01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्म पयोनिधि मन्दर ग्यान सन्त सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढहिं भगति मधुरता जाहिं॥1॥
मूल
ब्रह्म पयोनिधि मन्दर ग्यान सन्त सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढहिं भगति मधुरता जाहिं॥1॥
भावार्थ
ब्रह्म (वेद) समुद्र है, ज्ञान मन्दराचल है और सन्त देवता हैं, जो उस समुद्र को मथकर कथा रूपी अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्ति रूपी मधुरता बसी रहती है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥2॥
मूल
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥2॥
भावार्थ
वैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोह रूपी वैरियों को मारकर जो विजय प्राप्त करती है, वह हरि भक्ति ही है, हे पक्षीराज! इसे विचार कर देखिए॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥1॥
मूल
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥1॥
भावार्थ
पक्षीराज गरुडजी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ सञ्छेपहिं कहहु बिचारी॥2॥
मूल
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ सञ्छेपहिं कहहु बिचारी॥2॥
भावार्थ
हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है फिर सबसे बडा दुःख कौन है और सबसे बडा सुख कौन है, यह भी विचार कर सङ्क्षेप में ही कहिए॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त असन्त मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥3॥
मूल
सन्त असन्त मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥3॥
भावार्थ
सन्त और असन्त का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए। फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान् पुण्य कौन सा है और सबसे महान् भयङ्कर पाप कौन है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं सञ्छेप कहउँ यह नीती॥4॥
मूल
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं सञ्छेप कहउँ यह नीती॥4॥
भावार्थ
फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है। (काकभुशुण्डिजी ने कहा-) हे तात अत्यन्त आदर और प्रेम के साथ सुनिए। मैं यह नीति सङ्क्षेप से कहता हूँ॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥
मूल
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥
भावार्थ
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मन्द मन्द तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥6॥
मूल
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मन्द मन्द तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥6॥
भावार्थ
ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेङ्क देते हैं और बदले में काँच के टुकडे ले लेते हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। सन्त मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया। सन्त सहज सुभाउ खगराया॥7॥
मूल
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। सन्त मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया। सन्त सहज सुभाउ खगराया॥7॥
भावार्थ
जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा सन्तों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह सन्तों का सहज स्वभाव है॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असन्त अभागी॥
भूर्ज तरू सम सन्त कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥8॥
मूल
सन्त सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असन्त अभागी॥
भूर्ज तरू सम सन्त कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥8॥
भावार्थ
सन्त दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असन्त दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु सन्त भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधडवा लेते हैं)॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन इव खल पर बन्धन करई। खाल कढाई बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥9॥
मूल
सन इव खल पर बन्धन करई। खाल कढाई बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥9॥
भावार्थ
किन्तु दुष्ट लोग सन की भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल खिञ्चवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुडजी! सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर सम्पदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥10॥
मूल
पर सम्पदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥10॥
भावार्थ
वे पराई सम्पत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही होता है॥10॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त उदय सन्तत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निन्दा सम अघ न गरीसा॥11॥
मूल
सन्त उदय सन्तत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निन्दा सम अघ न गरीसा॥11॥
भावार्थ
और सन्तों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है। वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है॥11॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर गुर निन्दक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निन्दक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥12॥
मूल
हर गुर निन्दक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निन्दक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥12॥
भावार्थ
शङ्करजी और गुरु की निन्दा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेण्ढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेण्ढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निन्दा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत् में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है॥12॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुर श्रुति निन्दक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक सन्त निन्दा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥13॥
मूल
सुर श्रुति निन्दक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक सन्त निन्दा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥13॥
भावार्थ
जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निन्दा करते हैं, वे रौरव नरक में पडते हैं। सन्तों की निन्दा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है॥13॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सब कै निन्दा जे जड करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥14॥
मूल
सब कै निन्दा जे जड करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥14॥
भावार्थ
जो मूर्ख मनुष्य सब की निन्दा करते हैं, वे चमगादड होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥14॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥
मूल
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥
भावार्थ
सब रोगों की जड मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥15॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥
मूल
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥
भावार्थ
यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)॥16॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममता दादु कण्डु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥
मूल
ममता दादु कण्डु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥
भावार्थ
ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगण्ड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ है॥17॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहङ्कार अति दुखद डमरुआ। दम्भ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥
मूल
अहङ्कार अति दुखद डमरुआ। दम्भ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥
भावार्थ
अहङ्कार अत्यन्त दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बडा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥18॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥19॥
भावार्थ
मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥19॥