दोहा
मूल (दोहा)
ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जीवोंके द्रोहमें रत है, मोहके वश हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्नमें भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्तकी शान्ति हो सकती है?॥ ७८॥
मूल (चौपाई)
चलेउ निसाचर कटकु अपारा।
चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥
बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना।
बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसोंकी अपार सेना चली। चतुरंगिणी सेनाकी बहुत-सी टुकड़ियाँ हैं। अनेकों प्रकारके वाहन, रथ और सवारियाँ हैं तथा बहुत-से रंगोंकी अनेकों पताकाएँ और ध्वजाएँ हैं॥ १॥
मूल (चौपाई)
चले मत्त गज जूथ घनेरे।
प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥
बरन बरन बिरदैत निकाया।
समर सूर जानहिं बहु माया॥
अनुवाद (हिन्दी)
मतवाले हाथियोंके बहुत-से झुंड चले। मानो पवनसे प्रेरित हुए वर्षा-ऋतुके बादल हों। रंग-बिरंगे बाना धारण करनेवाले वीरोंके समूह हैं, जो युद्धमें बड़े शूरवीर हैं और बहुत प्रकारकी माया जानते हैं॥ २॥
मूल (चौपाई)
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी।
बीर बसंत सेन जनु साजी॥
चलत कटक दिगसिंधुर डगहीं।
छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
अत्यन्त विचित्र फौज शोभित है। मानो वीर वसन्तने सेना सजायी हो। सेनाके चलनेसे दिशाओंके हाथी डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गये और पर्वत डगमगाने लगे॥ ३॥
मूल (चौपाई)
उठी रेनु रबि गयउ छपाई।
मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं।
प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनी धूल उड़ी कि सूर्य छिप गये। (फिर सहसा) पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी। ढोल और नगाड़े भीषण ध्वनिसे बज रहे हैं; जैसे प्रलयकालके बादल गरज रहे हों॥ ४॥
मूल (चौपाई)
भेरि नफीरि बाज सहनाई।
मारू राग सुभट सुखदाई॥
केहरि नाद बीर सब करहीं।
निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
भेरी, नफीरी (तुरही) और शहनाईमें योद्धाओंको सुख देनेवाला मारू राग बज रहा है। सब वीर सिंहनाद करते हैं और अपने-अपने बल-पौरुषका बखान कर रहे हैं॥ ५॥
मूल (चौपाई)
कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा।
मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई।
अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणने कहा—हे उत्तम योद्धाओ! सुनो। तुम रीछ-वानरोंके ठट्टको मसल डालो। और मैं दोनों राजकुमार भाइयोंको मारूँगा। ऐसा कहकर उसने अपनी सेना सामने चलायी॥ ६॥
मूल (चौपाई)
यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई।
धाए करि रघुबीर दोहाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब सब वानरोंने यह खबर पायी, तब वे श्रीरघुवीरकी दुहाई देते हुए दौड़े॥ ७॥
छंद
मूल (दोहा)
धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे विशाल और कालके समान कराल वानर-भालू दौड़े। मानो पंखवाले पर्वतोंके समूह उड़ रहे हों। वे अनेक वर्णोंके हैं। नख, दाँत, पर्वत और बड़े-बड़े वृक्ष ही उनके हथियार हैं। वे बड़े बलवान् हैं और किसीका भी डर नहीं मानते। रावणरूपी मतवाले हाथीके लिये सिंहरूप श्रीरामजीका जय-जयकार करके वे उनके सुन्दर यशका बखान करते हैं।
दोहा
मूल (दोहा)
दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि।
भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों ओरके योद्धा जय-जयकार करके अपनी-अपनी जोड़ी जान (चुन)-कर इधर श्रीरघुनाथजीका और उधर रावणका बखान करके परस्पर भिड़ गये॥ ७९॥
मूल (चौपाई)
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।
देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।
बंदि चरन कह सहित सनेहा॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणको रथपर और श्रीरघुवीरको बिना रथके देखकर विभीषण अधीर हो गये। प्रेम अधिक होनेसे उनके मनमें सन्देह हो गया (कि वे बिना रथके रावणको कैसे जीत सकेंगे)। श्रीरामजीके चरणोंकी वन्दना करके वे स्नेहपूर्वक कहने लगे॥ १॥
