चौ. श्रीनारायण सिंह संस्कृत भाषा में ज्योतिष शब्द स्त्रीलिंग है। इस शब्द का अर्थ प्रकाश, प्रभा, चमक, दीप्ति किया गया है। “द्युत् द्योतने’ धातु से इसकी व्युत्पत्ति की जाती है। सूर्य चन्द्रादि ग्रहों की गति एवं उनके फलादि का विचार करने वाले शास्त्र को ‘ज्योतिषि’ शब्द से व्यवहृत किया गया है। वेद के छः अंग माने जाते हैं।’ शिक्षा, कल्प व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिष इन छ: वेदांगों का वेद पुरुष के अंगों के साथ शास्त्रों के सम्बन्ध को दर्शाते हुए कहा गया है कि छन्दशास्त्र वेद के पैर, कल्प हाथ, ज्योतिष नेत्र, निरुक्त कर्ण, शिक्षा ध्राण एवं व्याकरण मुख है। इन छ: अंगों के साथ ही वेद का अध्ययन करने वाले को ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। मन्वर्थमुक्तावली में कहा गया है कि वेदों से ही चारों वर्ण, तीनों लोक एवं चार आश्रमों तथा भूतकाल, वर्तमान एवं भविष्य काल की सभी बातें सिद्ध होती हैं। पितरों देवों एवं मनुष्यों के लिये त्रैकालिक घटनाओं के ज्ञानार्थ वेद नेत्र स्वरूप है। किन्तु वेदों का नेत्र ज्योतिष शास्त्र है, जिससे अतीन्द्रिय दिव्यज्ञान प्राप्त होता है। इस कथन के औचित्य को दर्शते हुए कहा गया है कि अन्य शास्त्रों में केवल विवाद होता है क्योंकि उनमें प्रतिपादित अनेक तत्व प्रत्यक्ष नहीं दिखलायी पड़ते। किन्तु, ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष है, क्योंकि इसमें सूर्य एवं चन्द्रमा साक्षी होते हैं। (१) ब्रह्मा, (२) आचार्य, (३) वसिष्ठ, (४) अत्रि, (५) मनु, (६) पौलस्त्य, (७) रोमश, (८) मरीचि, (६) अंङिरा, (१०) व्यास, (११) नारद, (१२) शौनक, (१३) भृगु, (१४) च्यवन, (१५) यवन, (१६) गर्ग, (१७) कश्यप एवं (१८) पराशर - ये अट्ठारह ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक हैं। १. शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्द एव च। ज्योतिषञ्च षडगानि कथितानि मनीषिभिः ।। २. छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तो कल्पोऽथ पठ्यते। ज्योतिषामयनं चक्षुः निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।। शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्। तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते।। ३. चातुर्वर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्। भूतं भव्यं भविष्यञ्च सर्व वेदात्प्रसिद्ध्यति।। पितृदेवमनुष्याणां वेदः चक्षुः सनातनम्। तच्चक्षुज्योतिष शास्त्रं दिव्यं ज्ञानमतीन्द्रियम् ।। ४. अप्रत्यक्षाणि सशास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम्। प्रत्यक्षं ज्योतिष शस्त्रं चन्द्रार्को यत्र साक्षिणौ ।। ब्रह्माचार्यों वसिष्ठोऽत्रिर्मनुः पौलस्त्यरोमशौ। मरीचिरङिरा व्यासों नारद: शौनको भृगुः ।। च्चवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः। अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिः शास्त्रप्रवर्तकाः ।। ५. न१० ज्योतिष-खण्ड सभी भारतीय शास्त्रों के आदि प्रवर्तक ब्रह्मा ही माने जाते हैं। क्योंकि सृष्टि की इच्छा होने पर चेतन स्वरूप अनादि-अनन्त परब्रह्म के संकल्प से ही सर्वप्रथम आदिपुरुष पितामह ब्रह्मा का अविर्भाव हुआ एवं उन्हें ही ज्ञानमय वेदों का उपदेश ईश्वर से प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् ब्रह्मा ने ही वसिष्ठ एवं नारद इत्यादि अपने मानस पुत्रों को वेदों का उपदेश दिया।
वैदिक कालगणना
