(महात्मा लगध प्रणीत वेदाङ्ग ज्यौतिष)
१. प्रयोजन- दिवस, ऋतु, अयन और मास जिसके अंग हैं ऐसे पञ्चसंवत्सरमय युगाध्यक्ष प्रजापति को नतमस्तक नमस्कार कर (मैं) पवित्र होता हुआ (अथवा शुचि नामक ज्योतिर्विद) यथाक्रम आकाशस्थ ज्योतियों के गमन (सूर्यादि ग्रहों की गति, स्थिति) को कहता हूँ जो पुण्यप्रद तथा यज्ञकाल की सिद्धि के लिए ब्राह्मणों में इन्द्र (श्रेष्ठ) अर्थात् ज्योतिर्विदों द्वारा सम्मत (स्वीकृत) है।
२. ज्योतिष प्रशंसा- वेद यज्ञों के लिए प्रेरित करते हैं। यज्ञ काल के अधीन हैं (क्योंकि यज्ञ के लिए उचित दिन, ऋतु, अयनादि का विचार किया जाता है) इसलिए यह (ज्योतिष) शास्त्र कालविधान-शास्त्र है। जो ज्योतिष को जानता है वह (दर्श, पौर्णमासादि) यज्ञों को भी जानता है।
३. मङ्गलाचरण-काल को नतमस्तक प्रणाम कर तथा सरस्वती का अभिवादन कर महात्मा लगध के द्वारा प्रणीत कालज्ञान का वर्णन करता हूँ। ४. गणितप्रशंसा-जिस प्रकार मयूरों की शिखा एवं नागों की मणियां उनके मस्तक पर शोभित होती हैं उसी प्रकार वेदाङ्ग शास्त्रों में गणितशास्त्र शिर स्थान में स्थित है अर्थात् गणितशास्त्र की प्रधानता है।
५. युगारम्भ एवं समाप्ति-माघ शुक्ल (प्रतिपदा) से प्रारम्भ एवं पौष कृष्ण (अमावस्या) को समाप्त होने वाले पञ्चवर्षात्मक युग के काल (सौर, चान्द्र, सावन नाक्षत्र रूपी) ज्ञान को कहते हैं। युगादि प्रवृत्ति-जब चन्द्र और सूर्य एकत्र वासव (= धनिष्ठा) नक्षत्र में प्राप्त होकर आकाश में आक्रमण (अर्थात् दृष्टिगोचर) करते हैं तब युग, माघ (मास), तपस्’ शुक्ल (पक्ष) और उत्तरायण का आरम्भ होता है।
७. अयनारम्भ- श्रविष्ठादि (= धनिष्ठा के आरम्भ) में सूर्य व चन्द्रमा उत्तर की ओर गमन (उत्तरायण) करते हैं तथा सार्पार्ध (= आश्लेषा के आधे) में दक्षिण की ओर प्रवृत्त (दक्षिणायन) होते हैं। सर्वदा सूर्य माघ एवं श्रावण मासों में (क्रमशः) उत्तर एवं दक्षिण (की ओर भ्रमण करता है)।
८. दिन एवं रात्रिमान में ह्रासवृद्धि प्रमाण- (सूर्य के) उत्तरायण में रहने पर जल के एक प्रस्थ (= ४/६१ घटी) के बराबर धर्म (दिन) की वृद्धि एवं एक प्रस्थ ही क्षपा
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लेखक
३८१-३८२
१. तपस् शब्द माघ मास का वैदिक नाम है। संभवतया यहाँ तपस् से ‘शिशिर ऋतु का प्रारम्भ’ से तात्पर्य
है क्योंकि “तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू" (तै.सं. ४।४।११) ‘तपस्’ शिशिर ऋतु का प्रारम्भिक मास है।
ज्योतिष-खण्ड