मूल (चौपाई)
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना।
केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! आपके न रथ है, न तनकी रक्षा करनेवाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान् वीर रावण किस प्रकार जीता जायगा? कृपानिधान श्रीरामजीने कहा—हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है॥ २॥
मूल (चौपाई)
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौर्य और धैर्य उस रथके पहिये हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इन्द्रियोंका वशमें होना) और परोपकार—ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समतारूपी डोरीसे रथमें जोड़े हुए हैं॥ ३॥
मूल (चौपाई)
ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
अनुवाद (हिन्दी)
ईश्वरका भजन ही (उस रथको चलानेवाला) चतुर सारथि है। वैराग्य ढाल है और सन्तोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥ ४॥
मूल (चौपाई)
अमल अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।
एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकसके समान है। शम (मनका वशमें होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम—ये बहुत-से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरुका पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजयका दूसरा उपाय नहीं है॥ ५॥
मूल (चौपाई)
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिये जीतनेको कहीं शत्रु ही नहीं है॥ ६॥
दोहा
मूल (दोहा)
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥ ८०(क)॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे धीरबुद्धिवाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु)-रूपी महान् दुर्जय शत्रुको भी जीत सकता है (रावणकी तो बात ही क्या है)॥ ८०(क)॥
मूल (दोहा)
सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज॥ ८० (ख)॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभुके वचन सुनकर विभीषणजीने हर्षित होकर उनके चरणकमल पकड़ लिये (और कहा—) हे कृपा और सुखके समूह श्रीरामजी! आपने इसी बहाने मुझे (महान्) उपदेश दिया॥ ८०(ख)॥
मूल (दोहा)
उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥ ८०(ग)॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधरसे रावण ललकार रहा है और इधरसे अगंद और हनुमान्। राक्षस और रीछ-वानर अपने-अपने स्वामीकी दुहाई देकर लड़ रहे हैं॥ ८०(ग)॥
मूल (चौपाई)
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना।
देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥
हमहू उमा रहे तेहिं संगा।
देखत राम चरित रन रंगा॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानोंपर चढ़े हुए आकाशसे युद्ध देख रहे हैं। (शिवजी कहते हैं—) हे उमा! मैं भी उस समाजमें था और श्रीरामजीके रण-रंग (रणोत्साह)की लीला देख रहा था॥ १॥
मूल (चौपाई)
सुभट समर रस दुहु दिसि माते।
कपि जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन भिरहिं पचारहिं।
एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों ओरके योद्धा रण-रसमें मतवाले हो रहे हैं। वानरोंको श्रीरामजीका बल है, इससे वे जयशील हैं (जीत रहे हैं)। एक दूसरेसे भिड़ते और ललकारते हैं और एक दूसरेको मसल-मसलकर पृथ्वीपर डाल देते हैं॥ २॥
मूल (चौपाई)
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं।
सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं॥
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं।
गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे मारते, काटते, पकड़ते और पछाड़ देते हैं और सिर तोड़कर उन्हीं सिरोंसे दूसरोंको मारते हैं। पेट फाड़ते हैं, भुजाएँ उखाड़ते हैं और योद्धाओंको पैर पकड़कर पृथ्वीपर पटक देते हैं॥ ३॥
मूल (चौपाई)
निसिचर भट महि गाड़हिं भालू।
ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥
बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे।
देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षस योद्धाओंको भालू पृथ्वीमें गाड़ देते हैं और ऊपरसे बहुत-सी बालू डाल देते हैं। युद्धमें शत्रुओंसे विरुद्ध हुए वीर वानर ऐसे दिखायी पड़ते हैं मानो बहुत-से क्रोधित काल हों॥ ४॥
छंद
मूल (दोहा)
क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधित हुए कालके समान वे वानर खून बहते हुए शरीरोंसे शोभित हो रहे हैं। वे बलवान् वीर राक्षसोंकी सेनाके योद्धाओंको मसलते और मेघकी तरह गरजते हैं। डाँटकर चपेटोंसे मारते, दाँतोंसे काटकर लातोंसे पीस डालते हैं। वानर-भालू चिग्घाड़ते और ऐसा छल-बल करते हैं जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जायँ॥ १॥
मूल (दोहा)
धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रह्लादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं॥
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे राक्षसोंके गाल पकड़कर फाड़ डालते हैं, छाती चीर डालते हैं और उनकी अँतड़ियाँ निकालकर गलेमें डाल लेते हैं। वे वानर ऐसे देख पड़ते हैं मानो प्रह्लादके स्वामी श्रीनृसिंहभगवान् अनेकों शरीर धारण करके युद्धके मैदानमें क्रीड़ा कर रहे हों। पकड़ो, मारो, काटो, पछाड़ो आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वीमें भर (छा) गये हैं। श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो, जो सचमुच तृणसे वज्र और वज्रसे तृण कर देते हैं (निर्बलको सबल और सबलको निर्बल कर देते हैं)॥ २॥
दोहा
मूल (दोहा)
निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी सेनाको विचलित होते हुए देखा, तब बीस भुजाओंमें दस धनुष लेकर रावण रथपर चढ़कर गर्व करके ‘लौटो’, ‘लौटो’ कहता हुआ चला॥ ८१॥
मूल (चौपाई)
धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर।
सन्मुख चले हूह दै बंदर॥
गहि कर पादप उपल पहारा।
डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावण अत्यन्त क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुंकार करते हुए (लड़नेके लिये) उसके सामने चले। उन्होंने हाथोंमें वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावणपर एक ही साथ डाले॥ १॥
मूल (चौपाई)
लागहिं सैल बज्र तन तासू।
खंड खंड होइ फूटहिं आसू॥
चला न अचल रहा रथ रोपी।
रन दुर्मद रावन अति कोपी॥
अनुवाद (हिन्दी)
पर्वत उसके वज्रतुल्य शरीरमें लगते ही तुरंत टुकड़े-टुकड़े होकर फूट जाते हैं। अत्यन्त क्रोधी रणोन्मत्त रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा, (अपने स्थानसे) जरा भी नहीं हिला॥ २॥
मूल (चौपाई)
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा।
मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥
चले पराइ भालु कपि नाना।
त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे बहुत ही क्रोध हुआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर योद्धाओंको मसलने लगा। अनेकों वानर-भालू ‘हे अंगद! हे हनुमान्! रक्षा करो, रक्षा करो’ (पुकारते हुए) भाग चले॥ ३॥
मूल (चौपाई)
पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं।
यह खल खाइ काल की नाईं॥
तेहिं देखे कपि सकल पराने।
दसहुँ चाप सायक संधाने॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुवीर! हे गोसाईं! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। यह दुष्ट कालकी भाँति हमें खा रहा है। उसने देखा कि सब वानर भाग छूटे। तब (रावणने) दसों धनुषोंपर बाण सन्धान किये॥ ४॥
छंद
मूल (दोहा)
संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं॥
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने धनुषपर सन्धान करके बाणोंके समूह छोड़े। वे बाण सर्पकी तरह उड़कर जा लगते थे। पृथ्वी-आकाश और दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भर रहे हैं। वानर भागें तो कहाँ? अत्यन्त कोलाहल मच गया। वानर-भालुओंकी सेना व्याकुल होकर आर्त्त पुकार करने लगी—हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीड़ितोंके बन्धु! हे सेवकोंकी रक्षा करके उनके दुःख हरनेवाले हरि!