संस्कृत-वाङमय का बृहद, इतिहास षोडश-खण्ड ज्योतिषशास्त्र प्रवर प्रधान सम्पादक |स्व. पद्मभूषण आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय प्रधान सम्पादक प्रो. श्रीनिवास रथ सम्पादक प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ जीवनवृत्त प्रधान सम्पादक श्रीनिवास रथ ‘श्रीलीला’ १२, उदयन मार्ग, उज्जैन-४५६०१० फोनः ०७३४-२५१७३५५ श्रीनिवासे रथ पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, निदेशक, कालिदास अकादेमी, उज्जैन तथा उपाध्यक्ष, महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन। कार्तिक पूर्णिमा संवत् १६६० (१.११.१६३३) को पुरी (ओडिशा) में जन्म। माता-श्रीमती लक्ष्मी देवी, पिता-सर्वतन्त्र स्वतन्त्र पं. जगन्नाथ शास्त्री। एम.ए. (संस्कृत) का.हि.वि.वि. वाराणसी तथा साहित्याचार्य, राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, (क्वींस कालेज) वाराणसी। मूलतः पारम्परिक पद्धति से व्याकरण तथा साहित्य का अध्ययन। कविता संग्रह-‘तदेव गगनं सैव धरा’ तथा काव्य ‘बलदेवचरितम्’। (सर्ग १-५) मेघदूत तथा उरुभगं -हिन्दी अनुवाद के अतिरिक्त अनेक आलेख प्रकाशित। म.प्र. साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा राजशेखर पुरस्कार- १६८५ । संस्कृत के लिये राष्ट्रपति सम्मान पत्र-१६६५ । संस्कृत कविता के लिये साहित्य अकादेमी पुरस्कार-१६६६। श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली द्वारा ‘महामहोपाध्याय - २००६। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ द्वारा ‘विश्वभारती’ पुरस्कार- २००८। महाराष्ट्र शासन द्वारा ‘महाकवि कालिदास साधना’ पुरस्कार- २००८ । राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति द्वारा मानद ‘महामहोपाध्याय - २००६। सम्प्रति-स्वाध्याय, रचनात्मक लेखन, सम्पादन। संस्कृत-वाङ्मय का बृहद् इतिहास षोडश-खण्ड ज्योतिषशास्त्र प्रवर प्रधान सम्पादक स्व. पद्मभूषण श्री बलदेव उपाध्याय प्रधान सम्पादक प्रो. श्रीनिवास रथ सम्पादक प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ प्रकाशक : अशोक घोष निदेशक : उत्तर-प्रदेश-संस्कृत-संस्थानम्, लखनऊ संस्कृत-वाङ्मय-बृहदितिहासं परिभाषिताष्टदशाश्वासम् । मनसि विभाव्याकलितोपायाः श्रीयुतबलदेवोपाध्यायाः।। प्राप्ति स्थान : विक्रय विभाग : उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, नया हैदराबाद, लखनऊ-२२६ ००७ फोन : २७८०२५१, फैक्स : २७८१३५२ ई-मेल : nideshak@upsansthanam.org प्रथम संस्करण : वि.सं. २०६६ (२०१२ ई.) प्रतियाँ : ११०० मूल्य : ४००/- (चार सौ रुपये) © उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ प्रवर प्रधान सम्पादक पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय (संवत् १६५६-२०५६ : १८६६-१६६६ ई.) मुद्रक : शिवम् आर्ट्स, निशातगंज, लखनऊ। फोन : ६४१५५१८६५४ email : shivamarts@sancharnet.in प्रकाशकीय ज्योतिष शास्त्र का उत्स वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है। भास्कराचार्य ने इसकी श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए कहा है कि शब्दशास्त्रं मुखं ज्यौतिषं चक्षुषी श्रोतमुक्तं निरुक्तं च कल्पः करौ। या तु शिक्षास्य वेदस्य सा नासिक पादपदमद्वयं छन्द आद्यैर्बुधैः।। वेदांगों में ज्योतिष शास्त्र को नेत्र स्थान प्राप्त है। आचार्य वराहमिहिर के बृहत्संहिता के अनुसार ज्योतिष शास्त्र के प्रमुख तीन स्कन्ध हैं __१. सिद्धान्त २. होरा ३. संहिता। सिद्धान्त स्कन्ध में त्रुटिकाल से लेकर प्रलय तक की गणना की जाती है। कितने दिनों का महीना तथा कितने महीनों का एक वर्ष होता है आदि का विवेचन सिद्धान्त ग्रन्थों में किया गया। ग्रहलाघव जैसे ग्रन्थों का प्रणयन ग्रह गणित हेतु किया गया। होरा स्कन्ध को जातक अथवा फलित नाम से भी अभिहित किया जाता है। इसके द्वारा जातक के जीवन सम्बन्धी फल कथन किया जाता है। होरा स्कन्ध के मुख्यतः पाँच भेद हैं-जातक, ताजिक, मुहूर्त, प्रश्न तथा संहिता। बृहत्संहिताकार आचार्य वराहमिहिर के अनुसार गणित एवं फलित के मिश्रित रुप को संहिता ज्योतिष कहा गया। वेदांग ज्योतिष के प्रणेता लगध, वसिष्ठ, सौर, पौलिश, रोमक सिद्धान्त से होते हुए सूर्य सिद्धान्त तक आकर यह शास्त्र अत्यन्त स्पष्ट हो गया। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त भास्कराचार्य प्रभृति प्रमुख आचार्यों ने इसे विस्तार दिया। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा संस्कृत वाङ्मय का बृहद इतिहास के षोडश ज्योतिष शास्त्र खण्ड का प्रकाशन किया जा रहा है। इस खण्ड के लिए लेखन कार्य करने वाले उन समस्त विद्वान् लेखकों का आभार मानता हूँ, जिनके परिश्रम से ही यह ग्रन्थ अपना स्वरूप पा सका। वर्तमान सम्पादक प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय का विशेष आभारी हूँ, जिन्होंने इस खण्ड के लेखन और सम्पादन में विशेष अभिरुचि लेकर इस खण्ड को पूर्ण किया है। जिनकी प्रेरणा और साधना से इस अट्ठारह खण्डों में प्रकाश्यमान ‘संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास’, विद्वान् पाठकों के समक्ष आ रहा है ऐसे पूज्य स्व. बलदेव उपाध्याय जो इस ग्रन्थ-माला के प्रवर-प्रधान-सम्पादक हैं, उनके चरणों में अपने प्रणामांजलि अर्पित करता हूँ। उन्हीं की अपरोक्ष प्रेरणा से उनके प्रिय शिष्य प्रो. श्री निवासरथ जी प्रधान सम्पादक के गुरुतर दायित्व का निर्वहण कर रहे हैं। मैं उनके प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ। ज्योतिष-खण्ड नैवेद्यम् विद्वान्-लेखकों, सम्पादक तथा मुद्रक से सदैव सम्पर्क बनाकर इस कार्य को पूर्णता प्रदान कराने वाले संस्थान के अधिकारियों/कर्मचारियों को भी हार्दिक शुभकामना एवं साधुवाद देता हूँ। ‘शिवम् आर्टस्’ के प्रबन्धक तथा उनके सहयोगियों को अमूल्य सहयोग हेतु धन्यवाद देता हूँ। __ अन्त में इस खण्ड के प्रकाशन में परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से जुड़े सभी महानुभावों का आभारी हूँ, जिनके सहयोग से यह ग्रन्थ प्रकाशित हो सका है। गुरुपूर्णिमा सं. २०६६ विद्वत्कृपाभिलाषी अशोक घोष निदेशक उपाध्यायाय वन्द्याय बलदेवाय धीमते। कृष्णज्येष्ठाय सोल्लासं प्रणमाञ्जलिरर्यते।। सुविदितमेव विदुषां यथाधीतिबोधाचरणप्रचारण-विधिसंवर्धिता भारतीया विद्याभ्यसनसरणिः परामृष्टाऽभूत् कपटशताचारचतुरैः वैदेशिकैः शासनाध्यक्षैः। ततश्च राजभाषेति कृत्वाऽऽङ्ग्लभाषाप्रचारपरा प्राथमिक-माध्यमिक-स्नातक-स्नातकोत्तर-क्रमनियोजिता शिक्षणपद्धतिरासूत्रिता। नवजागरणोत्साहकरम्बितमतिभिः कैश्चन भारतीयैरपि समर्थिता सती सेयमभिनवा शिक्षानीतिः सुलभावकाशा सर्वत्र कृतास्पदा चाजायत। तदनु संस्कृतविद्यासु यथामति कृतश्रमैंः कैश्चित् पाश्चात्यविपश्चिद्भिः ग्रथितानां तत्तद्विषयकसाहित्येतिहासग्रन्थानां पाठ्यग्रन्थतयाध्यापनं प्रावर्तत। तेषु च तत्तदभीष्टप्रामाण्याकलनपराः नैके वैदेशिका विद्वांसः भारतीयवैदुष्यमितिहासदृष्टिविकलकिति प्रख्यापयांचक्रुः। अपरे च केचनांग्लसाम्राज्य हितरक्षणनिरताः सन्तः भारतीयसाहित्यालोचनासु प्रभूततरं कार्पण्यमेवाऽऽविष्कुर्वते स्म। तथात्वे अस्मद्गुरुचरणाः श्रीमन्तः बलदेवोपाध्यायमहोदया एव महामनसां मदनमोहनमालवीयानां, स्वातन्त्रसिद्धिमन्त्रदीक्षागुरूणां श्रीबालगंगाधरतिलकमहाभागानां, भारतोत्कर्षगीतांजलिपुलकितचेतसां श्रीरवीन्द्रनाथठाकुरमहोदयानां, सत्याग्रहग्रहिलानां श्रीमन मोहनदासगान्धीमहाभागानां, इतरेषामपि स्वाराज्यार्जनपथिकानां स्वदेशमहिमोत्थानप्रयतनपदवीमवलम्ब्य भारतीयविद्येतिहासादिविषयेषु प्रमाणानुसन्धानपुरःसरं याथार्थ्योपदेशविधिना बहूपकृतवन्तः अस्मादृशानां छात्राणाम् । निगमादिभारतीयविद्यासु स नास्ति विषयः यो न नीतः शास्त्रदृशा प्रामाण्यववेचनपथं श्रीमदुपाध यायवर्यैः। उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन सुचिरमुपकल्पितानां संस्कृतवाङ्मय-बृहदितिहासग्रन्थानां दुर्वहं निर्मितिधुरं निजायुषः द्वानवतितमे वर्षे ऽपि वोढुं सोत्साहमड्गीकृतवन्तः श्रीमदाचार्यबलदेवोपा ध्यायवर्याः । अनुपदमेव विद्यासंख्याष्टादशभागविभक्तमुपकल्प्य सामान्यजनताबोधगम्यं महाग्रन्थं प्रतिभाजुषः स्वशिष्यान् तत्तत्सम्पादनकर्मणि विनियुक्तवन्तः। कतिपयै रेवाब्दैः करबाणनभोनेत्रमितवैक्रमवत्सरवसन्तपंचम्यां भूमिकालेखपुरःसरं प्रकाशतामनायि वेदसंज्ञकः प्रथमः खण्डः । तदनु चतुर्भिरेववर्षेः निजायुषः शततमाब्दप्रवेशेन ससं महाग्रन्थस्यैकादशखण्डानां प्रायशः पूर्णतामधिगतवद्भिः आचार्यवर्यैः श्रीभोलाशकरव्याससम्पादितार्षकाव्यखण्डस्य विमर्शहृद्या भूमिका श्रीजगन्नाथपाठकसम्पादिताधुनिसंस्कृतसाहित्यखण्डस्यांजसैवालिखिता पुरोवाक् चेति लेखद्वयं युगपदलेखि ऋतुबाणनभोनेत्रमितवैक्रमवत्सर-गुरुपूर्णिमापर्वणि। तत्र चार्षकाव्यखण्ड भूमिकायां-“न खलु महाभारतं महाकाव्यं प्रत्युत इतिहासः इति प्रसङ्गेन-“नानाविधेषु प्रपंचेषु अनासक्तः सन् लोकः परमात्मज्ञानस्वरूपं मोक्षं प्राप्नुयादित्येव महाभारतस्य विद्यते मूलशिक्षा” नैवेद्यम् अथ च, . तज्ज्ञान-महासत्रं यथा तथा पूर्णतामानीयते। गुरूपदिष्टेन पथा मन्दमतिभिरपि तन्नियोज्यैः।।१।। ज्योतिष-खण्ड इति व्याख्यानपूर्वकं काव्यशास्त्रखण्ड-सम्पादकं श्रीवायुनन्दपाण्डे यमहो दयं स्वमनोगताभिराशीर्वचोभिरेवाभिषिच्य श्रीमदाचार्यवर्याः परब्रह्मसायुज्यपदवीपथिकत्वमगाहन्त।
- उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानप्रयुक्तः संस्कृतवाङ्गमयबृहदितिहासमहाग्रन्थस्य अष्टादशखण्डेषु प्रकाशनोद्योगः मूलत एवं नवभिः पद्यैः “ज्ञानमहासत्रम्” इति निरूपितमभूदाचार्यचरणैः। अधुना प्रासंगिकतयौचित्यमावहति पौनःपुन्येन तदनुस्मरणम्। ज्ञानमहासत्रम् “संसारेष्वप्रतिमं सम्पूर्णौरवैर्जुष्टम्। सर्वविधानैः पुष्टं प्रणमामो संस्कृतेषु साहित्यम्।।१।। स्वातन्त्र्यानन्तरमथ तदिदं किंचिंद्विनिर्मलं ज्योतिः। समुदेत्यन्तःसलिलं समुत्सुकं दर्शनं दातुम् ।।२।। संस्थानासंस्थया या संस्कृतसेवा सुसंदृब्धा। उत्तरदेशविभूषातयेदमारब्धमथ महासत्रम् ।।३।। ज्यौतिषशास्त्रतिझं नामाभिज्ञैः सड्कलितः खण्डः। षोडशतया मितोऽयं सानति निवेद्यतेऽत्र गुरवे ।।२।। श्रीनिवासरथः गुरुपूर्णिमा सम्बत् २०६६ ३/७/२०१२ अष्टादशभागेष्वथ सुबृहत्काय-प्रकृष्टेषु। संस्कृतसाहित्यस्था दीप्ततरा काऽपि चित्रवियदालिः।।४।। प्रत्येकस्मिन् भागे विद्यासंख्यामहत्त्वसुख्याते। मूर्धन्या विद्वांसः सश्रममेतन्निवर्तयन्त्यार्याः ।।५।। इतिहासमहाग्रन्थः सोऽयं वा कल्पनातीतः। आद्यात्कालादधुनापर्यन्तं सर्वमामृशति ।।६।। उत्तरमुत्तरमेतत्सर्वं संस्कृतविरुद्धानाम्। मित्रं मित्रं चैतत्सदनुष्ठानं वरेण्यानाम् ।।७।। गुरुगुरुरूपं निखिलं सहस्रशो जागरूकाणाम्। आगामिनि सन्ताने रिक्थं गीर्वाणवाणीनाम् ।।८।। दूरस्थान् विज्ञान्प्रति सारल्यैर्वाऽथ गाम्भीर्यैः । निखिलं संस्कृत-वाड्मयमालोडितवैभवं जयति” ।।६।। -बलदेवोपाध्यायः। नैवेद्यम् अस्मदीयम् मानव जीवन में अविरल अनुभूयमान वर्तमान प्रतिपल घनीभूत अतीत में संकलित होता है। घनीभूत अतीत में पौर्वापर्य का निर्धारण भी सुकर नहीं होता है। ज्योतषशास्त्र वेदांगों में भी परिणगणित है। अनादि एवं अपौरुषेय की परिधि में अवस्थित वेदों के मन्त्रद्रष्टा, युगानुरूप मन्त्र-निधि की रक्षा के लिये शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष के रूप में अंगों की दिशा भी निर्धारित कर रहे थे। इसी कालक्रम में मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र तथा पुराण के साथ चतुर्दश विद्याओं की संख्या का परिगणन भी सम्पन्न हआ। अध्यात्म चिन्तन एवं वैज्ञानिक अनुसंधान के लिये सप्रसिद्ध भारतीय तपोवन तथा आश्रमों ने विश्वभर के दार्शनिक और वैज्ञानिकों को आकृष्ट किया। ‘आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः’ के साथ ‘सत्यं ज्ञानामनन्तं ब्रह्म’ की उपासना में अग्रेसर भारतीय मनीषा, ज्ञान विज्ञान के आदान प्रदान पर किसी प्रकार की कार्पण्य बुद्धि से प्रायशः मुक्त रहती आई है। न्याय शास्त्र में शब्द को आकाश का गुण कहा गया है। वैज्ञानिक ध्वनि और प्रकाश के गति की चर्चा करते हैं. परन्त महर्षि वाल्मीकि ने मोरों की आवाज को पीछे छोड़ कर तीव्रतर गति से वहती पहाड़ी नदी की जलधारा को अपनी आँखों से देखा था व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पैर्नवं जलं पर्वतधातुताम्रम्। मयूरकेकाभिरनुप्रयातं शैलापगाः शीघ्रतरं वहन्ति।। (वा.रा. ४/२८/१८) ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में द्रष्टा और दृष्टि दोनों का महत्त्व होता है। यूं तो प्रत्येक दर्शक के लिये दृश्य जगत समान है, परन्तु उसमें कुछ विशेष तत्त्व का साक्षात्कार केवल किसी कवि या वैज्ञानिक को ही होता है। सूर्य को उगते या अस्त होते देखना सभी के लिये समान है, परन्तु इस जड़ जंगम सृष्टि में सूर्य का आत्मा के रूप में साक्षात्कार केवल मन्त्रद्रष्टा ऋषि को ही सम्भव हुआ था। ‘चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आ प्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ।। (ऋग्वेद, १/११५/१.) ज्योतिष की वैज्ञानिकता के साथ गणित भी जुड़ा हुआ है। गणित की दृष्टि में शून्य का आकलन और शून्य में पूर्णता की अन्तर्दष्टि ही निरूपित करती है कि - ‘पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते। १० ज्योतिष-खण्ड हम अधुनातन जीवन में विश्व के सिकुड़ने या पूरे विश्व का एक गाँव के धरातल पर देखने की बात करते हैं परन्तु किसी मन्त्रद्रष्टा की चेतना में यह कब और कैसे अंकित हो गया था कि - यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्’- सम्पूर्ण विश्व किसी एक घौंसले के समान है। _ उज्जयिनी और वाराणसी आदि कुछ नगरों की गणना विश्व के प्राचीनतम आवासीय केन्द्रों में की जाती है। महाकाल तथा विश्वनाथ की गणना द्वादश ज्योतिर्लिंग के रूप में भी होती है। उज्जयिनी में, १६८० में सम्पन्न सिंहस्थ (कुंभ) पर्व के समय स्थानीय मन्दिरों के लिये प्रकाशित विवरण के संग्रह में एक सूचना प्राप्त हुई कि आदि काल में महाकाल के शिवलिंग की स्थापना कुछ इस प्रकार की गयी थी कि सूर्योदय पर सूर्य की प्रथम तथा सूर्यास्त पर उसकी अन्तिम किरण उस पर पड़ती थी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह सूचना नितान्त अविश्वसनीय इसलिये भी थी कि महाकाल की लिंग प्रतिमा के ऊपर भूमि की सतह पर प्रतिष्ठित प्रतिमा को ओंकारेश्वर के रूप में माना जाता है तथा महाकाल की प्रतिमा तक सूर्य की किरणों के प्रवेश का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। । स्थानीय वेधशाला के अधीक्षक श्री जोशी जी के द्वारा संकलित सूचना हम को इसलिये भी विवेचनीय प्रतीत हुई कि किसी तत्सम सन्दर्भ में प्रख्यात विदुषी श्रीमती कपिला वात्स्यायन का अभिमत था कि परम्परागत सूचना अर्थहीन प्रतीत होने पर भी संग्रहणीय होती है। अतएव इस अनुश्रुति में ज्योतिष शास्त्र के कुछ ऐतिहासिक सन्दर्भ भी हमें इस प्रकार अनुस्यूत दिखने लगे, जिसकी चर्चा हमने श्री किरीट जोशी जी द्वारा महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेदविद्या प्रतिष्ठान की ओर से दिल्ली में आयोजित ज्योतिष सम्मेलन में की थी। शैव सम्प्रदाय पौराणिक परिवेश में साकार वृषभध्वज, चन्द्रमौलि, गंगाधर शिवशंकर की पूजा शिवलिंग के रूप में करता है। शिवपूजा में रुद्राभिषेक तथा रुद्राष्टाध्यायी का पाठ शिव आराधना को रुद्र से सम्बद्ध करते हैं। रुद्र की संख्या एकादश मानी गयी है, परन्तु इसी क्रम में आज हम बारह ज्योतिर्लिगों की गणना भी करतें हैं। ज्योतिर्लिंग के साथ द्वादश की संख्या हमारे लिये महत्त्वपूर्ण है। बारह राशियों पर संक्रमणशील आदित्य द्वादश गिने गये हैं। संभवतः ज्योतिर्लिंगों के पीठ मूलतः ग्रह नक्षत्रों का या सौरमण्डल के अध्ययन के लिये प्रयुक्त प्रायोगिक पीठ ही रहे हों। लिंगमहापुराण में द्वादश ज्योतिर्लिंग की चर्चा नहीं है। पूर्वभाग के चौवनवें अध्याय से निरन्तर आठ अध्यायों में भुवनकोश के अन्तर्गत ज्योतिःसन्निवेश का वर्णन उपलब्ध है। इस विवरण में पद पद पर ज्योतिषशास्त्र के वैदिक आधार का परिचय मिलता है। ज्योतिश्चक्र में सूर्य की गति, मास, ऋतु, अयन, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारागण के साथ बारह मास के बारह सूर्य- इन्द्र, धाता, भग, पूषा, मित्र, वरुण, अर्यमा, अंशु, विवस्वान्, त्वष्टा पर्जन्य तथा विष्णु के रूप में निर्दिष्ट किये गये हैं, परन्तु बारह ज्योतिर्लिगों का उल्लेख नहीं अस्मदीयम् किया गया है। शिवपुराण में भी अष्टमूर्ति के रूप में-“भूम्यम्भोऽग्निमरुद्व्योम क्षेत्रज्ञार्कनिशाकराः” का परिचय प्राप्त होता है। लिंग महापुराण में ज्योतिः सन्निवेश की पृष्ठभूमि भी वेदांग-ज्योतिष काल के निकट प्रतीत होती है। लिंगपुराण मास गणना के लिये चैत्र, वैशाख आदि के स्थान पर मधु, माधव आदि वैदिक अभिधान ही प्रस्तुत करता है और नक्षत्रों के प्रमाण स्वरूप चक्षु, शास्त्र, जल, लेख्य तथा गणित को आधार निर्धारित करता है। हमारी दृष्टि में वेद तथा वेदांग अविभाज्य हैं। पर्जन्य सूक्त में - “संवत्सरं शशयाना” या “देवहितिं जुगुपुर्वादशस्य" वेदवाणी में अन्तर्हित ज्योतिषशास्त्र के प्रायोगिक गणित के परिचायक हैं। अतएव एकादश रुद्र तथा अष्टमूर्ति शिव के साथ द्वादश ज्योतिर्लिंग की अन्विति में अन्तःसम्बन्ध विवेचनीय बन पड़ता है। ज्योतिर्लिंग पद में ज्योतिस् ग्रह नक्षत्र का वाचक है। उज्जयिनी क्षेत्र में सुमेरु से लंका को जोडती देशान्तर रेखा तथा कर्क रेखा के बिन्द पर परिगणित काल परे भारत के लिये मानक (वर्तमान ग्रीनविच समय के समान) बन गया था। इसीलिये उज्जयिनी के ज्योतिर्लिंग को महाकाल कहा गया है। द्वादश आदित्य तथा सप्ताह के सात दिन अथवा सूर्य की सात रश्मि के गणित से चौरासी शिवलिंग मन्दिर भी उज्जैन में प्रतिष्ठित हैं। यद्यपि पुराण लिंग पूंजा की मूल प्रकृति से सम्बन्ध अनेक कथानक प्रस्तुत करते हैं परन्तु वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों के द्वारा सूर्य, चन्द्र तथा ग्रह नक्षत्रों की गति गणना के लिये प्रयुक्त प्राचीनतम यन्त्र शंकु का अपने महत्त्व के कारण लिंग के रूप में भुवन मण्डल का नियामक होना अधिक सहज और स्वाभाविक प्रतीत होता है। यद्यपि पुराण यत्र तत्र भुवनकोश की चर्चा करते हैं, परन्तु लिंग पुराण में शुद्ध रूप से ज्योतिष शास्त्र का गणित पक्ष तथा गरुड पुराण में फलित ज्योतिष का विवरण जितना सहज है उतना अन्य पुराणों में नहीं है। वैदिक रुद्र के पास शतायु होने की औषधि है- “त्वादत्तेभी रुद्र शंतमेभिः शतं हिमा अशीय भेषजेभिः” (ऋग्वेद-२/३३-२) परन्तु उसकी कोई प्रतिमा नहीं है। परवर्ती रूपायन में औषधीपति चन्द्र उनके भाल पर अवस्थित है। अष्टमूर्ति शिव पंचमहाभूत के साथ उनके संवलित रूप क्षेत्रज्ञ यजमान एवं सूर्य तथा चन्द्र में प्रतिष्ठित हैं। इसी गणना से सचराचर विश्व में व्याप्त प्रलयंकर शंकर लिंग रूप में उस शंकु में समाहित या प्रकट हो सकते है जिससे गणक शिव सूर्य और चन्द्र की गति में काल का आकलन करते हैं। हमारी दृष्टि में एकादश रुद्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग तथा अष्टमर्ति शिव की अन्विति में ज्योतिषशास्त्र का अनितरसाधारण महत्त्व है। अस्तु। संस्कृत-वाङ्मय का बृहद् इतिहास के अन्तर्गत ज्योतिषशास्त्र के लिये संकलित यह षोडश खण्ड अनेकानेक बाधाओं को पार कर अन्ततः प्रकाशनोन्मुख हो सका है। नैवेद्यम् किञ्चिन्निवेदनम् ज्योतिष-खण्ड _ उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के द्वारा प्रवर्तित बृहद् इतिहास के प्रकाशन की योजना को व्यावहारिक धरातल पर आचार्य प्रवर पद्मविभूषण स्व. पं. बलदेव उपाध्याय जी ने मूर्त रूप दिया था। प्रस्तावित अठारह खण्डों में से ग्यारह खण्डों को पूर्णता तक पहुंचाया। सम्पादकीय के रूप में अपने आशीर्वचनों को लेखबद्ध कराते समय वे अपनी आयु के सौवें वर्ष में प्रवेश कर चुके थे। तदुत्तर काल में आलेख, लेखक तथा सम्पादक सभी के समक्ष समन्वय की विषम परिस्थितियों में तीन खण्ड प्रकाशित हो गये। सहयोग समन्वय के लिये संस्थान के वर्तमान निदेशक श्री अशोक घोष संस्थान की सार्थक प्रगति के प्रति निरन्तर जागरुक प्रहरी हैं। सभी सहयोगी कर्मचारी साधुवाद के पात्र हैं। गणित एवं अंकनिर्देशन के साथ रेखा चित्र आदि मुद्रण के सूक्ष्म विन्दुओं के संयोजन में ‘शिवम आर्टस्’ के प्रबन्धक तथा उनके सहयोगी गण के प्रति धन्यवाद अर्पित करते हुए संपूर्ण योजना के प्रवर प्रधान सम्पादक गुरुवार आचार्य बलदेव उपाध्याय जी के स्नेहसिक्त आशीष के बल पर निवेदन है कि श्रीरामचन्द्रपाण्डेयदृष्टिपूतो यथायथम्। ज्यौतिषैतिह्म-खण्डोऽयं सन्धत्तां सुधियां मुदम्।। इतिशम् -श्रीनिवास रथ उत्तर पद्रेश संस्कृत संस्थान द्वारा प्रायोजित महती परियोजना “संस्कृत वाङ्मय का बृहद इतिहास" के सोलहवें खण्ड, जो ज्योतिषशास्त्र पर आधारित है, को प्रस्तुत करते हुए अपार हर्ष हो रहा है। यह खण्ड शास्त्रीय एवं लौकिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। वेदांगों में ज्योतिष को शीर्षस्थ स्थान दिया गया है। अतः इस महान यज्ञ की पूर्णता के लिए भी इसकी सम्पूर्ति आवश्यक थी। आचार्य श्री रथ जी के कुशल नेतृत्व तथा विद्वानों के सहयोग से मैं इस कार्य को सम्पन्न कर पाया। प्रस्तुत खण्ड में ज्योतिष के सिद्धान्त-संहिता-होरा इन तीनों स्कन्धों के प्रमुख विषयों का समावेश किया गया है। ज्योतिषशास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत एवं वैविध्यपूर्ण है। इसके सभी विषयों को एक स्थान पर एक साथ प्रस्तुत करना अत्यन्त दुष्कर है, फिर भी यथा सम्भव त्रिस्कन्ध ज्योतिष के समग्र स्वरूप को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। सावधानी के बाद भी त्रुटियाँ सम्भव है। इस खण्ड को पूर्णता की ओर लाने में सर्वाधिक प्रेरणा के लिए प्रधान सम्पादक विद्वन्मूर्धन्य प्रो. श्रीनिवास रथ जी के प्रति मैं हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ। इनके सहज स्नेह और सत्यसंकल्प से मुझे कार्य सम्पादन हेतु प्रबल उत्साह प्राप्त हुआ। साथ ही इसमें योगदान देने वाले विद्वान लेखकों के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ, जिनके सक्रिय सहयोग से यह कार्य पूर्णता को प्राप्त होसका। इसी लम्बी यात्रा में हमने कुछ महान् विभूतियों को भी खोया है। इस अवसर पर उन्हें स्मरण करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। सर्वप्रथम महा मनीषी पद्मविभूषण स्व. पं. बलदेव उपाध्याय का स्मरण करते हुए उनके चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ। उन्होंने ने ही इस कार्य के लिए मुझे प्रोत्साहित किया था। अनन्तर पद्मभूषण पं. विद्यानिवास मिश्र जी के प्रति आदरभाव व्यक्त हुए श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। हमें समय समय पर इन महा मनीषियों से कार्य करने की प्रेरणा मिलती रहती थी। इसी क्रम में मेरे मित्र एवं सक्रिय लेखक स्व. चौ. श्रीनारायणसिंह के प्रति भी श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। मुझे विश्वास है इस खण्ड की सम्पूर्ति से इन विभूतियों की आत्मायें अवश्य तृप्त होंगी। गुरुपूर्णिमा संवत् २०६६ ३/७/२०१२ -रामचन्द्र पाण्डेय१६ ज्योतिष-खण्ड एवं विकास क्रम को एक काल की ईकाई मान ली गयी, जिसको बाद में मास शब्द से जाना गया। इसी क्रम में सूर्य के उदय स्थल को क्रमशः दक्षिण की तरफ बढ़ता हुआ पुनः वापस आकर उत्तर की तरफ बढ़ता हुआ देखा गया तथा इसके साथ-साथ वातावरण में परिवर्तन का भी अनुभव किया गया। शनैः-शनैः एक निश्चित अवधि में सूर्य का उत्तर से दक्षिण तथा दक्षिण से उत्तर आने का एक निश्चित काल चक्र ज्ञात हो गया। इस काल चक्र को कालान्तर में अयन, गोल तथा इनके संयुक्त रूप को वर्ष संज्ञा दी गयी। इस प्रकार काल की अवधारण मानव मस्तिष्क में उद्भूत हुई, तथा शनैः-शनैः इसका विकास होता गया। काल की उक्त अवधारणाओं से यह स्पष्ट है कि कालचक्र शाश्वत है तथा जगत की उत्पत्ति और विनाश कालाधीन है।’ ज्येतिष कालचक्र का निरूपण प्रकृति के साथ पूर्णतः सन्तुलन रखते हुये करता है। क्योंकि प्रकृति ने ही काल की सत्ता से परिचित कराया है। प्रकृति का भी नियमन करने वाल भगवान भास्कर हैं। इसीलिए इन्हें सृष्टि का कारक कहा गया है। भूमिका १७ “तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः वायोरग्निः, अग्नेरापः, अभ्यः पृथ्वी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधीभ्योऽन्नम् अन्नात् पुरुषः।।” तैत्तिरीयोपनिषत् (२/१) अर्थात सर्वप्रथम आकाश की उत्पत्ति हुई, आकाश से वायु की, वायु से अग्नि की, अग्नि से जल की, जल से पृथ्वी की, पृथ्वी से ओषधि की, ओषधी से अन्न की तथा अन्न से पुरुष की उत्पत्ति हुयी। भारतीय दर्शनशास्त्र भी इसी क्रम को स्वीकार करता है। यह क्रम बतलाने के बाद उपनिषद् कहता है कि सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश का क्रम अनवरत चलता रहता है। एक बार सृष्टि सत्ता में आने के बाद नियत कालान्तर में विलीन हो जाती है। पुनः नवीन सृष्टि की रचना होती है किन्तु एक सृष्टि के अवसान तथा दूसरी सृष्टि के निर्माण के मध्य अर्थात् नव सृष्टि के पूर्व ‘सत्’ नहीं था, असत् नहीं था। इसी प्रकार आकाश-वायु-पृथ्वी, मृत्यु, अमृतत्व, दिन-रात्रि, सूर्य और चन्द्र कुछ भी नहीं था। इन मूलभूत प्रश्नों को प्रस्तुत करने के बाद पुनः प्रश्न उठता है ‘को अद्धा वेद’ इस सृष्टि प्रक्रिया को वस्तुतः कौन जानता है। किसलिए इसकी सृष्टि हुई? किससे पृथ्वी की उत्पत्ति हुई तथा पृथ्वी पर वनस्पतियों की उत्पत्ति किससे किस प्रकार हुई आदि अनेक प्रश्नों को उठाकर एक वैज्ञानिक उदार दृष्टि का परिचय दिया है। अन्त में चुनौती पूर्ण शब्दों में कहा है-“इह ब्रवीतु त उ तच्चिकेतत्”। अर्थात् उक्त प्रश्नों को जानने वाला कोई है तो मुझे बतावे। इसका स्पष्ट आशय यही है कि इनका उत्तर देने वाला कोई नहीं है। अतः यह स्पष्ट है कि सृष्टि का रहस्य पहले भी अनसुलझा था तथा आज भी रहस्य ही बना हुआ है। विगत वर्षों से अनेक देशों के वैज्ञानिक भूमिगत प्रयोगशाला में सृष्टि के रहस्य को ज्ञात करने हेतु प्रयत्नशील हैं। वे लोग कृत्रिम विस्फोट से महाविस्फोट कालीन परिस्थितियों को जानने का प्रयास कर रहे हैं। प्रयोग की सफलता कालाधीन है। यदि कोई निष्कर्ष निकल सका तो निःसन्देह यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। ज्योतिषशास्त्र के समग्र स्वरूप को समझने के लिए हमें सर्वप्रथम वैदिक साहित्य पर दृष्टिपात करना होगा। क्योंकि ज्योतिषशास्त्र सभी (छः) वेदांगों में शीर्षस्थ है। इसलिए इसके विकास क्रम को हम प्रमुख विभागों में विभक्त कर सकते हैं। १. वैदिक काल, २. वेदांग काल एवं ३. सिद्धान्त काल वैदिक काल-सर्वविदित है। भारतीय वाङ्मय में सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक साहित्य वेद हैं। वेदों में सृष्ट्यारम्भ से लेकर काल-विभाजन तक, पृथ्वी से अन्तरिक्ष तक अनेक प्राकृतिक परिवर्तनों का स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है। इसीलिए इसे वेदविज्ञान भी कहा जाता है। सृष्टि की रचना आज भी रहस्य बनी हुई है। वैदिक काल में भी यह विषय रहस्यमय था फिर भी वेद ने सृष्ट्यारम्भ के विषय में कुछ मूलभूत सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। सृष्टिक्रम को बतलाते हुये ऋक् संहिता में कहा गया है-‘ऋतं च सत्यं चा भीद्धात्तपसोऽध्यजायत’ (ऋ. सं.१०.१६०) किन्तु इस प्रसिद्ध उक्ति में वर्णित क्रम से पूर्व भी कुछ अंश रहा होगा ऐसा सकेंत मिलता है। उस निहित आशय को सुस्पष्ट करते हुये तैत्तिरीयोपनिषत् में कहा गया है ब्रह्माण्ड वेदों में पृथ्वी-अन्तरिक्ष और द्यौः। यही विराट पुरुष का स्वरूप है, जैसा कि इस ऋचा से व्यक्त होता है “नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीष्णोधीः समवर्तत पद्भ्यां भूमिः।२ १. कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। २. नक्षत्रग्रहसोमानां प्रतिष्ठायोनिरेव च चन्द्रऋक्षग्रहाः सर्वे विज्ञेयाः सूर्यसम्भवाः । ३. वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिःशास्त्रमकल्मषम् । १. २. तै.ब्रा. २/८/६ ऋ.सं. १०.६०.१४ भूमिका _ भारतीय ज्योतिषशास्त्र वेदांग के साथ-साथ जीवन पद्धति के रूप में भी माना जाता है। मनुष्य के जीवन में ज्योतिष की उपयोगिता पग-पग पर दिखलाई देती है। उदाहरण के लिए दिन-रात, मास, वर्ष आदि के रूप में काल की गति निरन्तर जीवन के साथ-साथ रहती है। प्राणी किसी भी देश का हो किसी भी स्थान का हो, किसी भी धर्म या जाति का हो काल की सीमा में आबद्ध है। काल के नियामक प्रमुख रूप से सूर्य और चन्द्रमा हैं। इनकी स्थिति एवं गति का ज्ञान करने वाला शास्त्र ज्योतिषशास्त्र है। इसीलिए इसे कालविधानशास्त्र भी कहते हैं। भारतीय ज्योतिशास्त्र की प्रमुख विशेषता यह रही है कि यह गणितागत मान एवं वेध द्वारा तदनुरूप ग्रहों की स्थिति को देख कर ही उनके स्पष्टमान (भोगांश) एवं गति का निरूपण करता है। यह किसी अन्य संसाधनों का मुखपेक्षी नहीं रहा है। इसीलिए “कमलाकर भट्ट’ ने निःसंकोच यह घोषणा की थी यदि प्रत्यक्ष विरुद्ध बात मुनि भी कहता है तो उसका इस शास्त्र में कोई महत्व नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष विरुद्ध परिणाम ज्योतिष को स्वीकार्य नहीं है।’ इसीलिए ज्योतिष को प्रत्यक्ष शास्त्र भी कहा जाता है। यहां तक की अन्य शास्त्रों में ईश्वर की सत्ता में भी विवाद है किन्तु ज्योतिष में विवाद का अवसर नहीं है। यदि सूर्योदय होना है तो सूर्योदय होगा ही और उसका अनुभव एवं प्रत्यक्षीकरण विश्व के समस्त लोग करेगें। किसी को यह समझाने की अथवा प्रमाण देने की आवश्यकता नही होगी। यदि पूर्णिमान्त मास की गणना करते है तो चन्द्रमा आकाश में उपस्थित होकर स्वयं बतायेगा आज पूर्णिमा है और आज मासान्त है। इसी प्रकार अमान्त मास में भी चन्द्रमा आकाश से अदृश्य होकर अमावस्या की पुष्टि करता है। चन्द्रमा की कलाओं को देख कर हम एक-एक चान्द्रदिन (तिथि) का ज्ञान कर सकते हैं। यह जीता जागता प्राकृतिक कैलेन्डर है। अगर तिथियों के ज्ञान में किसी प्रकार की गणितीय त्रुटि आ जाय तो रात्रि में चन्द्र दर्शन से इस त्रुटि का ज्ञान हो जायेगा। प्राक्वैदिककाल में मनुष्य को सूर्य-चन्द्रमा और तारों का उनकी आवश्यकताओं के अनुसार ही ज्ञान हुआ क्योंकि अधिकांश प्राणियों को सूर्य के साथ-साथ दिन होने की प्रतीक्षा रहती थी, तथा रात्रि में चन्द्रमा के उदय होने की प्रतीक्षा होती थी। धीरे-धीरे लोगों में सूर्य के उदय होने एवं अस्त होने तथा चन्द्रमा के उदय होने एवं अस्त होने का स्थूल ज्ञान होने लगा। इसी प्रकार चन्द्रमा की कलाओं के क्रमशः हास १. सुयुक्ता न मुन्युक्तिरप्यत्रशास्त्रे, भवेत् कार्यवर्यस्य या दृग्विरुद्धा।। सि.त.वि. १७ भूमिका “तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथ्वी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधीभ्योऽन्नम् अन्नात् पुरुषः।।” तैत्तिरीयोपनिषत् (२/१) ज्योतिष-खण्ड एवं विकास क्रम को एक काल की ईकाई मान ली गयी, जिसको बाद में मास शब्द से जाना गया। इसी क्रम में सूर्य के उदय स्थल को क्रमशः दक्षिण की तरफ बढ़ता हुआ पुनः वापस आकर उत्तर की तरफ बढ़ता हुआ देखा गया तथा इसके साथ-साथ वातावरण में परिवर्तन का भी अनुभव किया गया। शनैः-शनैः एक निश्चित अवधि में सूर्य का उत्तर से दक्षिण तथा दक्षिण से उत्तर आने का एक निश्चित काल चक्र ज्ञात हो गया। इस काल चक्र को कालान्तर में अयन, गोल तथा इनके संयुक्त रूप को वर्ष संज्ञा दी गयी। इस प्रकार काल की अवधारण मानव मस्तिष्क में उद्भूत हुई, तथा शनैः-शनैः इसका विकास होता गया। काल की उक्त अवधारणाओं से यह स्पष्ट है कि कालचक्र शाश्वत है तथा जगत की उत्पत्ति और विनाश कालाधीन है।’ ज्येतिष कालचक्र का निरूपण प्रकृति के साथ पूर्णतः सन्तुलन रखते हुये करता है। क्योंकि प्रकृति ने ही काल की सत्ता से परिचित कराया है। प्रकृति का भी नियमन करने वाल भगवान भास्कर हैं। इसीलिए इन्हें सृष्टि का कारक कहा गया है। है ज्योतिषशास्त्र के समग्र स्वरूप को समझने के लिए हमें सर्वप्रथम वैदिक साहित्य पर दृष्टिपात करना होगा। क्योंकि ज्योतिषशास्त्र सभी (छः) वेदांगों में शीर्षस्थ है। इसलिए इसके विकास क्रम को हम प्रमुख विभागों में विभक्त कर सकते हैं। १. वैदिक काल, २. वेदांग काल एवं ३. सिद्धान्त काल वैदिक काल-सर्वविदित है। भारतीय वाङ्मय में सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक साहित्य वेद हैं। वेदों में सृष्ट्यारम्भ से लेकर काल-विभाजन तक, पृथ्वी से अन्तरिक्ष तक अनेक प्राकृतिक परिवर्तनों का स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है। इसीलिए इसे वेदविज्ञान भी कहा जाता है। सृष्टि की रचना आज भी रहस्य बनी हुई है। वैदिक काल में भी यह विषय रहस्यमय था फिर भी वेद ने सृष्ट्यारम्भ के विषय में कुछ मूलभूत सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। सृष्टिक्रम को बतलाते हुये ऋक् संहिता में कहा गया है-‘ऋतं च सत्यं चा भीद्धात्तपसोऽध्यजायत’ (ऋ. सं.१०.१६०) किन्तु इस प्रसिद्ध उक्ति में वर्णित क्रम से पूर्व भी कुछ अंश रहा होगा ऐसा सकेंत मिलता है। उस निहित आशय को सुस्पष्ट करते हुये तैत्तिरीयोपनिषत् में कहा गया है अर्थात सर्वप्रथम आकाश की उत्पत्ति हुई, आकाश से वायु की, वायु से अग्नि की, अग्नि से जल की, जल से पृथ्वी की, पृथ्वी से ओषधि की, ओषधी से अन्न की तथा अन्न से पुरुष की उत्पत्ति हुयी। भारतीय दर्शनशास्त्र भी इसी क्रम को स्वीकार करता है। यह क्रम बतलाने के बाद उपनिषद् कहता है कि सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश का क्रम अनवरत चलता रहता है। एक बार सृष्टि सत्ता में आने के बाद नियत कालान्तर में विलीन हो जाती है। पुनः नवीन सृष्टि की रचना होती है किन्तु एक सृष्टि के अवसान तथा दूसरी सृष्टि के निर्माण के मध्य अर्थात् नव सृष्टि के पूर्व ‘सत्’ नहीं था, असत् नहीं था। इसी प्रकार आकाश-वायु-पृथ्वी, मृत्यु, अमृतत्व, दिन-रात्रि, सूर्य और चन्द्र कुछ भी नहीं था। इन मूलभूत प्रश्नों को प्रस्तुत करने के बाद पुनः प्रश्न उठता है ‘को अद्धा वेद’ इस सृष्टि प्रक्रिया को वस्तुतः कौन जानता है। किसलिए इसकी सृष्टि हुई? किससे पृथ्वी की उत्पत्ति हुई तथा पृथ्वी पर वनस्पतियों की उत्पत्ति किससे किस प्रकार हुई आदि अनेक प्रश्नों को उठाकर एक वैज्ञानिक उदार दृष्टि का परिचय दिया है। अन्त में चुनौती पूर्ण शब्दों में कहा है-“इह ब्रवीतु त उ तच्चिकेतत्”। अर्थात् उक्त प्रश्नों को जानने वाला कोई है तो मुझे बतावे। इसका स्पष्ट आशय यही है कि इनका उत्तर देने वाला कोई नहीं है। अतः यह स्पष्ट है कि सृष्टि का रहस्य पहले भी अनसुलझा था तथा आज भी रहस्य ही बना हुआ है। विगत वर्षों से अनेक देशों के वैज्ञानिक भूमिगत प्रयोगशाला में सृष्टि के रहस्य को ज्ञात करने हेतु प्रयत्नशील हैं। वे लोग कृत्रिम विस्फोट से महाविस्फोट कालीन परिस्थितियों को जानने का प्रयास कर रहे हैं। प्रयोग की सफलता कालाधीन है। यदि कोई निष्कर्ष निकल सका तो निःसन्देह यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। ब्रह्माण्ड वेदों में पृथ्वी-अन्तरिक्ष और द्यौः। यही विराट पुरुष का स्वरूप है, जैसा कि इस ऋचा से व्यक्त होता है “नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीष्णोझैः समवर्तत पद्भ्यां भूमिः।" १. कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। २. नक्षत्रग्रहसोमानां प्रतिष्ठायोनिरेव च चन्द्रऋक्षग्रहाः सर्वे विज्ञेयाः सूर्यसम्भवाः। ३. वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिःशास्त्रमकल्मषम्। १. २. तै.ब्रा. २/८/६ ऋ.सं. १०.६०.१४ ज्योतिष-खण्ड १६ पुरुष शरीर में पैर नीचे, नाभि मध्य में तथा सिर सबसे ऊपर होता है। इसी प्रतीक द्वारा ब्रह्माण्ड के तीनों विभागों को दर्शाया गया है। उक्त वर्णन से दो तथ्य प्रकाश में आते हैं-१. पृथ्वी का निराधारत्व, २. भूकेन्द्रिक ब्रह्माण्ड की परिकल्पना। __अन्तरिक्ष में कौन सा स्थान नीचे कौन सा ऊपर है यह निर्णय सम्भव नहीं है। ऊँचाई एवं नीचाई का ज्ञान किसी पिण्ड के सापेक्ष ही सम्भव हो पाता है। पृथ्वी को पैरों में सबसे नीचे मान लेने से यह स्पष्ट हो जा रहा है कि किसी भी तरफ से देखा जाय तो पृथ्वी वासियों के लिए पृथ्वी नीचे आयेगी, उससे ऊपर अन्तरिक्ष (सभी दिशाओं में) तथा अन्तरिक्ष से ऊपर द्यौ की स्थिति है। जब पृथ्वी के चतुर्दिक अन्तरिक्ष है तो यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि पृथ्वी आकाश में निराधार अन्य ग्रह पिण्डों की भाँति स्थित है। इसी एक दृष्टि से यह भी सिद्ध होता है कि पृथ्वी वासियों ने अपने स्थान (पृथ्वी) को ही केन्द्र मान कर गणना करना प्रारम्भ किया। यही परम्परा आगे भी चलती रही। ग्रहों की कक्षाओं के क्रम निर्धारण में भी भूकेन्द्रिक ग्रहकक्षाओं का ग्रहण किया गया। पृथ्वी से ऊपर का आकाश जहाँ पक्षियाँ उड़ती हैं, विद्युत और मेघों का संचरण होता हैं तथा मेघों को भ्रमण कराने वाली वायु का भ्रमण होता है, ब्रह्माण्ड का वह भाग अन्तरिक्ष कहा जाता है। सूर्य और चन्द्र तथा नक्षत्रों की स्थिति धुलोक में होती है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड के तीन भागों की कल्पना की गई। ऐतरेय ब्राह्मण में स्पष्ट शब्दों में ब्रह्माण्ड के विभागों को परिभाषित करते हुये कहा गया है भूमिका चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येण मणिना शुम्भमानाः। न हिन्वमानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात् सूर्येण।।’ अर्थात वृत्र के सैनिक, जो स्वर्ण अलंकारों से सुशोभित थे, पृथ्वी की परिधि के चारों ओर क्रोध में दौड़ते हुये भी इन्द्र को परास्त नहीं कर पाये। यहाँ पृथ्वी की परिधि का उल्लेख उसके गोलत्व को तथा चारों तरफ दौड़ना उसके निराधारत्व को प्रतिपादित कर रहा है। इसी प्रकार सूर्य के उदय एवं अस्त का वर्णन करते हुये कहा है कि सूर्य ने तो कभी अस्त होता है न कभी उदय होता है। दिन में (प्रातः से सायं तक) सूर्य सीधा भ्रमण करता है तथा रात्रि में अपने को विपरीत दिशा में घुमाता है। इसका स्पष्ट आशय है कि सूर्य रात्रि में पृथ्वी के दूसरे भाग में विपरीत भ्रमण करता हुआ पुनः उसी उदय क्षितिज पर आता है। यदि यहाँ सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सूर्य न कभी अस्त होता है न उदय होता है इससे यही सिद्ध होता है कि सूर्य अपने स्थान पर ही रहता है। अपने स्थान पर रहते हुये ही वह पृथ्वी पर दिन और रात्रि को उत्पन्न करता है। अर्थात् पृथ्वी के स्थान विशेष ही सूर्य के सम्मुख जाकर दिन तथा विपरीत दिशा में जाकर रात्रि की स्थिति को उत्पन्न करते है। “द्यौरन्तरिक्षे प्रतिष्ठितान्तरिक्षि पृथिव्याम्।।" ऐ.ब्रा. ११.६ अर्थात पृथ्वी और द्यौ के बीच अन्तरिक्ष है। इससे ब्रह्माण्ड के तीनों विभागों का ऊर्ध्व-उर्ध्व क्रम से स्पष्ट विभाजन हो जाता है। अर्थात पृथ्वी के ऊपर या पृथ्वी से ऊपर चारों अन्तरिक्ष के ऊपर चारों तरफ द्यौः प्रतिष्ठित है। वैदिक साहित्य में सूर्य का सर्वोच्च स्थान है। समस्त भुवनों की प्रतिष्ठा सूर्याश्रित ही हैं। (विश्वा भुवनानि तस्थुः) इसी को आधार मान पुराणों में सूर्य को सृष्टिकर्ता कहा गया है। भगवान व्यास ने लिखा है हैं नक्षत्र-ग्रह-सोमानां प्रतिष्ठायोनिरेव च। चन्द्रऋक्षग्रहाः सर्वे विज्ञेयाः सूर्यसम्भवाः।।’ पृथ्वी वैदिककाल में ही पृथ्वी के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया था। वृत्र की कथा के निम्नलिखित प्रसंग से पृथ्वी का गोलत्व और निराधारत्व दोनों ही व्यक्त हो जाता है। १. ऋ. सं. १.३३.८ २. स वा एष न कदाचनास्तमेति नोदेति तं यदस्तमेतीति। मन्यन्तेह्न एव तदन्तमित्वाथात्मानं विपर्यस्ते रात्रिमेवा….। कुरुते रात्रि परस्तात् स वा एष न कदाचन निम्नोचति।। ऐ.ब्रा. १४/६ । ३. ऋ.सं. १/१६४/२० ४. मत्स्य पु. १२७.२६ २० ज्योतिष-खण्ड २१ सूर्य के एक पहिये वाले रथ में सात घोड़े हैं। “सप्तयुंजन्ति रथमेकचक्रम्" । सूर्य के सात घोड़ों की चर्चा पुराणों में भी आती है जिसका अर्थ कहीं-कहीं अश्व परक किया गया है तथा घोड़ों के सात नामों की चर्चा की गई हैं। किन्तु सूर्य की सात रश्मियों को ही सात घोड़े के रूप में कहा गया है। जिसका स्पष्ट उल्लेख कूर्म पुराण में किया गया है सुषुम्नो हरिकेशश्च विश्वकर्मा तथैव च। विश्वव्यचा पुनश्चान्यः संयद्वसुरतः परः अर्वावसुरिति ख्यातः सुराडन्यः प्रकीर्तितः।’ _ सूर्य की सात रश्मियों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-सुषुम्ना, हरिकेश, विश्वकर्मा, विश्वव्यचा, संयद्वसु, अर्वावसु तथा सुराट्। इसी आधार पर सूर्य को सप्तरश्मि अथवा सप्ताश्व कहा जाता है। इसी क्रम में इन रश्मियों के सहन उपविभागों को भी बतलाया गया है। अर्थात् प्रत्येक रश्मि के तीन उपविभाग है यथा-वृष्टि सर्जना नाडी (अमृता संज्ञक), धर्म सर्जना नाडी (शुक्रा संज्ञक), हिम सर्जना नाडी (चन्द्रा संज्ञक)। इन तीनों उपविभागों के भी उपविभाग हैं वृष्टिसर्जना नाडी में १००-१०० रश्मियों के वन्दना, याज्या, केतना, भूतना चार उप विभाग, धर्म सर्जना के ककुभ, गौ, विश्वभृत नामक १००-१०० रश्मियों के तीन, तथा हिम सर्जना के मेष्य, पौष्य और लादिनी नामक १००-१०० रश्मियों के तीन कुल ३०० रश्मियों के उप विभाग है। उन सब रश्मियों की संख्या १००० होती है। इस तरह सूर्य के प्रत्येक रश्मि में १००० उपरश्मियाँ होती है इसीलिए सूर्य को सहन रश्मि भी कहा जाता है। सूर्य के कारण ही आकाश में वायु का संचरण होता है। निम्नलिखित ऋचा इस आशय को व्यक्त करती है-“भूयिष्ठे पवमानः पवते सवितृ प्रसूतो ह्येष एतत्पवते।।२ उक्त आधारों पर स्पष्ट रूप से यह परिलक्षित होता है कि वैदिक काल में भुवन संस्था के विषय में अनेक तथ्यों पर गम्भीरता पूर्वक विवेचन किया जा चुका था। सृष्टि के साथ-साथ ज्योतिषशास्त्र का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय काल भी है। अतः काल विचार पर विहंगम दृष्टिपात करना आवश्यक है। वैदिक विज्ञान में सूर्य चन्द्रमा की गतियों के आधार पर चन्द्र कलाओं का ह्रास वृद्धि क्रम को देखते हुए यह ज्ञान कर लिया गया था कि सूर्य के समीप जाने (युति) से चन्द्रकलाओं को ह्रास तथा सूर्य से परमान्तर होने पर चन्द्रमा का पूर्ण प्रकाशित भाग पृथ्वी के समक्ष हो जाता है। अमान्त से पूर्णिमान्त के बीच भूमिका चन्द्रमा के प्रकाशित भाग में वृद्धि होती है उसे कला कहते हैं प्रत्येक कला को एक तिथि की संज्ञा दी गयी। इसलिए अमा के बाद प्रतिपदा से लेकर एक-एक कला की वृद्धि करते हुए पन्द्रहवें दिन पूर्णिमा, तथा पूर्णिमा के बाद क्रमशः एक-एक कला का ह्रास करते हुए पन्द्रहवें दिन पुनः अमावस्या तिथि आ जाती है। इस प्रकार तीस दिनों का एक चक्र चन्द्रमा की कलाओं के ह्रास वृद्धि का ज्ञात हो गया तथा अमान्त से अमान्त तक एक चान्द्रमास की कल्पना कर ली गयी। इसे गणितीय सीमा में बांधते हुए आचार्यों ने एक नियम बनाया कि सूर्य और चन्द्रमा का जब अन्तर १२ अंश तक होगा तो एक तिथि होगी। ३० तिथियों का एक मास होगा। इसके अनन्तर सूर्य के नक्षत्रक्रम के (प्रत्येक नक्षत्रों में) भ्रमण काल में सूर्य और चन्द्रमा की युति १२ बार देखी गयी तथा इसे १२ मास की ईकाइयों में आबद्ध किया गया। अर्थात् दो अमान्तों के मध्यवर्ती काल को एक मास कहा गया तथा उनके क्रमशः मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभस्, नभस्य, इष, ऊर्ज, सहस्, सहस्य, तपस्, तपस्य नाम रखे गये। बाद में नक्षत्रों के आधार पर नाम करण किया गया। मास के मध्य में अर्थात् पूर्णिमा तिथि को चन्द्र की स्थिति जिस नक्षत्र में देखी गयी उसी नक्षत्र के नाम से उस मास का नामकरण किया गया जैसे-पूर्णिमा के दिन चित्रा नक्षत्र होने से चैत्र मास, विशाखा नक्षत्र में पूर्णिमा होने से वैशाख मास, ज्येष्ठा नक्षत्र में पूर्णिमा होने से ज्येष्ठ मास आदि। कालान्तर (वेदोत्तर काल) में गणना में सरलता को देखते हुए आकाश में नक्षत्र चक्र (क्रान्ति वृत्त) को भी ३०-३० अंशों के मान से १२ भागों में विभक्त किया गया। प्रत्येक भाग को राशि संज्ञा दी गयी। नक्षत्रानुसार सूर्य के गमन को ‘चार’ तथा राशि अनुसार सूर्य के गमन को संक्रान्ति की संज्ञा दी गई। यह देखा गया कि दो अमावस्याओं के बीच में सूर्य का राशि परिवर्तन (संक्रान्ति) प्रायः हो जाती है। तथा यह भी देखा गया कि तीन वर्ष के बाद किसी न किसी दो अमावस्याओं के बीच सूर्य का राशि संक्रमण नहीं होता है। इस परिस्थिति में जहाँ संक्रमण नहीं होता उससे सम्बन्धित मास को अधिमास संज्ञा दी गयी, तथा जिन दो अमान्तों के बीच दो बार सूर्य का संक्रमण हो गया उस मास को क्षय मास की संज्ञा दी गयी। अधिमास की तरह क्षयमास की कोई निश्चित अवधि नहीं है, इन अधिमासों तथा क्षयमासों के कारण सूर्य से सम्बन्धित (सौरमास) मास, तथा चन्द्रमा से सम्बन्धित (चान्द्रमास) मासों को स्वाभाविक रूप से सन्तुलन बना रहता है। यद्यपि राशियों की चर्चा वेदों में नहीं है फिर भी अधिमासों का स्पष्ट उल्लेख है। वैदिक काल में सौरवर्ष से पाँच वर्षों की एक ईकाई पंच संवत्सर नाम से मानी गयी जिसे पंच संवत्सरात्मक युग कहा जाता हैं। इनके नाम भी प्रसंगानुसार वेदों में उपलब्ध है। यथा संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर, तथा इद्वत्सर। १. कूर्म पु. १.४१.३-४ २. ऐ.ब्रा. २/७ भूमिका २३ होते है। पुराणों में भी मलिम्लुच शब्द अधिमास के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। “रविणा लंधितों मासचान्द्रःख्यातो मलिम्लुचः” अर्थात् सूर्य जिस मास का अतिक्रमण कर जाता है वह मास (अधिमास) मलिम्लुच मास होता है। जैसा कि सिद्धान्त ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से कहा गया है “असंक्रान्तिमासोऽधिमासः, द्विसंक्रान्तिमासः क्षयाख्यः कदाचित्।’ इस प्रकार अधिमासों के उल्लेख से यह ज्ञात हो जाता है कि वैदिककाल में वर्ष की गणना सौरमान से तथा मास की गणना चान्द्रमान से होती थी, परन्तु दिन की गणना सूर्योदय से ही होती थी। दो सूर्योदय के मध्यकाल को एक अहोरात्र कहा जाता था। एक अहोरात्र में एक सावन दिन की मान्यता थी। सूर्योदय से यागादि (सवन) की प्रवृत्ति होने से इस दिन को सावन दिन कहा गया। २२ ज्योतिष-खण्ड वैदिक काल में द्वादश मासात्मक वर्ष के लिए वर्ष शब्द का प्रयोग न कर प्रायः ऋतुओं के नामों का प्रयोग किया गया है, यथा-“जीवेम शरदः शतम्" अर्थात् सौ शरद ऋतुओं तक जीयें। ब्राह्मणग्रन्थों में वर्ष के लिए हायन शब्द का भी प्रयोग मिलता है। तथा संहिताओं में कहीं-कहीं समा शब्द का प्रयोग मिलता है। हायन की अपेक्षा समा शब्द का संहिताओं में कहीं-कही समा शब्द का प्रयोग मिलता है। हायन की अपेक्षा समा शब्द का प्रयोग अधिक प्रामाणिक तथा अधिक प्रचलित रहा हैं। यहाँ विचारणीय विषय यह है कि वैदिक काल में वर्ष की गणना किस मान से की गयी है। मासों में कोई सन्देह नहीं है क्योंकि दर्श, पौर्णमास का विचार पग-पग पर वेदों में आता है इसलिए निःसन्देह मासों की गणना चान्द्रमास से की गयी है। ऋक्संहिता के मन्त्र “वेदमासोधृतव्रतो द्वादश प्रजावतः वेदा य उपजायते" (ऋ.सं. १/२५/८) का अर्थ करते हुए कहा गया है कि वरुण बारह महिनों में तथा इन महिनों के पास वाले (मास) में उत्पन्न समस्त प्राणियों को जानता है। यहाँ बारह महिनों के पास उत्पन्न होने वाले (मास) से अधिमास का संकेत मिलता है। अर्थात् उस समय अधिमास का ज्ञान हो चुका था जिसकी पुष्टि तैत्तरीय संहिता के इस मन्त्र से होती है-“मधुश्च माधवश्च शुक्रश्च नभश्च नभस्यश्चेषश्चोर्जश्च सहश्च सहस्यश्च तपश्च तपस्यश्चोपयामगृहीतोसि सँसर्पो हस्पत्यायत्वा।।" इस मन्त्र में संसर्प और अंहस्पति ये दोनों अधिमास वाचक हैं, कुछ आचार्यों ने संसर्प को अधिमास तथा अंहस्पति को क्षयमास के रूप में परिभाषित किया है। बाद में सिद्धान्तकाल में इसकी सुस्पष्ट व्याख्या इस रूप में कि गयी कि जिस वर्ष में क्षयमास होता है उस वर्ष दो अधिमास होते हैं।’ एक अधिमास क्षयमास के पूर्व होता है दूसरा क्षयमास के बाद होता है। पूर्ववर्ति अधिमास को संसर्प तथा उत्तरवर्ती अधिमास को अंहस्पति कहा गया है। एक वर्ष में ३६० दिनों की कल्पना अनेक स्थलों में पायी जाती है। यथा-तस्य त्रीणि च शतानि षष्टिश्च स्त्रोत्रियाश्तावती संवत्सरस्य रात्रयः। (तै.सं. ७/५/१ य भा.ज्यो. पृ. ४२)। वाजसनेय संहिता में लिखा है संसर्पाय स्वाहा चन्द्राय स्वाहा, मलिम्लुचाय स्वाहा, दिक्पतये स्वाहा (वा.स. सं.-२२/३० य भा.ज्यो. पृ. ४२)। के अगले मन्त्र में सभी मासों के साथ “अंहस्यतये स्वाहा” (वा.सं. २२/३१/पृ. ४२) इससे ज्ञात होता है कि संसर्प अंहस्पति और मलिम्लुच तीन शब्द अधिमास के अर्थ में प्रयुक्त होते रहे। शंकरबालकृष्ण दीक्षित ने यहाँ आशंका व्यक्त की है सम्भव है कि इन तीनों के अर्थ भिन्न-भिन्न है किन्तु इस सन्देह के निवारण में कोई विवरण प्रस्तुत नहीं किया है। आज भी व्यवहार में ये तीनों शब्द अधिमास के ही अर्थ में प्रयुक्त वेदाङ्ग ज्योतिष वेदांगज्योतिष के अभ्युदय काल को वेदांगकाल के नाम से जाना जाता है। वेदांगज्योतिष नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध है। १. ऋक् ज्योतिष, २. याजुष ज्योतिष, ३. अथर्व ज्योतिष। सामान्यतया वेदांग ज्योतिष के कर्त्ता महात्मा लगध माने जाते है। इसका कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि लगधस्य महात्मनः।। इस पद्य से यह ज्ञात होता है कि कालविधान शास्त्र को महात्मा लगध ने बनाया किन्तु वेदांग ग्रन्थ की रचना उनके किसी शिष्य या अनुयायी ने की होगी। इसकी पुष्टि इस आधार पर भी हो सकती है कि यजुर्वेद ज्योतिष में, जिस पर सोमाक की टीका है, लिखा कि है “इति शेषकृतं वेदांगज्योतिषं समाप्तम्" अर्थात् लगध द्वारा प्राप्त ज्ञान को किसी शेष नामक आचार्य ने लिपिबद्ध किया होगा। भाष्य की समाप्ति पर भी सोमाकर ने पुनः लिखा है सोमाकरो वेदविदुक्तकान्तप्रातिभज्ञानागमभावबुद्धिः। ज्योतिःशास्त्रानाकुलकेन संसा जिह्वात् सर्वमात्मनां प्रव्रजिष्यन्।। इति शेषकृतं ज्योतिःशास्त्रभाष्यं समाप्तम्। १. क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात्। तदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं च।। सि.श.म.अ. २ मा १. सि. शिरोमणौ-भास्करः (सि.शि.म.१) २४ ज्योतिष-खण्ड भूमिका पंचसंवत्सरात्मक युगारम्भ का उल्लेख करते हुये कहा गया है