(रात्रि) का ह्रास होता है। दक्षिणायन में इसके विपरीत स्थिति होती है (अर्थात् १ प्रस्थ दिनमान का ह्रास एवं १ प्रस्थ रात्रिमान में वृद्धि होती है)। एक अयन से दूसरे
अयन मैं दिनरात्रि में ६ मुहूर्त (= १२ घटिका) की ह्रास वृद्धि होती है। ६. पञ्चवर्षात्मक युग में अयनारम्भ तिथियाँ- प्रतिपदा, सप्तमी, त्रयोदशी चतुर्थी और
दशमी (ये तिथियाँ) दो बार अयनादि होती हैं। वे क्रमशः २-२ (अयनों की) आदि (तिथि) होती हैं। कृष्णपक्ष में भी (अयन) होता है। विशेषार्थ- शुक्लपक्ष की १, ७, १३ तथा कृष्णपक्ष की ४, १० पुनः शुक्लपक्ष की १, ७, १३ एवं कृष्णपक्ष की ४, १० ये तिथियाँ पाँच सम्वत्सरों में होने वाले सूर्य के १० अयनों की आरम्भ तिथियां है। अयन माघ एवं श्रावण में होते हैं अतः क्रमशः
ये तिथियां माघ एवं श्रावण मास की हैं। १०. अयनारम्भ में चान्द्रनक्षत्र एवं सूर्यनक्षत्रों में ऋतुयान- वसु (धनिष्ठा), त्वष्टा
(चित्रा), भव (आर्द्रा), अज (पूर्वाभाद्रपद), मित्र (अनुराधा), सार्प (आश्लेषा), अश्विनौ (अश्विनी), जल (पूर्वाषाढा), अर्यमा (उत्तराफाल्गुनी) कः (रोहिणी)-ये अयनारम्भ में चन्द्र नक्षत्र हैं। ४ १/२ नक्षत्रों (सूर्य के नक्षत्रों) की एक ऋतु होती है।
वर्ष
अयन
आरम्भतिथि | नक्षत्र प्रथम |१. प्रथम (उत्तरायण) । माघ शुक्ल १ धनिष्ठा प्रथम | २. द्वितीय (दक्षिणायन) श्रावण शुक्ल ७
|१. तृतीय (उत्तरायण) माघ शुक्ल १३ आर्द्रा द्वितीय | २. चतुर्थ (दक्षिणायन) श्रावण कृष्ण ४ पूर्वाभाद्रपद
| १. पञ्चम (उत्तरायण) माघ कृष्ण १० अनुराधा | २. षष्ठ (दक्षिणायन) श्रावण शुक्ल १ आश्लेषा
| १. सप्तम (उत्तरायण) माघ शुक्ल ७ अश्विनी चतुर्थ | २. अष्टम (दक्षिणायन) श्रावण शुक्ल १३ | पूर्वाषाढा पञ्चम | १. नवम (उत्तरायण) माघ कृष्ण ४ | उत्तराफाल्गुनी
पञ्चम | २. दशम (दक्षिणायन) श्रावण कृष्ण १० रोहिणी ११. मासान्तर में दिनानयन एवं पर्वविशेष- पूर्व (वार) के आरम्भ होने के बाद एक
दिन और एक मास के अन्तर से उत्तर दिवस व मास जानना चाहिए (अर्थात् जिस
चान्द्र मास में जो वार है उससे अगले चान्द्र मास में उसका अगला वार जानना १. उत्तरायणारम्भ में परमाल्प दिनमान = ३० - ६ = २४ घटिका, उत्तरायणारम्भ में परमाधिक रात्रिमान
= ३० + ६ = ३६ घटिका, दक्षिणायन में परमाधिक दिनमान = ३६ घटिका, दक्षिणायन में परमाल्प रात्रिमान = २४ घटिका।
