129

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ बीते सकल कलेस॥1॥

मूल

मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ बीते सकल कलेस॥1॥

भावार्थ

हे विश्वनाथ! आपकी कृपा से अब मैं कृतार्थ हो गई। मुझमें दृढ राम भक्ति उत्पन्न हो गई और मेरे सम्पूर्ण क्लेश बीत गए (नष्ट हो गए)॥129॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

यह सुभ सम्भु उमा सम्बादा। सुख सम्पादन समन बिषादा॥
भव भञ्जन गञ्जन सन्देहा। जन रञ्जन सज्जन प्रिय एहा॥1॥

मूल

यह सुभ सम्भु उमा सम्बादा। सुख सम्पादन समन बिषादा॥
भव भञ्जन गञ्जन सन्देहा। जन रञ्जन सज्जन प्रिय एहा॥1॥

भावार्थ

शम्भु-उमा का यह कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करने वाला और शोक का नाश करने वाला है। जन्म-मरण का अन्त करने वाला, सन्देहों का नाश करने वाला, भक्तों को आनन्द देने वाला और सन्त पुरुषों को प्रिय है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह कें कछु नाहीं॥
रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा॥2॥

मूल

राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह कें कछु नाहीं॥
रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा॥2॥

भावार्थ

जगत्‌ में जो (जितने भी) रामोपासक हैं, उनको तो इस रामकथा के समान कुछ भी प्रिय नहीं है। श्री रघुनाथजी की कृपा से मैन्ने यह सुन्दर और पवित्र करने वाला चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। सन्तत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥3॥

मूल

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। सन्तत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥3॥

भावार्थ

(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जासु पतित पावन बड बाना। गावहिं कबि श्रुति सन्त पुराना॥
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई॥4॥

मूल

जासु पतित पावन बड बाना। गावहिं कबि श्रुति सन्त पुराना॥
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई॥4॥

भावार्थ

पतितों को पवित्र करना जिनका महान्‌ (प्रसिद्ध) बाना है, ऐसा कवि, वेद, सन्त और पुराण गाते हैं- रेमन! कुटिलता त्याग कर उन्हीं को भज। श्री राम को भजने से किसने परम गति नहीं पाई?॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥1॥

मूल

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥1॥

भावार्थ

अरे मूर्ख मन! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्री राम को भजकर किसने परमगति नहीं पाई? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत से दुष्टों को उन्होन्ने तार दिया। आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पाप रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री रामजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥1॥

04 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पञ्च जनित बिकार श्री रघुबर हरै॥2॥

मूल

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पञ्च जनित बिकार श्री रघुबर हरै॥2॥

भावार्थ

जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्री रामजी का यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुग के पाप और मन के मल को धोकर बिना ही परिश्रम श्री रामजी के परम धाम को चले जाते हैं। (अधिक क्या) जो मनुष्य पाँच-सात चौपाइयों को भी मनोहर जानकर (अथवा रामायण की चौपाइयों को श्रेष्ठ पञ्च (कर्तव्याकर्तव्य का सच्चा निर्णायक) जानकर उनको हृदय में धारण कर लेता है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्री रामजी हरण कर लेते हैं, (अर्थात्‌ सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयों को भी समझकर उनका अर्थ हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्री रामचन्द्रजी हर लेते हैं)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुन्दर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमन्द तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥3॥

मूल

सुन्दर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमन्द तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥3॥

भावार्थ

(परम) सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्री रामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करने वाला (सुहृद्) और मोक्ष देने वाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र कृपा से मन्दबुद्धि तुलसीदास ने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्री रामजी के समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं॥3॥