- वेदांग ज्योतिष के सन्दर्भ में अनेक तथ्य अप्रकाशित हैं। सर्वप्रथम सोमाकार ने इन्हें प्रकाश में लाने का प्रयास किया। यद्यपि सभी श्लोकों की विशेष कर गणितीय अंशों की व्याख्या नहीं कर सके। सन् १८७६ में डा. थीबो ने भी प्रयास किया तथा सोमाकर की व्याख्या के अतिरिक्त मात्र ६ श्लोको की ही व्याख्या कर पाये। सन् १८८५ में जर्नादन बाला जी मोडक ने भी दो तीन श्लोकों की व्याख्या करते हुये ऋग्वेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष को मराठी भाषा में अनुवाद सहित मुद्रित कराया। शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी का कहना है कि लगभग सभी ४६ श्लोकों की व्याख्या कर ली है। सन् २००५ में आचार्य शिवराज कौण्डिन्न्यायन ने विस्तृत व्याख्यान के साथ वेदांग ज्योतिष का प्रकाशन किया। उपलब्ध संस्करणों के आधार पर ऋग्वेद ज्योतिष में कुल ३६ श्लोक है तथा यजुर्वेद ज्योतिष में कुल ४४ श्लोक हैं। इनके ३० श्लोक ऋग्वेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष दोनों में समान हैं। अथर्वण ज्योतिष इन दोनों से सर्वथा भिन्न है। पाश्चात्य विद्वानों ने इनके रचियता लगध को लगड़, लगडाचार्य, लंगढ आदि नामों से चिन्हित किया है। प्रो. बेवर ने लगड़ को ‘लाट’ से जोड़ते हुये सम्भावना वयक्त की है कि यदि लगड़ “लाटदेव" होंगे तो वेदांग ज्योतिष का काल इसवी सन् पाँचवी शताब्दी होगा। परन्तु यह वक्तव्य नितान्त भ्रामक है। माघशुक्लप्रपन्नस्य पौषकृष्णसमापिनः। युगस्य पंचवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते।।५।। अर्थात् माघमास के शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ कर पौषकृष्ण अमावस्या को समाप्त होने वाले वर्षों के प्रमाण से पंचवर्षात्मक युगों के कालमान को बतलाया जा रहा है। यद्यपि यहाँ पंच संवत्सरात्मक युग का उल्लेख तो किया गया है किन्तु वेदों में वर्णित पाँच संवत्सरों के नामों का उल्लेख नहीं किया गया हैं। फिर भी वेदोक्त पंचवत्सरों (संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर) का ही ग्रहण किया है। वर्ष, उत्तरायण तथा माघशुक्ल प्रतिपदा का आरम्भ एक साथ होता है जब सूर्य और चन्द्रमा धनिष्ठा के आदि बिन्दु पर एक साथ उदित होते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि वेदांग ज्योतिष का वर्षारम्भ माघशुक्ल प्रतिपदा से ही होता है। पंचसंवत्रात्मक युगों का भी उसी के साथ आरम्भ होने से वैदिक काल में भी माघशुक्ल प्रपिपदा से वर्षारम्भ की मान्यता थी। इसी प्रकार दक्षिणायन की प्रवृत्ति श्लेषा नक्षत्र के उत्तरार्ध में सूर्य के जाने से बतलाई गई है। (वे.ज्यो. ७) उत्तरायण में क्रमशः ३२ पल प्रतिदिन दिन की वृद्धि तथा रात्रि का ह्रास होता है। इसी प्रकार दक्षिणायन में ३२ पल रात्रि की वृद्धि तथा क्रमशः दिन का ह्रास होता है। इस प्रकार दिन-रात्रि की व्यवस्था का विवेचन करने के उपरान्त तिथि का निरूपण किया गया है। तिथियों के ह्रास-वृद्धि का भी स्पष्ट संकेत है। अनन्तर पर्व साधन किया गया है। वेदांग ज्योतिष में गणितीय सिद्धान्तों का उपयोग आरम्भ से ही दीखने लगता है। संवत्सरों के आधार पर गत पर्यों की संख्या का साधन किया गया हैं यथा वेदाङ्ग ज्योतिष वेदांग ज्योतिष में काल को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। यही कारण है कि ग्रन्थारम्भ करते समय काल की इकाइयों को प्रणाम किया गया है पंचसंवत्सरमयं युगाध्यक्ष प्रजापतिम्। दिनर्वयनमासांगं प्रणम्य शिरसा शुचिः।।११॥ प्रणम्य शिरसा कालमभिवाद्य सरस्वतीम्। कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि लगधस्य महात्मनः ।।२।। अर्थात् पंचसंवत्सरात्मक युगाध्यक्ष प्रजापति जिनके दिन-ऋतु-अयन और मास अंगभूत है, उन्हें प्रणाम कर शुचिता के साथ काल को तथा सरस्वती को प्रणाम कर लगध द्वारा प्रतिपादित काल ज्ञान को कहूँगा। इस प्रकार काल को प्रणाम कर सर्वप्रथम काल का ही विवेचन किया है। निरेकं द्वादशाब्दार्ध द्विगुणं गतसंज्ञिकम्। षष्ठ्या षष्ठ्या युतं द्वाभ्यां पर्वणां राशिरुच्यते।। ऋ.ज्यो. ४ ऋग्ज्योतिष के पाठ में कुछ त्रुटि आ गई है, जिसका संशोधन याजुष ज्योतिष के पाठ से किया जाता है। याजुष ज्योतिष में लिखा है- ‘निरेकं द्वादशाभ्यस्तं द्विगुणं गतसंयुतम्।” १. याजुष ज्यो. १३ भूमिका २७ | ६. चित् = चित्रा १६.घा = मघा २०.स्वा = स्वाती १०. मू = मूल ११. षक् = शतभिषक् १२. ण्यः = भरण्यः = भरणी २१. पः = आपः = पूर्वाषाढ़ा | २२. अजः = अजपाद् = पूर्वाभाद्रपदा | २३. कृ = कृत्तिका | २४.ष्यः = पुष्यः २५.ह = हस्तः २६ ज्योतिष-खण्ड इस पाठान्तर के अनुसार गत संवत्सर (वर्तमान संवत् में एक घटाकर) को १२ से गुणा कर द्विगुणित करने से तथा प्रत्येक ६०-६० के अन्तराल में २ दो जोड़ने से पर्व संख्या आ जाती है। यहाँ गत शब्द से वर्ष एवं मास दोनों का ग्रहण किया गया है। यथा- द्वितीय वर्ष के तृतीय मासान्त में पर्व संख्या ज्ञात करनी है। अतः २-१ = गत संवत्। १ x १२ = १२ x २ = २४ + (३ मासान्त के पर्व) = २४ + ६ = ३० पर्व संख्या हुई। चूंकि यहाँ साठ का पर्याय पूर्ण नहीं था इसलिए दो नहीं जोड़ा गया। इसी प्रकार यदि चतुर्थ वर्ष छठे मास में पर्वगण सिद्ध करना हो तो पूर्ववत् ४-१ = ३, ३ x १२ = ३६ x २ = ७२ + गतपर्व = ७२ + १२ = ८४ +२ = ८६ पर्व संख्या हुई। इससे यह स्पष्टतया लक्षित हो रहा है कि इस अवधि में एक अधिमास आया था जिसके कारण २ पर्व संख्या अधिक हो गई। इसीलिए प्रति ६०-६० के अन्तराल पर दो जोड़ने का निर्देश दिया गया है। पर्वज्ञान के आधार पर सूर्य-चन्द्र द्वारा भुक्त नक्षत्रों के मान की अद्भुत विधि दी गई है। इस पद्य के विषद् भाष्य के अनन्तर श्री कौण्डिन्न्यायन ने पूर्ववर्ती व्याख्याकारों की समीक्षा करते हुए लिखा है कि-‘भांशा स्युरष्टका कार्याः’ इत्यादि याजुष ज्योतिष के १५वें श्लोक की व्याख्या शंकरबालकृष्ण दीक्षित ने नहीं की है। अतः पूर्ववर्ती अध्येताओं से भी यह श्लोक अव्याख्यात रहा है। श्री सुधाकर द्विवेदी ने भी इसकी समीचीन व्याख्या नहीं की। बाल गंगाधर तिलक का उद्धरण देते हुये कहा है कि बार्हस्पत्य का पूर्वार्ध का व्याख्यान सही है। इस पद्य के व्याख्यान में आचार्य कौण्डिन्न्यायन का प्रयास सार्थक प्रतीत हो रहा है। अनन्तर २७ नक्षत्रों के नाम संकेताक्षरों द्वारा दिये गये है। किन्तु नक्षत्रों का क्रम अब तक के सभी क्रमों से भिन्न एवं अत्यन्त अद्भुत हैं। वर्तमान क्रम को आधार माना जाय तो अश्विनी से आरम्भ कर छठे-छठे नक्षत्र को क्रम में रखा गया है। यथा १३. सू = पुनर्वसु १४. मा = अर्यमा = उत्तरफाल्गुनी १५. धा = अनुराधा १६.णः = श्रवण १७.रे = रेवती १८. मृ = मृगशिरा २६.ज्ये = ज्येष्ठा २७.ष्ठा = धनिष्ठा। उक्त पद्य की व्याख्या में सोमाकार ने नक्षत्रों के निर्देश का वैशिष्ट्य बतलाते हुये कहा है- “सप्तविंशतिभिरक्षरैर्नामदेवतावयवभूतैर्नक्षत्राणि, तेषामवयवाः तेषां क्रमः, तस्य च कालव्यवस्था, तथा तिथेः, ऋतोः, नक्षत्रस्य युगस्य, चाधिमाससम्भवस्य उत्तरनक्षत्राणां वर्षस्य मानान्येतानि दशवसूनि चोदितानि भवन्ति इति वाक्यशेषः।। तेषां संख्या द्योतनार्थं स्थान-नियमार्थं चैव निर्देशः। यस्य पादाक्षरं यत् संख्याकं प्रतिपदादौ भवति पूर्वं पंचदश्यन्ते यदि द्वौ तदोभौ विभज्यौ यथा द्वयंशमार्द्रा नेति चोदितम् ।। इत्यादिः।’ _ इस क्रम की उपपत्ति देते हुए शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी ने लिखा हैं- “युग में पर्व १२४ होते हैं। इसलिए वेदांग ज्योतिष में नक्षत्रों के १२४ अंश माने गये हैं। यह श्लोक और यजुः पाठ का २५ वाँ श्लोक इस कल्पना के आधार है। युग में तिथियाँ १८६० होती हैं और सूर्य नक्षत्रों की ५ परिक्रमा करता है। (यजुः पाठ का श्लोक २८ और ३१ देखिये) अर्थात् एक तिथि में नक्षत्र का २७ x 2 = 5. भाग भोगता है।" इसी के आधार पर नक्षत्रों का उक्त क्रम सिद्ध होता है। ये पर्वान्त विशेष के नक्षत्र हैं। (द्रष्टव्य - भारतीय ज्यो. पृ. १०४ पं. १०-१५)। १२४ जौद्रागः खेश्वहीरोषाचिन्मूषण्यः सूमाधाणः। रेमृघास्वापोजः कृष्योह ज्येष्ठा इत्यृक्षा लिङ्गः।। (वे.ज्यो.याजु. १८, ऋक् १४) १. जौ = अश्वयुजौ = अश्विनी | ५. श्वे = विश्वेदेव = उत्तराषाढ़ २. द्रा = आर्द्रा | ६. हि = अहिर्बुध्य = उत्तरा भाद्रपदा ३. गः = भगः = पूर्वाफाल्गुनी ७. रो = रोहिणी ४. खे = विशाखे ८. षा = आश्लेषा १. वेदांगज्योतिषम्, पृ. ३३५ २८ ज्योतिष-खण्ड __आचार्य कौण्डिन्न्यायन ने इस पद्य की टिप्पणी के अन्त में जो लिखा है उसका सारांश यह है कि इस पद्य पर सोमाकर का विस्तृत व्याख्यान है किन्तु पूरा समझ में आने योग्य नहीं है। थीबो द्वारा दी गई नक्षत्रों के अंशों की सारणी स्पष्ट है। किन्तु नक्षत्र क्रम की व्याख्या किसी ने सुस्पष्ट रूप से नहीं की है। भूमिका नक्षत्रों के स्वामी स्वामी (वेदांग ज्योतिष) स्वामी (मुहूर्त चिन्तामणि) अग्नि वह्नि (अग्नि) नक्षत्र कृत्तिका रोहिणी तिथि-नक्षत्र साधन धाता प्रजापति मृगशिरा सोम आर्द्रा रुद्र पुनर्वसु अदिति अदिति अर्थात ( अभीष्ट तिथि पुष्य बृहस्पति इज्य (बृहस्पति) उरग (सर्प) आश्लेषा सर्प मघा पितर पितर भग भग तिथिमेकादशाभ्यस्तां पर्वभांशसमन्विताम्। विभज्य भसमूहेन तिथिनक्षत्रमादिशेत् ।। (यजु. वेदांग) अभीष्टतिथि को ११ से गुणा करें, गुणनफल में गतपर्व के नक्षत्र के अंश को जोड़कर २७ से भाग देने पर शेषांक तुल्य जावादि क्रम से नक्षत्र होता है।
- ( अभीष्ट तिथि x ११) +गतपर्वभांश_ तिथि सम्बन्धी नक्षत्र। २७ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भांश के ज्ञान की विधि वेदांग ज्योति के १५वें श्लोक में बताई गई है। यद्यपि यह पद्य अत्यन्त विवादास्पद रहा है। प्रायः सभी व्याख्याकारों ने इस पद्य की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की है तथा सभी व्याख्यानों में कुछ न कुछ अन्तर, कहीं-कहीं विशद अन्तर पाये जाते हैं, जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है। इस पद्य पर कौण्डिन्न्यायन की व्याख्या विस्तृत एवं द्रष्टव्य है। _ ३२ से ३४ श्लोकों में नक्षत्रों के स्वामियों का उल्लेख किया गया है। वेदांग ज्योतिष में निर्दिष्ट नक्षत्राधिप बिना किसी परिवर्तन के आज भी व्यवहृत हो रहे है। यथा अग्निः प्रजापतिः सोमो रुद्रोऽदितिर्ब्रहस्पतिः। सांश्च पितरश्चैव भागश्चैवार्यमाऽपि च ॥३२।। सविता त्वष्टाऽथ वायुश्चेन्द्राग्निर्मित्र एव च। इन्द्रो निऋतिरापो वै विश्वेदेवास्तथैव च ।।३३।। विष्णुर्वसवो वरुणोऽजएकपात् तथैव च। अहिर्बुध्यस्तथा पूषा अश्विनौ यम एव च।।३४।। आज की प्रचलित मान्यता तथा वेदांग ज्योतिष में निर्दिष्ट नक्षत्रों के स्वामियों की समता प्रदर्शित करने की दृष्टि आज के सर्वाधिक प्रचलित ग्रन्थ मुहूर्त्तचिन्तामणि में वर्णित है। पूर्वाफल्गुनी _ उत्तर फल्गुनी आर्यमा अर्यमा हस्त सविता रवि चित्रा त्वष्टा त्वष्टा स्वाती वायु समीर विशाखा इन्द्राग्नी शक्राग्नी अनुराधा मित्र मित्र ज्येष्ठा इन्द्र इन्द्र १७. मूल निऋति निऋति ज्योतिष-खण्ड ३१ १८. पूर्वाषाढ़ आपः क्षीर (जल) भूमिका थी। वेदिक या वेदांग काल में जातक के साथ-साथ यज्ञ के यजमान का भी नामकरण होता था। १६. उत्तराषाढ़ विश्वेदेव विश्वेदेव १६अ अभिजित विधि २०. श्रवण विष्णु गोविन्द आजकल जातक का नामकरण नक्षत्र के पादाक्षर के अनुसार किया जाता है तथा पादाक्षर अवकहड़ाचक्र के अनुसार लिए जाते हैं। किन्तु वेदांग ज्योतिष में नक्षत्र के नाम अथवा स्वामी नाम या नाम के पर्यायवाची नामों के आधार पर होता था। कालक्रम के साथ-साथ भारतीय गणित का विकास होता गया तथा ज्योतिषशास्त्र में सूक्ष्म गणनायें होने लगी तथा अन्य ब्रह्माण्डीय घटनाओं का ज्ञान किया जाने लगा। फिर भी वेदांग ज्योतिष के मूलभूत सिद्धान्तों की मान्यता आज भी यथावत् है। धनिष्ठा वसु शतभिष वरुण तोयप (वरुण) पूर्वभाद्रपद अजचरण अज एकपात् अहिर्बुध्य वैदिक पंचांग पंचसंवत्सरात्मक युग, तिथि और नक्षत्रादि का साधन करने के उपरान्त तथा अधिमासादि का ज्ञान हो जाने के कारण यह अनुमान किया जा सकता है कि उक्त मानों के आधार पर वैदिक पचांग का निर्माण किया जा सकता है। उत्तरभाद्रपद अहिर्बुध्य २५. रेवती पूषा शंकरबालकृष्ण दीक्षित ने इस प्रसंग में सम्भावना व्यक्त करते हुए लिखा है कि “यदि एक बार पाँच वर्षों का पंचाग बना लिया जाय तो वही प्रत्येक युग में काम दे सकेगा।" इस आशय के समर्थन में वेदांग ज्योतिष के निम्न वाक्य को उद्धृत करते हुये आचार्य शिवराज कौण्डिन्न्यायन ने अपने ग्रन्थ वेदांग ज्योतिषम् में लिखा है २६. अश्विनी अश्विनी कुमार नासत्य (अश्विनी) २७. भरणी यम .. अन्तक (यम) वेदांग ज्योतिष में मुख्य रूप से कालविधान के साथ-साथ तिथि-नक्षत्र-मास अधिमास-ऋतु-अयन तथा वर्ष का विवेचन किया गया है क्योंकि इनकी सभी श्रौत स्मार्त क्रियाओं में आवश्यकता होती हैं। जैसा कि आरम्भ में ही कहा गया है वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः। तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान् ।। (यजु. वे.३) सैद्धान्तिक दृष्टि से कुछ प्रमुख विषयों यथा संक्रान्ति, उदयास्त और ग्रहण आदि विषयों की चर्चा वेदांग ज्योतिष में नहीं की गई है। मेषादि राशियों तथा आदित्यादि सप्तवारों का भी उल्लेख नहीं है। सम्भवतः वैदिक यज्ञयागादि में विशेष उपयोगी विषयों का ही सूक्ष्म प्रतिपादन वेदांग ज्योतिष का मुख्य उद्देश्य था। इसी प्रसंग में यह भी संकेत कर देना आवश्यक है कि वेदांग ज्योतिष में नक्षत्रानुसार नामकरण की प्रक्रिया आज से सर्वथा भिन्न “इत्युपायसमुद्देशो भूयोऽप्येनं प्रकल्पयेत्। (वेदांगज्यो. श्लो. ४२) इति लगधमुनिवचनानुसारं वेदवेदांगन्तरनिर्दिष्टदृक्सिद्धपर्वविधिविधानानुसारं युगे युगे वर्षे वर्षेऽयनेऽयने मासे मासे पर्वणि पर्वणि च सूर्यचन्द्रनक्षत्रस्थितिं निरीक्ष्य युगवर्षायन ऋतुमासपक्षतिथिपर्वगणना पुनः पुनरन्वेक्षणीयेति गम्यते., तस्ताच्च शंकरबालकृष्णदीक्षितोक्तं चिन्त्यमेव। इदानीं दृक्सिद्धसूर्य-चन्द्र-नक्षत्रादिस्थित्यनुसारमेव लगधमुनिप्रोक्तवेदांगज्योतिष ग्रन्थानुसारं संवत्सरायन-ऋतु-मासाऽधिमासपक्षतिथिपर्वनक्षत्रनिर्धारणेन संवत्सरपंजीविचारयितुं शक्या। श्री कौण्डिन्नयायन ने वैदिक पंजी का साधन कर अपने ग्रन्थ में उदाहरणार्थ प्रस्तुत भी किया है। १. नक्षत्रदेवता होता एताभिर्यज्ञकर्माणि। यजमानस्य शास्त्रज्ञैर्नाम नक्षत्रजं स्मृतम्।। या.