वेदों में कालमान की बड़ी इकाई युग तक प्राप्त होती है। युग के कुत, त्रेता आदि विभागों के उल्लेख मिलते हैं। इनके अन्तर आयन, विक्षुव, वर्ष आदि उत्तरोत्तर क्रमशः काल की छोटी इकाईयों का उल्लेख है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने भारतीय ज्योतिष में स्पष्ट किया है कि मनु और कल्प का वेदों में उल्लेख नहीं है। पुरुषोत्तम नागेश ओक लिखित ‘विश्वराष्ट्र का इतिहास” नामक ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड के चतुर्थ अध्याय में वैदिक कालगणना का अतिरोचक एवं युक्तियुक्त वर्णन किया गया है। तदनुसार समस्त विश्व में प्रचलित वर्ष, मास एवं दिन आदि कालगणना की प्रणाली का मूलस्त्रोत भारतीय ज्योतिष ही है। वर्तमान युग में पाश्चात्य प्रणाली के लोग जिसे “यक्ष” अर्थात् ‘सेकेण्ड’ कहते हैं उसके १/३७६६७५ वें भाग को वैदिक कालगणना में परमाणु कहा जाता है। यद्यपि उक्त ग्रन्थ में उद्धृत परमाणु का यह प्रमाण ०.०००००२६ सेकेण्ड के वेद-वेदाङ्ग एवं पुराणों में ज्योतिष ६० पल = १५ लघु = १ घटी = २४ मिनट २ घटी = १ मुहूर्त = ४८ मिनट ३-३/४ मुहूर्त = १ प्रहर = ३ घण्टे ८ प्रहर १ अहोरात्र = २४ घण्टे (दिन) १५ दिन १ पक्ष २ पक्ष १ मास २ मास = १ ऋतु ३ ऋतु = १ अयन ३ अयन = १ वर्ष _भारतीय श्रुति, स्मृति एवं पुराणादि के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में परमज्ञानी ऋषियों एवं महर्षियों की सृष्टि हुयी थी। तदनुसार जगत के मूल कारण स्वरूप सच्चिदानन्द परमेश्वर के संकल्प के आदि पुरुष पितामह ब्रह्मा उत्पन्न हुये। वेद में कहा है “यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदाँश्च प्रहिणोति" अर्थात जिसने सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को उत्पन्न किया एवं उन्हें वेदों का उपदेश दिया। तदनन्दतर ब्रह्मा ने अपने संकल्प से सनकसनन्दनादि ब्रह्मर्षियों, वसिष्ठ, अङ्गिरा, नारदादि महर्षियों एवं मनु आदि राजिर्षियों को उत्पन्न कर उन्हे वेदों का उपदेश दिया।
वैदिकों की देशकालानुकीर्तन परम्परा
वेदानुयायी अपने नित्य नैमित्तिक कार्यो के अनुष्ठान में देशकालानुकीर्तनपूर्वक संकल्पमन्त्र के स्वरूप पर विचार करने से यह सुस्पष्ट होता है कि वैदिक कर्मकाण्ड की यह परम्परा सृष्टि के प्रारम्भिक दिन से अब तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। इस संकल्प मन्त्र की यह विशेषता है कि विगत काल के महत्वपूर्ण अंशों का उल्लेख करते हुए अद्यतन देश और काल का सन्निवेश किया जाता है। इस परम्परा प्राप्त मन्त्र का सुविस्तृत रूप हेमाद्रि में उपलब्ध होता है। यह संकल्प मन्त्र वेदाधारित जीवन पद्धति के आदिकाल से निरन्तर उच्चरित होता आ रहा है। श्रुति-स्मृति को परमप्रमाण मानने वाले निस्सन्दिग्ध रूप से मानव सृष्टि के प्रथम दिवस को ही इस मन्त्र का प्रवर्तन काल मानते हैं। मन्त्र की विशेषता यह है कि इसमें अतीत देश कालादि के स्मरण के साथ अद्यतन देश काल का सन्निवेश किया जाता है। मानव-जीवन के सतत प्रवाह का स्मरण करने की परिपाटी अन्यत्र दुर्लभ है। इस मन्त्र में मानवों के मूलपुरुष ब्रह्मा के आभिर्भावकाल के साथ-साथ कल्प, मन्वंतर युग, संवत्सर, अयन, गोल, ऋतु, मास, पक्ष दिन एवं तद्-तद् राशियों में सूर्यादिग्रहों का उल्लेख होता है। इसके साथ ही सप्तद्वीपा पृथ्वी के द्वीप, महाद्वीप, वर्ष खण्ड नगर ग्राम, कुल, पर्वत एव पवित्र नदियों का भी स्मरण करने की रीति है। तुल्य है किन्तु गणना के अनुसार यह मान ०.००००२६ सेकेण्ड ही हो रहा है। • ३७६६८ सभी काल प्रमाण आधुनिक मान के साथ यहां द्रष्टव्य हैं। १ परमाणु = = ०.००००२६ सेकेण्ड २ परमाणु = १ अणु = ०.००००५२ सेकेण्ड ३ अणु = १ त्र्यसरेणु = ०.०००१५ सेकेण्ड ३ त्र्यसरेणु = १ त्रुटि ०.०००४७ सेकेण्ड १०० त्रुटि _ = १ वेध = ०.०४७ सेकेण्ड ३ वेध = १ लव = ०.१४२ सेकेण्ड ३ लव = १ निमिष = ०.४२६ सेकेण्ड ३ निमिष = १ क्षण १.२८ सेकेण्ड ५ क्षण = १ कष्ट = ६.४ सेकेण्ड १५ कष्ट _ = १ लघु = ६६ सेकेण्ड (१.६ मिनट) १५ लघु = १ घटी = १४४० सेकेण्ड (२४ मिनट) ६० घटी = १ अहोरात्र = ८६४०० सेकेण्ड (१४४० मिनट = २४ घण्टा) ४ पल = १ लघु १२ ज्योतिष-खण्ड
