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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥128॥

मूल

राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥128॥

भावार्थ

जो श्री रामजी के चरणों में प्रेम चाहता हो या मोक्षपद चाहता हो, वह इस कथा रूपी अमृत को प्रेमपूर्वक अपने कान रूपी दोने से पिए॥128॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी॥
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी॥1॥

मूल

राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी॥
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी॥1॥

भावार्थ

हे गिरिजे! मैन्ने कलियुग के पापों का नाश करने वाली और मन के मल को दूर करने वाली रामकथा का वर्णन किया। यह रामकथा संसृति (जन्म-मरण) रूपी रोग के (नाश के) लिए सञ्जीवनी जडी है, वेद और विद्वान पुरुष ऐसा कहते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पन्थाना॥
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई॥2॥

मूल

एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पन्थाना॥
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई॥2॥

भावार्थ

इसमें सात सुन्दर सीढियाँ हैं, जो श्री रघुनाथजी की भक्ति को प्राप्त करने के मार्ग हैं। जिस पर श्री हरि की अत्यन्त कृपा होती है, वही इस मार्ग पर पैर रखता है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा॥
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं॥3॥

मूल

मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा॥
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं॥3॥

भावार्थ

जो कपट छोडकर यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामना की सिद्धि पा लेते हैं, जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन (प्रशंसा) करते हैं, वे संसार रूपी समुद्र को गो के खुर से बने हुए गड्ढे की भाँति पार कर जाते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि सब कथा हृदय अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई॥
नाथ कृपाँ मम गत सन्देहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा॥4॥

मूल

सुनि सब कथा हृदय अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई॥
नाथ कृपाँ मम गत सन्देहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा॥4॥

भावार्थ

(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) सब कथा सुनकर श्री पार्वतीजी के हृदय को बहुत ही प्रिय लगी और वे सुन्दर वाणी बोलीं- स्वामी की कृपा से मेरा सन्देह जाता रहा और श्री रामजी के चरणों में नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया॥4॥