वे. ३५ २. वेदांगज्योतिषम्, पृ. ४७४३२ भूमिका ज्योतिष-खण्ड _सद्यपि शंकरबालकृष्ण दीक्षित भी कुछ त्रुटियों से अवगत थे। क्योंकि आधारभूत वर्षमान की त्रुटियों को निम्नलिखित तालिका में दर्शाया है-’ होता है। अर्थात (१ द्रोण-३ कुडव) = शेष जल घटी यन्त्र में डालने से जितने समय में जल बाहर आता है वह काल ‘नाड़ी’ संज्ञक होता है। वेदांग ज्योतिष सूर्यसिद्धान्त आधुनिक योरोपियन __ मान यहाँ जल मापने हेतु विभिन्न बाटों का उल्लेख किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि उस काल में आढ़क-द्रोण-कुडव आदि मापों का व्यवहार प्रचलन में था। इसीलिए इन मापों के पारस्परिक सम्बन्धों का उल्लेख नहीं किया गया है। उक्त श्लोक ऋक् ज्योतिष में इस प्रकार कहा गया है युगीय सावन दिन १८३० १८२६.२६३८ १८२६.२८१६ (नाक्षत्र सौर) ६२ चान्द्रमानों के दिन । १८३० १८३०.८६६१ १८३०.८६६४ (नाक्षत्र सौर) नाडिके द्वे मुहूर्तस्तु पंचाशत् पलमाषकम्। माषकात् कुम्भको द्रोणः कुटपैर्वधते त्रिभिः।।१७।। यहाँ २ नाडी का एक मुहूर्त, पचास पल का एक आषक (आढक) बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त कुम्भक और द्रोण का उल्लेख है। शंकरबालकृष्ण दीक्षित ने भट्टोत्पल के प्रमाण को उदधृत करते हुये लिखा है कि वेदांग ज्योतिष का उक्त श्लोक इस रूप में होना चाहिये | ६५ वर्षों में सावन दिन | ३४७७० । ३४६६६.५८ ३४६६६.३६ (सायन सौरवर्ष) ११७८ चान्द्रमासों में दिन ३४७७० ३४८७७.०३ ३४७८७.०३ इस तालिका से स्पष्ट हैं कि चान्द्रमान की अपेक्षा सौरमान अधिक अशुद्ध है। अतः अयनारम्भ यदि एक बार माघशुक्ल प्रतिपदा को हुआ तो द्वितीय युग के आरम्भ में लगभग ४ दिन पूर्व होगा और ६५ वर्षों में लगभग ७२ दिन पहले होने लगेगा। यद्यपि चान्द्रमास में अशुद्धि कम है तो भी ५ वर्षों में लगभग ५४ घटी की कमी पड़ जाती है। नाडिके द्वे मुहूर्तस्तु पंचाशत् पलमाढकम्। चतुर्भिराढकैलॊणः कुटपैर्वर्धते त्रिभिः।। यहाँ अर्थ स्पष्ट हो जा रहा है। २ नाडी का एक मुहूर्त, ५० पलों का १ आढक, ४ आढ़क का एक द्रोण होता है। यह ३ कुटप (कुडव) तुल्य नाडिका प्रमाण से अधिक होता है। अर्थात् १ द्रोण - ३ कुडव = १ नाडी। प्रामाणों का सारांश बाट माप और कालज्ञान ५० पल = १ आढ़क पलानि पंचाशदपां धृतानि तदाढकं द्रोणमतः प्रमेयम्। त्रिभिर्विहीनं कुडवैस्तु कार्य तन्नाडिकायास्तु भवेत् प्रमाणम्।। (याजुष २४) अर्थात् ५० पल जल का भार एक आढ़क के तुल्य होता है। इस आढ़क प्रमाण से एक द्रोण जल लेकर उस में से ३ कुडव जल निकाल देने से शेष जल नाडिका का प्रमाण ४ आढ़क = १ द्रोण यहाँ कुडव का मान अज्ञात रहा। अतः भास्कराचार्य की लीलावती से सहायता ली जाय तो सभी प्रमाणों के मान ज्ञात हो जाते हैं। १. भारतीय ज्योतिष, पृ. १३१ १. भारतीय ज्योतिष, पृ. १२३-२४ ज्योतिष-खण्ड भूमिका द्रोणस्तु खार्याः खलु षोडशांशः स्यादाढको द्रोणचतुर्थभागः। प्रस्थश्चतुर्थांश इहाढकस्य प्रस्थांघ्रिराद्यैः कुडवः प्रदिष्टः।। ली.पं. ८ अर्थात खारी के सोलहवें भाग को द्रोण, द्रोण के चतुर्थांश को आढ़क, आढ़क के चतुर्थांश को प्रस्थ तथा प्रस्थ के चतुर्थांश को कुडव कहा जाता है। अतः ४ कुडव = १ प्रस्थ प्रस्थ की आवश्यकता दिनमान के ह्रास वृद्धि में होती है क्यों कि दिन के प्रमाण को बतलाते हुये कहा गया है कि-सूर्य के उत्तरायण होने पर, एक प्रस्थ जल घटी में आने में जितना समय लगता है, उतने काल तुल्य दिन में वृद्धि तथा रात्रि में ह्रास होता है।’ इस सिद्धान्त के अनुसार प्रतिदिन - घटी (.०६५ घटी) दिन प्रतिदिन बढ़ता है तथा इतना ही रात्रि का मान घटता है। दक्षिणायन में इससे विपरीत स्थिति होती है। यह वृद्धि और ह्रास का क्रम अधिकतम ६ मुहूर्त तक हो जाता है। अर्थात् उत्तरायण में दिनमान अधिकतम १८ मुहूर्त तथा रात्रिमान न्यूनतम १२ मुहूर्त हो जाता है। दक्षिणायन में इससे विपरीत दिनमान १२ मुहूर्त तथा रात्रिमान १८ मुहूर्त होता है। _६ मुहूर्त तक दिन की वृद्धि सार्वदेशिक सम्भव नहीं है। अतः इस वृद्धि-हास से किसी क्षेत्र विशेष के दिन मान या रात्रिमान का संकेत मिलता है। ४ प्रस्थ = १ आढ़क ४ आढ़क ४ = १ द्रोण १६ द्रोण = १ खारी इस परिभाषा के अनुसार १ द्रोण में ६४ कुडव होते हैं। अतः १ द्रोण - ३ कुडव = ६४ कुडव - ३ कुडव = ६१ कुडव त्र १ नाडी। १ आढ़क = ५० पल रचना काल वेदांग ज्योतिष के रचना काल के सम्बन्ध में उत्तरायण-दक्षिणायन का आरम्भ बिन्दु ही ज्योतिष शास्त्रीय आधार महत्वपूर्ण है। अतः दोनों आयनारम्भ बिन्दुओं पर पुनः विचार करना होगा। धनिष्ठा के आरम्भ बिन्दु से उत्तरायण की तथा आश्लेषा के आधे से दक्षिणायन की प्रवृत्ति होती है। जैसा कि वेदांग ज्योतिष में लिखा है ४ आढ़क = ५० x ४ = २०० पल = १ द्रोण वेदांग ज्योतिष के अनुसार १ नाड़ी में पल का प्रमाण उक्त परिभाषाओं के आधार पर इस प्रकार होगा। १ नाडी = ६१ कुडव १६ कुडव = १ आढ़क = ५० पल १ २५ ४ प्रस्थ = १ आढ़क = ५० पल १ नाडी = ६१ x ३ = = ६१ ४. १ नाडी = १६० - पल स्वराक्रमेते सोमार्को यदा साकं सवासवौ। स्यात् तदादियुगं माघस्तपः शुक्लोऽयनं युदक् ।। (याजुष. ज्यो. ६) इसके अनुसार जब सूर्य और चन्द्रमा धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ बिन्दु पर आते हैं तब उत्तरायण का आरम्भ होता है। अर्थात् सूर्य और चन्द्र का भोग तथा धनिष्ठा का सायन भोग ६ राशि होना चाहिए। यहाँ पाश्चात्य विद्वानों ने कुछ भ्रम उत्पन्न कर दिया था। धनिष्ठा का आरम्भ बिन्दु क्रान्ति वृत्त के विभागात्मक (२७ नक्षत्रों के १३°/२०’) भागों के अनुसार मान लिया। विशेषतः यह मत कोलब्रूक ने प्रस्तुत किया। परिणामतः मघा नक्षत्र के योगतारा से पूर्व ही विभागात्मक आरम्भ बिन्दु को मान कर काल निर्धारण किया। परन्तु उस विभागात्मक आरम्भ बिन्दु से धनिष्ठा का योगतारा, जिसे पाश्चात्य विद्वान अल्फा डेल्फिनी ५० = १२ - पल = १ प्रस्थ
अथवा १ नाडी = १६०.६२५ पल ५०१ = ३ – पल = कुडव ته _ इसीप्रकार प्रस्थको नाडीमें परिवर्तित करने से - १२ – पल : १६० २५.४ ८ = - .०६५ घटी। २ १५२५ ६१ . धर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रासः उदग्गतौ। दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुमुहूर्त्ययनेन तु ।। (याजु. ८) . ज्योतिष-खण्ड के नाम से जानते है, से ४०/११’ कला आगे है। सम्पात को ४ अंश ११ कला की दूरी तय करने में ३०० वर्ष २ मास १२ दिन लगते हैं। अतः कोलब्रूक द्वारा निर्धारित काल से वास्तविक काल ३०० वर्ष आगे चला जाता है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने लिखा है कि ईस्वी सन् १८८७ में मैंने इसका सूक्ष्म भोग निकाला था। वह १० राशि १५ अंश ४८ कला २६ विकला आता है। केरोपन्त ने ग्रहसाधन कोष्ठक में सन् १८५० का भोग १०/२१/१७ लिखा है परन्तु वह अशुद्ध है। उसके स्थान पर १०/१५/१७ होना चाहिये। सम्पात गति यदि ५० विकला प्रतिवर्ष माने तो इतनी वृद्धि होने में ३२६७ वर्ष लगेंगे। इसमें १८८७ घटा देने से (३२६७-१८८७) = १४१० आता है। अतः ईस्वी सन् पूर्व १४१० में धनिष्ठा का भोग ६ राशि आता है। इससे सिद्ध होता है कि उस समय धनिष्ठा के आरभ से उत्तरायण का आरम्भ हुआ था। अतः ईसा पूर्व १४१० वेदांग ज्योतिष का काल गणितीय आधार से सिद्ध होता है। प्रो. विटनी के मतानुसार योगतारा वीटा डेल्फिनी मान लेने से ७२ वर्ष का अन्तर आ जायेगा। अर्थात् वेदांग ज्योतिष का काल (१४१०-७२) = १३३८ ई.पू. मानना होगा। धनिष्ठा के सभी तारे प्रायः १-१ अंश की दूरी पर हैं। इनके अन्तर को न्यूनाधिक नहीं किया जा सकता। अतः निष्कर्ष रूप मे ईसा पूर्व १४०० वर्ष ही वेदांग ज्योतिष का काल मान लेना तर्कसंगत होगा। भूमिका विवाद आरम्भ होते हैं। एक देश के मौलिक ज्योतिष में दूसरे देश के ज्योतिष का प्रभाव विवाद का कारण बनता रहा है। भारतीय ज्योतिष का मूलाधार ‘वेद’ ही है। अतः इसके मूलभूत सिद्धान्तों में अन्तर नहीं है, किन्तु कालक्रम से विभिन्न मानों में अन्तर होना स्वाभाविक है। जैसा कि सूर्यसिद्धान्त में कहा गया है “युगानां परिवर्तेन कालभेदोत्र केवलः ।।” सिद्धान्त काल के आरम्भ से अब तक अनेक स्थलों पर अन्य देशीय ज्योतिष के प्रभावों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के विवाद सिद्धान्त काल के आरम्भ में ही, जब पंचसिद्धान्तिका प्रकाश में आयी, तभी से प्रारम्भ हो गया। सिद्धान्तों के नाम भी इस विवाद के कारण बने-सौर सिद्धान्त, पितामह सिद्धान्त, वसिष्ठ सिद्धान्त, रोमक सिद्धान्त और पौलिश सिद्धान्त। साक्ष्यों के आधार पर यह सिद्ध है कि सर्वाधिक प्राचीन ब्राह्म सिद्धान्त है। तदन्तर वसिष्ठ सिद्धान्त की रचना हुई। इनके बाद ही सौर, पौलिश और रोमक सिद्धान्त आये होंगें। आचार्य वराह मिहिर ने सर्वप्रथम इन सिद्धान्तों का संग्रह कर इनका मनन किया, तदनन्तर इन सिद्धान्तों पर यह टिप्पणी दी सिद्धान्त काल वेदांग काल के बाद से सिद्धान्त काल आरम्भ होता है। आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व (शकारम्भ से लगभग ५०० वर्ष पूर्व) जब सौर आदि पाँच सिद्धान्तों का ज्ञान हुआ तभी से वास्तविक रूप से सिद्धान्त काल का आरम्भ माना जाता है। सिद्धान्त काल से पूर्व ज्योतिष के उपविभाग नहीं थे। सिद्धान्त काल में विषयानुसार ज्योतिष शास्त्र को मुख्यतः तीन भागों में विभक्त किया गया- १. सिद्धान्त, २. संहिता एव ३. होरा (फलित)। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ज्योतिष के क्षेत्र में वैदिक काल से वेदांग काल तक भारतीय आचार्यों का मौलिक योगदान माना जाता रहा है। इसमें कहीं भी किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। सिद्धान्त काल से ऐतिहासिक विवाद आरम्भ होते हैं। एक देश के ज्योतिष के क्षेत्र में वैदिक काल से वेदांग काल तक भारतीय आचार्यों का मौलिक योगदान माना जाता रहा है। इसमें कहीं भी किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। सिद्धान्त काल से ऐतिहासिक पौलिशकृतः स्फुटोऽसौ तस्यासन्नस्तु रोमकः प्रोक्तः । स्पष्टतरः सावित्रः परिशेषौ दूरविभ्रष्टौ।।’ अर्थात् पौलिश सिद्धान्त स्पष्ट है (दृक् तुल्य है)। इसी के आसन्न रोमक सिद्धान्त की भी स्फुटता है। इन दोनों की अपेक्षा सूर्यसिद्धान्त अधिक स्पष्ट है। शेष दो वसिष्ठ और पैतामह अति प्राचीन होने से अधिक अशुद्ध हैं। इस टिप्पणी से यह आभास होता है कि आरम्भ में ये दोनों भी स्फुट रहे होंगे, किन्तु कालक्रम से इनमें अधिक स्थूलता आ गई होगी। श्री कुप्पन्ना शास्त्री द्वारा सम्पादित संस्करण में ‘पौलिशकृतः’ के स्थान पर ‘पौलिश तिथिः’ पाठान्तर है। इससे यह सिद्ध होता है कि पौलिश सिद्धान्त द्वारा केवल तिथ्यानयन शुद्ध है। म.म. सुधाकर द्विवेदी के पास जो हस्तलेख था उसमें भी यही पाठ रहा, किन्तु उन्होंने ‘पैलिशकृतः’ यही पाठान्तर स्वीकार किया। इतिहासकारों ने पौलिश और रोमक सिद्धान्तों को विदेशी तथा शेष तीन ब्राह्म, वसिष्ठ और सौर सिद्धान्तों को भारतीय बतलाया है। भारतीय इतिहासकारों के विपरीत १. भारतीय ज्योतिष, पृ. १२३-२४ १. पंचसिद्धान्तिका, ४। ज्योतिष-खण्ड ३६ भूमिका प्रथम आर्यभट ने दशगीतिका के आरम्भ में निम्नलिखित मगंलाचरण किया है सुप्रसिद्ध विदेशी यात्री एवं लेखक अलबेरुनी (अबु रेहान मुहम्मद इब्न ऐ अहमद) ने लिखा है कि पौलिश सिद्धान्त सिकन्दरिया निवासी पुलिश के द्वारा लिखा गया है, किन्तु रोमक सिद्धान्त रूम यानी रोमन साम्राज्य की प्रजा पर रखा गया है, जिसकी रचना श्रीषेण ने की है। श्रीषेण के काल पर ध्यान देने से यह स्पष्ट होता है कि अलबेरुनी की यह उक्ति द्वितीय रोमक सिद्धान्त के आधार पर है। प्रणिपत्यमानकं कं सत्यां देवतां परं ब्रह्म। आर्यभटस्त्रीणि गदति गणितं कालक्रियां गोलम् ।। यहाँ ‘क’ ब्रह्मा का बोधक है। इससे स्पष्ट है कि आर्यभट ने ब्राह्म सिद्धान्त से प्रेरणा लेकर कार्य किया होगा, यदि ऐसा नहीं हो तो भी उन्होंने ब्राह्मसिद्धान्त की सत्ता को स्वीकार किया है। अतः यह स्पष्ट है कि आर्यभट के काल से यह पूर्ववर्ती होगा। इससे भी अधिक पुष्ट प्रमाण देते हुए ब्रह्मगुप्त ने लिखा है सिद्धान्तकाल की प्रथम उपलब्धि सिद्धान्त पंचक ही हैं। यद्यपि इन सिद्धान्तों के रचना काल का कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है फिर भी इतना निर्विवाद तथ्य है कि ये सभी सिद्धान्त वेदांगकाल के बाद तथा आर्यभट्ट और वराह से पूर्ववर्ती हैं। पाँच सिद्धान्तों के नाम से दो संकलन उपलब्ध होते हैं। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने दोनों पंचसिद्धान्तों को प्राचीन और नवीन सिद्धान्तपंचक नाम से परिगणित किया है। प्राचीन सिद्धान्त-पंचक आचार्य वराहमिहिर द्वारा संग्रहीत है तथा उनके नाम हैं “पौलिशरोमकवासिष्ठसौर-पैतामहास्तु पंचसिद्धान्ताः।। अर्थात् १. पौलिश, २. रोमक, ३. सौर, ४. वासिष्ठ तथा ५. पैतामह। नवीन सिद्धान्तपंचकों के नाम हैं- १. सूर्यसिद्धान्त, २. सोमसिद्धान्त, ३.वसिष्ठसिद्धान्त, ४. रोमकसिद्धान्त तथा ५. ब्राह्मसिद्धान्त (शाकल्योक्त)। ब्रह्मोक्तं ग्रहगणितं महता कालेन यत् खिली भूतम्। अभिधीयते स्फुटं तत् जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन।। अर्थात् ब्रह्मगुप्त के काल ५५० शक तक, ब्राह्मसिद्धान्त (अधिक काल व्यतीत हो जाने से वह) अशुद्ध हो चुका था। जिष्णु के पुत्र ब्रह्मगुप्त ने उसका परिष्कार कर उसे शुद्ध किया। ब्राह्मसिद्धान्त की आर्याओं में विहित प्रक्रियायें वेदांग ज्योतिष के सिद्धान्तों के आसन्न हैं। अतः इसका काल वेदांग ज्योतिष के बाद ही स्वीकार करना उचित होगा। पैतामह सिद्धान्त (ब्राह्मसिद्धान्त) वराहमिहिर द्वारा संकलित पंचसिद्धान्तिका का ब्राह्म सिद्धान्त अत्यन्त संक्षिप्त है। केवल पाँच आर्या छन्दों में उपलब्ध है। इन आर्याओं में प्राप्त विवरण के आधार पर इसका रचना काल वेदांग ज्योतिष के आसन्न आता है। यथा-दूसरी आर्या में जहाँ नक्षत्र साधन बतलाया गया है, वहाँ नक्षत्रों की गणना धनिष्ठा से आरम्भ की गई है। वसिष्ठसिद्धान्त विषयवस्तु के आधार पर वसिष्ठ सिद्धान्त भी प्राचीन है। पंचसिद्धान्तिका में केवल इस सिद्धान्त की १३ आर्यायें ही उपलब्ध हैं। इनकी पद्धति भी अन्य सिद्धान्तो से भिन्न है तथा अतिकाल हो जाने से इसकी भी पद्धति अशुद्ध हो चुकी है। इसीलिए ब्राह्म और वसिष्ठ दोनों सिद्धान्तों को वराहमिहिर ने ‘दूर-विभ्रष्टौ’ कहा है। उपलब्ध वसिष्ठसिद्धान्त अपूर्ण होने के साथ-साथ केवल प्रारम्भिक विषयों का ही परिचायक है। केवल सूर्य-चन्द्रमा का ही उल्लेख यहाँ मिलता है। अन्य ग्रहों के सन्दर्भ में कोई संकेत यहाँ उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त तिथि साधन, दिनमान एवं लग्न साधन आदि का विवेचन किया गया है। कुछ विद्वानो ने अहर्गणानयन में ‘शक’ का प्रयोग करने से शंका जताई है कि ब्राह्म सिद्धान्त शक काल के बाद का है, परन्तु यह कहना सर्वथा अनुचित होगा। क्योंकि शक काल का प्रयोग तो वराहमिहिर ने किया है। इसका एक मात्र कारण यही है कि सभी सिद्धान्तों की गणना के लिए आचार्य वराहमिहिर ने शक ४२७ स्थिर किया है। अतः इसे ब्राह्म सिद्धान्त या अन्य किसी सिद्धान्त का रचनाकाल मानना अनुचित होगा। शंकर बाल कृष्ण दीक्षित ने एक और प्रमाण दिया है। रोमक सिद्धान्त पंचसिद्धान्तिका में रोमक सिद्धान्त का विवेचन अपेक्षाकृत अधिक है। यद्यिप रोमक ४० ज्योतिष-खण्ड ४१ भूमिका गतिस्थित्यादि का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु पौलिश सिद्धान्त में ग्रहों के वक्रत्व, मार्गत्व और उदयास्तादि का विवेचन किया गया है। इसके अतिरिक्त देशान्तर साधन, चर साधन, चर से दिनमान आदि के आनयन का विधान भी दिया गया है। चर का विवेचन करते हुए कहा गया है सिद्धान्त के रचना काल का भी उपयुक्त अनुमान नहीं है फिर भी साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जाता है कि रोमक सिद्धान्त, पैतामह और वसिष्ठ सिद्धान्तों के बाद का है। भारतीय ज्योतिष में अनेक प्रमाण उक्त तथ्य को प्रमाणित करने के लिए उपलब्ध है। पंचसिद्धान्तिका के अनुसार विभिन्न सिद्धान्तों में प्रतिपादित वर्षमान पैतामह सिद्धान्त ३६५ दिन २१ घटी २५ पल पुलिश सिद्धान्त ३६५ दिन १५ घटी ३० पल सूर्य सिद्धान्त ३६५ दिन १५ घटी ३१ पल ३० विपल रोमक सिद्धान्त ३६५ दिन १४ घटी ४८ पल U यहाँ रोमक सिद्धान्त का मान सबसे भिन्न है। प्रायः सभी प्राचीन सिद्धान्तों में एकरूपता है जो वेदांग ज्योतिष के वर्षमान के आसन्न है। वेदांग ज्योतिष में वर्षमान ३६६ दिन माना गया है। इस आधार पर रोमक सिद्धान्त सभी सिद्धान्तों की अपेक्षा नूतन माना गया है, फिर भी इन पाँचों सिद्धान्तों का काल शक काल से पूर्ववर्ती है। द्वितीय रोमक सिद्धान्त (श्रीषेण विरचित) शक ४२७ के बाद का है क्योंकि इसके भगणादि पूर्ववर्ती रोमक सिद्धान्त से सर्वथा भिन्न है। यवनाच्चरजा नाड्यः सप्तावन्त्यास्त्रिभागसंयुक्ताः। वाराणस्यां त्रिकृतिः साधनमन्यत्र वक्ष्यामि।।’ अर्थात् अवन्ती (उज्जैन) का चरखण्ड - घट्यादि तथा वाराणसी का ६ घटी। यह मान अन्य सिद्धान्तों से साम्य नहीं रखता है क्योंकि प्रायः सिद्धान्तों द्वारा साधित वाराणसी का चर – घट्यादि से - घट्यादि तक देखा जाता है। रोमक की तरह ही इसमें भी युगपद्धति का विवेचन नहीं है किन्तु तिथि और क्षयाधिमासों के विवेचन प्रसंग को देखने से यह सिद्धान्त स्मृतिबाम नहीं प्रतीत होता। अतः विद्वानों ने इसे स्मृतिबाम नहीं कहा है। इससे अनुमान किया जाता है कि इसमें भी युगपद्धति का विवेचन रहा होगा। विभिन्न स्थलों पर उदधृत अंशों के आधार पर कल्पना की जाती है कि यह सिद्धान्त पूर्णरूप से व्याख्यात रहा होगा। इसी क्रम में यह कह देना आवश्यक होगा कि भट्टोत्पल द्वारा उद्धृत पौलिश सिद्धान्त अपनी विशेषताओं एवं भिन्नताओं के कारण मूल पौलिश सिद्धान्त के अतिरिक्त किसी अन्य संशोधित एवं परिष्कृत पौलिश सिद्धान्त का संकेत देता है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने निम्नलिखित श्लोक में वर्णित नक्षत्रभगण संख्या के आधार पर दो अन्य पौलिश सिद्धान्तों के अस्तित्व की सम्भावना व्यक्त की है पाश्चात्य वैज्ञानिक हिपार्कस ने जो वर्षमान निकाला वह रोमक सिद्धान्त के वर्षमान के समकक्ष था। हिपार्कस का काल लगभग १५० ई. पूर्व माना जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि रोमक सिद्धान्त हिपार्कस के वर्षमान के आधार पर है। साथ ही इसमें केवल सूर्य और चन्द्रमा का ही गणित है। अन्य ग्रहों की साधनविधि नहीं है। अन्य सिद्धान्तों की तरह युगपद्धति का विवेचन भी नहीं है। अतः यह पाश्चात्य शैली पर आधारित सिद्धान्त है, जिसका रचनाकाल १५० ई. पूर्व से १५० ई. सन् के बीच में कल्पित किया गया है। डॉ. थीबो ने रोमक सिद्धान्त का काल ई. सन् ४०० से प्राचीन माना है किन्तु यह युक्तिसंगत न होने से मान्य नहीं हुआ। खखाष्ट मुनि रामाश्विनेत्राष्ट शररात्रिपाः। भानां चतुर्युगेनैते परिवर्ताः प्रकीर्तिताः।। यहाँ पर एक महायुग में भभ्रम संख्या १५८२२३७८०० बतलाई गई है। यद्यपि यह श्लोक पंचसिद्धान्तिका के पौलिश सिद्धान्त का नहीं है क्योंकि यह अनुष्टुप् छन्द में है तथा पंचसिद्धान्तिकोक्त पौलिश सिद्धान्त आर्या छन्दों में है, परन्तु मूल पौलिश की महायुगीन पौलिश सिद्धान्त पौलिश सिद्धान्त और रोमक सिद्धान्त दोनों के अनुसार साधित अहर्गणों में लगभग साम्य होता है। रोमक की तरह यहाँ भी सूर्य चन्द्रमा के अतिरिक्त भौमादि ग्रहों की १. भारतीय ज्योतिश, पृ.२२४ २. भारतीय ज्योतिष, पृ. २२७ ४३ भूमिका सूर्यसिद्धान्त में युगारम्भ मध्यरात्रि से माना गया है तथा महायुग प्रमाण ४३२०००० वर्षों का स्वीकार कर तदनुसार ग्रहों की भगण सुख्या दी गई है ४२ ज्योतिष-खण्ड भभ्रम संख्या भट्टोत्पल द्वारा उदधृत पौलिश के उक्त श्लोक से पूर्णतः समानता रखती है। इसी प्रमाण से अन्य पौलिश सिद्धान्तों का अस्तित्व सिद्ध होता है। ०० नक्षत्र १५८२२३७८०० रवि भगण
४३२०००० चन्द्र भगण ५७७५३३३६ सूर्यसिद्धान्त पंचसिद्धान्तिका में वर्णित पाँचों सिद्धान्तों में सूर्यसिद्धान्त का विशेष महत्व है। क्योंकि अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा विस्तृत एवं सूक्ष्म है। आचार्य वराहमिहिर ने पांचों सिद्धान्तों का अनुशीलन कर तुलनात्मक दृष्टि से सूर्यसिद्धान्त को अधिक सूक्ष्म एवं शुद्ध पाया। इस आशय को आचार्य ने पंचसिद्धान्तिका के आरम्भ में ही निम्नलिखित आर्या में प्रकट कर दिया है चन्द्रोच्च ४८८२१६ भौम भगण २२६६८२४ १७६३७००० बुध भगण गुरु भगण शुक्र भगण ३६४२२० ७०२२३८८ शनि भगण १४६५६४ “स्पष्टतरः सावित्रः परिशेषौ दूरविभ्रष्टौ।।” (प.सि. ४) “स्पष्टतरः सावित्रः” यह शब्द ही तुलनात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता है। तथ्य भी है। सूर्यासिद्धान्त का वर्षमान ३६५/१५/३१/३० दिनादि अपेक्षाकृत शुद्ध माना गया। इसके साथ-साथ मध्यम सभी ग्रहों का साधन तथा उनका स्पष्टीकरण, तिथ्यादि साधन, ग्रहों की गतियों के वक्रत्व-मार्गत्व भेदों का निरूपण, ग्रहण गणित आदि का विवेचन सूर्यसिद्धान्तानुसार ही शुद्ध माना गया। वर्तमान समय में पंचसिद्धान्तिका के दो ही संस्करण उपलब्ध है। (१) जी. थीबो एवं महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी द्वारा सम्पादित (२) टी. एस. कुप्पन्ना शास्त्री द्वारा सम्पादित। दोनों में ही सूर्यसिद्धान्त का वैशिष्ट्य प्रतिपादित है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने भी लिखा है कि सूर्यसिद्धान्त को सर्वाधिक महत्व देने का कारण दृक् प्रतीति में आने वाली स्पष्टता ही मालूम होती है।’ इनके अनुसार पंचसिद्धान्तिका की १४वीं आर्या में निर्दिष्ट अधिमास सूर्यसिद्धान्त के ही है। इसी प्रकार नवम अध्याय की २६वी तथा दशम अध्याय की ७वीं आर्याओं में सूर्य-चन्द्रानयन एवं ग्रहण का उल्लेख है। इसी प्रकार ११वें अध्याय के ६ श्लोकों में ग्रहण का विचार है। ये सभी सूर्यासिद्धान्तानुसार हैं। उक्त मान पुलिस सिद्धान्त के मानों के आसन्न किन्तु उनसे सूक्ष्म थे। इसीलिए आचार्य ब्रह्मगुप्त और वराहमिहिर ने इनमें से अधिकोश मानों को ग्रहण किया था। सूर्यसिद्धान्त की शुद्धता का यह भी एक प्रमाण है। अतः निःसन्देह वराहमिहिर की उक्ति “स्पष्टतरः सावित्रः” परवर्ती आचार्यों द्वारा भी ग्राम एवं समादृत हुई। नवीन सिद्धान्तपंचक नवीन सिद्धान्तपंचक नाम से प्रसिद्ध सिद्धान्तों का नामोल्लेख किया जा चुका है फिर भी परिचयात्मक दृष्टि से पुनः उनके नामों को लिखना आवश्यक हैं। इनके नाम हैं-सूर्यसिद्धान्त, सोमसिद्धान्त, वसिष्ठ सिद्धान्त, रोमश सिद्धान्त तथा ब्राह्मसिद्धान्त (शाकल्य संहितोक्त)। इनमें सूर्यसिद्धान्त सर्वाधिक प्रचलित एवं प्रसिद्ध है। इन सभी सिद्धान्तों को आर्ष सिद्धान्त माना जाता है। आचार्य कमलाकर भट्ट ने लिखा है AD हैं ब्रह्मा प्राह नारदाय हिमगुर्यच्छौनकायामलम्। माण्डव्याय च वसिष्ठसंज्ञकमुनिः सूर्यो मयायाह यत् ।। (सि.त.वि. म.का. ६५) १. भारतीय ज्योतिष, पृ. २३१ २. वर्षायुते धृतिघ्ने नवबसुगुणरसारसाः स्युरधिमासाः ।। पं.सि. १४ ४५ ४४ ज्योतिष-खण्ड यहाँ चार सिद्धान्तों के मूल स्रोतों का उल्लेख किया गया है। जहाँ ब्रह्म ने नारद को उपदेश किया वह ब्राह्मसिद्धान्त, इसी प्रकार सोम (चन्द्र) ने शौनक ऋषि को उपदेश किया वह सोमसिद्धान्त, वसिष्ठ ने माण्डव्य को उपदेश किया तो वसिष्ठ सिद्धान्त तथा सूर्य ने मय को उपदेश किया तो सूर्यसिद्धान्त कहा गया है। सूर्यसिद्धान्त के आरम्भ में ही सूर्य और मय का संवाद दिया गया है। मय की तपस्या से संतुष्ट होकर स्वयं सूर्य ने मय से कहा AL न मे तेजः सहः कश्चित् आख्यातुं नास्ति मे क्षणः। मदंशः पुरुषोऽयं ते निःशेषं कथयिष्यति।। (सू.सि. ६.६) अर्थात् सूर्य के अंशावतार पुरुष ने मय को समग्र ज्योतिष शास्त्र की शिक्षा दी। अंशावतार पुरुष ने तात्कालिक स्थिति को स्पष्ट करते हुये कहा शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्व प्राह भास्करः। युगानां परिवर्तन कालभेदोऽत्र केवलम् ।। (सू.सि. १.६) यह संवाद बहुत महत्वपूर्ण है। आज सूर्यसिद्धान्त को लेकर बहुत चर्चायें है। कुछ लोगों का कहना है कि यह परिष्कृत सूर्यसिद्धान्त लाट कृत है। आचार्य लाटदेव का समय वराहमिहिर से पहले का है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह पचंसिद्धान्तिकोक्त सूर्यसिद्धान्त ही है। केवल इसमें भगणादि मानों में संशोधन कर परिष्कृत कर दिया गया है। यह तर्क संगत है। क्योंकि काल भेद से अन्तर होने तथा उसके परिष्कार करने की परम्परा का संकेत सूर्यसिद्धान्त के उक्त श्लोक से मिल जाता है। अतः यह सम्भव है कि लाटदेव ने सूर्यसिद्धान्त में परिष्कार किया होगा। बेबर ने साक्ष्य के विपरीत मिश्र के राजा तालमयस, जिसे टालमी के नाम से भी जाना जाता है तथा जिसने अल्मजेस्ट नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की थी वह मय या मयासुर था। अर्थात् टालमी ने ही सूर्यसिद्धान्त की रचना की परन्तु यह नितान्त भ्रामक है। प्रसिद्ध यात्री अलबेरुनी ने’ सूर्यसिद्धान्त को लाटदेवकृत माना है। सभी मतों की समीक्षा के अनन्तर निष्कर्ष रूप में यही कहना उचित प्रतीत हो रहा है कि मूल सिद्धान्त को परिष्कृत कर नये सूर्यसिद्धान्त के रूप में लाटदेव ने ही प्रस्तुत किया है जो आज प्रचलित है। भूमिका वर्तमान सूर्यसिद्धान्त में कुल १४ अधिकार हैं तथा कुल ५०० श्लोक हैं। इसमें वर्णित काल के अनुसार इसकी रचना सत्ययुग के अन्त में हुई हैं। “अल्पावशिष्टे तु कृते मयो नाम महासुरः।” अतः यदि सत्ययुग का अन्त भी मान ले तो कलि के आरम्भ से २१६०००० वर्ष पूर्व सूर्यसिद्धान्त का अस्तित्व सिद्ध होता है तथा इसके वर्तमान स्वरूप की रचना का समय शक ४२७ के पूर्व सिद्ध होता है। इस सूर्यसिद्धान्त की यह विशेषता है कि इसमें कल्पारम्भ और सृष्ट्यारम्भ के दो पृथक्-पृथक् काल हैं। इसके अनुसार ब्रह्मा को कल्पारम्भ से लेकर ४७४०० दिव्यवर्ष अर्थात् १७०६४००० सौर वर्ष तक का समय सृष्टि की रचना में लग जाता है। अन्य सिद्धान्तों में कल्पारम्भ से ही सृष्टि मान ली गई हैं। सूर्यसिद्धान्त की टीकाओं में सर्वाधिक प्रसिद्ध रंगनाथ (शक १५२५) की गूढार्थ प्रकाशिका टीका है। इसके अतिरिक्त नृसिंह दैवज्ञ (१५४२ शक) का सौरभाष्य, विश्वनाथ दैवज्ञ की (१५५०) की सोदाहरण गहनार्थ प्रकाशिका, दादाभाई (१५५०) की किरणावली, यल्लयाचार्य की कल्पवल्ली आदि संस्कृत की प्रसिद्ध टीकायें हैं। मल्लिकार्जुन, चण्डेश्वर तथा कमलाकर भट्ट आदि की भी टीकाओं का उल्लेख मिलता है। किन्तु सभी प्रकाश में नहीं आई हैं। नवीन टीकाओं में १८६० ई. सन् में ई. बेन्जेर बर्गेस की अंग्रेजी व्याख्या, म.म. वापूदेव शास्त्री एवं प्रो. विटने की इंग्लिश कमेन्ट्री, म.म. सुधाकर द्विवेदी की सुधावर्षिणी संस्कृत टीका, महावीर प्रसाद श्रीवास्तव का विज्ञान भाष्य एवं श्री कपिलश्वेर शास्त्री की संस्कृत व्याख्या प्रसिद्ध है। _सोमसिद्धान्त-यह सिद्धान्त सोम (चन्द्र) द्वारा शौनक ऋषि को उपदेश किया गया है। इस सिद्धान्त में कुल १० अध्याय तथा ३३५ अनुष्टुप् छन्द है। ऐतिहासिक दृष्टि से इसे सूर्यसिद्धान्त के समकालीन माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे भी कलियुग में बना सूर्यसिद्धान्त से परवर्ती सिद्ध किया है। __वसिष्ठ सिद्धान्त-वसिष्ठ ऋषि ने माण्डव्य को जिस सिद्धान्त का उपदेश किया था उसे वसिष्ठ सिद्धान्त कहते है। इस सिद्धान्त की शैली अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा कुछ भिन्न है। इस सिद्धान्त में किसी भी ग्रह का भगणमान नहीं लिखा हुआ है केवल कक्षामान दिया गया है। उसी कक्षामान से भगणों का आनयन किया जाता है। इसी प्रकार बीच-बीच में १. सू.सि. १.२ १. भारतीय ज्योतिष, पृ. २२८ ४७ ४६ ज्योतिष-खण्ड कुछ विषय छोड़-छोड़कर उससे सम्बन्धित दूसरे विषयों का विवेचन दिया गया है। यथा अहर्गण का कलादि है या युगादि है इसका संकेत नहीं है। कक्षामान है भगणमान नहीं है। उत्क्रमज्यायें हैं किन्तु उनके मान नहीं हैं। मन्दोच्च के विषय में लिखा गया है जहाँ मन्दफल शून्य हो जाय वही मन्दोच्च होता है। साथ ही यह भी संकेत कर दिया है कि समय-समय पर मन्दोच्च और पातों को वेधकर ज्ञान करना चाहिए। संहिताओं की तरह ही वसिष्ठ नाम से दो सिद्धान्त मिलते हैं- १. वसिष्ठ सिद्धान्त, २. वृद्ध वसिष्ठ सिद्धान्त। कहीं-कहीं पर लघु वसिष्ठ सिद्धान्त तथा वसिष्ठ सिद्धान्त कहा गया है। लगभग दोनों ही अपूर्ण हैं। रोमश सिद्धान्त- इसे कहीं-कहीं लोमश सिद्धान्त भी कहा गया है। विष्णु ने वसिष्ठ और लोमश को इस सिद्धान्त का उपदेश दिया था। इसमें कुल ११ अध्याय है तथा श्लोक संख्या ३७४ है। इस सिद्धान्त के विषय सूर्यसिद्धान्त के साथ मिलते है। अतः यह निःसन्देह परवर्ती सिद्धान्त है। एक स्थान पर कृष्ण और वेणी नदियों का उल्लेख आने से कुछ विद्वानों ने अनुमान लगाया हैं कि यह दक्षिण भारत की रचना है। अनुमान किया जाता है कि शक ४२७ के बाद के इस सिद्धान्त को श्रीषेण ने परिष्कृत किया है। जिसका उल्लेख ब्रह्मगुप्त ने किया है भूमिका आधार पर अल्बेरुनी ने रोमक सिद्धान्त को श्रीषेण द्वारा रचित लिखा है। सम्भवतः उसे प्रथम रोमक सिद्धान्त के विषय में काई सूचना नहीं थी। रोमक सिद्धान्त में युग, मन्वन्तर आदि का उल्लेख स्मृतियों के अनुरूप न होने से उसे स्मृति बाह्म कहा गया। श्रीषेण ने वसिष्ठ सिद्धान्त से युग गतमान को लेकर रोमक सिद्धान्त को नया कलेवर दिया तथा स्मृतिबाह्म होने के आरोप से उसे मुक्त किया। इस विषय को श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने सप्रमाण विस्तृत ढंग से भारतीय ज्योतिष में प्रस्तुत किया है। हैं लाटात् सूर्यशशांकौ मध्यारवीन्दूच्चचन्द्रपातौ च। कुजबुधशीघ्रबृहस्पतिसितशीघ्रशनैश्चरान् मध्यान् ।। युगयातवर्षभगणान् वसिष्ठान् विजयनन्दिकृतपादान् । मन्दोच्चपरिधिपात स्पष्टीकरणाद्यमार्यभटात् ।। श्रीषेणेन गृहीत्वा रत्नोच्चयरोमकः कृतः कन्था। एतान्येव गृहीत्वा वासिष्ठो विष्णुचन्द्रेण।।’ अर्थात् लाट के ग्रन्थ से मध्यम रवि, चन्द्र, चन्द्रोच्च, चन्द्रपात, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि, वसिष्ठ सिद्धान्त से युगों के गतमान और भगण, विजयनन्दिकृत ग्रन्थ से पात आर्यभट से मन्दोच्च परिधि, पात और स्पष्टीकरण आर्यभट से लेकर श्रीषेण ने द्वितीय रोमक सिद्धान्त तथा उन्हीं मानों द्वारा विष्णुचन्द्र ने द्वितीय वसिष्ठ सिद्धान्त बनाया। इसी उक्त कथन से यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि द्वितीय वसिष्ठ सिद्धान्त और रोमक सिद्धान्त आर्यभट (शक ४२१) के बाद लिखे गये हैं। ब्राह्मसिद्धान्त (शाकल्योक्त) - इस सिद्धान्त के उपदेष्टा ब्रह्मा हैं तथा श्रोता नारद ऋषि हैं। इसमें कुल ६ अध्याय तथा ७६४ श्लोक हैं। इसकी सभी पुष्पिकाओं में लिखा हैं “शाकल्यसंहितायां द्वितीयप्रश्ने ब्रह्मसिद्धान्ते……अध्यायः॥” इससे यह ज्ञात होता है कि शाकल्य संहिता में अन्य विषयों से सम्बन्धित अन्य प्रश्न भी रहे होंगे। इस सिद्धान्त की यह विशेषता है कि अत्यन्त संक्षेप में सिद्धान्त के विषयों की विवेचना करने के बाद धर्मशास्त्रीय विषयों का भी प्रतिपादन किया गया है। इसके भगणादि मान भी सूर्यसिद्धान्त के आसन्न ही हैं। संवत्सर के विषय में वसिष्ठ सिद्धान्त की मान्यता भिन्न है। यहाँ ‘प्रमाथि’ संवत्सर को प्रथम माना गया है। कहा भी गया है-प्रमाथि प्रथम वर्ष सौरं कल्पस्य सर्वदा।। (व.सि. १.