वेदसंहिताओं में ज्योतिष
ऋग्वेद के मन्त्र “कृत यच्छ्वघनी विचिनोति काले (ऋ. १०/४२/६)’ में काल शब्द का प्रयोग हुआ है। अथर्ववेद के “कालो ह भूतं भव्यं च पुत्रों अजनत् पुरा। कालादृचः समभवन्यजुः कालादजायत।।” (१६/५३/१) तथा “इमं च लोकं परमं च लोकं पुण्यांश्च लोकान् विधृतीश्च पुण्याः। सर्वान् लोकामभिजित्य ब्रह्मणा कालः ईयते परमो हि देवः।। (४/१७१/१०) आदि स्थलों पर काल शब्द के व्यापक रूप का वर्णन हुआ है। समय का वाचक होने के अतिरिक्त यहां काल को भूत एवं भविष्य का स्त्रोत बतलाया गया है। शतपथ ब्राह्मण में भी ‘काल’ शब्द का प्रयोग समय का वाचक होने के रूप में वर्णित है।’ ऋग्वेद संहिता (२/३/२२/१६४) एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण (२/४/६) मे एवं इन्हीं मन्त्रों के भाष्य में सायणाचार्य ने अनेक विद्याओं में ज्योतिर्विज्ञान का उल्लेख किया है। छान्दोग्योपनिषद् (७/१/२) में नारद ने अपनी पठित विद्याओं में राशिविद्या, गणित, दैवविद्या, निधिविद्या’ नक्षत्र विद्या एवं ज्योतिष का भी वर्णन किया है। मुण्डकोपनिषद् में अपरा विद्या के रूप में चारों वेदों के साथ ही षडगों में ज्योतिष की गणना हुई है। ज्योतिर्विज्ञान में गणित का ज्ञान आवश्यक है। अतएव वेदों में गणित-विद्या का पर्याप्त विवरण मिलता है। यजुर्वेद अध्याय १८ के “एका च में त्रिस्त्रश्च में…..त्रयत्रिंशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ।।२४।। तथा चतनश्च में अष्टौ च मेऽष्टाचत्वारिंशच्च में यज्ञेन कल्पन्ताम् ।२५ ।।” मन्त्रों में बीजगणित के साथ ही अंकगणित तत्वों का संकेत प्राप्त होता है। रेखागणित तथा ज्योतिर्विज्ञान के कठिन नियमों का निर्देश करने वाले वेदों में अंकगणित के नियमों का उल्लेख सहज गम्य है। इसी से अरब देशीयों ने अंकगणित को “इल्में हिन्दसा’ कहा है। अरब से मिश्र एवं यूरोप में गणित विद्या पहुँची। “अस्ति त्रैराशिकं पाटी बीजं च विमला मतिः” अर्थात् त्रैराशिक पाटी अर्थात् अंकगणित का सारतत्व है एवं उसका मूल बीजगणित की निर्मल युक्तियां हैं। भास्कराचार्य की इस उक्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि अंकगणित के सदृश ही बीजगणित का ज्ञान भी भारतीयों को वेदों से ही प्राप्त हुआ है। ऋग्वेद (मण्डल १० सूक्त १३० मन्त्र ३) में परिधि शब्द आया है। इसी प्रकार सभी वेदों में वर्तमान पुरुषसूक्त के मन्त्र “सप्तास्यासन् परिधयः त्रिसप्त समिधा कृता” ७ x ३ = २१ इत्यादि में यह बतलाया गया है कि किस प्रकार परिधि से वृत्त निर्माण होता है एवं उसका सम्बन्ध केन्द्र से होता है। इस प्रकार की वेद-वेदाङ्ग एवं पुराणों में ज्योतिष १३ प्रक्रिया का प्रयोग रेखागणित में ही होता है। साम ब्राह्मण के छन्दोंग्य भाग में महर्षि सनत्कुमार तथा नारद के संवाद में नारद द्वारा स्वयं “नक्षत्र विद्या" का अध्येता कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने रेखागणित का भी अध्ययन किया था। तैत्तिरीय संहिता के ५/४/११ मन्त्र में लिखा है कि वेदियों को किन-किन आकारों का बनाना चाहिये। आपस्तम्ब एवं बौद्धायन के सूत्रों में उन चित्तियों और इष्टकाओं का वर्णन है जिनसे भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञकुण्ड बनते थे। वहां यज्ञकुण्डों के अनेक आकार-प्रकारों का उल्लेख हुआ है। (१) चतुराश्रम स्येन (२) कङ्कचित (३) वक्रपक्ष व्यस्तपुच्छ स्येन (४) अलजाचित् (५) प्रागचित् (अर्थात् समभुजत्रिभुज का आकार) (६) उभयाचित प्रागचित् (समभुज त्रिभुज के आधार पर बना हुआ दूसरा समभुज त्रिभुज) (७) रथचक्रचित् (८) चतुराश्रय द्रोणचित् (E) परिमण्डल द्रोणचित् (१०) कूर्मचित इत्यादि। _ऐसे आकारों में परिवर्तन हेतु रेखागणित के अनुसार ही त्रिभुज, वृत्त, चतुर्भुज इत्यादि के परस्पर सम्बन्ध का ज्ञान आवश्यक है। अस्तु, यह स्पष्ट है कि वैदिकों को रेखागणित का पूर्णज्ञान था। इस में स्व० स्वामी श्री भारतीकृष्णतीर्थ, पूर्व पुरीपीठाधीश्वर के उन सोलह वैदिक सूत्रों का उल्लेख करना आवश्यक है।’ जिनके आधार पर वर्तमान संसार को ज्ञात एवं अज्ञात गणित के प्रश्नों का समाधान सम्भव है। वैदिक यज्ञकुण्डों के नियमों का व्यवस्थित वर्णन शुल्बसूत्रों में किया गया है। शुल्व सूत्र को कल्पसूत्र का अंश कहा जाता है। कल्पसूत्र का सम्बन्ध यज्ञकर्म से है।
वैदिककाल में ज्योतिष का स्वरूप
ज्योतिष के सन्दर्भ में वैदिक काल के परिचयात्मक विवरण के अन्तर वैदिक काल में ज्योतिष स्वरूप के कुछ अंशों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। - विश्व की उत्पत्ति अनेक प्रसंग वेदों में उपलब्ध हैं। निष्कर्ष रूप में उनका आशय तैत्तिरीयोपनिवद में लक्षित होता है- सर्वप्रथम शून्य का। शून्य (आकाश) से वायु की उत्पत्ति हुई। वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से औषधियां, औषधियों से अन्न तथा अन्न से पुरुष (जीव) की उत्पत्ति हुई। वेदों के व्यापक दृष्टिकोण का ज्ञान उस समय हाता है जब एक निष्कर्ष रूप व्यवस्था देने के बाद भी अन्य कारणों की सम्भावनाओं को अस्वीकार नहीं किया गया। वस्तुतः सृष्ट्युित्पत्ति रहस्यमय है। १. एकाधिकेन पूर्वेण २. निखिलं नवतश्चरमं दशतः ३. ऊर्ध्वतिर्यग्भ्याम् ४. परावर्त्य योजयेत्। ५. शून्यं साम्यसमुच्चये ६. (आनुरूप्ये) शून्यमन्यत् ७. संकलनव्यवकलनाभ्याम् ८. पूरणपूरणाभ्याम् ६. चलनकलनाभ्याम् १०. यावदूनम् ११. व्यष्टि-समष्टि: १२. शेषाण्यङ्कन चरमेण १३. सोपान्त्यद्वयमन्त्यम् १४. एकन्यूनेन पूर्वेण १५. गुणितसमुच्चयः १६. गुणकसमुच्चयः । २. तैत्तरीयोपनिषद् (ब्रह्मबल्ली प्रथमखण्ड) ३. तै.ब्रा. २.८.६ १. “स आयततरोत्तरतः उपोत्पेदे य एष स्विष्टिकृतः कालः ।। (शब्रा० १/७/३३)" तथा च “यदेव यूयं कदा च लभाध्यै यदि कालेऽथैवाश्नायेति।। (शब्रा० ११/४/२४)।" १४ ज्योतिष-खण्ड _ सृष्टि की निरन्तरता का ज्ञान ऋग्वेद के जन्म “सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्" के द्वारा सुस्पष्ट है। विश्व के प्रमुख तीन भाग हैं। १. पृथ्वी २. अन्तरिक्ष, तथा ३. द्यौः। पृथ्वी पर हम निवास करते हैं। पृथ्वी के बाद तथा द्यौः से पूर्व अन्तरिक्ष तथा अन्तरिक्ष से ऊपर द्यौः की स्थिति है जिसका स्पष्टीकरण विराट पुरुष के शरीर के विभिन्न भागों द्वारा किया गया है। “विराट पुरुष के पैरों से पृथ्वी, नाभी से अन्तरिक्ष तथा शीर्ष से द्यौः की उत्पत्ति हुई है।’ __अन्तरिक्ष स्थित सभी आकाशीय पिण्डों (ब्रह्माण्ड) का आधारभूत सूर्य को ही माना गया है।" यत्रेमा भवनानि तस्थः।२ इत्यादिमन्त्र में सर्य की सप्तराश्मियों एवं त्रिनाभियों से आबद्ध (आकृष्ट) अन्य ग्रहपिण्डों के संकेत मिलते हैं। सूर्य ही काल का नियामक है। सूर्य से ही वर्ष अयन एवं ऋतुओं का ज्ञान होता है। अतः काल के नियामक के रूप में भी सूर्य को ही प्रमुख माना गया है। पृथ्वी का स्वरूप- पृथ्वी के गोल स्वरूप का स्पष्ट ज्ञान वैदिक काल में हो चुका था। स वा एष न कदाचनास्तमेति नोदेति’ इत्यादि मन्त्र में स्पष्ट कर दिया कि सूर्य न कभी अस्त होता है न कभी उदय होता है। इससे पृथ्वी के गोलत्व, निराधरत्व तथा सूर्य के स्थिरत्व की धारणा बलवती होती है। पृथ्वी के गोलत्व एवं चलत्व के कारण ही दिन रात्रि की उत्पत्ति होती है। वेदों में कालमान की बडी इकाई के रूप में युग का उल्लेख मिलता है। कृतत्रेता द्वापर कलि