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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब फिरि जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस॥1॥

मूल

तब फिरि जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस॥1॥

भावार्थ

(इस प्रकार ज्ञान दीपक के बुझ जाने पर) तब फिर जीव अनेकों प्रकार से संसृति (जन्म-मरणादि) के क्लेश पाता है। हे पक्षीराज! हरि की माया अत्यन्त दुस्तर है, वह सहज ही में तरी नहीं जा सकती॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥2॥

मूल

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥2॥

भावार्थ

ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोगवश) कदाचित्‌ यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्यान पन्थ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥
जो निर्बिघ्न पन्थ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई॥1॥

मूल

ग्यान पन्थ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥
जो निर्बिघ्न पन्थ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई॥1॥

भावार्थ

ज्ञान का मार्ग कृपाण (दोधारी तलवार) की धार के समान है। हे पक्षीराज! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती। जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपद को प्राप्त करता है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। सन्त पुरान निगम आगम बद॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं॥2॥

मूल

अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। सन्त पुरान निगम आगम बद॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं॥2॥

भावार्थ

सन्त, पुराण, वेद और (तन्त्र आदि) शास्त्र (सब) यह कहते हैं कि कैवल्य रूप परमपद अत्यन्त दुर्लभ है, किन्तु हे गोसाईं! वही (अत्यन्त दुर्लभ) मुक्ति श्री रामजी को भजने से बिना इच्छा किए भी जबर्दस्ती आ जाती है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥3॥

मूल

जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥3॥

भावार्थ

जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोडों प्रकार के उपाय क्यों न करे। वैसे ही, हे पक्षीराज! सुनिए, मोक्षसुख भी श्री हरि की भक्ति को छोडकर नहीं रह सकता॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा॥4॥

मूल

अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा॥4॥

भावार्थ

ऐसा विचार कर बुद्धिमान्‌ हरि भक्त भक्ति पर लुभाए रहकर मुक्ति का तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति करने से संसृति (जन्म-मृत्यु रूप संसार) की जड अविद्या बिना ही यन्त्र और परिश्रम के (अपने आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है,॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी॥
असि हरि भगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ न जाहि सोहाई॥5॥

मूल

भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी॥
असि हरि भगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ न जाहि सोहाई॥5॥

भावार्थ

जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्ति के लिए और उस भोजन को जठराग्नि अपने आप (बिना हमारी चेष्टा के) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देने वाली हरि भक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ कौन होगा?॥5॥