३७) जबकि अन्यत्र ‘विजयादि’ या ‘प्रभवादि’ संवत्सर का ग्रहण किया गया है। दूसरी विशेषता यह है कि संवत्सर की गणना बार्हस्पत्यमान से न कर सौरमान से की गई है। भारतवर्ष के कुछ प्रदेशों में आज भी संवत्सर की गणना ब्राह्मसिद्धान्त के आधार पर ही की जाती है। संवत्सर की सौरगणना पद्धति के आधार पर वसिष्ठ सिद्धान्त का रचना काल शक ७४३ के आसन्न माना गया है। इस प्रकार सभी सिद्धान्तों को संकलित करने का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य वराहमिहिर को जाता है। १. भारतीय ज्योतिष, पृ. २१६ १. भारतीय ज्योतिष, पृ. २१६ ४८ ज्योतिष-खण्ड आचार्य वराहमिहिर ने समग्र ज्योतिषशास्त्र को सुव्यवस्थित कर प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। इन्होंने सिद्धान्त स्कन्ध में पंचसिद्धान्तिका, संहिता स्कन्ध में बृहत्संहिता जिसे वाराही संहिता भी कहते है तथा होरास्कन्ध में लघुजातक, बृहज्जातक तथा योगयात्रा नामक ग्रन्थों का प्रणयन कर ज्योतिष शास्त्र की समग्रता को प्रदर्शित किया। ज्योतिष के इन तीनों स्कन्धों के प्रतिपाद्य विषयों का पृथक्-पृथक् अत्यन्त संक्षेप में परिचय इस प्रकार है सिद्धान्त-इस स्कन्ध में काल का विवेचन विस्तृत रूप से किया गया है। काल के नव भेद बतलाये गये हैं, जो क्रमशः ब्राह्म, दिव्य, पितृ, प्रजापत्य, गौरव, सौर, चान्द्र, नाक्षत्र एवं सावन नाम से जाने जाते हैं। इनमें से सौर, चान्द्र, सावन और नाक्षत्र ये चार प्रकार के काल व्यावहारिक माने गये हैं। _सौर-सूर्य की गति के अनुसार सौरमान का निर्धारण होता है। सूर्य की एक अंश तुल्य गति सूर्य के एक सौर दिन की परिचायिका होती है। इसी प्रकार तीस अंशों में ३० दिन तथा एक राशि का भोगकाल हो जाता है। अतः ३० अंश अथवा एक राशि के भोगकाल को एक सौर मास, द्वादश राशियों के भोगकाल अथवा राशिचक्र के भ्रमणकाल, जिसे भगण कहा जाता है, के पूर्ण होने पर एक सौर वर्ष होता है। चान्द्र-सूर्य और चन्द्रमा के अन्तरांश से तिथि का ज्ञान होता है जब सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर १२ अंश हो जाता है तब एक तिथि होती है अथवा एक चान्द्र दिन होता है। सूर्य और चन्द्रमा के परमान्तर को पूर्णिमा तिथि जो पन्द्रहवें दिन आती है तथा सूर्य और चन्द्रमा के अन्तराभाव जो तीसवें दिन आता है उसे अमावस्या तिथि कहते हैं। यहां पर दिनप का अभिप्राय चान्ददिन अथवा तिथियों से हैं। अतः एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक का काल एक चान्द्रमास कहलाता है। मासों की गणना में यहाँ दो मत प्रचलित हैं-१. चान्द्रमास शुक्लदि-शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक। २. चान्द्रमास कृष्णादि-कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक। प्रायः उत्तर भारत में कृष्ण प्रतिपदा से मासों का व्यवहार होता है, तथा दक्षिण में शुक्लादि मास ग्रहण किये जाते हैं। किन्तु अहर्गण साधन या ग्रहगणना में शुक्लादि मासों का ही सर्वत्र (उत्तर एवं दक्षिण में) व्यवहार होता है। भूमिका नाक्षत्र-किसी भी एक नक्षत्र के उदयकाल से द्वितीय दिन के उदय काल तक का समय एक नाक्षत्र दिन कहलाता है।’ यह निश्चित रूप से प्रतिदिन ६० घटी का होता है, इसमें न्यूनाधिकता नहीं होती। इसीलिए सूक्ष्म काल तथा लघु काल की इकाइयों का निर्धारण नाक्षत्र मान से ही किया जाता है। सावन-एक सूर्योदस से दूसरे सूर्योदय तक के काल को सावन दिन अथवा पृथ्वी का दिन कहा जाता है। उक्त चार प्रकार के कालमानों का दैनिक जीवन में व्यवहार की विधि आचार्यों ने सुनिश्चित कर दी है, अर्थात् काल की बड़ी इकाई कल्प, मनु, युग, वर्ष, ऋतु, की गणना सौरमान से, तिथि और मास की गणना चान्द्रमान से, दिन की गणना सावन मान से तथा काल की लघुतम इकाई घटी पल विपल आदि की गणना नाक्षत्रमान से की जाती है। हम इस तरह काल का एक विस्तृत स्वरूप भारतीय ज्योतिषशास्त्र ने समाज को दिया है जो आज भी व्यवहार में यथावत प्रचलित है। उक्त कालमानों के अनुसार अन्तरिक्ष में भ्रमण करने वाले ग्रहों के स्वरूप उनकी कक्षा गति का विवेचन किया गया है। ग्रहों की कक्षाओं का निर्धारण करते समय भूमि को आधार मानकर ग्रहों की क्रमशः चन्द्र, बुध, शुक्र, सूर्य, भौम, गुरु, शनि की ऊर्ध्व-ऊर्ध्व क्रम से कक्षायें कहीं गयी हैं। पाठकों को भ्रम न हों इसलिए सिद्धान्तकारों ने स्पष्ट कर दिया है कि ग्रहों के कक्षा वृत्तों के केन्द्रमें पृथ्वी नहीं है। प्रत्येक ग्रहों की अपनी-अपनी कक्षाओं में योजनात्मिक गति सामान ही कही गयी है किन्तु भूगर्थ से कक्षाओं की दूरी के अनुसार कोणीय मान से सभी ग्रहों की गतियाँ भिन्न-भिन्न कही गई हैं, जो गणितीय दृष्टि से सिद्ध है। इसी के आधार पर सभी ग्रहों के एक युग में तथा एक कल्प में भगणमान भी पठित किये गये हैं। इष्टकाल में सभी ग्रहों की स्थिति ज्ञात करने का भी विधान दिया गया है, जिसके आधार पर ग्रहों की युति, ग्रहण आदि का साधन किया जाता है। किसी भी आकाशीय पिण्ड के स्थिति को जानने के लिए गणित की आवश्यकता होती है। इसीलिए व्यक्त गणित (अंक गणित) एवं अव्यक्त गणित (बीज गणित) का विवेचन किया गया है। है १. ब्राझं दिव्यं तथा पैत्र्यं प्राजापत्यं च गौरवम्। सौरञ्च सावनं चान्द्रमाक्षं मानानि वै नव।। सूर्यसिद्धान्त १४.१ २. अर्कोन चान्द्रलिप्तास्तु तिथयो भोगभाजिताः। सू.सि. २.६६ ३. अमान्तादमान्तं चान्द्रो मासः। १. भवासरस्तु भभ्रमः ।। सिद्धान्त शिरोमणि म. २० २. इनोदयद्वयान्तरं तदर्कसावनं दिनम्। तदेव ३. भूमेः पिण्ड: शशांकज्ञकविरविकुजेज्यार्किकक्षावृत्तैर्वृत्तः।। सि.शि. गो. भू. २ ४. भूमर्मध्ये खलु भवलयस्यापि मध्यं यतः स्याद् । यस्मिन् वृत्ते भ्रमति खचरो नास्य मध्यं कुमध्ये।। सि.श. गो. ज्यो. ७ भूमिका ५० ज्योतिष-खण्ड पृथ्वी के वास्तविक स्वरूप को सर्वप्रथम भारतीय ज्योतिष ने ही प्रतिपादित किया। भूमि के गोलत्व एवं निराधारात्व को प्रपिपादित करते हुए भूमि के विभिन्न भागों में अवस्थित व्यक्तियों के एक दूसरे के सापेक्ष स्वरूप को भी बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति के सापेक्ष भूपृष्ठ पर ६० अंश की दूरी पर स्थित दूसरा व्यक्ति लेटा हुआ प्रतीत होता है, जिसका चरण भूतल पर तथा पूरा शरीर आकाश में निराधार लेटा होगा, तथा १८० अंश पर स्थित व्यक्ति का शिर तथा पैर ऊपर भूतल पर होगा, परन्तु जो व्यक्ति जहाँ है वह अपने आपको ऊपर ही समझता है। पृथ्वी के इस स्वरूप का अत्यन्त मनोरम चित्रण भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि में किया है। इसी के साथ-साथ पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है। पृथ्वी की आकर्षक शक्ति के अन्वेषण का श्रेय वस्तुतः भास्कराचार्य को मिलना चाहिये। इसके अतिरिक्त पृथ्वी के द्वीपों समुद्रों पर्वतों एवं नदियों का भी विस्तृत विवेचन किया गया है। यहाँ भूगोल एवं खगोल दोनों ही एक साथ प्रस्तुत किये गये हैं। भूसापेक्ष ग्रहों के साधन के लिये शंकु, घटी यन्त्र, तुरीय यन्त्र, स्वयंवह, नलिका आदि अनेक यन्त्रों के भी वर्णन किये गये हैं। इन समस्त विषयों को सिद्धान्त स्कन्ध में विवेचित किया गया है। यह ज्योतिष का महत्वपूर्ण स्कन्ध है। इसे ज्योतिष का मेरुदण्ड भी कहा जाता है। २. संहिता-यह भाग भी विस्तृत विषयों का आगार है। इसमें ग्रहों के संचार तथा उनके पृथ्वी एवं ब्राह्माण्ड में पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख किया गया है। अन्तरिक्ष के उत्पात उल्का, धूमकेतु, परिवेष, दिग्दाह, रजोवृष्टि, आदि विषयों का विवेचन एवं उनके परिणाम बतलाये गये हैं। आज के वैज्ञानिक भी रजोवृष्टि (कास्मिक डस्ट) जैसे रहस्यमय वर्णन से आश्चर्यचकित होते हैं। क्योंकि रजोवृष्टि का रहस्य आज भी सुलझ नहीं पाया है। इस तरह अनेक ऐसे वर्णन है जिनका कारण आज भी अज्ञात हैं। उदाहरण के लिए चन्द्रमा का प्रसंग लिया जा सकता है। सन् १६.७.१६६६ ई. को “नील आर्मस्ट्रांग" जब चन्द्रतल पर अवतरण कर रहे थे उस समय उन्होंने चन्द्रमा में एक क्षणिक प्रकाश देखा था, जिसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की गयी थी कुछ भारतीय विद्वानों ने इसे चन्द्रमा से निकलता हुआ देवत्व बतलाया था। किन्तु यह अशास्त्रीय एवं भ्रामक वक्तव्य था। चन्द्रमा पर प्रायः नीले पीले क्षणिक प्रकाशों का उल्लेख संहिताओं में मिलता है। अद्भुत सागर में भी इन प्रकाशों का उल्लेख है, जिसका उदाहरण मैंने अपने ग्रन्थ चन्द्रगोल विमर्श में किया हैं।’ “पैट्रिक मूर" ने भी इस क्षणिक प्रकाश का उल्लेख अपने ग्रन्थ “गाइड टु द मून" में किया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जब मैंने चन्द्रमा को दूरदर्शक यन्त्र से देखा तो ऐसा प्रतीत हुआ कि कुछ क्षण के लिए चन्द्रमा नीले बल्ब के प्रकाश के नीचे आ गया हो। ऐसी स्थितियाँ चन्द्र पिण्ड पर प्रायः होती रहती है। उसी प्रकार के एक दृश्य को नील आर्मस्ट्रांग ने भी देखा था। संहिता स्कन्ध का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय कृषि और वर्षा है। कृषि के लिए उपयुक्त काल, उपकरण, बीज, उर्वरक, आदि का विवेचन किया गया है। पौधों और वृक्षों में अधिक फल लाने के लिए तथा शीघ्रफल उगाने की विधियों का निर्देश भी किया गया है, जो निरापद है जब कि आज की पद्धति अधिक उत्पादन की दृष्टि से सफल तो है किन्तु निरापद नहीं है। इसी तरह आज का वृष्टि विज्ञान भी कृषि की दृष्टि से बहुत उपयोगी नहीं है। क्योंकि ३६ घण्टे पूर्व तक ही आधुनिक विज्ञान स्पष्ट भविष्यवाणी करने में सक्षम है। अतः अल्पकालिक वैज्ञानिक भविष्यवाणियाँ कृषि के लिए उपयोगी नहीं मानी जा सकती। कृषि के लिए न्यूनतम एक मास पूर्व सूचना उपयोगी हो सकती है। जब कि भारतीय ज्योतिषशास्त्र वर्षा का पूर्वानुमान स्थूल रूप में एक वर्ष पूर्व दे सकता है, तथा स्पष्टानुमान एक मास अथवा १६० दिन पूर्व भी दे सकता है। इनके अतिरिक्त भूगर्भस्थ जल, खनिज पदार्थों, रत्नों एवं कोयला आदि की उपस्थिति के ज्ञान की विधि वर्णित हैं। अंगविद्या (पुरुष एवं स्त्रियों के शुभाशुभ अंग लक्षण), पशु-पक्षियों के लक्षण तथा उनकी चेष्टाओं को समझने का अद्भुत विज्ञान इन संहिताओं में निहित है। संहिता का एक और अति महत्वपूर्ण विषय वास्तुशास्त्र है जिसमें गृहनिर्माण, ग्राम, नगर आदि के समुचित विन्यास की विधि, दुर्ग, राजमार्ग एवं सेतु निर्माण की विधियाँ वर्णित हैं। आजकल वास्तुशास्त्र को ज्योतिषशास्त्र से पृथक कर स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है जो भ्रामक है। वास्तु का विस्तृत विवेचन संहिता ग्रन्थों में मूल रूप में आज भी सुरक्षित है। मुहूर्त-षोडश संस्कारों, कृषि, व्यवसाय, वास्तु तथा यात्रा को मुख्य लक्ष्यकर तत्तत् कार्यों के लिए उपयुक्त काल (समय) का निर्धारण ही मुहूर्त कहलाता है। मुहूर्त का प्रचार व्यापक रूप से है। इससे आम जनता भी सुपरिचित है तथा समय पर इसका उपयोग १. यो यत्र तिष्ठत्यवनीतल स्थमात्मानमस्या उपरि स्थितं च। स मन्यतेऽतः कुचतुर्थसंस्थान् मिथश्च ये तिर्यगिवामनन्ति। अधः शिरस्काः कुदलान्तरस्थाश्छायामनुष्या इव नीरतीरे।। सि.शि.भू. २१ २. आकृष्टशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरुं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या। आकृष्यते तत् पततीव भाति समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे। सि.शि. मु. ६ १. चन्द्रगोल विमर्शः, पृ. २११ २. तदेव५२ भूमिका ५३ वाताश्च कलुषा वान्ति कम्पते च वसुन्धरा। पर्वताग्राणि वेपन्ते पतन्ति च महीरुहाः।। रजसा महता चापि नक्षत्राणि हतानि च। युगान्तमिव लोकानां पश्य शंसन्ति लक्ष्मण।। काकाः श्येनास्तथा नीचा गृध्राः परिपतन्ति च। शिवाश्चाप्यशुभान् नादान् नदन्ति सुमहाभयान्।।’ पुराणों में भी शिव और अन्धक के युद्ध समय भी शुभ-अशुभ शकुनों का उल्लेख किया गया है ज्योतिष-खण्ड करती है। षोडश संस्कारों के लिए उपयुक्त काल निर्धारित किये गये हैं यथा गर्भ के तीसरे मास में पुंसवन, जन्म के बाद आठ से बारह वर्ष के भीतर उपनयन आदि सभी कार्यों के लिए शुभ समय का निर्धारण, तिथि-वार तथा नक्षत्रों के आधार पर किया जाता है। कार्यानुसार नक्षत्र भी सुनिश्चित किये गये हैं। सरलता के लिए तिथियों का नन्दा-भद्रा-जया-रिक्ता तथा पूर्णा नाम से विभाजन किया गया है। इसी प्रकार नक्षत्रों का ध्रुव (स्थिर), चर, मृदु, क्रूर आदि संज्ञाओं से वर्गीकरण किया गया है। ध्रुवादि प्रकृति के आधार पर प्रायः विविध कार्यों में नक्षत्रों की ग्राह्यता एवं अग्राह्यता निर्धारित की गई है। संस्कारों में उक्त संज्ञाओं की प्रकृति का विचार नहीं होता वहाँ प्रत्येक संस्कार हेतु नक्षत्र निर्धारित कर दिये गये है। उन्हीं नक्षत्रों में उनका सम्पादन किया जाता है। प्रायः शुभकाल (मुहूर्त) निर्धारण में पंचांगों (तिथि-वार-नक्षत्र-योग-करण) का विचार किया जाता है। मुहूत्र्तों के साथ प्रकृति का भी सम्बन्ध रहता है। कुछ मुहूर्त सार्वकालिक होते हैं। कुछ केवल उत्तरायण में ही होते। कुछ कार्य विशेष मासों में ही विहित है। मुहूर्तों विशेषकर तिथियों का विचार वैदिक काल से ही चला आ रहा है। दर्शपौर्णमास-अन्वष्टका आदि के प्रसंग इसके उदाहरण हैं। किन्तु व्यवस्थित रूप में मुहूत्र्तों का प्रचलन संहिता काल से हुआ। शक ५०० के बाद से मुहूत्तों का प्रचलन अधिक बढ़ गया। दैनन्दिन व्यवहार में आने के कारण संहिताओं से पृथक् सम्बन्ध मुहूर्त ग्रन्थों की रचनायें होने लगी। लगभग ५६० शकाब्द में लल्ल द्वारा विरचित रत्नकोश सर्वाधिक प्राचीन मुहूर्त ग्रन्थ माना जाता है। आजकल श्रीरामदैवज्ञ विरचित मुहूर्त्तचिन्तामणि का सर्वाधिक रणाय निर्गच्छति लोकपाले, महेश्वरे शूलधरे महर्षे । शुभानि सौम्यानि सुमंगलानि जातानि चिह्नानि जयाय शम्भोः।। शिवा स्थिता वामतरेऽथ भागे प्रयाति चाग्रे स्वनमुन्नदन्ती। क्रव्यादसंघाश्च तथामिषैषिणः प्रयान्ति हृष्टास्तृषितासृगर्थे ।। इस प्रकार अत्यन्त प्राचीन काल से ही शकुनों की परम्परा देखने को मिलती है। शुभाशुभ निर्णय में प्राकृत लक्षणों के साथ-साथ स्वरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। शक १०६७ में नरपतिजयचर्या नामक ग्रन्थ की रचना की गयी, जो मूलतः स्वरशास्त्र पर आधारित है। इस ग्रन्थ में समर में विजय हेतु स्वरों के बल, भूबल और वायुबल आदि की प्रबल भूमिका का उल्लेख करते हुये उनके ज्ञान की विधि बतलाई है। उसके बाद अनेक शकुन एवं स्वरशास्त्र के ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। कुछ विद्वानों ने मुहूत्तों और शकुनों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करते हुये ज्योतिषशास्त्र को त्रिस्कन्ध न मानते हुये इन्हें पचंस्कन्धात्मक स्वीकार किया है। शकुन और मुहूर्त भी स्वतन्त्र स्कन्ध के रूप में परिगणित हुये। इन सब विषयों को देखते हुये स्पष्ट है कि संहिता स्कन्ध का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। ३. होरा-इस स्कन्ध में गणितागत ग्रहों के आधार पर प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख किया गया है। कालक्रम से होरा का कुछ संकुचन हुआ है, जो आज केवल मनुष्य मात्र तक ही सीमित रह गया है। होराशास्त्र में आधान काल से प्रसवकाल तक गर्भस्थ शिशु के विकास क्रम को स्पष्टतः प्रकाशित किया गया है तथा उस अवधि में प्रचार है। शकुन-संहिता स्कन्ध का एक महत्वपूर्ण विषय शकुन भी है। प्राकृतिक घटनाओं, पशुपक्षियों की चेष्टाओं, स्वप्न, स्वर, अंगस्फुरण, छिक्का, पल्लीपतन आदि के आधार पर तात्कालिक तथा निकट भविष्य में सम्भाव्य शुभाशुभ का विचार शकुनों के आधार पर किया गया है। पुराणों तथा काव्य ग्रन्थों में इन शकुनों का प्रयोग प्रायः देखा जाता है। विशेषकर युद्ध यात्राओं में शकुनों का वर्णन देखने को मिलता है। वाल्मीकि ने युद्ध हेतु प्रस्थान करते समय शकुनों का उल्लेख किया है निमित्तानि निमित्तिज्ञो दृष्ट्वा लक्ष्मण पूर्वजः। सौमित्रिं संपरिष्वज्य इदं वचनमब्रवीत् ।। लोकक्षयकर भीमं भयं पश्याम्युपस्थितम्। प्रबर्हणं प्रवीराणामृक्षवानररक्षसाम् ।। १. वा.रा. यु.का. अ. २३ २. वा.यु.पु. ४२. १३, १४ ५४ ज्योतिष-खण्ड सम्भावित अवरोधों एवं आपदाओं का भी निरूपण किया गया है। इसके अनन्तर प्रसवकाल से जीवन के अन्त तक की शारीरिक एवं मानसिक अवस्थाओं, उनके विकास एवं ह्रास का समयानुसार समुचित विवेचन किया गया है। व्यक्ति से सम्बन्धित होने के कारण इस स्कन्ध का प्रचार-प्रसार अधिक हुआ, तथा आज समस्त विश्व में भारतीय ज्योतिष के प्रतिनिधि के रूप में होरा स्कन्ध जाना जाता है। आज विश्व में होराशास्त्र के प्रचार से जहाँ अत्यधिक प्रतिष्ठा बढ़ी है वहीं इसके अत्यधिक दुरुपयोग से इसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिह्न भी लगे। इसकी उपयोगिता और व्यवहारिकता के कारण कालान्तर में इस स्कन्ध के भी दो विभाग हो गये-१. जातक, २. ताजिक। भूमिका जाता है। अरिष्टकाल की अवधि प्रायः जन्म समय से १२ वर्ष तक कही गयी है किन्तु कुछ ग्रन्थों में अरिष्टकाल २४ वर्षों तक तथा गुप्त अरिष्ट २६ वर्षों तक माना गया है।’ यद्यिप जातक शब्द से जन्मकाल से ही ज्योतिष का सम्बन्ध सिद्ध होता है, किन्तु ऐसा नहीं है। ज्योतिष जन्म से पूर्व आधान काल से आरम्भ होता है। आधान से प्रसव तक के दश मासों में गर्भ के विकासक्रम को बतलाते हुये प्रत्येक मासों के स्वामियों का भी उल्लेख किया गया है। इसी आधार पर गर्भ की पुष्टि अथवा ह्रास का निरूपण किया जाता है। जातक-जन्म लेने वाले शिशु को जातक कहा जाता है। जातक के जीवन पर प्रकाश डालने वाला शास्त्र जातकशास्त्र कहा गया। मूल रूप में यह होराशास्त्र ही है। इसमें जन्मलग्न के आधार पर प्रसवकालिक परिस्थिति, माता-पिता तथा शिशु के विषय में अनेक प्रकार की सूचनायें दी गई हैं। कभी-कभी जन्म देने वाली माता तथा नवजात शिशु दोनों साथ साथ संकट में आ जाते है। अतः उनकी तात्कालिक शारीरिक स्थिति एवं स्वास्थ्य के विषय में भी विस्तृत विवेचन किया गया है। यथा- नालवेष्टित जन्म नवजात शिशु की जन्मकालिक ग्रहस्थिति के आधार पर उसकी आयु सुख-दुःख तथा जीवन की अन्य घटनाओं का ज्ञान किया जाता है। ग्रहस्थिति दर्शाने वाले चक्र को जन्मांग चक्र कहा जाता है जो वस्तुतः जन्मकालिक आकाशीय मानचित्र होता है। सर्वप्रथम ग्रहों की स्थिति के आधार पर आयु का निर्णय कर अन्य शुभाशुभ लक्षणों का निर्देश किया जाता है। कहा गया है- “पूर्वामायुः परीक्षेत ततो लक्षणमादिशेत्।।" जातकशास्त्र में शिशु के जन्म समय का विशेष महत्त्व होता है। जन्मस्थान के अक्षांश एवं देशान्तर के आधार पर स्थानीय क्षितिज का ज्ञानकर पूर्व क्षितिज को स्पर्श करने वाली लग्न को जन्मलग्न मान कर जन्म चक्र का निर्माण किया जाता है। तत्कालीन ग्रह जिन जिन राशियों में होते उनको उन्हीं राशियों में होते उनको उन्हीं राशियों में स्थापित करने से जन्मांग चक्र निर्मित होता है। इसी जन्म लग्न को प्रथम भाव मानकर बारह राशियों में बारह भावों की संज्ञा स्थिर की गई है। शशांके पापलग्ने वा वृश्चिकेश त्रिभागगे। म शुभैः स्वावस्थितैर्जातः सर्पस्तद्वेष्टितोऽपि वा। चतुष्पदगते भानौ शेषैर्वीर्यसमन्वितैः। द्वितनुस्थैश्च यमलौ भवतः कोशवेष्टितौ।। (बृ.जा. ५.३-४) इन योगों में जातक गर्भ में ही नाल से वेष्टित हो जाता है। कभी-कभी गर्भ में ही शिशु की मृत्यु हो जाती है, कभी जन्म लेने के बाद मृत्यु होती है। कभी-कभी जीवन सुरक्षित भी रहता है। आधुनिक चिकित्साविज्ञान के अनुसार ऐसी परिस्थिति में चिकित्सक स्वाभाविक प्रसव की प्रतीक्षा न कर शल्यक्रिया द्वारा शिशु एवं माता दोनों की रक्षा का प्रयास करते हैं। बारह भावों के नाम है- तनु, २. धन, ३. सहज, ४. सुहृद् ५. सुत, ६. रिपु, ७. जाया, ८. मृत्यु (आयु), ६. भाग्य, १०.कर्म, ११. लाभ तथा १२. व्यय। इनके नामों के अनुसार सम्बन्धित विषयों का विचार किया जाता है। इन्हीं द्वादश भावों द्वारा मानव जीवन से सम्बन्धित समग्र विचार किये जाते हैं। _ भावों से सम्बन्धित फलों में सूक्ष्मता हेतु होरा, द्रेष्काण, सप्तमांश, नवमांश, द्वादशांश एवं त्रिंशांश नामक षड्वर्गों का विधान किया गया है, जो ग्रहों के भोगांशों के आधार पर नवजात शिशु के शारीरिक कष्टों तथा आयु में बाधक योगों को अरिष्ट योग कहा १. चतुर्विंशति वर्षाणि यावद्गच्छन्ति जन्मतः । तावद्रिष्टं विनिश्चित्य आयुयं न चिन्तयेत्।। नवनेत्राणि वर्षाणि यावद्गच्छति जन्मतः। तावद्रिष्टं विधातव्यं गुप्तरूपं न चान्यथा।। पंचस्वरा ६, १० भूमिका ज्योतिष-खण्ड निर्धारित किये जाते हैं। तत्तद् भावों में स्थित राशियों के स्वामी उन भावों के स्वामी माने जाते है। सभी भावों के स्थिर और चरकारक ग्रह भी बताये गये है। किसी भी भाव का फल ज्ञात करने के लिए, भाव, भावेश तथा भाव के कारक ग्रहों का विचार आवश्यक होता है।’ १. पराशर-पराशर की परम्परा का प्रतिनिधि ग्रन्थ है बृहत्पाराशर-होराशास्त्रम्, इसे कहीं-कहीं बृहत्पराशरी भी कहा जाता है। इसके रचनाकाल का ज्ञान नहीं है। अतः इसे आर्ष ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। इस ग्रन्थ के दो भाग हैं पूर्व खण्ड तथा उत्तर खण्ड। पूर्वखण्ड में कुल ८० अध्याय तथा उत्तर खण्ड में २० अध्याय हैं। कुल १०० अध्याय है जिसकी पुष्टि पाराशरी के अन्तिम श्लोक से होती है। एवं होराशताध्यायी सर्वपापप्रणाशिनी।" युगेषु च चतुधैव प्रत्यक्षफलदायिनी।। (उ.ख. २०.१४) उक्त पद्य में पाराशरी का महत्त्व बतलाते हुए कहा गया है चारों युगों में पाराशरी प्रत्यक्ष फल देनेवाली है। किन्तु किसी आचार्य ने पाराशरी की विशेष महत्ता कलियुग में ही बतलाई है cho ग्रहों की दृष्टि के सम्बन्ध में कहा गया है कि सभी ग्रह अपने स्थान से सातवें भाव में स्थित ग्रह तथा भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते है। मंगल, गुरु और शनि, ये तीन ग्रह सातवें के अतिरिक्त क्रमशः चौथे आठवें, पंचम-नवम तथा तृतीय-दशम भावों को भी पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। दृष्टि का सामान्य अभिप्राय यह है कि द्रष्टा ग्रह दृश्य ग्रह या भाव को अपने स्वभावानुकूल प्रभावित करता है। इसीलिए दृष्टि का विशेष महत्व बतलाया गया है। ग्रहों की युति और विशेष प्रकार की स्थिति के आधार पर अनेक विशिष्ट योगों का भी निरूपण किया गया है। जिनमें राजयोग, चक्रयोग, चक्रवर्ती योग, गजकेशरी योग, आमला योग, आकृति योग, दल योग आदि प्रमुख हैं। इन सबका विस्तृत विवेचन होरा ग्रन्थों में किया गया है। ग्रहों के काल बल, स्थान बल, दिग्बल आदि षड्बल बताये गये हैं, जिनसे ग्रहों के प्रभाव की क्षमता का आकलन किया जाता है। दूसरी विधि ग्रहों के बलाबल को ज्ञात करने की रेखाष्टक द्वारा बतलाई गई है। ग्रहों के रेखाप्रद स्थान बताये गये हैं जिनके अनुसार प्रत्येक भावों में रखायें और बिन्दु दिये जाते है। रेखा अधिक होने पर ग्रह बलवान तथा शून्य अधिक होने से ग्रह तथा भाव निर्बल माने जाते है। किसी भी शुभाशुभ घटना का समय ज्ञात करने के लिए ग्रहों की दशाओं का साधन किया जाता है। होराशास्त्र में १२० वर्षों की विंशोत्तरी १०८ वर्षों की अष्टोत्तरी तथा कालचक्र, मण्डूक, चर आदि अनेक प्रकार की दशाओं का उल्लेख किया गया है। इनका विस्तृत विवेचन बृहत् पराशर होराशास्त्र में उपलब्ध है। आजकल प्रायः विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी तथा योगिनी दशा का ही व्यवहार देखने में आता है। होराशास्त्र में तीन परम्परायें अधिक प्रचलित हैं। कृते तु मानवं शास्त्रं वादरायणिः। द्वापरे शंखलिखितौ कलौ पाराशरः स्मृतः।।’ पाराशरी मूल रूप में कहीं सुरक्षित नहीं मिली है। यत्र तत्र इसके अंश बिखरे हुये मिले। इसके मूल पाठ को संग्रहीत कर मुद्रित करने का प्रयास सर्वप्रथम शक १८१४ में श्रीधरशिवलाल ने किया तदनन्तर शक १८३७ में वेंकटेश्वर प्रेस ने मुद्रित किया। परन्तु आज तक जितने भी संस्करण बृहत्पारशर होराशास्त्र के मिले हैं सबमें अन्तर पाये जाते हैं। अतः निर्विवाद रूप से यह कह पाना कठिन होगा कि बृहत्पाराशर होराशास्त्र में कितने मूल पाठ है तथा कितने प्रक्षिप्त हैं। किन्तु यह निर्विवाद है कि पाराशरी की परम्परा आज भी अत्यन्त लोकप्रिय है। इसी का अंश लघु-पाराशरी के रूप में अत्यधिक चर्चित होने के साथ-साथ में व्यवहार में भी है। जैमिनि-जैमिनि का भी काल अज्ञात है। इनका ग्रन्थ ‘जैमिनिसूत्रम्’ उपलब्ध है। यह ग्रन्थ सूत्रात्मक है। इस ग्रन्थ में कटपयादि संख्याओं के आधार पर भावों की संज्ञायें दी गई हैं तथा दृष्टि आदि का विचार भी पराशर की परम्परा से भिन्न है। अन्य परम्पराओं में ग्रहों की दृष्टि बतलाई गई है किन्त जैमिनी ने राशियों की दृष्टि बताई है। कहा है हैं “अभिपश्यन्त्यृक्षाणि पार्श्वभे च।।“२ १. भावाद् भावपतेश्च कारकवशात् तत्तद् फलं योजयेत्। (फ.दी.) २. ताजिकनीलकण्ठी १.३.१५-१६ १. वृ.पा. हो., वेंकटेश्वर प्रेस, पृ. ४ २. जैमिनी सूत्र व्याख्या। ५८ ज्योतिष-खण्ड _अर्थात् सभी राशियाँ अपनी सम्मुखस्थ तथा पार्श्ववर्ती राशियों को देखती हैं। इस दृष्टि के नियम की पूर्ण रूप से व्याख्या करने हेतु दूसरे नियमों का सहारा लेना पड़ता है तभी उक्त सूत्र का आशय स्पष्ट होता है। वृद्धवचन नाम से उक्त सूत्र की कुंजी दी गई है यथा चरं धनं बिना स्थास्तुं स्थिरमन्त्यं विना चरम्। युग्मं स्वेन विना युग्मं पश्यन्तीत्ययमागमः।। अर्थात् चर राशियाँ पार्श्ववर्ती स्थिर राशि को छोड़कर शेष स्थिर राशियों को, स्थिर राशियाँ पार्श्ववर्ती बारहवीं चर राशि को छोड़कर शेष चर राशियों को तथा द्विस्वभाव राशियाँ अपने को छोड़कर शेष द्विस्वभाव राशियों को देखती हैं। जैमिनि ने आयुसाधन में अपनी विशेषता प्रदर्शित की है। लोक प्रसिद्धि है कि जैमिनी के मतानुसार रोग निर्णय तथा आयुनिर्णय अधिक स्पष्ट एवं समीचीन होता है। __ ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर जैमिनि सूत्र के उपलब्ध संस्करणों पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। पहला तो वराहमिहिर और भट्टोत्पल ने जैमिनि सूत्र का उल्लेख नहीं किया है। दूसरा रिःफ आदि पारसीक भाषा के शब्दों का प्रयोग मूल जैमिनी सूत्र में प्रक्षेप की ओर इंगित करते हैं। यह भी सम्भव है, जैमिनिसूत्र का प्रचार वराहमिहिर के काल तक नहीं हो सका हो। अतः जैमिनि के विषय में निर्णयात्मक तथ्य प्रस्तुत करना कठिन है। वराहमिहिर-मानवकृत् जातक के ग्रन्थों में सर्वप्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ आचार्य वराहमिहिर के हैं। जातक ग्रन्थों में बृहज्जातक, लघुजातक तथा योगयात्रा अतिप्रसिद्ध हैं। वराहमिहिर ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों ऋषियों द्वारा रचित ग्रन्थों के आधार पर अपने ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने स्वयं लिखा हैं भूमिका था। शकारम्भ काल से ५०० वर्ष पूर्व मेषादि राशियों का व्यवहार रहा है। लगभग उसी काल में जातकशास्त्र के वर्तमान स्वरूप का आरम्भ हुआ होगा। आचार्य वराहमिहिर के बाद से पौरुष ग्रन्थों की रचना आरम्भ हुई। ताजिक-ताजिक शास्त्र में तात्कालिक फलादेश का विधान मुख्य रूप से गोचर पर आधारित है। जन्मकालिक सूर्य के राशि-अंश तुल्य जब पुनः सूर्य होता है (अर्थात् ३६५ दिन १५ घटी ३१ कला ३० विकला के बाद सूर्य पुनः जन्मकालिक राशि अंशों पर आ जाता है) तब एक वर्ष पूर्ण होता है। तथा नूतन वर्ष का प्रवेश होता है। इसी प्रवेश कालिक समय को आधार मानकर जातकोक्त विधि से साधित लग्न वर्षलग्न हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक वर्ष का पृथक्-पृथक् वर्षलग्न ज्ञात कर एक वर्ष के भविष्य का निर्धारण किया जाता है। अतः ताजिकशास्त्र में दशाओं की अवधि भी एक वर्ष की होती है। ताजिकशास्त्र में मुख्यरूप से मुद्दादशा तथा पात्यायनी दशा का साधन किया जाता है। मुद्दा दशा में एक वर्ष के अन्दर सभी नवग्रहों की दशायें पूर्ण हो जाती हैं, जिनके दशामन मास और दिवसों में सुनिश्चित है। पात्यायनी दशा में सूर्यादि सात ग्रहों तथा लग्न की दशा होती है। इस दशा में ग्रहों के क्रम उनके अंशों के आधार पर निर्धारित किये जाते हैं। मूलतः यह पद्धति अरब देशों से आई है। शक १४८० में गणेश दैवज्ञ ने ताजिकभूषण पद्धति में लिखा है “गर्गाद्यैर्यवनैश्च रोमकमुखैः सत्यादिभिः कीर्तितं शास्त्रं ताजिकसंज्ञकमिति।” कालक्रम से तथा परस्पर ज्योतिष विद्या के आदान प्रदान से वर्ष पद्धति (ताजिक) का समावेश भारतीय ज्योतिष में हो गया। कहीं-कहीं पर पारिभाषिक शब्दों को यथावत् स्वीकार उन्हें संस्कृत में प्रयोग किया गया है। जैसा कि ताजिक के प्रसिद्ध षोडश योगों द्वारा स्पष्ट हो जाता है। है “मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्घोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार।” आचार्य वराहमिहिर के ग्रन्थों पर आचार्य भट्टोत्पल की टीकायें प्रामाणिक और प्राचीनतम मानी जाती है। उक्त परम्पराओं के मूल आचार्यों में वराहमिहिर ही ऐसे आचार्य हैं जिनके काल को ज्ञात करने का आधार उपलब्ध है। अनुमानतः इनका जन्म शक ४०७ के आसन्न तथा अवसान शक ५०६ में हुआ है। इतिहासकारों के मतानुसार आचार्य वराहमिहिर के काल से लगभग ८०० वर्ष पूर्व जातक ग्रन्थों का व्यवहार आरम्भ हो गया प्रागिक्कबालोऽपर इन्दुवारस्तदेत्थशालोऽपर ईसराफः। नक्तं ततः स्याद्यमया मणाऊ कब्बूलतो गैरिकब्बूलमुक्तम्। खल्लासरं रद्दमथो दुफालिकुत्थं च दुत्थोत्थदिवीरनामा। तम्बीरकुत्थौ दुरफश्च योगाः स्यु षोडशेषां कथयामि लक्ष्म।।’ १. ताजिकनीलकण्ठी १.३.१५-१६ ज्योतिष-खण्ड विषय अनुक्रम प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी १-८ वर्षपद्धति (ताजिक) में ग्रहों के समान ही ‘मुन्था’ का भी महत्त्व है। ‘मुन्था’ शब्द का प्रयोग जातक पद्धति में कहीं भी नहीं है। एक प्रकार से यह मुन्था वर्षारम्भ तथा व्यक्ति के जीवन में कितने वर्ष बीत चुके हैं इसकी परिचायिका होती है। जन्म समय में जन्मलग्न के तुल्य ही मुन्था भी होती है। प्रतिवर्ष एक-एक राशि मुन्था आगे बढ़ती है। मुन्था का प्रयोग मास प्रवेश में भी किया जाता है। मुन्था की वार्षिक गति १ राशि अर्थात् ३० अंश है। अतः मासिक गति २०/३० कला तथा प्रतिदिन की गति ५ कला होती है।’ इसका व्यवहार दैनिक फलादेश के लिए किया जाता है। ताजिक का एक प्रमुख विषय वर्षेश निर्णय भी है। यहाँ वर्षलग्न का स्वामी ही वर्षेश हो यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि ताजिकशास्त्र में वर्षेश हेतु पंचाधिकारी बताये गये हैं। इनमें जो बलवान होकर वर्षलग्न को देखता है। वही वर्षेश होता है। ताजिकशास्त्र की उपयोगिता बतलाते हुये कहा गया है कि जातकशास्त्र समग्रजीवन का प्रतिपादन करता है। अतः वह स्थूल है। व्यक्ति के जीवन में वार्षिक फलादेश द्वारा सूक्ष्मता लाई जा सकती है। सूक्ष्म फल एवं सूक्ष्म काल के ज्ञान हेतु, है १. वेदांग ज्यौतिषम् (महात्मा लगध प्रणीत वेदाङ्ग ज्यौतिष) २. वेद-वेदांग एवं पुराणों में ज्योतिष ६-२० ३. भुवनकोश २१-६३ ४. स्वरविद्या चौ. श्री नारायण सिंह प्रो. देवीप्रसाद त्रिपाठी डॉ. सच्चिदानन्द मिश्र प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी डॉ. सच्चिदानन्द मिश्रा ६४-७४ ५. वास्तुविद्या ७५-११३ ११४-१३१ ६. काल विधान (काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन) ७. ग्रहण चन्द्र सूर्य पृथ्वी १३२-१४५ १४६-१५८ ८. भारतीय पंचांग जातकोदितदशाफलं यतः स्थूल कालफलदं स्फुटं नृणाम्। तत्र न स्फुरति दैवविन्मतिस्तब्रुवेऽब्दफलमादिताजिकात् ।। गर्गादि आचार्यों के साथ ताजिकशास्त्र को जोड़ दिया गया है। रमल-यह पाशक विद्या है। प्रश्नकाल में फेंके गये पाशे पर अंकित चिह्नों के आधारों के आधार पर फलादेश किया जाता है। रमलशास्त्र में अरबी भाषा के शब्द संस्कृत की विभक्तियों के साथ प्रयुक्त हैं, जैसा कि ताजिक ग्रन्थों में किया गया है। रमल शब्द स्वयं भी अरबी शब्द है। वस्तुतः यह प्रश्न द्वारा फल ज्ञात करने की विधि है। नाड़ीग्रन्थ-केरल में नाड़ी ग्रन्थों का प्रचार है। ये ग्रन्थः प्रायः ताडपत्र पर मलयालम लिपि में लिखे गये हैं। ध्रुवनाड़ी, चन्द्रनाड़ी, अगस्त्यनाड़ी आदि नाड़ी ग्रन्थ हैं। कहा जाता है कि सत्याचार्य द्वारा लिखित ध्रुवनाड़ी अन्य नाड़ी ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म है। रामचन्द्र पाण्डेय ६. वराहमिहिर और पंचसिद्धान्तिका । १५६-२०८ १०. दृग्गणित ११. वेध एवं वेधशालाओं की परम्परा १२. अरबी एवं भारतीय ज्योतिष १३. आचार्य नीलकण्ठ तथा ज्ञानराज डॉ. पी.वी.वी. सुब्रह्मण्यम् प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी डॉ. मोहन गुप्त डॉ. रविशंकर भार्गव डॉ. विनय कुमार पाण्डेय डॉ. गिरिजाशंकर शास्त्री डॉ. शत्रुघ्न त्रिपाठी २०६-२१८ २१६-२२७ २२८-२४८ २४६-२५४ १४. महामहोपाध्याय बापूदेवशास्त्रीः डॉ. विनोद राव पाठक २५५-२६१ १. ताजिकनीलकण्ठी १.३.१५-१६ २. ताजिकनीलकण्ठी १.३.१५-१६ ६२ ज्योतिष-खण्ड १५. महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी डॉ. विनोदराव पाठक २६२-२६८ १६. संहितास्कन्ध प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र २६६-२७७ प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र २७८-२६६ १७. सामुद्रिक शास्त्र (स्वरूप परम्परा एवं इतिहास) १८. आर्यभट-प्रथम १६. भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३००-३०८ ३०६-३३६ २.. ज्या २०. ब्रह्मगुप्त ३३७-३४६ प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय प्रो. सर्वनारायण झा डॉ. अशोक थपलियाल प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय ३४७-३६७ २१. भास्कराचार्य-द्वितीय २२. होरा स्कन्ध विमर्श २३. सिद्धान्तज्योतिष
३६८-३७५ ३७६-३८०