्वाधिक सहायक इकाई अक्षांश और देशान्तर हैं जिसके आधारपर समग्र पृथ्वी की स्थिति का ज्ञान सम्यक् प्रकार से हो पाता है। आक्षांश देशान्तर एवं दिशा का ज्ञान भारतवर्ष में आदिकाल से ही उपलब्ध होता है। इनअवयवों का स्पष्ट प्रयोग सर्वप्रथम आर्यभट्ट के आर्यभट्टीयम् एवं वराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिका में मिलता है। पौराणिक काल में वर्णन मिलता है कि लंका पूरे भूण्डल के मध्य के स्थित है। वस्तुतः यहां मध्य का अभिप्राय भूमध्य रेखा से है। पृथ्वी के मध्य में लंका स्थित है का दूसरा अभिप्राय है कि लंका शून्य अक्षांश पर स्थित है। तभी वह मध्य में स्थित होगा। पुराणों में वर्णित विषुवत् वृत्तीय (शून्य अक्षांशीय) लंका से ६० अंश की दूरी पर ‘यमकोटी’ यहां से ६० अंश की दूरी पर सिद्धपुर तथा यहां से ६० अंश की दूरी पर रोमकपत्तन नामक नगर स्थित है। ये चारों नगर निरक्षवृत्तीय है तथा इन सभी से नब्बे अंश उत्तर मे मेरू स्थित है। यह मेरू जम्बू द्वीप के मध्य में स्थित है। जम्बू द्वीप के नौ खण्ड हैं। भास्कराचार्य ने अपनी सिद्धान्त शिरोमणि में इसका वर्णन किया है। इन्होंने पुराणों के अनुरूप ही भवनकोश का लेखन किया है। इनका समर्थन श्रीपति भी करते हैं।’ यह भूगोल सौम्य एवं याम्य विभाग से दो भागों में विभक्त है। किसी भी गोल में तीन केन्द्र निश्चित होते हैं एक गर्भीय केन्द्र तथा दो पृष्ठीय केन्द्र। पृष्ठीय केन्द्र ही ६ गुवों के नाम से जाने जाते हैं। गोल के किसी भी वृत्त को बनाने में तीन केन्द्र नियामक होते हैं परन्तु सामान्यतया लोग उत्तरी गोलार्ध को उत्तरी ध्रव से तथा दक्षिणी गोलार्ध को दक्षिणी ध्रुव से जोड़कर देखते हैं। उत्तर और दक्षिण की विभाजक रेखा शून्य अक्षांश रेखा (भूमध्यरेखा) होती है। इसी के सामानान्तर आकाश की विभाजक रेखा को नाड़ीवृत्त या विषुवत् रेखा कहते हैं। इसी शून्य अक्षांश (निरक्ष) वृत्त के ऊपर चार बिन्दु चार दिशाओं के वाचक के रूप में होते हैं। भास्कराचार्य के अनुसार “लंका कुमध्ये” अर्थात् लंका पृथ्वी के मध्य में स्थित है। इससे पूर्व ६० अंश पर “यमकोटी” तथा इससे पश्चिम ६० अंश पर “रोपकपत्तन’ नामक नगर स्थित हैं तथा लंका से १८० अंश के अन्तर में (ठीक नीचे) सिद्धपुर स्थित है। इन सभी स्थानों से ६० अंश उत्तर में सुमेरू तथा ६० अंश दक्षिण में कुमेरू स्थित है। आज की लंका नगरी अथवा लंका नामक देश भूमध्य रेखा पर नहीं है। वस्तुतः पौराणिक लंका तत्कालीन शून्य देशान्तर एवं शून्य अक्षांश रेखा के सम्पात बिन्दु पर स्थित थी। इस आधार पर उस समय की शून्य देशान्तर रेखा थानेश्वर, कुरुक्षेत्र उज्जैन से होते हुए जहां भूमध्य रेखा को काटती थी उसी स्थान पर लंका स्थित थी। आज इस स्थान पर कोई देश एवं भूभाग नहीं मिलता है यह मानचित्र को देखने से ही ज्ञात हो जाता है। आज भुवनकोश की लंका उस स्थान से पूर्व और उत्तर पूर्व में खिसकी अथवा वहीं जलमग्न हो गयी, यह पृथक् से एक शोध का विषय है। खिसकाव भी सम्भव है क्योंकि भूगर्भशास्त्र के अनुसार द्वीपों का खिसकना एवं लुप्त होना एक सामान्य प्रक्रिया है। आज लंका से पूर्व ६० अंश पर कोई द्वीप नहीं है। पश्चिम में भी शून्य अक्षांश रेखा पर कोई द्वीप नहीं है। लंका से १८० अंश पर भी कोई द्वीप भूमध्य रेखा पर नहीं दिखाई देता है। वस्तुतः लंका, यमकोटि, सिद्धपुर तथा रोमक पत्तन ये चार बिन्दु हैं जो भूमध्यरेखा पर शून्य देशान्तर और याम्योत्तर रेखाओं के सम्पात विन्दु हैं। इन्हें ही उक्तचार नगरों के रूप में कहा गया है। भूमध्य रेखा और शून्य देशान्तर के सम्पात विन्दु को मध्य में लंका पृष्ठभाग में सिद्धपुर, तथा इन बिन्दुओं से ६० अंश के याम्योत्तर रेखा और भूमध्य रेखा के सम्पात विन्दु को पूर्व में यमकोटि एवं पश्चिम में रोमकपत्तन कहा गया है। लंका से ६० अंश उत्तर में उत्तरी ध्रुव स्थान है जो सुमेरू के नाम से प्रसिद्ध है। इसके चारों तरफ का भाग ही इलावृत्त के नाम से जाना जा सकता है। कुछ विद्वानों के कथनानुसार “अपर मंगोलिया औरपूर्वी तुर्किस्तान का क्षेत्र इलावृत्त हो सकता है। लंका देश से ६० अंश दक्षिण में कुमेरु (दक्षिणी ध्रुवस्थान) है। इसके चारों तरफ का भाग ही पौराणिक वडवानल है, आज भी यहां केवल समुद्र ही है। यह पौराणिक धारणा आज भी सत्य ही प्रतीत होती है। ऐतरेय ब्राह्मण में उत्तरकुरु एवं कुरुभद्र का तथा बाल्मीकि रामायण में सीता अन्वेषण के समय सुग्रीव द्वारा समुद्र तटीयप्रदेशों के वर्णन से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय लोग खगोल एवं दूर देशों के भूगोल का भी ज्ञान रखते थे क्योंकि ब्रह्माण्ड की सीमा का सजीव वर्णन किया है।
उत्तरी गोलार्ध (प्राचीन अवधारणा)
प्राचीन भारतीय आचार्यों ने भूगोल को सौम्य, याम्य नाम से दो भागों में विभक्त किया है। उत्तर गोलार्ध सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन आचार्यों ने जम्बूद्वीप को नौ भागों में कल्पित किया है। इस सन्दर्भ का वर्णन आचार्य भास्कर ने अपनी सिद्धान्त शिरोमणि में इस प्रकार किया है, लंका के उत्तर में हिमगिरि उसके उत्तर में हेमकूट और इससे उत्तर में निषध पर्वत है। ये सब एक समुद्र से दूसरे समुद्र पर्यन्त दीर्घ हैं। इसी प्रकार सिद्धपुर से उत्तर में क्रमशः शृङ्गवान्, शुक्लगिरि और नीलगिरि पर्वत हैं। दो पर्वतों के मध्य प्रदेश में विज्ञ लोगों ने सभी वर्ष कहे हैं। शून्य आक्षांश पर स्थित लंका के उत्तर में भारतवर्ष, इसके उत्तर में किन्नर वर्ष और इसके उत्तर में हरिवर्ष हैं। सिद्धपुर से उत्तरोत्तर कुरु, हिरण्य और रम्यक वर्ष हैं। लंका से पूर्व स्थित यमकोटि से उत्तर में माल्यवान् और १. सि. शेखर १५, ३० २. सूर्यसिद्धान्त १/६२, लघुभास्कीयम् पृ. ८ १. भुवनकोश विमर्श पृष्ठ-१२० २. एतावद्वानरैः शक्यं गन्तुं वानरपुंगवाः। अभास्करममर्यादं न जानीमस्ततः परम्।। वाल्मीकि रामायण ३५ ३४ ज्योतिष-खण्ड भुवनकोश जम्बूद्वीप ( उत्तरगोलाई) लंका से पश्चिम में स्थित रोमकपत्तन से उत्तर में गन्धमादन नील और निषध पर्वत विस्तृत हैं तथा सभी वर्षों के उत्तर में स्थित पर्वतों के पश्चात इलावृत्त वर्ष है। माल्यवान् पर्वत और समुद्र के अन्तर्वर्ती स्थान को भद्राश्व वर्ष तथा गन्धमादन और समुद्र मध्य स्थित भूमिखण्ड को केतुमालवर्ष कहते हैं। निषध, नील, सुगन्ध और माल्य पर्वत द्वारा वेष्टित होकर इलावृत्त वर्ष शोभित हैं। काञ्चन द्वारा विचित्र रूपसे शोभित यही स्थान देवताओं की वासभूमि है।’ यही स्वर्ग भूमि के नाम से प्रसिद्ध है और इसीलिए इसे देव क्रीडागह भी कहते हैं। पं० मीठा लाल ओझा ने अपने “ज्योतिषीय-भूगोल-वर्णनम्” नामक लेख में प्राचीन और अर्वाचीन दृष्टि से द्वीपों के नामोल्लेख का अच्छा प्रयास किया है। यथा-लंका से उत्तर में भारतवर्ष, इससे उत्तर में हिमालय और इससे उत्तर में किन्नर वर्ष अर्थात् चीन देश है। किसी के मत में किन्नर देश को त्रिविष्टप अर्थात तिब्बत भी कहा गया है। इससे उत्तर में हरिवर्ष को रूस आदि देशों की संज्ञा दी है। किसी ने हरिवर्ष को ही चीन देश स्वीकार किया है। लंका से ठीक नीचे १८० अंश पर सिद्धपुर स्थित है। सिद्धपुर के उत्तर में कुरुवर्ष और इससे उत्तर में साइबेरिया के पर्वत एवं अरण्य के भाग मिलते हैं। कुरु वर्ष के उत्तर में हिरण्यवर्ष है जिसको लेखक ने दक्षिणी पूर्व साइबेरिया का भाग बताया है तथा हिरण्यवर्ष के उत्तर में स्थित रम्यकवर्ष को रानीसि नदी से लेकर बालकस झील तक के भू भाग को कहा है। यमकोटी के उत्तर में भद्रतुंग वर्ष है जिसको मंचूरिया देश कहा गया है। इसी प्रकार रोमकपत्तन के उत्तर में केतुमाल को रशियन टर्की स्थान कहा गया है। सभी वर्षों के उत्तर में इलावृत्त स्थित है, जिसको आज की दृष्टि से मंगोलिया का ऊर्ध्व भाग एवं पूर्वी टर्की प्रदेश कहा जा सकता है। । कुरुवरी हिरण्यवर्ष, ऋग्वान् गिरि जीलगिराक्तगिरि रोमपत्तन । केतुमाल मन्धमादन लावत. . सुमेरु माल्यवान kpat यमकोटि निराध हरिवर्ष हमकूट किन्नखपः हिमगिरि भारतवर्ष
पृथ्वी का दक्षिणी गोलार्ध
पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध में जम्बू द्वीप को छोड़कर शेष सभी द्वीप स्थित हैं क्षार समुद्र ही भूगोल को दो भागों में विभक्त करता है। पुराणों के अनुसार उत्तरी गोलार्ध में दानवों का निवास है। ग्रहलाघव की मल्लारी टीका में त्रिप्रश्नाधिकार के “गोलौस्तः सौम्ययाम्यौ" श्लोक की व्याख्या में लिखा है कि लंका से दक्षिण में मनुष्यों का संचार प्रायः नहीं है। अर्थात् वहां दानवों का वर्णन मिलता है। दक्षिणी गोलार्ध में क्षार समुद्र के उपरान्त दक्षिणाभिमुख चक्राकार सात समुद्र लवण, दुग्ध, दधि, घृत, इक्षु, मद्य, स्वादु हैं। इन दो समुद्रों मके मध्य में द्रोणाकार छह द्वीप स्थित हैं जिनका नाम शाक, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, गोमेद एवं पुष्कर हैं। ये सभी द्वीप उत्तरोत्तर दक्षिणाभिमुखी क्रम से हैं। जबकि पुराणों में लड्डा १. सि.शि.गो० भु. श्लोक २७.२८.२६ तथा ३० (चित्र ३) २. सरस्वती सुषमा, १६, ३-४, २०१८ ३. तत्रैव। ‘चित्र भुवनकोश ३७ ज्योतिष-खण्ड द्वीपों का क्रम इस प्रकार नहीं मिलता है। इन सभी द्वीपों का वर्णन भास्कराचार्य ने अपनी सिद्धान्तशिरोमणि में भी बड़े सुन्दर एवं मनोहर रूप से किया है। प्रायः श्रीपति आदि सभी ज्योतिष के आचार्यों ने भास्कराचार्य के सदृश ही इन द्वीपों का वर्णन अपेन अपने ग्रन्थों में किया है। धारसागर दुग्धसागर दधिसागर प्रतसागर मपसागर. स्वादुसागर बड़वानल कुमेरु कौशदीम कौञ्चदीप गेमेटद्वीप पुष्करदीप
पुराणों में वर्णित सप्त-द्वीपा पृथ्वी
प्राचीन भारत की भौगोलिक स्थिति का ऐतिहासिक विवेचन पौराणिक साहित्य में विस्तृत रूप से मिलता है परन्तु वह वर्णन आधुनिक दृष्टि से संगतिपकरक प्रतीत नहीं होता है। इसका कारण है कि पौराणिक साहित्य की भाष अत्यन्त गूढ, अलङ्कारिक एवं अनेकार्थी है। पुराणों के अनुसार यह पृथ्वी सात भागों में विभक्त है। यहीं सात भाग इसके सात द्वीप हैं। इसलिए पृथ्वी को सप्तद्वीपा वसुमती भी कहा गया है। ये द्वीप पृथक्-पृथक् रूपसे सागरों से आवृत हैं। वे सात द्वीप जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौञ्च, शाक तथा पुष्कर हैं। इन द्वीपों में जम्बू, प्लक्ष और शाल्मली तो वृक्षों का नाम है। कुश का अभिप्राय कुशा घास से है। क्रौञ्च एवं पुष्कर पर्वतों के नाम हैं। उपर्युक्त वर्णित द्वीपों में से जम्बू और पुष्कर को छोड़कर सभी द्वीपों में सात वर्ष और सात नदियां हैं। जम्बू द्वीप में भारतवर्ष जैसे नव वर्ष हैं। कुछ आधुनिक भौगोलिक विचारक पौराणिक जम्बूद्वीप को “यूरेशिया" महाद्वीप की संज्ञा देते हैं परन्तु पौराणिक भूगोल एवं ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ आचार्य भास्कर (द्वितीय) जम्बू द्वीप को उत्तरीगोलार्ध कहते हैं। उन्होंने गणितीय दृष्टि से भौगोलिक व्युत्पत्ति के साथ इस सत्य का प्रतिपादन बड़े ही सुन्दर ढंग से अपनी सिद्धान्त शिरोमणि के गोलाध्याय के भुवनकोश नाम उप-अध्याय में किया है। इसी सन्दर्भ मे विचार करते हुए पौराणिक भूगोल का अध्ययन कर अपनी पुस्तक “दि जीयोग्राफी ऑफ दि पुराणाज’ में डॉ० एस०एम० अली महोदय ने विभिन्न विचारकों के मतों का एक अच्छा तुलनात्मक अध्ययन किया है। जम्बूदीपेत्तर दीप” सागर" (दक्षिणगोलाई। चित्र-4 १. भुवनकोश विमर्शः पृ० १२५ । २. सि०शि०, गो०भू० श्लोक २१-२५। (चित्र-४) ३. भुवनकोश विमर्श पृ० १२८ । ४. सि०शि०गो०भु० श्लोक २६-३० ५. श्रीमद्भागवत का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २६०-२८७ जम्मू ब्रह्मा ३८ ज्योतिष-खण्ड सप्त महाद्वीपों के सन्दर्भ में विभिन्न मत द्वीप विचारक कृष्णमाचालु विल्फर्ड गेरिनी अली माधवाचार्य जम्बू भारतवर्ष भारतवर्ष यूरेशिया यूरेशिया काश्मीर एवं पंजाब प्लक्ष वर्तमान टर्की, अराकान भूमध्यरेखीय आण्टेरेक्टिका पारसदेश आरमेनिया देश (ग्रीसादि) विक्टोरिया लैण्ड शाल्मलि उत्तर-पूर्व मध्य यूरोप मलाया पूर्वी अफ्रीका ग्रीनलैण्ड अफ्रीका यूनान फारस सुन्दाद्वीप ईरान-इराक दक्षिणी अमेरिका और चारों अफगानिस्तान समुदाय और समीपस्थ तरफ के देश देश क्रौञ्च पश्चिमी दक्षिणी यूरोप उत्तरी अमेरिका यूरोप चीन शक ब्रिटिश द्वीप इमाम (थाई) दक्षिणी-चीन आस्ट्रेलिया । साइबेरिया समूह कम्बोडिया एवं मलाया पुष्कर बुखारा क्षेत्र आइसलैण्ड उत्तरी चीन - अफ्रीका’
जम्बूद्वीप
पुराणों में जम्बूद्वीप का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। इनमें उसका धरातल, उसके वर्ष, पर्वत, घाटियों आदि का वर्णन मिलता है। प्रायः इस द्वीप का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त महाभारत, बाल्मीकि रामायण, शतपथ ब्राह्मण, जैनग्रन्थों त्रिलोक्य विज्ञप्ति, जम्बूद्वीप विज्ञप्ति, बौद्धग्रन्थों, धम्मपिटक, निकाय जातक आदि में तथा विदेशी यात्रियों मेगस्थनीज, फाह्यान, ह्वेनसांग आदि के द्वारा लिखित ग्रन्थों एवं यात्रा विवरणों के अतिरिक्त मौर्य एवं गुप्तकालीन प्रमुख साहित्यिक रचनाओं में जम्बूद्वीप का वर्णन विस्तृत रूप में दिखाई देता है। यद्यपि जम्बू द्वीप का वर्णन वेदों एवं उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में भी मिलता है परन्तु पौराणिक आचार्यों एवं मनीषियों ने इसका व इसके उपखण्डों का यथासम्भव विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है। इस द्वीप के नौ उपखण्ड हैं। जम्बू द्वीप के मध्य में सुमेरु पर्वत स्थित है। पुराणों के अनुसार इसका विस्तार एक लाख योजन कहा गया है। इस द्वीप में एक-एक हजार योजन के नौ वर्ष हैं। इलावृत्तवर्ष, भद्राश्व वर्ष, केतुमाल वर्ष, रम्यक वर्ष, हिरण्यवर्ष, उत्तरकुरु वर्ष, हरिवर्ष, किन्नरवर्ष (किम्पुरुष वर्ष) तथा भारतवर्ष। भुवनकोश
३६ पुराणोक्त इस जम्बूद्वीप को आधुनिक भौगोलिक विद्वान “यूरेशिया" नाम से जानते हैं। जम्बूद्वीप के मध्य में मुख्य पर्वत मेरु है। आधुनिक विद्वान इसे “पामीर" के नाम से जानते हैं। इनके कथनानुसार यहीं से चारों दिशाओं में पर्वत शृङखलाएं निकलती हैं। पौराणिक विवरण के अनुसार मेरु के चारों तरफ इलावृत्तवर्ष है। मेरु से पूर्व दिशा में भद्राश्व है। इसे आधुनिक भूगोलवेत्ताओं ने चीन देश कहा है। इसी प्रकार आगे भी अन्य वर्षों की संज्ञा आधुनिकों ने निश्चित की है जैसे पश्चिम दिशा में स्थित केतुमाल को ईरान, इराक एवं अरबदेशों का समूह, दक्षिण दिशा में स्थित भारतवर्ष, भारत से उत्तर में स्थित किन्नरवर्ष को तिब्बत का पठारीय भाग, हरिवर्ष को हिरात, रम्यकवर्ष को मध्य एशिया अथवा दक्षिण-पश्चिमी सिक्याङ्ग, हिरण्यवर्ष को उत्तरी सिक्याङ्ग, उत्तरकुरुवर्ष को उत्तरी कोरिया कहा है।’
०१. इलावृत्तवर्ष
जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित मेरु (सुमेरु) के चारों तरफ के भूभाग का नाम ही इलावृत्तवर्ष है। इस प्रसंग में श्रीमद्भागवत में महर्षि वेदव्यास ने विस्तृत वर्णन किया है। यहाँ पर उल्लिखित है कि यह वर्ष जम्बूद्वीप के मध्य में मेरु के चारों तरफ स्थित है। इस जम्बूद्वीप के नौ वर्ष नौ सहस्र योजन विस्तार वाले आठ पर्वतों से विभक्त है। मध्य में इलावृत्त स्थित है। इसे भूमण्डल रूपी कमल की कर्णिका रूप में वर्णित किया गया कुश क्रौञ्च यूरोप यूरोप रूस,
इलावृत्त के उत्तर में क्रमशः नील, श्वेत एवं श्रृङ्गवान् नाम के तीन पर्वत हैं जो रम्यक हिरण्यमय और कुरु नामक वर्षों की सीमायें बांधते हैं। ये पर्वत पूर्व से पश्चिम तक समुद्र में घुसे हुए हैं। इसी प्रकार इलावृत्त के दक्षिण की ओर क्रमशः निषध, हेमकूट और हिमालय पर्वत है। ये पर्वत भी पूर्व से पश्चिम तक समुद्र में फैले हैं। ये पर्वत १०-१० हजार योजन ऊँचे हैं। इन पर्वतों से क्रमशः हरिवर्ष, किम्पुरुषवर्ष और भारतवर्ष की सीमाओं का विभाजन होता है। इलावृत्त के पूर्व और पश्चिम की ओर माल्यवान एवं गन्धमादन पर्वत है जो उत्तर देक्षिण को फैले हुए हैं। इनकी चौड़ाई दो-दो हजार योजन है। ये पर्वत भद्राश्व वर्ष एवं केतुमालवर्ष की सीमायें निश्चत करते हैं। इसी प्रकार इलावृत्त में सुमेरु के चारों तरफ पूर्वादि क्रम से चार वृक्ष, चार शैल, चार वन और चार सरोवर स्थित हैं।’ दक्षिण पश्चिम उत्तर कदम्ब जम्बू पिप्पल मन्दराचल विपुल वट । सुगन्ध सुपार्श्व १. भौगोलिक विचार धारायें एवं विधि तन्त्र, पृ. १४१-१४५ (चित्र ५)। २. श्रीमद्भागवत ५/१६/६-८ ३. श्रीमद्भागवत ५/१६/६-२० ४. भुवनकोशविमर्श, पृ. १३१ (चित्र ६) १. पुराणदिग्दर्शन, पृ० ७५७ ४१ ४० ज्योतिष-खण्ड भुवनकोश कदम्बवन मन्दराचल शैल कतमालवर्ष जम्बूदीप पिप्पलवून सपाश्व रोल वैभाजयवन श्वेतजल सर. किमी. तरथ वन अरुण सर 400 S दरिया यूराल पक्त सुमेरु () नागद्वीप इन्द्रद्वीप चित्र-5 17 श्रृंगवान् । मानस सर’ नन्दन वन गंध शैल महावदः धृतवन विपुल रोल वट वृक्ष किपुस्प वर्ष त्यानस्यान जम्बूवृदा भद्राश्ववर्ष . वरुणद्विीप स्तानोवोई चित्र ४२ ज्योतिष-खण्ड ४३ वैभ्राज श्वे त चैत्ररथ नन्दन घृत अरुण मानस महाद _ आधुनिक विचारकों के अनुसार यह मध्य एशिया का भाग है। सम्भवतः कुछ हजार वर्ष पूर्व यहाँ अधिक आर्द्रता रही होगी। पामीर के पठार के आसन्न का यह भाग है, इसे ही इलावृत्त वर्ष कहते हैं।’