चाहिए। जैसे प्रथम चान्द्रमासारम्भ में सोमवार है तो द्वितीय चान्द्रमासारम्भ को मंगल होगा)। (वक्ष्ययाण १४ श्लोक में जो) दिवस के पञ्चभागात्मक पाँच पर्व हैं उनके अर्धखण्डों के पन्द्रहवें एवं आठवें भाग में सूर्य का तेज मन्द होने के कारण ‘मृदु’ समझें। १२. पर्व में अंशानयन- यदि (सावन) दिन के पाद (चतुर्थांश भाग अर्थात् सूर्योदय से मध्याह्न पर्यन्त) में हो तो गणितागत ही अंशयान जानना चाहिए। पाद में ३१ भाग’ होते हैं। यदि अंशयान पादांश (३१) से अधिक हो तो उन अंशों से पादांश को कम करके शेष अंशों को द्वितीय पादांश का अंशयान निर्दिष्ट करना चाहिए। इसी प्रकार रात्रि में अपने-अपने पादांश का साधन करना चाहिए। १३. युगारम्भ से इष्टपर्वपर्यन्त पर्वगणसाधन- (वर्तमान सौरवर्षयान को) एक कमकरके शेष को १२ से गुणकर गुणनफल को २ से गुणा करें। उसमें (वर्तमान चान्द्रवर्षीय गतचान्द्रपर्वसंख्या के समान) गतरविपर्वसंख्या जोड़ें। संयुक्तमान को २ से गुणा कर ६० से विभक्त करें। प्राप्त निरग्र लब्ध को संयुक्तमान में जोड़ने पर चान्द्र पर्यों का राशिगण होगा। अर्थात् (वर्त. सौरवर्ष-१) x १२ x २ + गतरविपर्व = संयुक्तमान संयुक्तमान x २ = निरग्रलब्धि ६० संयुक्तमान + निरग्रलब्धि = पर्वगण १४. दिन के अष्टयामों में पर्व आने पर उनकी संज्ञा- दिन के जो पहले के तीन (३, २ और १) पादार्ध है वे त्रिपाद्या पादार्ध हैं। वहाँ पर चन्द्र की स्थिति होने पर साभ्यता के कारण पर्वदिन में ‘त्रिपदी’ योग होता है। जैसे यदि पादार्ध द्वितीय में पर्व है तो वहाँ पर पूर्व और पर पादार्थों का भी पर्वसान्निध्य होने से स्नान दानादि में विशेष पुण्य होता है अतः तीनपादों का ‘त्रिपदी’ नामविशिष्ट योग के कारण ‘पूर्व’ संज्ञा है। एवं उस पर्व में जो अन्य पाँच पादार्ध अवशिष्ट हैं वे ‘पूर्व’ में सम्मिलित हैं, उनमें स्नान दानादि का पुण्य अन्य साधारण पणे के बराबर होता है। १५. पर्व में चन्द्रनक्षत्रानयन के लिए भांशसाधन- १२ मासों (वर्तमान वर्ष में) प्राप्त अभीष्ट पक्षों का साधन करें। उन पक्षों को ११ से गुणा करने पर चन्द्र के भांश प्राप्त होते हैं। यदि चान्द्रपक्ष शुक्लपक्ष हो तो पूर्वागत भांशों में आधा जोड़ें अर्थात् भांशों (१२४) का आधा (६२) जोड़ने पर चन्द्र के भांश होते हैं। चित्रा पञ्चसंवत्सर = १ युग 碰碰丽丽 १. वेदाङ्ग ज्योतिष में सावन दिन एवं नक्षत्र यान के १२४ भाग किये गये हैं, अतः १२४/४ = ३१। २. पूर्णान्त एवं दर्शान्त की पर्वसंज्ञा समझनी चाहिए। वेदाङ्ग ज्यौतिषम् २१. इष्टतिथि तुल्यगतनक्षत्र व उसकी कला- (पूर्व प्रकार से) पर्व समय में जो भादान (नक्षत्र की भोग्य) कला आती है उनमें ७ से गणित तिथि को जोड़ने से वे (उस) तिथि के दिन की भस्यादान (नक्षत्र की आदान) कलाएं होती हैं। २२. तिथिमान साधन- (सूर्योदय