01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न तव तरिअ यह सिद्धान्त अपेल॥1॥
मूल
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न तव तरिअ यह सिद्धान्त अपेल॥1॥
भावार्थ
जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे, परन्तु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धान्त अटल है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मसकहि करइ बिरञ्चि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥2॥
मूल
मसकहि करइ बिरञ्चि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥2॥
भावार्थ
प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब सन्देह त्यागकर श्री रामजी को ही भजते हैं॥2॥
02 श्लोक
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥3॥
मूल
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥3॥
भावार्थ
मैं आपसे भली-भाँति निश्चित किया हुआ सिद्धान्त कहता हूँ- मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं, वे अत्यन्त दुस्तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर जाते हैं॥3॥
03 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा॥
श्रुति सिद्धान्त इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी॥1॥
मूल
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा॥
श्रुति सिद्धान्त इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी॥1॥
भावार्थ
हे नाथ! मैन्ने श्री हरि का अनुपम चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहीं विस्तार से और कहीं सङ्क्षेप से कहा। हे सर्पों के शत्रु गरुडजी ! श्रुतियों का यही सिद्धान्त है कि सब काम भुलाकर (छोडकर) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही॥
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा॥2॥
मूल
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही॥
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा॥2॥
भावार्थ
प्रभु श्री रघुनाथजी को छोडकर और किसका सेवन (भजन) किया जाए, जिनका मुझ जैसे मूर्ख पर भी ममत्व (स्नेह) है। हे नाथ! आप विज्ञान रूप हैं, आपको मोह नहीं है। आपने तो मुझ पर बडी कृपा की है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूँछिहु राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि सम्भु मन भावनि॥
सत सङ्गति दुर्लभ संसारा। निमिष दण्ड भरि एकउ बारा॥3॥
मूल
पूँछिहु राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि सम्भु मन भावनि॥
सत सङ्गति दुर्लभ संसारा। निमिष दण्ड भरि एकउ बारा॥3॥
भावार्थ
जो आपने मुझ से शुकदेवजी, सनकादि और शिवजी के मन को प्रिय लगने वाली अति पवित्र रामकथा पूछी। संसार में घडी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी सत्सङ्ग दुर्लभ है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखु गरुड निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥
सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥4॥
मूल
देखु गरुड निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥
सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥4॥
भावार्थ
हे गरुडजी! अपने हृदय में विचार कर देखिए, क्या मैं भी श्री रामजी के भजन का अधिकारी हूँ? पक्षियों में सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र हूँ, परन्तु ऐसा होने पर भी प्रभु ने मुझको सारे जगत् को पवित्र करने वाला प्रसिद्ध कर दिया (अथवा प्रभु ने मुझको जगत्प्रसिद्ध पावन कर दिया)॥4॥