०२. भद्राश्ववर्ष
यह वर्ष मेरु के पूर्व में केतुमाल के ठीक समरूप वर्गाकार माल्यवान् एवं क्षार समुद्र के मध्य में स्थित है। वर्तमान में इसे “पूर्व एशिया" कहा जाता है। वर्तमान चीन देश पूर्व एशिया में स्थित है अतः चीन देश ही भद्राश्व वर्ष है। प्रो० अली के अनुसार “तारीम एवं हांगहों’ नदियों का मध्यस्थ प्रदेश इस समय का सम्पूर्ण सिक्यांग और चीन का उत्तरी भूभाग भद्राश्व वर्ष है। भद्रा वर्ष का सीमावर्ती नील पर्वत “त्यानशेन’ पर्वत है। वादडलवरको-लकरपिक-ताद्य पर्वत इसी में सन्निहित हैं। निषध पर्वत श्रृङ्खला कुनलुन” पर्वत श्रृङ्खला है। महाभारत में वर्णन मिलता है कि महाराजा युधिष्ठर का राज्य निषध पर्वत तक था। तारीम पश्चिमी वांगहो एवं मध्य चीन की नदियों के उद्गम क्षेत्र का उत्तरी भाग इसी में आता है। नानशान, पीशान, सिगलिंग अलिन टांग आदि पर्वतों की श्रेणियाँ माल्यवान् (देवकूट) के ही वर्तमान नाम हैं। ये प्रायः उत्तर पूर्व से दक्षिण की ओर फैले हुए हैं। ये श्रेणियाँ नील एवं निषध हैं जो सम्प्रति क्रमशः थियानशान एवं कुनलुन के नाम से जानी जाती हैं। नील पर्वत की श्रेणियाँ इस समय के जफरसान, तुर्किस्तान, अलाई एवं ट्रांस अलाई की श्रेणियाँ हैं। इस वर्ष की सीता नदी प्रमुख नदी है। इसकी उत्पत्ति मेरु मन्दर से हुई है। यह झरने बनाती हुई पूर्व की ओर बहती है। तारीक एवं कारगर नदियां ही सम्भवतः सीता नदी है। निकट की किसी शुष्क नदी की घाटी भी सम्भव है क्योंकि वायु पुराण के अनुसार सीता नदी बीच बीच में अदृश्य हो जाती है। यह यांगसी नदी की ऊपरी घाटी भी हो सकती है जो तारीम से पूर्व में एवं हांगहो से काफी दक्षिण में बहती है। यह झरने भी बनाती है। यह नदी रेड वेसिन में कई शाखायें बनाती हुई बहती है। उपर्युक्त वर्णन को सार रूप में कहने पर कह सकते हैं कि भद्राश्व वर्ष के अन्तर्गत सिंक्याङ्ग मध्य पश्चिमी चीन के पर्वतीय अर्द्ध शुष्क भाग व यांगसी नदी की ऊपरी मध्यवर्ती घाटी एवं इसका समीपस्थ भाग आता है।
०३. केतुमालवर्ष
यह वर्ष मेरु एवं इलावृत्त के पश्चिम में स्थित है। इलावृत्त एवं केतुमाल को पृथक् करने वाला पर्वत गन्धमादन हैं। यहीं कामदेव निवास करते हैं। पुराणों के अनुसार इसके उत्तर मे नीलगिरि, पूर्व में गन्धमादन, दक्षिण में निषध एवं पश्चिम में भुवनकोश सागर स्थित है। केतुमाल जम्बूद्वीप का मध्य पश्चिमी भाग है। पुराणों के अनुसार इसकी आकृति चापाकार है। पौराणिक वर्णन पढ़ने से लगता है कि यह भाग अत्यधिक जटिल रचना वाला भू-भाग है। निषध एवं नील पर्वतों के बीच का यह पश्चिमी भाग पामीर से पश्चिम मध्य ऐशिया की जटिल रचना से मेल खाता है। यहाँ की छोटी-छोटी श्रेणियाँ पुराणों के अनुसार परियन्त्र, पिंजर, कपिल, वेदमाला, विपुल मुकुट, कृष्ण मुकुट, अंजन आदि हैं। प्रो० अली के अनुसार केतुमाल की बनावट मध्य ऐशिया से मेल खाती है।’ यहाँ की प्रमुख नदी “चाक्षु” है। यह सुमेरु के पश्चिमी भाग से निकलकर गन्धमादन की परिक्रमा करते हुए केतुमाल के मध्य पश्चिमी भाग में गिरती है। प्रो० अली के अनुसार यह सर दरिया नदी है। इसे अन्य नदियों से पवित्र माना गया है। इनके अनुसार केतुमाल वर्ष की सीमा आज की दृष्टि से इस प्रकार निश्चित की जा सकती है जैसे केतुमाल के दक्षिण में हिन्दुकुश एवं कुनलुन पर्वतमाला, उत्तर में जफरसेन एवं तियेनसेन पर्वतमाला, पूर्व में गन्धमादन एवं पश्चिम में कैस्पियन सागर स्थित है।
०४. रम्यकवर्ष
इलावृत्त के उत्तर में नील एवं शुक्ल पर्वतों के मध्य में यह वर्ष स्थित है। इलावृत्त एवं रम्यक वर्ष का विभाजक पर्वत नीलगिरि है। श्रीमद्भागवत पुराण में कहा है ‘उत्तरोत्तरेणेलावृतं नीलः श्वेतः श्रृङ्गवानिति” । आदि मनु ने इसी वर्ष में भगवान मत्स्यावतार के दर्शन किये। पुराणों में वर्णन मिलता है कि मनु आज भी इस वर्ष में मत्स्यावतार की उपासना करते हैं। श्री एस.एम. अली के अनुसार नूरतोआ-तुर्किस्तान जरफशान श्रेणियों से आवृत यह प्रदेश है। वाल्मीकि रामाण में इस वर्ष का वर्णन बहुत कम मिलता है। जबकि महाभारत, मत्स्य, मार्कण्डेय एवं वायु पुराण में इसका पर्याप्त वर्णन मिलता है।
०५. हिरण्यमयवर्ष
रम्यक वर्ष के उत्तर में शुक्ल एवं श्रृङ्गवान् पर्वतों के मध्य का भाग यह वर्ष है। इस वर्ष के पूर्व एवं पश्चिम में क्षार सागर है। अली महोदय के अनुसार पौराणिक हिरण्यमयी नदी ही जरफशान है। हिरण्य एवं जरफशान समानार्थक शब्द हैं। अतः सोवियादना और जफरशान के मध्य के भूभाग को ही हिरण्यमय वर्ष कहा जा सकता १. भौगोलिक चिन्तन एवं विधि तन्त्र, पृ. १६६ २. भुवनकोश विमर्ष, पृ. १३३ ३. श्रीमद्भागवत का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. २६०-२८२ १. भौगोलिक चिन्तन एवं विधि तन्त्र, पृ. १६७-१६८ २. श्रीमद्भागवत का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २६०-२८२ ३. श्रीमद्भागवत ५/१८/२४ ४. भुवनकोशविमर्श, पृ. १३४ श्रीमद्भागवत का सांस्कृतिक अध्ययन पुं० २६५ ५. श्राम ४४ ४५ ज्योतिष-खण्ड .
०६. उत्तरकुरुवर्ष
यह वर्ष हिरण्यमय वर्ष के उत्तर में स्थित है। हिरण्यमय वर्ष एवं उत्तरकुरु वर्ष का विभाजक पर्वत श्रृङ्गवान् गिरि है। श्रीमद्भागवत पुराण में कुरु एवं उत्तर कुरु वर्ष का वर्णन उपलब्ध होता है। जम्बू द्वीप के उत्तर में उत्तरकुरु प्रदेश में भगवान् बराह रूप में निवास करते हैं। इस प्रदेश की दक्षिण दिशा को छोड़कर सर्वत्र क्षार सागर विद्यमान है।’ पौराणिक वर्णन के अनुसार वर्तमान एशिया का उत्तरी भाग ही उत्तरकुरु भाग ही उत्तरकुरु वर्ष है। प्रो० अली के अनुसार पूर्वी साईबेरिया नामक प्रदेश ही उत्तर कुरु वर्ष हो सकता है।
०७. हरिवर्ष
मेरु के दक्षिण पार्श्व में निषध एवं हेमकूट पर्वतों के मध्य में यह वर्ष स्थित है। यहाँ भगवान् नृसिंह रूप में निवास करते हैं। पौराणिक वर्णनानुसार यह वर्ष हेमकूट पर्वत के उत्तर में स्थित है। आधुनिक भौगोलिकों के अनुसार आज की लद्दाखकैलाशपर्वत श्रृङ्खला ही हमेमकूट पर्वत है। पौराणिक वर्णनानुसार यह वर्ष हिमालय के उत्तर पार्श्व में और कुनलुन पर्वत के दक्षिण में स्थित चीन देश के दक्षिणी प्रदेशों तक विस्तृत है। महाभारत के वर्णनानुसार अर्जुन इस वर्ष तक दिग्विजय के उद्देश्य से गया था।
०८. किन्नरवर्ष
इस वर्ष के उत्तर में हेमकूट एवं दक्षिण में हिमगिरि नामक पर्वत है। हिमगिरि ही हिमवान एवं हिमालय के नाम से जाना जाता है। इस वर्ष के पूर्व एवं पश्चिम में क्षार समुद्र है। यही राम भक्त हनुमान निवास करते हैं। पुराणों के अनुसार हिमालय के उत्तर में किन्नर वर्ष स्थित है। सम्प्रति किन्नर वर्ष के लक्षण लद्दाख और तिब्बत में दिखाई देते हैं।
०९. भारतवर्ष
भारतवर्ष जम्बू द्वीप के दक्षिण भाग में स्थित है। भारत के उत्तर में हिमगिरि (हिमालय) नामक पर्वत विराजमान है। महाभारत के अनुसार इस देश का नाम दुष्यन्त-शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम से ही भारतवर्ष हुआ। भुवनकोश उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तन्तिः।। जैन ग्रन्थ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में इसे भरतखण्ड या भरतक्षेत्र के नाम से पुकारा गया। पुराणों एवं जैन ग्रन्थों के अनुसार सम्पूर्ण भरतखण्ड को सर्वप्रथम ऋषभदेव के पुत्र महाराजा भरत ने जीता इसलिए इस खण्ड का नाम भारतखण्ड पड़ा।’ उक्त आख्यानों के अतिरिक्त भारतवर्ष का पुराणों में विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। जम्बू द्वीप के इस भाग में गंगा, सिन्ध एवं अन्य कई नदियाँ बहती हैं। जैसा कि ऋग्वेद के नदी सूत्र से स्पष्ट होता है। यहाँ पर गंगा, सरस्वती, पयोष्णी, असिक्नी, सिन्धु, वितस्ता, शतुद्री ताप्ती एवं नर्मदा के नामोल्लेख हैं। पुराणों के अतिरिक्त महाभारत, रामायण एवं काव्ग्रन्थों आदि में भी भारतवर्ष का विस्तृत वर्णन मिलता है। पुराणों को ही आधार मानकर भाष्कराचार्य ने भी अपनी सिद्धान्त शिरोमणि में इस वर्ष का विशद वर्णन किया है। जिसमें भारतवर्ष के अन्तर्गत ऐन्द्रादि नौ भागों का अच्छा विवेचन किया है। इन नौ भागों में पर्वतों की स्थिति का वर्णन भी प्रदर्शित किया गया है। पुराणों में भारतवर्ष की विस्तृत व्याख्या की गयी है।
