01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरन्तर सुनहिं मानि बिस्वास॥126॥
मूल
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरन्तर सुनहिं मानि बिस्वास॥126॥
भावार्थ
किन्तु जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरन्तर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस मुनि दुर्लभ हरि भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं॥126॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मण्डित पण्डित दाता॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता॥1॥
मूल
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मण्डित पण्डित दाता॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता॥1॥
भावार्थ
जिसका मन श्री रामजी के चरणों में अनुरक्त है, वही सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) है, वही गुणी है, वही ज्ञानी है। वही पृथ्वी का भूषण, पण्डित और दानी है। वही धर्मपरायण है और वही कुल का रक्षक है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धान्त नीक तेहिं जाना॥
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाडि भजइ रघुबीरा॥2॥
मूल
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धान्त नीक तेहिं जाना॥
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाडि भजइ रघुबीरा॥2॥
भावार्थ
जो छल छोडकर श्री रघुवीर का भजन करता है, वही नीति में निपुण है, वही परम् बुद्धिमान है। उसी ने वेदों के सिद्धान्त को भली-भाँति जाना है। वही कवि, वही विद्वान् तथा वही रणधीर है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥3॥
मूल
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥3॥
भावार्थ
वह देश धन्य है, जहाँ श्री गङ्गाजी हैं, वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत धर्म का पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥
धन्य घरी सोइ जब सतसङ्गा। धन्य जन्म द्विज भगति अभङ्गा॥4॥
मूल
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥
धन्य घरी सोइ जब सतसङ्गा। धन्य जन्म द्विज भगति अभङ्गा॥4॥
भावार्थ
वह धन धन्य है, जिसकी पहली गति होती है (जो दान देने में व्यय होता है) वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घडी धन्य है जब सत्सङ्ग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण की अखण्ड भक्ति हो॥4॥
(धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है। जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।)