से) गत पर्व के जो भोग भाग (उन्नतांश) एक सावन दिन में १२४ से अधिक हैं उनमें से २ गुणित तिथि को शोधित करें। शेष उन स्वाहोरात्रवृत्त भागों में जब रवि आता है तो वह रवि तिथि मानान्त में होता है। (अर्थात् द्विगुणित तिथि को घटाने से जो अहोरात्रवृत्त के भाग आयेंगे वे ही तिथि के भोगभाग हैं। उन भाग के समान जब रवि उन्नत रहता है तब वह तिथ्यन्त में स्थित होता है।) २३. अभीष्ट विषुवत् समय में युगादि से पक्ष-तिथ्यानयन- (युगादि से अभीष्ट विषुवत् तक संख्यात्मक) विषुवमान को २ से गुणाकर एक घटायें। शेष को ६ से गुणा करें, यह गुणनफल अपने विषुवत् समय में युगादि से पक्ष होंगे। पक्षों का जो आधा है वही तिथि विषुवान् होती है। अर्थात् विषुवदन्तर्गत = ६ (२ वि. - १) पक्ष + ६ (२ वि.-१) तिथि। ज्योतिष-खण्ड १६. कृष्णपक्ष में भांशमान- पक्ष से १५ तिथि के ऊपर (शुक्लपक्ष के अवसान पर) जो तिथि भांश (वक्ष्यमाण श्लोक २० के प्रकार से) आता है उसे नौ अंश बढ़ायें (अर्थात् तिथि भांश में ६ अंश जोड़े) तब युक्तांश ही वास्तव भांश होता है। उसे ही ‘भुक्त’ कहना चाहिए। (यदि नक्षत्रवश सावनदिन अपेक्षित हो तो) एक सावन दिन से तथा ७ कला से प्रति नक्षत्र सम्बन्धी सावन दिन को जानें। विषमपक्ष (कृष्णपक्ष) में प्राप्त भांश को ६ अंश बढ़ाने पर वास्तव भांश मान होता है। तब (वक्ष्यमाण श्लोक १६ की विधि से) जो भादानकला आती है उसमें नक्षत्र को ७ से गुणाकर जोड़ने पर (अर्थात् भादानकला + नक्षत्र x ७) सावयव रविसावन दिन प्राप्त होता है। चन्द्र के अस्त होने पर (दर्शान्त में) अपरमान (सावनदिन) का ही साधन करना चाहिए। वहाँ ६ अंश बढ़ाना (जोड़ना) चाहिए। १७. पक्षान्त में भांश ज्ञान से नक्षत्रज्ञान- पर्वसमय में भांशों के तुल्य ‘जौ’ (अश्वयुजौ = अश्विनी) आदि नक्षत्रों को जानना चाहिए अर्थात् पर्वकाल में पूर्वोक्त प्रकार से साधित भांशों की संख्या (वक्ष्यमाण) | द्रागः’ इत्यादि क्रम से गणना करने पर जिस नक्षत्र में आये वही पर्व में नक्षत्र होता है। (रवि सावन दिन के) पूर्वाह्ण में पर्व हो तो उसी दिन (स्नान-दानादि कार्य योग्य) पर्व जानना चाहिए। यदि दिन के उत्तरार्ध में पर्व हो तथा द्विपादभाग से अधिक भांशमान हो (अर्थात् मध्याह्न के बाद) तो उसी दिन (यद्यपि दर्श-पौर्ण मास का प्रारम्भ नहीं है किन्तु स्नानदानादि कर्म के लिए उदयकालिक) चतुर्दशी तिथि को ही पूर्व विधि से आगत ‘भस्यादान’ (नक्षत्र भोग्यमान साधन) के लिए ग्रहण करना चाहिए। १८. भांशक्रम से नक्षत्रों के लघुनाम- जौ (अश्वयुजौ), द्रा (आर्द्रा), गः (भग = पू.