जम्बूद्वीप के आठ उपद्वीप
जम्बूद्वीप के आठ उपद्वीप भी कहे गये हैं जो इस प्रकार हैं स्वर्णप्रस्थश्चन्द्रशुक्ल आवर्तनो रमणसो। मन्दरहरिणः पाञ्चजन्यः सिंहलो लङ्केति।’ डॉ० एस०डी० कौशिक महोदय ने प्रतिपादित किया है कि जम्बूद्वीप के सीमा प्रदेशों में जो द्वीप हैं वे ही उपद्वीप स्वर्णद्वीप (सुमात्रा), चन्द्रशुक्ल (फिलिपाइनद्वीपा), आवर्तन (ब्रिटिशद्वीप), रमणक (नार्वे, स्वीडन देश), मन्दरहरिण (नोवाया जेमलया), पाञ्चजन्य (जापान), सिंहल (श्रीलंका) तथा लङ्का (सम्प्रति अज्ञात) हैं।
जम्बूद्वीप की नदियाँ
इस द्वीप में चार प्रमुख नदियाँ प्रसिद्ध हैं। जैसे- १. सीता, २. चक्षु, ३. भद्रा, ४. अलकनन्दा। पुराणों के अनुसार विष्णुपादोद्भवा गंगा सर्वप्रथम अन्तरिक्ष (स्वर्ग) में मेरू पर शकुन्तलायां दुष्यन्ताद् भरतश्चापि जज्ञिवान्। यस्य लोके सुनाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम् ।। (महाभारत, आदिपर्व ७४/१३१) पुराणों में इस वर्ष को अजनाभ वर्ष के नाम से भी जानते हैं। जैसा कि भागवत पुराण में कहा भी है- “अजनाभं नामैतद्वर्ष भारतमिति यद् आरभ्य व्यपदिशन्ति।" इस वर्ष मे रहने वालों को भारती नाम से जाना जाता था। १. श्रीमद्भागवत ५/१६/८/३४ २. श्रीमद्भागवत का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. २६०-२८२ ३. महाभारत, आदिपर्व, ७४/१३१ १. श्रीमद्भागवत ११/१६/१७, लिङ्गपुराण ४७२/२-२४, मार्कण्डेय पुराण ५३/३६, वायुपुराण ३३/५१-५७ २. सि.शि. गोत्रभ. श्लोक ४१/४२ ३. श्रीमद्भागवत ५/१६/३०। ४. बेचन दूबे, जियाग्राफिकल कॉन्सेप्ट्स इन एन्स्येण्ट इण्डिया, पृ० ८४। ज्योतिष-खण्ड ४७ भुवनकोश हिमालय पर्वतों से होकर भारतवर्ष में आती है। वास्तविक दृष्टि से देखें तो अलकनन्दा अलकापुरी से होकर भगवान नारायण के चरणों को स्पर्श करती हुई बदरीधाम से आगे बढ़कर विष्णुप्रयाग में धौली गंगा से नन्दप्रयाग में नन्दाकिनी से कर्णप्रयाग में पिण्डर से तथा रुद्रप्रयाग में केदारनाथ से आने वाली मन्दाकिनी नदी से मिलती है। इसके पश्चात् अलकनन्दा देवप्रयाग में गोमुख से आने वाली भागीरथी से मिलती है तब अर्थात् देवप्रयाग से आगे अलकनन्दा और भागीरथी मिलकर गंगा बनती है। पुराणों में भागीरथी, अलकनन्दा, मन्दाकिनी, नन्दाकिनी, धौली (विष्णु गंगा) सभी को गंगा के नाम से ही जाना जाता है। भागीरथी, अलकनन्दा एवं मन्दाकिनी को तो गंगा ही कहा गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार दक्षिण में बहने वाली नदी सिन्धु भी हो सकती है। सिन्धु में मिलने वाली सात नदियों को ही सप्तसैन्धव के नाम से जाना जाता है। हिमालय से आने वाली और गंगा में मिलने वाली सभी नदियों को गंगा के सदृश ही लोग मानते हैं। सिन्धु एवं गंगा में मिलने वाली सभी नदियों को लेकर आज के भौगोलिक भ्रम की स्थिति में दिखते हैं। कैलाश मानसरोवर से बहने वाली एवं बृहत्तर हिमालय से प्रारम्भ होने वाली नदियों के लिए कृष्ण गंगा, विष्णु गंगा, काली गंगा, धौली गंगा, रामगंगा आदि शब्दों का बार बार प्रयोग मिलता उतरी उसके पश्चात् चार दिशाओं में विभक्त हुई। पूर्व दिशा की धारा सीता नाम से, पश्चिम में चक्षु नाम से, उत्तर में भद्रा नाम से एवं दक्षिण में अलकनन्दा के नाम से प्रसिद्ध हुई। जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है- “तत्र चतुर्धा भिद्यमाना (विभक्ता) _ चतुर्भिनामभिश्चतुर्दिशमभिस्यन्दन्तीनदनदीपतिमेवाभिर्निविशतिसीताऽलकनन्दा चक्षुर्भद्रेति"।’ गंगा की इन धाराओं के सन्दर्भ में बहुत मत मतान्तर उपलब्ध होते हैं। अगर सुमेरू (मेरू) को उत्तरी ध्रुव माना जाये तो कभी भी इन चार धाराओं की स्थिति उपर्युक्त वर्णन के अनुसार नहीं बन सकती है। इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए पुराण परिशीलन में महामहोपाध्याय गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी ने कहा है कि गंगा का सर्वप्रथम अवतरण मेरू (पामीर पर्वत) पर हुआ। जिसकी प्राचीन संज्ञा प्राङ्मेरू थी। इसी बात का समर्थन अनन्तशास्त्री फडके महोदय ने भी किया है। मेरू के पूर्व में स्थित भद्राश्व प्रदेश की ४३ नदियों के एवं पश्चिम में स्थित केतुमाल वर्ष की ४६ नदियों का वर्णन विष्णुपुराण में मिलता है। वायु एवं मत्स्यपुराण में गंगावतरणका विस्तृत वर्णन किया गया है। पुराणों में वर्णित मध्य एशियाई अर्थात् जम्बूद्वीप की चार पवित्र नदियाँ चारों दिशाओं में बहने लगीं। चे चारों नदियाँ अपने उद्गम स्थान से ही मुख विशेष से अवतरित हुई। दक्षिण की ओर बहने वाली गंगा नदी गौमुख से अवतरित हुई एवं गौप्रधान देश में बहने लगी। पश्चिम में बहने वाली चाक्षु नदी अश्वमुख से प्रारम्भ होकर अश्व या तुरग प्रदेश में बहने वाली कही गयी है। यहाँ के निवासी चतुर घुड़सवार एवं योद्धा माने गये। पूर्व की ओर बहने वाली सीता (सीतोद) नदी गजमुख से अवतरित हुई एवं उत्तर में बहने वाली सिंहमुख से प्रारम्भ होकर भद्रा (भद्रसोम) के नाम से प्रभावित हुई। _ मेरु से पूर्व वाहिनी धारा सीता त्रिपथगा होकर पूर्व दिशा के समुद्र में गिरती है। इस नदी को सीतोद् भी कहते हैं। यह नदी पहले “तरीम" नदी के नाम से तथा बाद में यांगसी के नाम से बहने वाली नदियाँ ही हैं। अली महोदय के मत में यह नदी वर्तमान में “किजित्सु नदी” के नाम से जानी जाती है। चाक्षु नदी मध्य एशिया (जम्बूद्वीप) की मेरु से पश्चिम में बहने वाली “आमूदरिया” नदी है। यह नदी केतुमाल वर्ष में घूमती हुई पश्चिम में इस समय “कैस्पियन सागर" में गिरती है। उत्तर एवं उत्तर पश्चिम में बहने वाली “सरदरिया” नदी ही भद्रा (भद्रसोम) है। यह नदी उत्तरकुरु वर्ष को स्पर्श करती हुई उत्तर समुद्र में गिरती है। अलकापुरी नगरी के समीप बहने वाली अलकनन्दा हेमकूट पुराणों में इस सम्पूर्ण पृथ्वी को चार द्वीपों में “चतुर्दीपा वसुमती’ के नाम से जाना जाता है। चतुर्दीपा वसुमती में मुख्य रूप से जम्बूद्वीप में स्थित चारों दिशाओं में चार वर्ष का वर्णन मिलता है। ये चार वर्ष हैं- पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल, उत्तर में उत्तरकुरु और दक्षिण में भारतवर्ष। सप्तद्वीपा वसुमती में जम्बूद्वीप के अतिरिक्त प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौञ्ज शाक एवं पुष्कर द्वीपों का वर्णन मिलता है। परन्तु मत्स्य पुराण में द्वीपों का क्रम जम्बू, शाक, कुश, क्रौञ्च, शाल्मल, गोमेद एवं पुष्कर है। जम्बूद्वीप एवं पुष्कर द्वीप को छोड़कर शेष सभी में सात उपखण्ड, सात पर्वत, सात नदियाँ, चार वर्ष एवं एक उपास्य देवता का वर्णन मिलता है। प्रत्येक उपखण्ड का नाम द्वीप के अधिपति के पुत्रों के नामों पर रखा गया है।
प्लक्षद्वीप
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार क्षीरसागर के बाद प्लक्षद्वीप का स्थान पड़ता है। जम्बू द्वीप के “जामुन’ वृक्ष के सदृश यहाँ सुवर्णमय प्लक्ष (पाकर) का वृक्ष है। इसी के कारण इस द्वीप का नाम प्लक्ष द्वीप पड़ा। यहाँ अग्निदेव विराजते हैं। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र इध्मजिव ने द्वीप को सात भागों में विभक्त कर अपने सात पुत्रों १. श्रीमद्भागवत ५/१७/५-१०। २. पुराणपरिशीलन, पृ० ३२६ । ३. सारस्वती सुषमा सम्वत् २०१५ । ४. भौगोलिक चिन्तन एवं विधि तन्त्र, पृ० १८०। १. भौगोलिक चिन्तन एवं विधि तन्त्र, पृ० १८१।। २. विष्णुपुराण २/४, भागवतपुराण ५/२०, मार्कण्डेय पुराण ५२६ । ज्योतिष-खण्ड ४६ ४८ को सौंप दिया। इन सात वर्षों के नाम हैं।- १. शिव, २. यवस, ३. सुभद्र, ४. शान्त, ५. क्षेम, ६. अमृत और ७. अभय। सात पर्वतों के नाम हैं- १. मणिकूट, २. वज्रकूट, ३. इन्द्रसेन, ४. ज्योजिष्मान्, ५. सुपर्ण, ६. हिरण्यष्ठीव और ७. मेघमाल। ये सात इस द्वीप के मर्यादा पर्वत है। इसी प्रकार यहाँ सात नदियाँ भी हैं- १. अरुणा, २. नृम्णा, ३. आङ्गिरसी, ४. सावित्री, ५. कुप्रभाता, ६. ऋतम्भरा और ७. सत्यम्भरा। यहाँ १. हंस, २. पतङ्ग, ३. ऊर्ध्वगाम, ४. सत्याङ्ग नाम के चार वर्ण हैं। उक्त नदियों में स्नान करने से इन वर्गों के रज एवं तमो गुण क्षीण होते हैं। इस द्वीप के उपास्य देवता सूर्य नारायण है। हेरोडोटस ने भूमध्यसागरीय प्रदेशों में ‘पिल्ग्सी " (Pilgsi) जाति के मानवों एवं अंजीर के वृक्षों का वर्णन किया है। इस प्रकार ‘विल्फोर्ड’ ने दक्षिणी इटली में प्रागैतिहासिक “प्लेशिया" नगर एवं पिल्ग्सी मानव जाति की बात कही है। प्लेसिया और पिल्ग्सी दोनों शब्द एक ही प्रदेश से संबंधित हैं। इन शब्दों का प्लक्ष से ही संबंध है। पुराणों के अनुसार इस द्वीप के निवासी बुद्धिमान, आकर्षक, स्वस्थ एवं अधिक आयुवाले होते हैं। अतः यह प्रदेश निश्चित रूप में अनुकूल एवं स्वास्थ्यप्रद जलवायु वाला रहा होगा।
