01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीडहिं सन्तत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥1॥
मूल
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीडहिं सन्तत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥1॥
भावार्थ
एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरन्तर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शान्ति) को कैसे प्राप्त करे?॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥2॥
मूल
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥2॥
भावार्थ
नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोडों औषधियाँ हैं, परन्तु हे गरुडजी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥1॥
मूल
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥1॥
भावार्थ
इस प्रकार जगत् में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैन्ने ये थोडे से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परन्तु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अङ्कुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥2॥
मूल
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अङ्कुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥2॥
भावार्थ
प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परन्तु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अङ्कुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै सञ्जोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। सञ्जम यह न बिषय कै आसा॥3॥
मूल
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै सञ्जोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। सञ्जम यह न बिषय कै आसा॥3॥
भावार्थ
यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥
मूल
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी की भक्ति सञ्जीवनी जडी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोडों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढइ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥5॥
मूल
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढइ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥5॥
भावार्थ
हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाए॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥6॥
मूल
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥6॥
भावार्थ
इस प्रकार सब रोगों से छूटकर जब मनुष्य निर्मल ज्ञान रूपी जल में स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचार में परम निपुण जो मुनि हैं,॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पङ्कज नेहा॥
श्रुति पुरान सब ग्रन्थ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥7॥
मूल
सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पङ्कज नेहा॥
श्रुति पुरान सब ग्रन्थ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥7॥
भावार्थ
हे पक्षीराज! उन सबका मत यही है कि श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम करना चाहिए। श्रुति, पुराण और सभी ग्रन्थ कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की भक्ति के बिना सुख नहीं है॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बन्ध्या सुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥8॥
मूल
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बन्ध्या सुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥8॥
भावार्थ
कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाश में भले ही अनेकों प्रकार के फूल खिल उठें, परन्तु श्री हरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥
अन्धकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥9॥
मूल
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥
अन्धकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥9॥
भावार्थ
मृगतृष्णा के जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर पर भले ही सीङ्ग निकल आवे, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे, परन्तु श्री राम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥10॥
मूल
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥10॥
भावार्थ
बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाए (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जाएँ), परन्तु श्री राम से विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता॥10॥