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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बारम्बार सकोप मुनि करइ निरूपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान॥1॥

मूल

बारम्बार सकोप मुनि करइ निरूपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान॥1॥

भावार्थ

मुनि बार-बार क्रोध सहित ज्ञान का निरूपण करने लगे। तब मैं बैठा-बैठा अपने मन में अनेकों प्रकार के अनुमान करने लगा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड जीव कि ईस समान॥2॥2॥

मूल

क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड जीव कि ईस समान॥2॥2॥

भावार्थ

बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध कैसा और बिना अज्ञान के क्या द्वैतबुद्धि हो सकती है? माया के वश रहने वाला परिच्छिन्न जड जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है?॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहुँ कि दुःख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें॥
परद्रोही की होहिं निसङ्का। कामी पुनि कि रहहिं अकलङ्का॥1॥

मूल

कबहुँ कि दुःख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें॥
परद्रोही की होहिं निसङ्का। कामी पुनि कि रहहिं अकलङ्का॥1॥

भावार्थ

सबका हित चाहने से क्या कभी दुःख हो सकता है? जिसके पास पारसमणि है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है? दूसरे से द्रोह करने वाले क्या निर्भय हो सकते हैं और कामी क्या कलङ्करहित (बेदाग) रह सकते हैं?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म की होहिं स्वरूपहि चीन्हें॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥2॥

मूल

बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म की होहिं स्वरूपहि चीन्हें॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥2॥

भावार्थ

ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है? स्वरूप की पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या (आसक्तिपूर्वक) कर्म हो सकते हैं? दुष्टों के सङ्ग से क्या किसी के सुबुद्धि उत्पन्न हुई है? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भव कि परहिं परमात्मा बिन्दक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिन्दक॥
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥3॥

मूल

भव कि परहिं परमात्मा बिन्दक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिन्दक॥
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥3॥

भावार्थ

परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड सकते हैं? भगवान्‌ की निन्दा करने वाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? श्री हरि के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते हैं?॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति सन्त पुराना॥4॥

मूल

पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति सन्त पुराना॥4॥

भावार्थ

बिना पुण्य के क्या पवित्र यश (प्राप्त) हो सकता है? बिना पाप के भी क्या कोई अपयश पा सकता है? जिसकी महिमा वेद, सन्त और पुराण गाते हैं और उस हरि भक्ति के समान क्या कोई दूसरा लाभ भी है?॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना॥5॥

मूल

हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना॥5॥

भावार्थ

हे भाई! जगत्‌ में क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि मनुष्य का शरीर पाकर भी श्री रामजी का भजन न किया जाए? चुगलखोरी के समान क्या कोई दूसरा पाप है? और हे गरुडजी! दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म है?॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनउँ॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥6॥

मूल

एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनउँ॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥6॥

भावार्थ

इस प्रकार मैं अनगिनत युक्तियाँ मन में विचारता था और आदर के साथ मुनि का उपदेश नहीं सुनता था। जब मैन्ने बार-बार सगुण का पक्ष स्थापित किया, तब मुनि क्रोधयुक्त वचन बोले- ॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूढ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही॥7॥

मूल

मूढ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही॥7॥

भावार्थ

अरे मूढ! मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ, तो भी तू उसे नहीं मानता और बहुत से उत्तर-प्रत्युत्तर (दलीलें) लाकर रखता है। मेरे सत्य वचन पर विश्वास नहीं करता। कौए की भाँति सभी से डरता है॥7॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चण्डाला॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढाई। नहिं कछु भय न दीनता आई॥8॥

मूल

सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चण्डाला॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढाई। नहिं कछु भय न दीनता आई॥8॥

भावार्थ

अरे मूर्ख! तेरे हृदय में अपने पक्ष का बडा भारी हठ है, अतः तू शीघ्र चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। मैन्ने आनन्द के साथ मुनि के शाप को सिर पर चढा लिया। उससे मुझे न कुछ भय हुआ, न दीनता ही आई॥8॥