शाल्मलिद्वीप
प्लक्षद्वीप अपने ही विस्तार वाले इक्षु रस के समुद्र से घिरा हुआ है। इससे आगे इससे दुगुने विस्तार वाला शाल्मलिद्वीप है। यह द्वीप सुरा (मदिरा) समुद्र से घिरा हुआ है। इस द्वीप में शाल्मली (सेमर) का वृक्ष है। इस वृक्ष पर पक्षिराज गरूड़ का निवास स्थान है। इसी वृक्ष के नाम पर इस द्वीप का नामकरण हुआ। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज यज्ञबाहु हैं। इन्होंने इस द्वीप को अपने सात पुत्रों में उन्हीं के नामों के अनुरूप विभाजित किया। इनके नाम हैं-१. सुरोचन, २. सौमनस्य, ३. रमणक, ४. देववर्ष, ५. पारिभ्रद, ६. आप्यायन, ७. अविज्ञात। इस द्वीप में सात पर्वत- १. स्वरसः, २. शतश्रृङ्ग, ३. वामदेव, ४. कुन्द, ५. मुकुन्द, ६. पुष्पवर्ष, ७. सहनश्रुति, सात नदियाँ १. अनुमति, २. सिनीवाली, ३. सरस्वती, ४. कुहु, ५. रजनी, ६. नन्दा, ७. राका एवं चार वर्ण-१. श्रुतधर, २. वीर्यधर, ३. बसुन्धर, ४. इषन्धर नाम से प्रसिद्ध हैं। इस द्वीप के उपास्य देवता चन्द्र हैं।’ इस द्वीप में शाल्मली (सेमर) वृक्ष अधिक पैदा होते हैं। प्रो० अली के अनुसार शाल्मली वृक्ष वर्तमान का सीसल हैं। जिसकी पत्तियाँ रेशे वाली मुलायम और चमकीली होती है। मत्स्य पुराण के अनुसार यहाँ की जलवायु प्रायः समान रहती है। बादल अधिक रहते हैं परन्तु वर्षा असामायिक नहीं होती है। सुरोद (कमखारा एवं स्वच्छ जल), उष्ण सम
भुवनकोश जलवायु, मेघाधिक्य ये सभी लक्षण विषुवत् रेखा के निकट की स्थिति परिलक्षित करते हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार यहाँ के मनुष्य भारतीयों के समान षड् ऋतुओं और षड! स्वरों का आनन्द लेते हैं। भारत के निकट पूर्वी अफ्रीका के तट पर स्थित विषुवत् वृत्तीय एवं उष्ण जलवायु वाला प्रदेश मालागासी (मेडागास्कर) की स्थिति शाल्मली के समान बैठती है। प्रायः इस द्वीप के उत्तर में शाल्मली में वर्णित जैसी ही जलवायु मिलती है। आज भी तंजानिया से मेडागास्कर के तट पर सीसल के वृक्ष अधिक पैदा होते हैं। इस द्वीप की स्थिति के विषय में विद्वानों में मतभेद दिखाई देता है। प्रसिद्ध विद्वान गैरिनी ने इसे मलयद्वीप, विल्फोर्ड इसे मध्य एवं पश्चिमी यूरोप तथा अली ने इसे मध्यपूर्वी अफ्रीका में स्थित बताया है।’
कुशद्वीप
_ सुरा समुद्र के पश्चात् दुगुने परिमाण वाला कुशद्वीप है। यह द्वीप घृत समुद्र से समान रूप में घिरा हुआ है। यहाँ कुश नामक घास अधिक रूप में मिलती है। इसी से इसका नाम कुशद्वीप पड़ा। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज हिरण्यरेता थे। इन्होंने इसके सात भाग को अपने सात पुत्रों में उन्हीं के नामानुरूप बाँट दिया। इस द्वीप के सात भाग हैं-१. वुस, २. वसुदान, ३. दृढ़रूचि, ४. नाभिगुप्त, ५. स्तुत्यव्रत, ६. विविक्त, ७. वामदेव। इस द्वीप में भी सात पर्वत-१. चक्र, २. चतुःश्रृग, ३. कपिल, ४. चित्रकूट, ५. देवानीक, ६. ऊर्ध्वरोमा, ७. द्रविण, सात नदियाँ- १. रसकुल्या, २. मुधुकुल्या, ३. मित्रविन्दा, ४. श्रुतविन्दा, ५. देवगर्भा, ६. घृतच्युता ७. मन्त्रमाला एवं चार वर्ण-१. कुशल, २. कोविद, ३. अभियुक्त, ४. कुलक प्रसिद्ध हैं। इस द्वीप के उपास्य देवता अग्नि हैं। पुराणों के वर्णन के अनुसार यहाँ वर्षा कम होती है क्योंकि कहा गया है कि यहाँ वर्षा इन्द्र की कृपा से ही होती है। यह अर्द्ध शुष्क प्रदेश है। इस प्रदेश में आदि काल से ही अग्नि की पूजा होती रही है। प्राचीन काल से अग्निपूजक देश फारस एवं उसके समीपवर्ती भूभाग हैं। यहाँ के पर्वतों से बहुमूल्य पत्थर निकाले जाते हैं। बेबीलोन एवं एसिरिया सभ्यता काल में पश्चिम एवं उत्तरी फारस देश से कई प्रकार के पत्थर एवं धातु निकलने का उल्लेख मिलता है। इसका घृत सागर वर्तमान में फारस की खाड़ी अथवा लाल सागर हो सकता है। उत्तर वैदिक काल तक एवं बाद में भी यूनानियों के माध्यम से मौर्य काल में इस देश का भारत से निकट का संबंध रहा। गेरिनी को छोड़कर अन्य विद्वानों ने इसे ईरान (फारस एवं उसके पश्चिम भाग में स्थित) बताया। १. भौगोलिक चिन्तन एवं विधि तन्त्र, पृ० १५५ । २. श्रीमद्भागवत ५/२/१३-१७। ३. भौगोलिक चिन्तन एवं विधि तन्त्र, पृ० १५२-१५६ । १. श्रीमद्भागवत ५/२०/७-१२।५० ज्योतिष-खण्ड
क्रौञ्चद्वीप
घृत समुद्र के बाद इससे द्विगुणित परिणाम वाला क्रौञ्चद्वीप है। यह द्वीप अपने ही विस्तार से युक्त दुग्ध सागर से घिरा हुआ है। यहाँ क्रौञ्च नाम का एक बहुत बड़ा पर्वत है। इसी के नाम से इस द्वीप का नाम क्रौञ्च द्वीप पड़ा। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज घृतपृष्ठ थे। ये बड़े ज्ञानी थे। इन्होंने इस वर्ष को सात बराबर भागों में विभक्त कर अपने सात पुत्रों को दे दिया। पुत्रों के ही नाम से सात भागों का भी नामकरण किया। इनके सात पुत्र थे- १. आम, २. मधुरुह, ३. मेघपृष्ठ, ४. सुधामा, ५. भ्रागिष्ठ, ६. लोहितार्ण, ७. वनस्पति। ये ही इस द्वीप के सात उपखण्ड हुए। इस द्वीप में सात पर्वत १. शुक्ल, २. वर्धमान, ३. भोजन, ४. उपबर्हिण, ५. नन्द, ६. नन्दन, ७. सर्वतोभद्र, सात नदियाँ- १. अभया, २. अमृतौधा, ३. आर्यका, ४. तीर्थवती, ५. वृत्तिरूपवती, ६. पवित्रवती, ७. शुक्ला एवं चार वर्ण- १. पुरुष २. ऋषभ, ३. द्रविण, ४. देवक हैं। इस द्वीप के उपास्य देवता वराह है।’ अधिकांश पुराणों में इस द्वीप का वर्णन अस्पष्ट है। इस द्वीप की सीमा पर क्रौञ्च पर्वत बताया गया है। इस द्वीप के भीतरी भाग की ओर घृत तथा बाहरी भाग की ओर क्षीर सागर है। विल्फोर्ड ने इसे यूरोप, अय्यर ने काकेशस व तुर्की का भाग एवं प्रो० अली ने इसे यूराल का पश्चिमी भाग बताया है, जबकि गैरिनी ने इसे दक्षिणी चीन कहा। कुछ पुराणों में इसे कुश, शाल्मली एवं प्लक्ष के बाद बताया है। श्रीमद्भागवतपुराण के अनुसार इसके समतल भूभाग में समुद्र की स्थिति को स्वीकारा है। हो सकता है कि कैस्पियन सागर उस समय तक उत्तर में अधिक विस्तृत रहा हो।. भुवनकोश ३. दानव्रत, ४. अनुव्रत। इस द्वीप के उपास्य देवता वायु हैं। अर्थात् यहाँ के निवासी वायु रूप में भगवान हरि की आराधना किया करते हैं।’ _ पद्म, वायु एवं विष्णुपुराण व महाभारत के प्रमाणों के अनुसार शाकद्वीप जम्बू द्वीप के पश्चात् व मेरु से पूर्व में स्थित है। प्रमुख पुराणों के अनुसार यहाँ बहने वाली नदियों की अनगिनत शाखायें हैं, जिनमें सदैव जल रहता है। इससे स्पष्ट होता है कि यह क्षेत्र भूतल का अधिक वर्षा वाला भूभाग है। यहाँ की प्रमुख वनस्पति “शाक’ अर्थात् साल (सागवान) है। यह वृक्ष आर्द्र मानसूनी जलवायु में अधिक उत्पन्न होता है। भारत से बाहर पूर्व की ओर इन वृक्षों के वन पाये जाते हैं। इस आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि मानसूनी उष्णकटिबन्धीय प्रदेश हैं। भारत से बाहर मध्य-एवं दक्षिणी बर्मा, मलेशिया, थाईलैण्ड, कम्बोज, लाओस, वियतनाम एवं इनके निकटवर्ती भूभागों में इस प्रकार की जलवायु पाई जाती है। इसके तीनों ओर क्षीर सागर (अशान्तसागर) है। प्रशान्त महासागर का यह भाग दक्षिणी चीन के वायु विक्षोभ के कारण प्रायः अशान्त रहता है।’ प्रसिद्ध विद्वान् अय्यर ने शाकद्वीप की स्थिति “स्किथिया" प्रदेश में गिनायी है। स्किथिया वर्तमान के दक्षिणी यूक्रेन (सोवियत रूस) को कहते हैं। यह शकों का मूल स्थान था। जिनका संघर्ष विक्रमादित्य से हुआ, परन्तु शाकद्वीप का वर्णन काफी पुरातन मालूम होता है इसलिए यह धारणा भ्रांत लगती है। शाकद्वीप का वर्णन महाभारत काल में भी उपलब्ध होता है। उस समय तक आर्यावर्त के निवासियों का बर्बर शक जाति से कोई सम्पर्क नहीं था। अतः अय्यर का तर्क समीचीन प्रतीत नहीं होता है। कुछ पुराणों के अनुसार इस द्वीप में अधिकतर लोग सूर्य व भगवान् वासुदेव की पूजा करते हैं।
पुष्करद्वीप