फा.), खे (विशाखा), श्वे (विश्वे = उ.षा.), हिर् (अहिर्बुघ्न्य = उ.भा.), रो (रोहिणी), षा (आश्लेषा), चित् (चित्रा), मू (मूल), षक् (शतभिषक्), ण्यः (भरणी), सू (पुनर्वसु), या (अर्यमा), धा (अनुराधा), णः (श्रवण), रे (रेवती), मृ (मृगशीर्ष), घा (मघा), स्वा (स्वाती), पः (आपः = पू.षा.), जः (अजः = पू.भा.), कृ (कृतिका), ष्यः (पुष्य), ह (हस्त), ज्ये (ज्येष्ठा), ष्ठा (धनिष्ठा)-ये नक्षत्रों के संकेत (शीघ्र स्मरण के लिए है।) १६. पर्वभांश से कलानयन- भांशों के अष्टका’ के स्थान पर १६ कलायें रखें, हीन जातीय काष्ठा के स्थान में १२ में ७२ जोड़कर (अर्थात् ८४) रखें। एकाष्टका = १६ कला + ८४ काष्ठा। २०. इष्टतिथि में नक्षत्रानयन- १२ और १० को गुणाकर (अर्थात् १२० को) पर्व में (श्लोक १५ की विधि से) साधित भांशों से जोड़ दें। उसमें भांश समूह (१२४) का भाग देकर लब्धि को तिथि सम्बन्धित नक्षत्र कहना चाहिए। १. एक वर्ष में चार अष्टकायें होती है, अतः अष्टका से चार का ग्रहण होता है। २४ (क). दश विषुवों में तिथि- ३, ६, १५ (पूर्णिमा), ६, १२ इन तिथियों में विषुवान् होता है। पुनश्च (इसी क्रम से) तृतीयादि विषुवान् होकर द्वादशी तिथि में दशम विषुवान् होगा। २४ (ख). नाडिका प्रमाण- ५० पल जल जिस पात्र में रखा जायें (अर्थात् ५० पल पानी की क्षमता वाला पात्र) उसको ‘आढ़क’ कहते हैं। उस आढ़क से एक द्रोण पानी … ना। उस द्रोण में से ३ कुडव निकाल दें। शेष जल को नाडिका कहते है। २५ (क). घटिका-मुहूर्त्तादि परिभाषा- २ नाडी का १ मुहूर्त व ५० पलों का एक आढ़क होता है। आढ़क से प्रसिद्ध प्राचीन परिभाषा ‘कुम्भिका’ (घटिका) जानना चाहिए। कुम्भिका प्रमाण से ३ कुडव अधिक द्रोण का प्रमाण (मान) होता है। (अतः द्रोण से ३ कुडव न्यून करने पर घटिका या नाडी होती है) २५ (ख). इष्ट तिथि में रविनक्षत्रानयन- गत पर्व संख्या को ११ से गुणा करें। पर्व के अनन्तर जो तिथि है उसको ६ से गुणाकर पूर्वगुणनफल में जोड़ दें। युग में जितनी पर्वसंख्या (१२४) है उससे योगफल में भाग दें। लब्धफल को पर्वमान (गत पर्व संख्या) में जो जोड़ने पर (युगादि से धनिष्ठादि से गणना करने पर) क्रमशः वर्तमान सूर्य नक्षत्र आता है। ११ पर्व + (इ. ति x ६) = यगादि से सूर्यनक्षत्रमान पर्व + १२४ ज्योतिष-खण्ड २६. वर्तमान नक्षत्र में सूर्य प्रवेश कालसाधन- (उक्त प्रकार से वर्तमान) सूर्य नक्षत्र के जो भुक्त भाग हैं उनको ६ से विभाजित करें। प्राप्तफल को दो स्थानों में रखें, प्रथम स्थान में फल को २ से गुणा करके