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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल सन्देह॥1॥

मूल

ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल सन्देह॥1॥

भावार्थ

मुझे अपना यह काक शरीर इसीलिए प्रिय है कि इसमें मुझे श्री रामजी के चरणों का प्रेम प्राप्त हुआ। इसी शरीर से मैन्ने अपने प्रभु के दर्शन पाए और मेरे सब सन्देह जाते रहे (दूर हुए)॥1॥

मासपारायण, उनतीसवाँ विश्राम

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप॥2॥

मूल

मासपारायण, उनतीसवाँ विश्राम

भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप॥2॥

भावार्थ

मैं हठ करके भक्ति पक्ष पर अडा रहा, जिससे महर्षि लोमश ने मुझे शाप दिया, परन्तु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुर्लभ है, वह वरदान मैन्ने पाया। भजन का प्रताप तो देखिए!॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥
ते जड कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी॥1॥

मूल

जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥
ते जड कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी॥1॥

भावार्थ

जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड देते हैं और केवल ज्ञान के लिए श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घर पर खडी हुई कामधेनु को छोडकर दूध के लिए मदार के पेड को खोजते फिरते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई॥
ते सठ महासिन्धु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड करनी॥2॥

मूल

सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई॥
ते सठ महासिन्धु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड करनी॥2॥

भावार्थ

हे पक्षीराज! सुनिए, जो लोग श्री हरि की भक्ति को छोडकर दूसरे उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड करनी वाले (अभागे) बिना ही जहाज के तैरकर महासमुद्र के पार जाना चाहते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि भसुण्डि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड हरषि मृदु बानी॥
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥3॥

मूल

सुनि भसुण्डि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड हरषि मृदु बानी॥
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥3॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! भुशुण्डिजी के वचन सुनकर गरुडजी हर्षित होकर कोमल वाणी से बोले- हे प्रभो! आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब सन्देह, शोक, मोह और कुछ भी नहीं रह गया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा॥
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥4॥

मूल

सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा॥
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥4॥

भावार्थ

मैन्ने आपकी कृपा से श्री रामचन्द्रजी के पवित्र गुण समूहों को सुना और शान्ति प्राप्त की। हे प्रभो! अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूँ। हे कृपासागर! मुझे समझाकर कहिए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहिं सन्त मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं॥5॥

मूल

कहहिं सन्त मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं॥5॥

भावार्थ

सन्त मुनि, वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ कुछ भी नहीं है। हे गोसाईं! वही ज्ञान मुनि ने आपसे कहा, परन्तु आपने भक्ति के समान उसका आदर नहीं किया॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्यानहि भगतिहि अन्तर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥6॥

मूल

ग्यानहि भगतिहि अन्तर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥6॥

भावार्थ

हे कृपा के धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्ति में कितना अन्तर है? यह सब मुझसे कहिए। गरुडजी के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजी ने सुख माना और आदर के साथ कहा-॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अन्तर। सावधान सोउ सुनु बिहङ्गबर॥7॥

मूल

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अन्तर। सावधान सोउ सुनु बिहङ्गबर॥7॥

भावार्थ

भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं। हे नाथ! मुनीश्वर इनमें कुछ अन्तर बतलाते हैं। हे पक्षीश्रेष्ठ! उसे सावधान होकर सुनिए॥7॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड जाती॥8॥

मूल

ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड जाती॥8॥

भावार्थ

बहे हरि वाहन! सुनिए, ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान- ये सब पुरुष हैं। पुरुष का प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है। अबला (माया) स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड (मूर्ख) होती है॥8॥