दक्षि समुद्र के पश्चात् पुष्करद्वीप है। यह द्वीप अपने चारों ओर अपने ही समान स्वादु जल से घिरा हुआ है। यहाँ अग्नि की शिखा के समान देदीप्यमान लाखों स्वर्णमय पंखुड़ियों वाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है। जो ब्रह्म जी का आसन माना जाता है। इस द्वीप के बीचों बीच इसकी पूर्व और पश्चिम विभागों की मर्यादा निश्चित करने वाला मानसोत्तर ‘नाम का एक ही पर्वत है। यह दश हजार योजन ऊँचा और उतना ही लम्बा है। इसके ऊपर चारों दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की चार पुरियाँ हैं इन पर मेरु पर्वत के चारों ओर घूमने वाले सूर्य के रथ का संवत्सर रूप पहिया देवताओं के दिन और रात (उत्तरायण और दक्षिणायन) क्रम से सर्वदा घूमता रहता है। इस द्वीप का अधिपति प्रियव्रत
शाकद्वीप
क्षीर सागर से आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तार वाला शाकद्वीप है। जो अपने ही समान परिणाम वाले दधि समुद्र से घिरा है। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र मेधातिथि है। इन्होंने इस द्वीप को सात भागों में बाँटकर अपने सात पुत्रों को दे दिया। इन भागों के नाम भी पुत्रों के नाम पर ही रखे गये। पुत्रों के नामानुरूप द्वीप के उपखण्डों के नाम हैं- १. पुरोजव, २. मनोजव, ३. पवमान, ४. धूम्रानीक, ५. चित्ररेफ, ६. बहुरूप तथा ७. विश्वाधार। इस द्वीप में सात मर्यादा पर्वत हैं- १. ईशान, २. उरुश्रृङ्ग, ३. बलभद्र, ४. शतकेसर, ५. सहस्रोति ६. देवपाल एवं ७. महानस एवं सात ही नदियां भी हैं- १. अनधा, आयुर्दा, २. उभयस्पृष्टि, ४. अपराजिता, ५. पञ्चपदी, ६. सहस्रसुति एवं ७. निजधृतिः । इस द्वीप में अन्य द्वीपों की भांति चार वर्ण भी हैं- १. ऋतव्रत, २. सत्यव्रत, १. श्रीमद्भागवत ५/२०/१८-२३। २. भौगोलिक चिन्तन एवं विधि तन्त्र, पृ० १५६-१५७ । १. श्रीमद्भागवत ५/२०/२५/२७ २. भौगोलित चिन्तन एवं विधि तन्त्र, पृ० १५३। ३. तत्रैव। भुवनकोश ज्योतिष-खण्ड पुत्र वितिहोत्र भी अपने पुत्र रमणक और धातकि को अलग अलग दोनों वर्षों का अधिपति बनाकर स्वयं भगवद् आराधना में संलग्न हो गये। यहाँ के निवासी ब्रह्म रूप भगवान हरि की स्तुति करते हैं।’ . पुष्कर द्वीप का वर्णन पुराणों के साथ-साथ महाभारत, उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थ एवं जैन ग्रन्थों में अधिक स्पष्ट रूप से दिया गया है। पुराणों के अनुसार यह द्वीप जम्बू के पूर्व में स्थित है। इस भाग की जलवायु वर्ष भर सम रहती है। यहाँ वर्षा सामान्य होती है। यहाँ का मौसम सुहावना एवं अनुकूल रहता है। इसके विपरीत इसका दूसरा आन्तरिक भाग प्रायः अन्धकारमय बताया गया है। वहाँ की जलवायु कठोर, बहुम कम वर्षा, अज्ञात प्रदेश, एवं हिंस्र पशु व हिंस्र मानव समुदाय का निवास स्थल बताया गया है। यह प्रदेश दुर्गम है। इसी भाँति जैन ग्रन्थ “त्रिलोक विज्ञप्ति" में भी अर्ध पुष्कर को ही मानव के वास योग्य बताया गया है। उपर्युक्त द्वीपों के वर्णन से ज्ञात होता है। कि द्वीपों के सन्दर्भ में सभी पुराण में एक मत नहीं है। अधिकतर पुराणों का मत श्रीमद्भागवत पुराण के अनुरूप ही मेल खाता है। प्रो० अली ने अपने ग्रन्थ ‘दि ज्योग्रेफी ऑफ पुराणाज’ में द्वीपों एवं सागरों की समीक्षा प्रस्तुत की है।
मेरु वर्णन
इलावृत्त के मध्य में मेरु पर्वत है। प्रायः पुराणों में मेरु को ही सुमेरू भी कहा है। यहीं देवताओं का निवास स्थान है। पहले इलावृत्त के प्रसंग में मेरु का वर्णन किया जा चुका है। इस पर्वत का वर्णन प्रायः सभी पुराणों एवं ऐतिहासिक ग्रन्थों में मिलता है। अधिकांश पुराणों में इस पर्वत को सभी वर्षों के उत्तर में स्थित बताया गया है। सर्वेषामेव वर्षाणां मेरुरुत्तरतः स्थितः। इस पर्वत का वर्णन महर्षि व्यास ने श्रीमद्देवीभागवत एवं श्रीमद्भागवतादि पुराणों में विस्तृत रूप से किया है। अव्यक्तात् पृथिवीपद्म मेरुपर्वतकर्णिकम् । इलावृत्तं तु तन्मध्ये सौवर्णों मेरुरुच्छ्रितः। जम्बूद्वीपों द्वीपमध्ये तन्मध्ये मेरुरुच्छ्रितः।" नाकश शाल्मलि पौराणिक द्वीप (एम.एम. ओली पर आधारित) कि १. श्रीमद्भागवत ५/२०/२६-३३। २. भौगोलिक चिन्तन एवं विधि तन्त्र, पृ. १५६ । श्रीमद्भागवत का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २५६ । (चित्र ७ एवं ८) ४. विष्णुपुराण २/४/३। ५. वायुपुराण ३४/३७, ५/८१, १/३५, ११/१६ । ६. अग्निपुराण १०८/६। ७. अग्निपुराण १४८/३, १०८/११-१२, कूर्मपुराण ४-५/१५/१६ । ५४ ज्योतिष-खण्ड ५५ भुवनकोश उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि मेरु भारतवर्ष के उत्तर में स्थित है परन्तु विष्णुपुराण के अनुसार मेरु सभी वर्षों के उत्तर में स्थित है। इसी आशय का वर्णन प्रस्तुत करते हुए श्री अनन्तशास्त्री फडके महोदय ने चित्र सहित वर्णन अपने निबन्ध में प्रस्तुत किया है। उनका कथन है कि एक मेरु सभी वर्षों के उत्तर में स्थित है उसके बाद कोई देश नहीं है तथा द्वितीय मेरु जम्बूद्वीप मध्य एशिया में स्थित पामीर (पमेरु) संज्ञक है। फडके महोदय के अनुसार एक मेरु पर्वत तथा द्वितीय सुमेरु पर्वत है। इस समय मेरु पर्वत ही पामीर पर्वत है क्योंकि मध्य एशिया का सर्वोन्नत भाग पामीर ही है और सुमेरु उत्तरी ध्रुव है। उत्तरी ध्रुव ही सभी वर्षों के उत्तर में स्थित है। अन्य ऐसा स्थान कोई भी नहीं हो सकता है। इसी सन्दर्भ में पं० रघुनाथ शर्मा का कथन है कि दुनियां का सर्वोच्च शिखर “एवरेस्ट" ही सुमेरु पर्वत है क्योंकि यही सबसे ऊँचा पर्वत है। आधुनिक भौगोलिक दृष्टि से पं० शर्मा जी का मत समीचीन प्रतीत नहीं होता है। इन्हीं का कथन यह भी है कि पृथ्वी में सुमेरु तथा अन्तरिक्ष में मेरु स्थित है। मेरु के सन्दर्भ में प्रायः सभी पौराणिक विद्वानों एवं इतिहासज्ञों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। _ संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध लेखक आचार्य पं० बलदेव उपाध्याय महोदय के अनुसार पामीर पर्वत ही मेरू पर्वत है। माधवाचार्य महोदय के अनुसार “यूराल’ नामक पर्वत ही सुमेरू पर्वत हो सकता है। आधुनिक भौगोलिक विद्वानों के अनुसार पौराणिक काञ्चनमय सुमेरू पर्वन ही पामीर पर्वत है। परन्तु ज्योतिर्विदों के कथनानुसार उत्तरी ध्रुव ही सुमेरु पर्वत कुश शाक हिन्द महासागर शाल्मलि चित्र’-8 किसी के मत में “पामीर", किसी के मत में यूराल, किसी के मत में “एवरेस्ट’, किसी के मत में उत्तरी ध्रुव ही सुमेरु है। पामीर तो मात्र प्राङ्मरु है। प्राङ्मेरु संज्ञा मेरु की ही हो सकती है सुमेरु की नहीं, क्योंकि प्राङ्मेरु सुमेरु कभी भी नहीं हो सकता है। जैसा कि कहा भी गया है कि “सर्वेषां वर्षाणामुत्तरे स्थितोऽस्ति सुमेरुः” इस आधार पर उत्तरी ध्रुव सुमेरु तथा दक्षिणी ध्रुव कुमेरु है। निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि मेरु प्राङ्मेरु है सुमेरु नहीं। मेरु एवं सुमेरु पर्वत की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार करने पर ही प्राचीन एवं अर्वाचीन मतों की संगति ठीक बैठ सकती है। १. सारस्वती सुषमा, फाल्गुन पूर्णिमा, २०१५, पृ० २०३। २. सारस्वती सुषमा, ३३, ३-४, नि.स. २०३५ । पुराणविमर्श, पृ० ३१७। ४. पुराणदिग्दर्शन, तृतीय संस्करण, पृ० ७५७। ५. सूर्य सिद्धान्त विज्ञान भाष्य, पृ० ५६/७२८ । भुवनकोश ५७ (अल्प नुर्विमानप, comamar in माईपर्यंत) ज्योतिष-खण्ड । भौगोलिक एवं गोलीयगणित की स्थिति को ध्यान में रखकर भास्कराचार्य ने कहा है कि जब लंका में सूर्योदय होता है उस समय यमकोटि में मध्यान्ह, सिद्धपुर में सूर्यास्त एवं रोमपत्तन में मध्यरात्रि होती है। ये चारों स्थान निरक्षवृत्त में स्थित हैं तथा एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी भी ६०° अंश है तभी उक्त स्थिति सम्भव है। उदय स्थान से ६० अंश की चापात्मक स्थिति से निर्मित वृत्त मेरु (ध्रुव) पर्यन्त जाता है। ध्रुव स्थान एवं समस्थान को जाने पर ही इसे याम्योत्तर वृत्त कहा जाता है। लंका यमकोटी, सिद्धपुर एवं रोमपत्तन ये चारों नगर निरक्षवृत्तीय हैं। इन चारों से ६० अंश उत्तर में सुमेरु स्थित है। यह सुमेरु उत्तर-ध्रुव स्थान है। लङ्कापुरेऽर्कस्य यदोदयः स्यात्, तदा दिनार्थं यमकोटिपुर्याम्। अधस्तदा सिद्धपुरेऽस्तकालः, स्याद्रोमके रात्रिदलं तदैव।। यत्रोदितोऽर्कः किल तत्र पूर्वा, तत्रापरा यत्र गतः प्रतिष्ठाम्। तन्मत्स्यतोऽन्ये च ततोऽखिलानामुदक्स्थितो मेरुरिति प्रसिद्धम्।।’ पा. मी नामदनालासम्म मेरू एवं सन्निकट सिन्धु.मदी प्रदेश (रमा लगअफारित) चित्र-9
समुद्र विवेचन