इन चारों युगों के नामों का भी व्यवहार अनेक स्थलों पर किया गया है किन्तु इनके परिमाण का उल्लेख नहीं मिलता हैं। कृतादि युगों के अतिरिक्त पंच संवत्सरात्मक युगों का भी उल्लेख है। पांचों संवत्सरों के नाम इस प्रकार है- १. संवत्सर, २. परिवत्सर, ३. इदावत्सर, ४. इद्वत्सर, ५. वत्सर। कहीं कहीं इद्वत्सर को अनुवत्सर भी कहा गया है। वर्ष द्वादश मासों का ही होता था किन्तु वर्ष का उल्लेख प्रायः ऋतुओं के नाम से ही किया जाता था। वर्ष में दिनों की संख्या ३६० मानी जाती थी। इसके संकेत ऋक् संहिता’ के एक मन्त्र (१/१६४/४८) से मिला है। यहां एक प्रश्न उठता है कि वैदिक वर्ष सौर वर्ष होते थे या चान्द्र वर्ष। इस प्रश्न का आधार यही था कि वैदिक काल में चान्द्र मासों का ही व्यवहार होता। अतः मास चान्द्र हैं तो वर्ष भी चान्द्र होंगे। किन्तु संसर्प वेद-वेदाङ्ग एवं पुराणों में ज्योतिष और अंहस्पति के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्षनाम सौर थे तथा मासों के मान चान्द्र ही थे। मासों का विस्तृत विवेचन आगे किया जायेगा। __ अयन - उदगयन और दक्षिणायन का प्रयोग जिस रूप में आज होता है सम्भवतः उस रूप में वैदिक काल में नहीं होता था। विषुवद् वृत्त (नाडी वृत्त) के उत्तर भाग में सूर्य की स्थिति उदगयन और दक्षिण भाग में सूर्य की स्थिति को दक्षिणायन कहा जाता था।’ ऋतु - वेदों में ऋतु के सन्दर्भ तीन मत उपलब्ध होते हैं। ऋ.सं. एवं शतपथ ब्राह्मण के अनुसार तीन ऋतुयें (ग्रीष्म, शरद् तथा वर्षा) ‘त्रीणि नभ्यानि’ तथा ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार पांच ऋतुयें कही गई हैं। यहां हेमन्त और शिशिर को एक ही माना गया है। अन्यत्र प्रायः छः ऋतुओं का उल्लेख है। ऋतुओं का आरम्भ वसन्त से तथा अन्त शिशिर से होता था। _ विषुव : विषुव दिन का अभिप्राय है दिवस और रात्रि की समानता का दिवस (जिस समय दिन और रात्रि का मान समान हो)। संवत्सर सत्र के प्रसंग में विषुववान् दिवस का उल्लेख मिलता है। संवत्सर के आदि में तथा संवत्सर के मध्य में एक-एक विषुवान दिवस होते हैं। इसमें स्पष्ट हो जाता है कि वसन्त सम्पात और शरत् सम्पात की ओर ही उक्त विषुव दिवस का संकेत है। यद्यपि वहां दिन-रात के मानों की समानता का उल्लेख नहीं है। किन्तु आरम्भ और मध्य में होने से प्रायः मेष और तुला के सम्पात से ही उसका सम्बन्ध सुनिश्चित है। दिवस के भाग : दिवस सामान्यतया दो सूर्योदयों के मध्यववर्ती काल को कहते हैं। दिवस अहोरात्र का सूचक है। वेदों में इसको कई भागों में विभक्त किया गया है। यथा दिवस (अहोरात्र) के दो भाग- दिन एवं रात्रि। दिन (सूर्योदय से सूर्यास्त तक) के दो भाग- १ पूर्वाह्ण, २. अपराह्म। दिन के तीन भाग- १. पूर्वाह्ण, २. मध्याह्ण, ३. अपराह्ण, दिन के चार भाग-१. पूर्वाह्ण, २. मध्याह्न ३. अपराह्न ४. सायम् । दिन के पांच भाग- १. प्रातः, २. संगव, ३. मध्याह्न ४. अपराह्ण, ५. सायम। दिन के पन्द्रह भाग- दिन और रात्रि को १५ १५ भागों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक भाग की मुहूर्त संज्ञा है। २ घटी का एक मुहूर्त होता है किन्तु दिन और रात्रि के मुहूर्त २ घटी से न्यूनाधिक भी हो सकते हैं क्योंकि दिन मान का १५ वां भाग एक मुहूर्त होगा। इसी प्रकार रात्रिमान का १५वां भाग रात्रि का एक मुहूर्त होगा। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में १५ मुहुर्तो के नाम पृथक् पृथक् कहे गये हैं। १. नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्णो द्यौः समवर्तत् पद्भ्यां भूमिः (यजुर्वेद) २. ऋ.स. १/१६४/२ ३. ऐ. ब्रा. १४/६ ४. ऋ.सं. ७/१०३/७, वा. सं० २६/४५, तै.