01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ॥1॥
मूल
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ॥1॥
भावार्थ
तब योग रूपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी ईन्धन लगा दें (सब कर्मों को योग रूपी अग्नि में भस्म कर दें)। जब (वैराग्य रूपी मक्खन का) ममता रूपी मल, जल जाए, तब (बचे हुए) ज्ञान रूपी घी को (निश्चयात्मिका) बुद्धि से ठण्डा करें॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब बिग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ समता दिअटि बनाइ॥2॥
मूल
तब बिग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ समता दिअटि बनाइ॥2॥
भावार्थ
तब विज्ञान रूपिणी बुद्धि उस (ज्ञान रूपी) निर्मल घी को पाकर उससे चित्त रूपी दीए को भरकर, समता की दीवट बनाकर, उस पर उसे दृढतापूर्वक (जमाकर) रखें॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढि॥3॥
मूल
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढि॥3॥
भावार्थ
(जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) तीनों अवस्थाएँ और (सत्त्व, रज और तम) तीनों गुण रूपी कपास से तुरीयावस्था रूपी रूई को निकालकर और फिर उसे सँवारकर उसकी सुन्दर कडी बत्ती बनाएँ॥3॥
02 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब॥4॥
मूल
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब॥4॥
भावार्थ
इस प्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावें, जिसके समीप जाते ही मद आदि सब पतङ्गे जल जाएँ॥4॥
03 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोहमस्मि इति बृत्ति अखण्डा। दीप सिखा सोइ परम प्रचण्डा॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥
मूल
सोहमस्मि इति बृत्ति अखण्डा। दीप सिखा सोइ परम प्रचण्डा॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥
भावार्थ
‘सोऽहमस्मि’ (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखण्ड (तैलधारावत् कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचण्ड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है,॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तब मिटइ अपारा॥
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रन्थि निरुआरा॥2॥
मूल
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तब मिटइ अपारा॥
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रन्थि निरुआरा॥2॥
भावार्थ
और महान् बलवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अन्धकार मिट जाता है। तब वही (विज्ञानरूपिणी) बुद्धि (आत्मानुभव रूप) प्रकाश को पाकर हृदय रूपी घर में बैठकर उस जड चेतन की गाँठ को खोलती है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोरन ग्रन्थि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥
छोरत ग्रन्थ जानि खगराया। बिघ्न नेक करइ तब माया॥3॥
मूल
छोरन ग्रन्थि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥
छोरत ग्रन्थ जानि खगराया। बिघ्न नेक करइ तब माया॥3॥
भावार्थ
यदि वह (विज्ञान रूपिणी बुद्धि) उस गाँठ को खोलने पावे, तब यह जीव कृतार्थ हो, परन्तु हे पक्षीराज गरुडजी! गाँठ खोलते हुए जानकर माया फिर अनेकों विघ्न करती है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिद्धि-सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई॥
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अञ्चल बात बुझावहिं दीपा॥4॥
मूल
रिद्धि-सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई॥
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अञ्चल बात बुझावहिं दीपा॥4॥
भावार्थ
हे भाई! वह बहुत सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती हैं और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञान रूपी दीपक को बुझा देती हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी॥
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी॥5॥
मूल
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी॥
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी॥5॥
भावार्थ
यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई, तो वह उन (ऋद्धि-सिद्धियों) को अहितकर (हानिकर) समझकर उनकी ओर ताकती नहीं। इस प्रकार यदि माया के विघ्नों से बुद्धि को बाधा न हुई, तो फिर देवता उपाधि (विघ्न) करते हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्री द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी॥6॥
मूल
इन्द्री द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी॥6॥
भावार्थ
इन्द्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं। वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखे पर) देवता थाना किए (अड्डा जमाकर) बैठे हैं। ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड खोल देते हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब सो प्रभञ्जन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥
ग्रन्थि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥7॥
मूल
जब सो प्रभञ्जन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥
ग्रन्थि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥7॥
भावार्थ
सज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभव रूप) प्रकाश भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई (सारा किया-कराया चौपट हो गया)॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥
बिषय समीर बुद्धि कत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥8॥
मूल
इन्द्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥
बिषय समीर बुद्धि कत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥8॥
भावार्थ
इन्द्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान (स्वाभाविक ही) नहीं सुहाता, क्योङ्कि उनकी विषय-भोगों में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया। तब फिर (दोबारा) उस ज्ञान दीप को उसी प्रकार से कौन जलावे?॥8॥