हमारी पृथ्वी में सर्वाधिक रूप में जल मिलता है। यह जल कहाँ से आया, सर्वप्रथम यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है। भूमि कि उत्पत्ति से पूर्व भी जल था। यह वर्णन सृष्टि के प्रसंग में कई स्थलों पर दृष्टिगोचर होता है। आधुनिक वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि सृष्टि के आरम्भ काल से ही जल का अस्तित्व सृष्टि में विद्यमान था। यह जल कहाँ से आया? इस सन्दर्भ में आधुनिकों का मत है कि आरम्भ में दृश्यमान जल वाष्प (गैस) रूप में वायुमण्डल में व्याप्त था। यह वाष्पीय जल ठण्डा होकर मेघ राशि मण्डल में परिणत हुआ। इसके पश्चात् सहस्रों वर्षों तक वृष्टि होती रही। इसी से पृथ्वी के निम्न भाग जल से पूरित हो गये। वही आज समुद्रों के रूप में दिखाई देते हैं। उदधि के वर्णन प्रसंग में ऋग्वेद में उल्लिखित है कि वरुण ने समुद्रों की रचना की। यथा- “अवसिन्धुं वरुणों द्यौरिव स्याद् द्रप्सो…………” ऋग्वेद में बहुत स्थलों पर समुद्र के भौतिक स्वरूप का वर्णन मिलता है। यथा-“भानुरर्वणो नृचक्षाः’ ।२ “प्र यत् सिन्धवः प्रसवं यथायन्नायः समुद्रं रथ्येव जग्मुः” । “गम्भीरां उदधी’।’ त्वां गिरः सिन्धुं पृणन्ति । समुद्रेण सिन्धवो। इत्यादि वर्णन याम्योत्तर । व्रत सुमेरु: भुवः FDOTU Tamishashmah सानिस देश प देशीय वृत। याम्योत्तर उदयः लका अन्य अनाश १. सि०शि० गो०भु०, ४४, ४५। (चित्र-१०) २. ऋग्वेद ३/२२/२। ऋग्वेद ३/३६/६। ४. ऋग्वेद ३/४५/३। ५. ऋग्वेद ५/११/५। ६. ऋग्वेद ३/३६/७। चिन- १० ५६ ५८ ज्योतिष-खण्ड मिलता है। वैदिक काल में समुद्रों के प्रसंग में सागर, अर्णव, उदधि, एवं सिन्धु नामों का उल्लेख मिलता है। समुद्र अपार जलराशि से परिपूर्ण है। जलराशि को समुद्र नदियों से प्राप्त करता है। इस तरह का वर्णन भी वेदों में कई स्थानों पर मिलता है। वेदों में ही यह भी वर्णन मिलता है कि नदियाँ ही मात्र समुद्रों को पूर्ण नहीं कर सकती है। अपितु आदि में सहस्रों वर्षों तक निरन्तर वृष्टि होती रही होगी। इसी वृष्टि के जल से समुद्र आपूरित हुए। यथा-“एकं यदुद्ना न पृणन्त्येनीरासिञ्चन्तीरवनयः समुद्रम् ।” वेदों में यह भी वर्णन उपलब्ध होता है कि सम्पूर्ण जलीय स्वरूपों में समुद्र ही सबसे ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ है। समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्। २
वेदों में समुद्र
आर्यों का सर्वप्रथम अस्तित्व जहाँ मिलता है उसे ही आर्य प्रदेश कहते हैं। इस प्रदेश को ही “सप्तसिन्धवः’ के नाम से वेदों में जाना जाता था। इस प्रदेश के चारों तरफ समुद्र था ऐसा वर्णन मिलता है। यथा-“स्वायुधं स्ववसं सुनीथं चतुः समुद्रं धरुणं रथीणाम् । चकृत्यं शंस्यं भूरिवारमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः। अतः कह सकते हैं कि ऋग्वेद काल में चार समुद्रों का वर्णन स्पष्ट रूप से बहुत स्थलों पर दिखाई देता है। सूर्योदय के वर्णन के प्रसंग में कहा गया है कि उषा काल के सूर्य का उदय पूर्व समुद्र से तथा अस्त काल के सूर्य का अदर्शन पश्चिम समुद्र में दिखाई देता है। यथा- “उभौ समुद्रावाक्षेति यश्च उतापरः। ५ अतः स्पष्ट होता है कि “सप्तसिन्धवः” प्रदेश के चारों तरफ चार समुद्र थे। किन्तु अथर्ववेद में षड् समुद्रों का वर्णन मिलता है। घृतहृदा मधुकूलाः सूरोदकाः क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना। एतास्त्वा धारा उपयन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु दुष्करिणीः’ समन्ता। इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए इसी तरह के घृत, मधु, सुरा, क्षीर, दधि एवं शुद्ध जल के छः समुद्रों का वर्णन माधवाचार्य ने भी अपने पुराणदिग्दर्शन में किया है। भुवनकोश साहित्य में कहीं सात, कहीं एक, कहीं तीन कहीं चार कहीं नौ, कहीं ग्यारह, व कहीं त्रयोदश समुद्रों का भी वर्णन मिलता है। ज्योतिष शास्त्र के सिद्धान्त ग्रन्थों के भुवन कोशाध्याय में भी समुद्रों का वर्णन मिलता है, परन्तु यहाँ पर सभी आचार्यों ने पुराणों के अनुसार ही समुद्रों की स्थिति को स्वीकार किया है। क्षीर सागर की स्थिति जम्बू द्वीप के चारों तरफ है। इसके पश्चात् एक द्वीप और उसके पश्चात् एक सागर का वर्णन पुराणों जैसा ही मिलता है। इसलिए क्षीर सागर के पश्चात् उत्तरोत्तर चक्राकार रूप में दुग्ध, दधि, घृत, इक्षु, मद्य एवं स्वादु समुद्र हैं। इन सात समुद्रों में से दो-दो के मध्य में क्रम से शाक, शाल्मल, कुश, क्रौञ्च, गोमेद, पुष्कर नामक षड् द्वीप स्थित हैं। जम्बूद्वीप मध्य में स्थित है।’ पुराणों में द्वीप एवं समुद्रों का वर्णन एक सा नहीं मिलता है। जैसा कि पूर्व में कहा भी गया है। उपर्युक्त द्वीप एवं समुद्रों का क्रम भी वहाँ पर समान नहीं दिखाई देता है। श्रीमद्भागवत, गरुड़, वामन, ब्रह्म, लिङ्, मार्कण्डेय, कूर्म, ब्रह्माण्ड, अग्नि, देवीभागवत एवं विष्णुपुराणों में द्वीपों का क्रम-जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौञ्च, शाक एवं पुष्कर तथा समुद्रों का क्रम-क्षार, इक्षु, सुरा, घृत, दधि, क्षीर एवं स्वादु है, जबकि मत्स्य, वराह, स्कन्ध पद्मपुराण एवं महाभारत में पृथक्-पृथक् क्रम मिलता है। इन सभी समुद्रों का अर्वाचीन नाम क्या हो सकता है, इस सन्दर्भ में पं० मीठा लाल ओझा ने अपना एक मत प्रस्तुत किया है। प्राचीन नाम आधुनिक नाम १. लवण समुद्र केस्पियन सागर २. इक्षु समुद्र बाल्टिक, काला, भूमध्य सागर का समूह ३. सुरा समुद्र रक्त सागर ४. घृत समुद्र अटलाण्टिक सागर ५. दधि समुद्र उत्तर सागर ६. क्षीर समुद्र प्रशान्त महासागर ७. जल समुद्र दक्षिण अटलाण्टिक सागर इनकी संगति ज्योतिष शास्त्र में वर्णित समुद्रों के साथ नहीं बनती है क्योंकि ज्योतिष शास्त्र में वर्णित उपर्युक्त सभी समुद्र निरक्ष रेखा से दक्षिण में स्थित हैं। आधुनिक दृष्टि से भी विचार करें तो ज्योतिष में भी समुद्रों का वर्णन पुराणों के अनुसार ही किया है। परन्तु इनके वर्णन के अनुसार आज के सन्दर्भ में देखना सर्वथा दुष्कर है। उक्त वर्णित कल्पना
पुराणों में समुद्र
वेदेतर साहित्य में समुद्रों का वर्णन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। इससे भी अधिकतर वर्णन पुराणों में मिलता है। पुराणों में सात समुद्रों का वर्णन द्वीपों के साथ मिलता है। समुद्रों की संख्या के सन्दर्भ में प्रायः पुराण एक मत हैं परन्तु पुराणों के इतर संस्कृत १. ऋग्वेद ५/६५/०६। २. ऋग्वेद ७/४६/१। ३. वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, पृ० १००। ४. ऋग्वेद १०/४७/०२। ५. ऋग्वेद १०/१३६/०५, शतपथ ब्राह्मण १०/६/४/४। ६. अथर्ववेद, ४/३४/६ । ७. पुराणदिग्दर्शन, पृ० ५४। १. सिद्धान्तशिरोमणि गो०भु० श्लोक २१-२५ । २. भुवनकोशविमर्श, पृ० १५६ । ३. सारस्वती सुषमा, १६. ३-४, २०१८ | भुवनकोश यह समुद्र पूर्व प्रचलित वायु के द्वारा तरङ्गित होकर ध्वनियुक्त होता था। इस समुद्र की वाष्पीय वायु से (मानसून द्वारा) हमेशा सप्तसिन्धु प्रदेश के मध्य पूर्वी भागों में पर्याप्त वृष्टि होती थी। वाणिज्य की दृष्टि से भी ऋग्वैदिक काल में आर्यों से इतर “पणि’ नामक कुशल बाणिक ने भी इस समुद्र का उपयोग अपने बाणिज्य कार्य के लिए किया था। कालान्तर में प्रबल भौतिक परिवर्तनों के कारण यह समुद्र विलुप्त हो गया और आज इस की जगह गंगा का विशाल समतल प्राङ्गण दृष्टिगोचर होता है।’ ज्योतिष-खण्ड के विरुद्ध भी माध्वाचार्य ने प्राचीन समुद्रों की आधुनिक समुद्रों से तुलना करते हुए वर्णन किया है कि आज भी बहुत से सागर पुराणों के सदृश ही दिखाई देते हैं।’
बौद्धों के मत में समुद्र
बौद्ध साहित्य में “अगुत्तरनिकाय” नामक ग्रन्थ के अनुसार चार समुद्रों का तथा सुरपर्क जातक ग्रन्थ के अनुसार छः समुद्रों का वर्णन मिलता है। बौद्ध ग्रन्थों में समुद्र को “सीता” भी कहा जाता है। इन ग्रन्थों में मिलने वाले छः समुद्रों के नाम इस प्रकार हैं सुरमाल (सुरमाली), अग्निमाल (अग्निमाली), दधिमाल (दधिमाली), कुशमाल (कुशमाली), नलमाल (नलमाली) तथा वडवामुख (वलमामुख)।
जैन मत में समुद्र