ब्रा. ३/१०/४ द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणिनभ्यानि क उ तच्चिकेत। तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शंकतावोर्पिताः षष्ठिर्न ii १. ४. शत वा १/२/३, तै.सं. ६/५/३, २. शत व्रा. ३/४/४/१७, ३. ऐ.ब्रा. १/१ ऐ.ब्रा. १८/१८, ५. तै.ब्रा. ३/१२/६१, श.ब्रा. २/४/२/८, ६. तै.ब्रा. ३/१०/६, ३/१०/१ चलाचलासः १७ वेद-वेदाङ्ग एवं पुराणों में ज्योतिष तदनन्तर सभी नक्षत्रों के नाम उनके स्वामियों के साथ-साथ दिये गये हैं। यथा “अग्नेः कृत्तिका, प्रजापतेः रोहिणी। इत्यादि: अथर्व संहिता में अभिपित के साथ २८ नक्षत्रों का उल्लेख है। इस प्रकार वैदिक काल में ज्योतिष के मूलभूत सिद्धन्तों की स्थापना हो चुकी थी। जिनका पल्लवन पुराणकाल तक होता रहा। ज्योतिष-खण्ड कृष्ण पक्ष में रात्रि के १५ मुहूर्तो के नाम - १. अभिशास्ता, २. भनुमन्त, ३. आनन्द, ४. मोद, ५. प्रमोद, ६. आसादयन, ७. निषादन, ८. संसादन, ६. संसन्न १. सन्न ११. आभु, १२. विभु, १३. प्रभु, १४. शंभुः, १५. भुवः। कृष्ण पक्ष में दिन के १५ मुहूर्तों के नाम १. सविता, २. प्रसविता, ३. दीप्त, ४. दीपयन, ५. दीप्यमान, ६. ज्वलन, ७. ज्वलित, ८. तपन, ६. वितपन, १०. सन्तपन, ११. रोचन १२. रोचमान, १३. शंभूः, १४. शुंभमान, १५. वाम। शुक्ल पक्ष दिन के १५ मुहूर्त - १. चित्रा, २. केतु, ३. प्रभान, ४. आभान, ५. संभान्, ६. ज्योतिष्मान्, ७. तेजस्वान्, ८. आतपन, ६. तपन, १०. निमितपन, ११.रोचन, १२. रोचमान, १३. शोभन, १४. शोभमान, १५. कल्याण। शुक्ल पक्ष की रात्रि के १५ मुहूर्त १. दाता, २. प्रदाता, ३. आनन्द, ४. मोद, ५. प्रमोद, ६. आवेशन, ७. निवेशयन ८. संवेशन, ६. संशान्त १०. शान्त, ११. आभवन, १२. प्रभवन, १३. सम्भवन, १४. सम्भूत, १५. भूत। प्रतिमुहूर्त - एक मुहूर्त में १५ सूक्ष्म मुहूर्ते को प्रतिमहूर्त कहा जाता है। अर्थात् एक मुहूर्त का पन्द्रहवां भाग एक प्रतिमुहूर्त है। इस प्रकार एक प्रतिमुहूर्त का मान ८ कला के आसन्न होगा। यद्यपि वेदों में घटी और पला का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता फिर भी सरलता हेतु प्रतिमुहूर्त के प्रमाण को कला में दिखलाया गया है। कला-काष्ठा- इस प्रकार के काल मानों के प्रयोग मिलते हैं। किन्तु इनके प्रमाण का उल्लेख आन्वेषणीय है। नक्षत्र - आकश में स्वयं प्रकाशमान तारों को ‘तारा’ तथा रात्रिचक्र या चन्द्र विमण्डल के अन्तर्गत आने वालों को नक्षत्र कहा जाता है। इनकी संख्या २७ है। ऋ.सं. में नक्षत्र शब्द प्रायः तारों के लिए आया है। कहीं एक दो नक्षत्रों के नाम भी मिलते हैं यथा तिष्य (पुष्य) रेवती, अघा (मघा), अर्जुनी (फल्गुनी) आदि। तैत्तिरीय ब्राह्मण में नक्षत्र शब्द की परिभषा इस प्रकार दी गई है “प्राहुर्वा अग्रे क्षत्राण्यातेषु। तेषामिन्द्रः क्षत्राण्यादत्त। न वा इमानि क्षत्राण्यभूवन् इति। तन्नक्षत्राणां नक्षात्वम् ।।
पुराण एवं ज्योतिष
सृष्टि, प्रलय एवं युगादि ज्योतिषशास्त्र से सम्बन्धित विषयों का वर्णन प्रायः सभी पुराणों में प्राप्त होता है, किन्तु अग्निपुराण, विष्णुपुराण, नारदपुराण एवं गरुड़ पुराण में ज्योतिष विद्या का विशद वर्णन प्राप्त होता है। नारद पुराण के अध्याय ५३ के श्लोक १ से ११ तक ज्योतिष के विषयों का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है। तदनुसार ज्योतिष शास्त्र तीन स्कन्धों और चार लाख श्लोकों का है। उन तीन स्कन्धों के नाम गणित, जातक एवं संहिता स्कन्ध है। गणित स्कन्ध ही सिद्धान्त भाग है। इसमें परिकर्माष्टक अर्थात् भिन्न एवं अभिन्न के संख्याओं के जोड़, घटा व गुणन, भाग, वर्ण, वर्गमूल, घनएवं घनमूल का वर्णन है। इनके द्वारा ग्रहस्पष्टीकरण देश, दिशा एवं काल का ज्ञान, सूर्य एवं चन्द्र का ग्रहण, इनका उदयास्त, छायाधिकार, चन्द्रशृंगोन्नति, ग्रहयुति, पात एवं सूर्य चन्द्र