गुणनफल से (दिनांशमान से) पूर्वागत फल दिनात्मक (द्वितीय स्थान पर रखे फल) को घटाकर शेष ग्रहण करना चाहिए। वही शेष सूर्य के दिनोपभुक्ति (अर्थात् शेष के तुल्य सावन दिनादि से वे भाग रवि द्वारा भुक्त) होते हैं। अतः उन सावन दिन के आरम्भ से अर्थात् वर्तमान समय से पूर्व ही उस नक्षत्र के प्रारम्भ में रवि का प्रवेश होगा। (दिनोपभुक्ति = भुभां सावनदिन - २ भुभां सावन दिनांश) ६ इस प्रकार वर्तमान तिथि के भुक्त भांशों से अथवा युति (पर्वगणोद्भव भुक्तभांशो) से जो भुक्त दिन हैं उनसे पूर्व जो काल है वही योग (नक्षत्र से सूर्य का योग) काल होता है। योगकाल का ज्ञान होने पर “दिन में ११ से….” (२५ ख श्लोकोक्त) इस नक्षत्रानयन प्रकार से योग सम्बन्धी नक्षत्र को जानना चाहिए। २७. रवि भुक्त नक्षत्रों में सावन दिन- १४वें सावन दिन के जो अंतिम त्र्यंश हैं उसे ‘भशेष’ कहते है। अतः उस भिन्न (खण्डात्मक) मान को १४ सावन दिन से न्यून करने पर १४ दिनांश में रवि का एक नक्षत्र भोग होता है। (१४ - १/३ = १३ २/३ सावन दिनों में सूर्य एक नक्षत्रभोग करता है।) रवि के भाई (२७/२ = १३ १/२) से अधिक अथवा कम अंशों में रहने पर ६ नक्षत्रों से जो अपर एक अंश होना चाहिए, यह मान भी पूर्व प्रकार से आगत नक्षत्र सम्बन्धी सावनदिनमान में शोधन के लिए कहा गया है। अर्थात् एक नक्षत्र भोग सावन मान को (१४ - १/३) इष्टनक्षत्रसंख्या से गुणा करने पर इष्टनक्षत्र सम्बन्धी सावनदिनमान आता है। वहाँ ६-६ नक्षत्रों से १-१ दिन घटाने पर वास्तव मान जानना चाहिए। अन्यथा स्थूल आयेगा। २८. युग में सावन दिनादि- ३६६ दिन से एक सौरवर्ष होता है। उस सौरवर्ष में ६ ऋतुएँ, २ अयन और १२ सौरमास होते हैं। युग इसका पञ्चगुणित होता है। २६. सौर-चान्द्र-नाक्षत्रादिमान- (युग में वर्ष की) दिनसंख्या के पञ्चगुणित (३६६ x ५ = १८३०) वासव’ के उदय होते हैं। ऋषि (चन्द्र) के उससे ६२ कम होते हैं। उसी दिन राशि में २१ कम करने पर चन्द्रनक्षत्रमान होगा। अर्थात् १ युग = ५ सौरवर्ष में सावन दिनसंख्या = १८३० चन्द्रसावनदिन = १७६८ एवं चान्द्रनक्षत्रमान = १८०६ होते है। वेदाङ्ग ज्यौतिषम् ३०. अन्य परिभाषायें- पौष्ठा (सौरनाक्षत्रमान) एक युग में १३५ होता है। इस मान में एक कम करने पर (अर्थात् १३४) युग में चन्द्र के अयन होते हैं। युग में जो चन्द्र के पर्व (१२४) हैं उसके चतुर्थांश (३१) को पर्वपाद कहते हैं। इसलिए युग में पर्व के चतुष्पाद का मान १२४ होता है। इतने ही (१२४) काष्ठाओं की एक कला होती है ३१. मास संख्या- युग में सावन मास संख्या ६१, चान्द्रमास ६२ और नाक्षत्रमास ६७ होते हैं। ३० सावन दिनों का एक सावन मास होता है। जो सौरवर्ष है वही नक्षत्रों में सूर्यभ्रमणकाल है (अर्थात् १ सौरवर्ष में सूर्य एकनक्षत्रचक्र का भोग करता है) ३२-३५. यज्ञ में पूजन के लिए नक्षत्र देवता- कृतिकादि नक्षत्रों के क्रमशः अग्नि, प्रजापति, सोम, रुद्र, अदिति, वृहस्पति, सर्प, पितर, भग, अर्यमा, सविता, त्वष्टा, वायु, इन्द्राग्नि, मित्र, इन्द्र, निर्ऋति, आपः, विश्वदेवा, विष्णु, वसु, वरुण, अहिर्बुघ्न्य, अजैकपाद, पूषा, अश्विनी कुमार एवं यम-देवता हैं। शास्त्रज्ञों ने यज्ञकर्म में इन नक्षत्र देवताओं के नाम से यजमान का नक्षत्र नाम रखने के लिए कहा है। ३६. उग्र व क्रूर नक्षत्र- आर्द्रा, चित्रा, विशाखा, श्रवण एवं अश्विनी ये उग्र नक्षत्र एवं मघा, स्वाती, ज्येष्ठा, मूल और भरणी- ये क्रूर नक्षत्र हैं। ३७. चन्द्रपर्वगण से सूर्यपर्वगण साधन- (युगादि से वर्तमान पर्यन्त) पर्वगणमान को २ से गुणाकर ६२ से विभाजित करके लब्ध फल को उसमें (चन्द्रपर्वगण) ही न्यून करना चाहिए, जो शेष है वह सौरपर्वगणमान होगा। इस प्रकार करने पर युगमासों के मध्य में (३० सौरमासान्त में) एक और अन्त में (६० सौरमासान्त में) भी एक अर्थात् कुल २ अधिमास उत्पन्न होते हैं।’ ३८. कला, मुहूर्त, नाडी का संबंध- एक के बीसवें भाग सहित १० कला की १ नाड़ी होती है। एक मुहूर्त में २ नाड़ी होते हैं। ३० मुहूर्त (६० नाड़ी) का एक सावन दिन होता है। एक सावन दिन में ६०३ कलायें होती हैं। ३६. सूर्य व चन्द्र का नक्षत्र भोग काल- चन्द्र जितने समय तक नक्षत्र के साथ युक्त रहता है उस काल का मान सात कलाधिक एक रवि सावनदिन होता है (अर्थात् चन्द्र द्वारा एक नक्षत्र भोगकाल = १ सावन दिन + ७ कला)। और सूर्य १३ सावन दिन एवं दिन के ५/६ भाग तक (१३ + ५/६ सावन दिन तक) एक नक्षत्र का भोग करता है। ५ (गुरु) अक्षरों की एक काष्ठा होती है। ४०. मुहूर्तात्मक दिनमान- अयनारम्भ दिन से उत्तरायण के जितने सावन दिनमान व्यतीत _हो चुके हैं और दक्षिणायनारम्भ दिन से दक्षिणायन के जितने सावन दिन बीत चुके श्रीशंकर बालकृष्ण दीक्षित जी के अनुसार (सावन) दिन में उसका ६२वां भाग घटा देने पर जो शेष रहता है उसे चान्द्र (दिन अर्थात् तिथि) कहते हैं। (६०वां भाग छोड़ देने से सौर दिन होता है) सौर दिन से तिथि छोटी होने के कारण (युग के) मध्य और अन्त में २ अधिमास आते हैं। वासव = धनिष्ठा, यहाँ धनिष्ठा उपलक्षणार्थ है। उक्त संख्या सभी नक्षत्रों के भभ्रम होने चाहिए। किन्तु यहाँ वासव का