जैन ग्रन्थों में आठ प्रकार के समुद्रों का वर्णन लवणोदा, कालोदा, पुस्करोदा, वरुणोदा, केशरोदा, घृतोदा, इघुरोदा तथा नन्दिश्वरोदा उपलब्ध होता है। ऋग्वेद में अधिकतर स्थानों पर दो समुद्रों का वर्णन मिलता है। इनमें से प्रथम समुद्र पूर्व समुद्र तथा द्वितीय पश्चिम समुद्र है। उभौ समुद्रावाक्षेति यश्च पूर्व उतापरः। प्रथम दृष्टि से पूर्व समुद्र बंग नामक गर्त (बंगाल की खाड़ी) को इङ्गित करता है परन्तु ऋग्वेद के वर्णनानुसार यह समुद्र सप्तसिन्धु प्रदेश के पूर्वी भाग से लेकर वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल एवं असम तक फैला हुआ था। कह सकते हैं कि यह समुद्र पूर्व में ८०° से ६५° पूर्वीदेशान्तर तक तथा उत्तर दक्षिण २४° से ३०° उत्तर अक्षांश तक विस्तृत था। यह समुद्र पूर्व में स्थित था इसलिए इसे आर्वावत् समुद्र कहा गया। ऋग्वेद में इस समुद्र की चर्चा “परावत्” समुद्र के साथ भी आयी है। मध्यपूर्व हिमालय और विन्ध्य पर्वत श्रेणियों के मध्य गगेटिकप्लेट में इस समुद्र की स्थिति विद्यमान थी। भौगोलित एवं भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार ‘सप्तसिन्धु प्रदेश का दक्षिण पथ अवरुद्ध था’ यह मत सर्वथा समीचीन प्रतीत होता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ एच०जी० वेल महोदय के अनुसार प्राङ्समुद्र की स्थिति २५ से ५० हजार वर्ष पूर्व विद्यमान थी।
प्रत्यङ्समुद्र (परावत्)
ऋग्वेद में अर्नावत् समुद्र के साथ पश्चिम में स्थित परावत् समुद्र का उल्लेख भी दिखाई देता है। सप्तसिन्धु प्रदेश के पश्चिम पार्श्व में स्थित इस समुद्र की संज्ञा परावत् है। श्री एम०एल० भार्गव इस समुद्र की “परावत’ संज्ञा ही स्वीकार करते हैं परन्तु कुछ पाश्चात्य विद्वान् “परावत” शब्द का अर्थ समुद्र होता है ऐसा स्वीकार नहीं करते हैं। इनमें से “राथ’ ने परावत का अर्थ “दूर से आता हुआ” स्वीकार किया है, जबकि हापकिन्स, हिलेब्राण्ट’ गेल्ड्नर, एवं मैक्समूलर इस शब्द का अर्थ जाति विशेष करते हैं। इन्हीं विदेशी विद्वानों की ही भाँति कुछ भारतीय विद्वान भी इस शब्द का अर्थ दूरस्थित देश ही स्वीकार करते हैं परन्तु अधिकतर भूगोल वेत्ता कहते हैं कि सप्तसिन्धु प्रदेश का दक्षिण-पश्चिम विस्तार उत्तर में वर्तमान सिन्धु प्रदेश के लवणयुक्त पर्वत सुलेमान श्रृंखला तक था। दक्षिण में यह समुद्र अरब सागर से मिलता था। डॉ० ए०सी० दास की भी यही धारणा है कि मध्यसागर का उत्तरी भाग ही यह समुद्र था। डॉ० पी०एल० महोदय भी इस सागर को अरबसागर से सम्बद्ध वर्तमान सिन्धु प्रान्त का दक्षिण पश्चिम भाग स्वीकार करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि सिन्धु नदी तथा उसकी सहायक नदियों की मिट्टी एवं सिकता (बालू) से यह परावत् समुद्र आपूरित हुआ होगा। इस समय सुलेमान पर्वत श्रेणी तक सिन्धु प्रान्त का एक भाग विद्यमान है।१० १. पुराण दिग्दर्शन, पृ० ७५७ । २. जोग्रेफी नोलेज इन ऐनसेंट इण्डिया, पृ० १५० । ३. भारतीय सृष्टि विद्या, पृ० ६४। ४. ज्योग्रेफि नोलेज इन ऐनसेंट इण्डिया, पृ० १५०। ५. ऋग्वेद १०/१३६/०५। ६. ऋग्वेद १/१८२/५-६। ७. ऋग्वैदिक भूगोल पृ० १७१। ८. ऋग्वेद ८/१२/१७। ६. ऋग्वैदिक भूगोल पृ० १७२ । १. ऋग्वैदिक भूगोल पृ० १७३ । २. ऋग्वेद १०/१३६/५। ३. ऋग्वेद १/१०५/५-६, ८/१३/१५ । ४. जनरल ऑफ दि अमेरिकन सोसाइटी १७/६१। ५. वैदिक माइथोलॉजी १/८७ ६. ऋग्वैदिक ग्लासाद १/६। ७. सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट ३२/३१६ । ८. वेट धरातल, पृ० ४३५ । ६. ऋग्वैदिक इण्डिया, पृ० ६३। १०. ऋग्वैदिक भूगोल, पृ० १७५ । ज्योतिष-खण्ड
याम्यसमुद्र (सारस्वत्)
सप्तसिन्धु के दक्षिण में एक समुद्र था। इस समुद्र में सरस्वती नदी अपनी सहायक नदियों के साथ गिरती थी। इस समुद्र का वर्णन ऋग्वेद में दक्षिण सारस्वत समुद्र के रूप में बहुत से स्थलों पर उपलब्ध होता है।’ सप्तसिन्धु प्रदेश की पुरातन स्थिति स्वीकार करते हुए ले. कर्नल एल०एल० भार्गव महोदय कहते हैं कि वर्तमान साम्भर, सारगीत रिवासा, कुचावड एवं डिडवान सरोवर सारस्वत समुद्र के ही अवशेष थे। डॉ० पी०एल० भार्गव के अनुसार वर्तमान राजस्थान प्रदेश के अधिकांश भाग सारस्वत समुद्र के अवशेष हैं। इस पुरातन सारस्वत समुद्र के अवशिष्ट ‘साम्भर’ आदि जलाशय में तथा वहाँ स्थित भूभाग की सिकता में पर्याप्त विद्यमान लवणांश के कारण यह सिद्ध होता है कि ऋग्वेद काल में यहाँ समुद्र था। आज भी यहाँ ‘साम्भर’ आदि जलाशय से लवण निर्माण होता है। अतः ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में पश्चिम दिशा में वर्तमान के कच्छ नामक गर्त (खाड़ी) से अरब सागर की एक शाखा पूर्व दिया में अरावली पर्वत श्रेणी तक अर्थात् सप्तसिन्धु प्रदेश के दक्षिण में सारस्वत समुद्र के रूप में विद्यमान थी। डॉ० ए०सी० दास महोदय भी इस समुद्र को सप्तसिन्धु प्रदेश के दक्षिण दिशा में राजपूताना नामक समुद्र के रूप में अंगीकार करते हैं तथा यह भी मानते हैं कि इस समुद्र की सीमा कच्छ की खाड़ी से लेकर पूर्व समुद्र अर्वावत् तक विस्तृत थी। पण्डित वि०ना० रेड के अनुसार समुद्रतटीय संकेतों से ज्ञात होता है कि कालान्तर में यह दक्षिण सारस्वत राजपूताना समुद्र विलुप्त हुआ। सरस्वती नदी अपने उद्गम प्रदेश से ही भौतिक परिवर्तनों के द्वारा उत्तरोत्तर न्यून हुई तथा इस नदी का उद्गम स्थान भी धीरे-धीरे सिकता (बालू) से आच्छन्न हुआ। इसी कारण यह समुद्रीय भाग आज जलशून्य होकर मरूस्थल के रूप में दृष्टिगत होता है। इस समुद्र में ये परिवर्तन ऋग्वेद काल के अनन्तर ब्राह्ममण काल में हुए ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थों में सरस्वती नदी के विलुप्त होने एवं प्रकट होने के संकेत मिलते हैं। अतः कह सकते हैं कि भारतीय विद्वानों का मत निराधार नहीं है। सारस्वत समुद्र के धरातल पर ईसा पूर्व ७५००-८००० वर्षों में स्थलीय परिवर्तन हुआ। भुवनकोश
उदङ् समुद्र (शर्मणावत्)
सप्तसिन्धु प्रदेश के उत्तर में हिमवन्त श्रृंखला से सुदूर उत्तर समुद्र विद्यमान था। इसके अवशेष के रूप में सम्प्रति शर्मणावत नामक एक सरोवर है। डॉ० ए०सी० दास’ तथा पण्डित विश्वेश्वर नाथ रेउ आदि विद्वानों की धारणा है कि एशिया महाद्वीप का भूमध्यसागर ही हिमालय के उत्तर में “वल्ख’ (वालीक) तक और ईरान देश के उत्तर में स्थित कश्यप (कैस्पियन) कृष्ण (काला) सागरों के समीप पश्चिम तुर्किस्थान तक विस्तृत था। इसके अवशेष के रूप में अरल सागर और वाल्कश सरोवर आज भी विद्यमान हैं। इसी प्रकार पूर्वी तुर्कीस्थान क्षेत्र के “लोबनार" सरोवर भी इसी समुद्र के अवशेष है। इस प्रकार के अवशेषों के अनुसार प्राचीन सप्तसिन्धु प्रदेश के उत्तर दिशा में एक विशाल समुद्र की सम्भावना सर्वथा ठीक प्रतीत होती है। इस समुद्र के भूगर्भित तथ्यों के अनुसार उपर्युक्त वर्णन को ले० कर्नल भार्गव और डॉ० पी०एल० भार्गव सर्वथा सही मानते हैं। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार हिमालय में निरन्तर भौगोलिक परिवर्तनों के कारण सप्तसिन्धु प्रदेश का उत्तरी समुद्र भी परिवर्तित हुआ। आदि काल में यह समुद्र विशालकाय था, परन्तु परिवर्तनों के अनन्तर आज कश्मीर राज्य के अन्तर्गत “शर्मणावत’ सरोवर के रूप में सौम्य समुद्र का संकुचित स्वरूप दिखाई देता है। सतीसार डल आदि सरोवर भी इस समुद्र के ही अवशेष प्रतीत होते हैं। संस्कृत साहित्य एवं इतिहास के प्रसिद्ध लेखक पण्डित बलदेव उपाध्याय के अनुसार भी ऋग्वैदिककाल में आर्यप्रदेश के चारों तरफ समुद्र था। आज के उत्तर प्रदेश और बिहार पूर्व समुद्र के गर्भ में थे। इनके अनुसार तो समग्र गंगा तटीय क्षेत्र, पूर्वी हिमालय क्षेत्र और आज के असम तक का सम्पूर्ण भाग पूर्वी समुद्र के गर्भ में ही था। इनके अनुसार गंगा नदी हिमालय से निकलकर हरिद्वार नगर के समीप ही समुद्र में गिरती थी। इस समुद्र का पुरातन नाम रत्नाकर था। उपर्युक्त समग्र वर्णन से ज्ञात होता है कि ऋग्वेद काल में चार समुद्रों का वर्णन मिलता है। परन्तु अर्थववेद में षट्समुद्रों का वर्णन दिखाई देता है। पुराण काल में एक, तीन, चार, सात, नौ, ग्यारह एवं तेरह समुद्रों का वर्णन मिलता है। प्रायः सभी पुराणों में विस्तृत रूप से ज्ञात समुद्रों का ही वर्णन मिलता है। पौराणिक काल की भौगोलिक स्थिति और आज की भौगोलिक स्थिति सर्वथा भिन्न दिखाई देती है। १. ऋग्वेद ७/६५/२, १०/१७/७-८ २. ऋग्वैदिक भूगोल पृ० १७५ । ३. ऋग्वैदिक इण्डिया, पृ० ६३ । ४. ऋग्वेद पर एक ऐतिहासिक दृष्टि, पृ० १०३ । ताण्ड्य ब्राह्मण २५/१०/१६, जैमिनीय ब्राह्मण ४/२६/१७। ६. भुवनकोश विमर्श, पृ० १८६। १. ऋग्वैदिक इण्डिया, पृ० ६३। २. ऋग्वेद पर एक ऐतिहासिक दृष्टि, १०१। ३. दि ज्योग्राफी ऑफ ऋग्वैदिक इण्डिया, पृ० ३। ४. इण्डिया इन द वैदिक एज्, पृ० ७७। । ५. ज्यौलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, वा. ८११, पार्ट २, पृ० १३७। ऋग्वैदिक भूगोल, पृ० १७८ । ७. वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, पृ० १००। ८. अथर्ववेद ५/३५/३।