की क्रान्ति का वर्णन दिया गया है। जातक स्कन्ध को ही होरास्कन्ध कहा जाता है। _ इसमें राशियों के भेद, ग्रहों की जाति, रूप, गुण, भेद आदि तथा जन्मफल, गर्भाधान, जन्म अरिष्ट, आयु, दशा क्रम, आजीविका, अष्टकवर्ग, राजयोग, नाभसयोग, चन्द्रयोग, प्रव्रज्या योग, राशिशील, ग्रहदृष्टिफल, ग्रहृभावफल, आश्रययोग, प्रकीर्ण अनिष्टयोग, स्त्रीजातक, नष्टजन्मपत्रिका विधान तथा द्रोष्काणादि के फलों का वर्णन है। संहिता स्कन्ध में ग्रहों का गति, वर्ष का लक्षण, तिथि, दिन, नक्षत्र योगकरण, मुहूर्त, उपग्रह, सूर्यसंक्रमण, ग्रहगोचर, चन्द्र तथा ताराबल, समस्त लग्नों का विचार, ऋतुदर्शन विचार, गर्भाधान पुंसवन, सीमन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन चूड़ाकरण, कर्णछेदन, उपनयन, मौजीबन्धन, वेदारम्भ, क्षुरिकाबन्धन, समावर्तन, विवाह, प्रतिष्ठा, गृहलक्षण, यात्रा विचार गृहप्रवेश, तत्कालवृष्टि का ज्ञान, कर्मो की विलक्षणता उत्पत्ति का लक्षण इत्यादि विषयों का वर्णन किया है। _ इस प्रकार तीन अध्यायों में ज्योतिष के तीन स्कन्धों के विषयों का संक्षिप्त निरूपण किया गया हैं। भास्कराचार्य के लीलावती प्रभृति गणित के ग्रन्थों में उपलब्ध प्रायः सभी विषयों का संक्षिप्त वर्णन इस नारद पुराण के तीन अध्यायों में प्राप्त होता है। समानमूलकता के कारण ही पुराणों एवं सिद्धान्तादि ग्रन्थों में विषय साम्य ही नहीं अपितु शब्दसाम्य भी १. तै. ब्रा. ३/१०/१-३, २. वही ३. वही ४: तै.ब्रा. ३/१०/६/६ ५. तै.ब्रा. २/७/१८/३ १८ ज्योतिष-खण्ड प्राप्त होता है। इसी से भ्रमवश कुछ लोग इनमें पौर्वापर्य की कल्पना करते हैं। किन्तु, उनकी परम्परा विरुद्ध कल्पना सर्वमान्य नहीं हो सकी है। इस विषय मे परम्परावादी विद्वानों का यह कहना है कि उपर्युक्त प्रकार के शब्द साम्य या विषय साम्य का कारण वस्तुतः समान मूलकता है न कि पौर्वापर्य। इसी के आधार पर कल्पारम्भ में ब्रह्मा का शास्त्रोपदेष्टा होना सिद्ध होता है। ज्योयितष में सिद्धान्त, संहिता एवं जातक स्कन्ध के अतिरिक्त सामुद्रिक एवं स्वर ज्ञान नामक दो स्कन्ध और भी जाने जाते हैं। इन विषयों का वर्णन गरुड़ पुराण के पूर्वखण्ड में प्राप्त होता है। “समुद्रोक्तं प्रवक्ष्यामि परस्त्रीलक्षणं शुभम्। येन विज्ञानमात्रेण अतीतानागतागमाः।। “अर्थात् समुद्र के कहे पुरुष एवं स्त्री के शुभ लक्षण को बतलाता हूँ जिसके ज्ञान मात्र से भूत एवं भविष्य का ज्ञाान होता है।” इसके अनन्तर विस्तारपूर्वक पुरुष एवं स्त्री के शुभ एवं अशुभ लक्षणों का महत्वपूर्ण वर्णन किया गया है। सामुद्रिक अध्याय में कुल ११२ श्लोक हैं। इसके पश्चात् स्वरोदय का वर्णन करने वाला ३८ श्लोकों का अध्याय है। “हरेः श्रुत्वा हरो गौरी देहस्थं ज्ञानमब्रवीत् कुजो वही रविः पृथ्वी शौरिरपः प्रकीर्तितः।। वेद-वेदाङ्ग एवं पुराणों में ज्योतिष १६ यजुर्वेद ज्योतिष में ५५ श्लोक हैं। इन दोनों के अनेक श्लोक एक सदृश हैं। किन्त, उनका पाठक्रम भिन्न है। ऋग्ज्योतिष के श्लोक संकेताक्षरों के प्रयोग के कारण अत्यधिक गूढ़ हैं। म० म० सुधाकर द्विवेदी, डा० आर. शामशास्त्री तथा शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने इन श्लोकों की गुत्थियों को सुलझाने का स्थूल प्रयास किया है।