तात्पर्य सूर्य से होने पर अर्थसंगति है। २. १०- कला = १ नाडी, २ नाड़ी = १ मुहूर्त, ३० मुहूर्त = १ सावन दिन = ६०३ कला। २० हैं, उनको अयनान्तर्गत सावन दिनमान से घटाकर जो शेष दिनमान हो उसको २ से गुणा करके गुणनफल को ६१ से विभाजित कर प्राप्त लब्धि में १२ मुहूर्त जोड़ें। तब मुहूर्त्तात्मक दिनमान होता है। ४१. ऋतु शेषानयन- प्रत्येक पर्व में सदा (चान्द्र) दिन भाग का जो आधा शेष रह जाता है वह (चान्द्रसौर पर्वान्तर) जब पर्वगण के साथ आता है तब इष्ट पर्वसमय में रविचन्द्रपर्वान्तर के तुल्य ऋतुशेष को जानना चाहिए। (अर्थात् पर्वगण को एक पर्व से उत्पन्न रवि चन्द्र के पर्वान्तर (चान्द्र) दिनार्द्ध तुल्य से गुणा करने पर गुणनफल अभीष्ट समय में ऋतुशेष होता है।) चान्द्रसौर पर्वान्तर रूप अधिशेष (ऋतुशेष) = पर्वगण – ४२. लग्नानयन एवं चन्द्रर्तुसाधन- भगण (२७) से, धनिष्ठा उदय से जो इष्टकाल भाग है उनको गुणा करें। उन भांशो को धनिष्ठा से गिनकर पूर्व दिशा में लगने वाले भांशों का निर्देश करें। अपने नाक्षत्रमासों को ६ से गुणा करने पर चन्द्र संबंधी ऋतुओं को जानना चाहिए। स्पष्टार्थ-लग्न = २७ x इ.भ. दिन भाग = धनिष्ठा से भांश :: चन्द्र का एक भगणकाल = १ नाक्षत्रमास १ नाक्षत्रमास = १ चन्द्र भगणकाल = ६ ऋतु .:. नक्षत्रमास x ६ = चान्द्र ऋतु ४३. बेधोपाय- पूर्वोक्त विधि से बेधोपाय (उपाय समुद्देश्य) के उपदेश को इस प्रकार जानना चाहिए। बेध से ज्ञात राशि में प्राप्त किसी भी पदार्थ को जानकर तब ज्ञेयराशि (जानने योग्य राशि) में उस पदार्थ का आनयन के लिए गणक ज्ञात राशि से संबंधित पदार्थ से गुणित ज्ञेयराशि को ज्ञात राशि से विभाजित करे। लब्धि ज्ञेय राशि संबंधी पदार्थमान होता है। इस प्रकार ज्ञातराशि से बार-बार सभी सावनदिवसादियों की प्रकल्पना करें। अर्थात्- ज्ञातराशि संबंधी पदार्थमान X ज्ञेयराशि = ज्ञेयराशि संबंधी पदार्थमान ज्ञातराशि ४४. उपसंहार- इस प्रकार (पूर्वोक्त) मास, वर्ष, मुहूर्त, (चन्द्रादियों) का उदय, (सावन दिनों के) पर्व, दिन, ऋतु, अयन एवं (चान्द्र, नाक्षत्रादि) मासों का व्याख्यान लगध ने किया है। ४५. ज्यौतिषवेदाङ्गविद प्रशंसा/फल-चन्द्र, सूर्य और नक्षत्रों के चरित (गति, स्थित्यादि) को भी विद्वान् जानता है वह विद्वान् (देहत्याग पश्चात्) चन्द्रलोक, सूर्यलोक एवं नक्षत्रलोक में जाकर सुख का भोग करते है और इस संसार में सन्तति (पुत्र-पौत्रादिक) का सुख प्राप्त करते हैं। (विशद अनुवाद : प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी)
ज्योतिष-खण्ड