- ऋग्वेद ज्योतिष एवं यजुर्वेद ज्योतिष में प्राप्त वचनों द्वारा यह पता चलता है कि ग्रन्थकार को ज्योतिष का ज्ञान किसी लगध नामक महात्मा से प्राप्त हुआ। यथा - “कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि लगधस्य महात्मनः” । “अर्थात् मैं लगध महात्मा के काल ज्ञानको बतलाऊँगा" यह वाक्य ऋग्वेद ज्योतिष के श्लोक २ एवं यजुर्वेद ज्योतिष के श्लोक ५३ में उपलब है। वेदांग-ज्योतिष की रचना के काल में विषय में पर्याप्त मतभेद है। शंकर बाल कृष्ण दीक्षित ने इसका रचना काल १२०० ई०पू० निर्धारित किया है। थीबो ने इसका रचना काल ब्राह्मण ग्रन्थों के बाद माना है। जोंस तथा प्राट के मतानुसार ११८१ ई०पू० तथा डेविस और कोलबुक के मतानुसार १३६१ ई०पू० है।’ वस्तुतः वेदांग ज्योतिष के विषय में यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इसकी रचना मन्त्रब्रह्मणात्मक वेदों के आविर्भाव के बहुत कालोपरान्त हुयी थी। अनेक वेदभागों के क्रमशः लुप्त होते रहने के कारण यत्किञ्चिद् उपलब्ध अंशों के आधार पर भिन्न-भिन्न शास्त्रों का उद्धार समय-समय पर अनेक ऋषियों एवं महात्माओं ने किया। वेदांग-ज्योतिष की भी ऐसी ही स्थिति रही है। ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन वैदिक यज्ञों के यथोचित काल का निरूपण रहा। फलतः वेदांग-ज्योतिष निश्चित रूप से वैदिक यज्ञों के सम्पादन के उपयोगी काल के निरूपण तक ही सीमित रहा। इसी से किसी पञ्चवर्षीय यज्ञ-क्रम से सम्बन्धित पञ्चवर्षीय युग का वर्णन तो वेदांग-ज्योतिष में प्राप्त होता है। किन्तु उसमें मन्त्रब्रह्मणात्मक वेद एवं वेदोपबृंहणस्वरूप पुराणोपपुराणों में वर्णित सृष्टि-प्रलयात्मक कालप्रवाह से सम्बन्धित लाखों-लाखों वर्षों वाले कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि नामक युगों एवं कल्पादि की गणना का विवरण प्राप्त नहीं होता। _ ऋग्वेदीय एवं यजुर्वेदीय ज्योतिष की अपेक्षा अथर्ववेदीय ज्योतिष में ज्योतिष सम्बन्धी अधिक विषयों का वर्णन प्राप्त होता है। यह १६२ श्लोकों का ग्रन्थ है। इसमें कालपरिमाण, करण, ग्रहभ्रमणकाल, तिथि, मुहूर्त, वार एवं जातक स्कन्ध सम्बन्धी तथ्यों का भी वर्णन हुआ है। वायुसंस्थः स्थितोराहुर्दक्षरन्ध्रादभासकः।। “अर्थात् हरि के कथन का श्रवण करके हर ने गौरी को देह में स्थित ज्ञान बतलाया था। भौम को वहि, रवि को पृथ्वी और सौरि (शनि) आपः कहा गया है। वायु रूप में स्थित राहु दक्षिण रन्ध्र का अवभासक होता है। सामुद्रिक एवं स्वरोदय के पूर्व ग्रहों की दशा, जन्मादि राशिफल तथा चन्द्रशुद्धि का वर्णन किया गया है। महापुराणों में अग्निपुराण, नारदपुराण एवं गरुडपुराण ही ऐसे पुराण हैं जिनमें ज्योतिषविद्या का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। विष्णु आदि अन्य महापुराणों में यत्र-तत्र व्रतादि के प्रसंग में ग्रह, नक्षत्र एवं राशियों से सम्बन्धित वर्णन हुआ है।
वेदांग-ज्योतिष
वेदांग-ज्योतिष की दृष्टि से सम्प्रति तीनपुस्तकें परिगणित हैं। आर्च ज्योतिष अथवा ऋग्ज्योतिष, यजुर्योतिष एवं अथर्वज्योतिष। ऋग्वेद ज्योतिष में ३६ श्लोक उपलब्ध हैं एवं १. एशियाटिक रिसर्चेज २/३६३, जे०ए०एस०बी० १३४६ एशियाटिक रिसर्चेज २/२६८, ५:२८८ तथा १/१०६/११० ज्योतिष-खण्ड
रामायण एवं महाभारत में ज्योतिर्विज्ञान
वाल्मीकि रामायण से यह सुस्पष्ट होता है कि रामायण के रचनाकार को युग, वर्ष, ऋतु, मास, नक्षत्रों के नाम, जातक-पद्धति एवं विषुव इत्यादि ज्योतिष के विषयों का पूर्ण ज्ञान था। रामायण में राम के जन्मांग का वर्णन भारतीय जातक-पद्धति की वेदमूलकता का प्रमाण है।’ इसके अतिरिक्त संहिता-स्कन्ध एवं शकुन शास्त्र के भी अनेक तत्त्वों का संकेत वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध होता है। महाभारत में वेदांग-ज्योतिष के पञ्चवर्षीय युग के अतिरिक्त सहस्रयुगीन दिन एवं रात्रि वाले ब्राह्म दिन का भी उल्लेख हुआ है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि “अणोरणीयान् महतो महीयान्” के परिचायक वेदों में वर्णित कालविषयक कल्पना का ही वर्णन ज्योतिष शास्त्र के रूप में संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद्, वेदांग, ज्योतिष एवं पुराणादि में हुआ है।