01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥1॥
मूल
गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥1॥
भावार्थ
गुरुजी के वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्री रामजी के चरणों में लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्री रघुनाथजी का यश गाता फिरता था॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥2॥
मूल
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥2॥
भावार्थ
सुमेरु पर्वत के शिखर पर बड की छाया में लोमश मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर मैन्ने उनके चरणों में सिर नवाया और अत्यन्त दीन वचन कहे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज॥3॥
मूल
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज॥3॥
भावार्थ
हे पक्षीराज! मेरे अत्यन्त नम्र और कोमल वचन सुनकर कृपालु मुनि मुझसे आदर के साथ पूछने लगे- हे ब्राह्मण! आप किस कार्य से यहाँ आए हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान॥4॥
मूल
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान॥4॥
भावार्थ
तब मैन्ने कहा- हे कृपा निधि! आप सर्वज्ञ हैं और सुजान हैं। हे भगवान् मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना (की प्रक्रिया) कहिए। 110 (घ)॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब मुनीस रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी॥1॥
मूल
तब मुनीस रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी॥1॥
भावार्थ
तब हे पक्षीराज! मुनीश्वर ने श्री रघुनाथजी के गुणों की कुछ कथाएँ आदर सहित कहीं। फिर वे ब्रह्मज्ञान परायण विज्ञानवान् मुनि मुझे परम अधिकारी जानकर-॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वैत अगुन हृदयेसा॥
अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखण्ड अनूपा॥2॥
मूल
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वैत अगुन हृदयेसा॥
अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखण्ड अनूपा॥2॥
भावार्थ
ब्रह्म का उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है, निर्गुण है और हृदय का स्वामी (अन्तर्यामी) है। उसे कोई बुद्धि के द्वारा माप नहीं सकता, वह इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित, अनुभव से जानने योग्य, अखण्ड और उपमारहित है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा॥3॥
मूल
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा॥3॥
भावार्थ
वह मन और इन्द्रियों से परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार, सीमारहित और सुख की राशि है। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है, (तत्वमसि), जल और जल की लहर की भाँति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥4॥
मूल
बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥4॥
भावार्थ
मुनि ने मुझे अनेकों प्रकार से समझाया, पर निर्गुण मत मेरे हृदय में नहीं बैठा। मैन्ने फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर कहा- हे मुनीश्वर! मुझे सगुण ब्रह्म की उपासना कहिए॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥5॥
मूल
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥5॥
भावार्थ
मेरा मन रामभक्ति रूपी जल में मछली हो रहा है (उसी में रम रहा है)। हे चतुर मुनीश्वर ऐसी दशा में वह उससे अलग कैसे हो सकता है? आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिए जिससे मैं श्री रघुनाथजी को अपनी आँखों से देख सकूँ॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खण्डि सगुन मत अगुन निरूपा॥6॥
मूल
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खण्डि सगुन मत अगुन निरूपा॥6॥
भावार्थ
(पहले) नेत्र भरकर श्री अयोध्यानाथ को देखकर, तब निर्गुण का उपदेश सुनूँगा। मुनि ने फिर अनुपम हरिकथा कहकर, सगुण मत का खण्डन करके निर्गुण का निरूपण किया॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥7॥
मूल
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥7॥
भावार्थ
तब मैं निर्गुण मत को हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुण का निरूपण करने लगा। मैन्ने उत्तर-प्रत्युत्तर किया, इससे मुनि के शरीर में क्रोध के चिह्न उत्पन्न हो गए॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ॥
अति सङ्घरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चन्दन ते होई॥8॥
मूल
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ॥
अति सङ्घरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चन्दन ते होई॥8॥
भावार्थ
हे प्रभो! सुनिए, बहुत अपमान करने पर ज्ञानी के भी हृदय में क्रोध उत्पन्न हो जाता है। यदि कोई चन्दन की लकडी को बहुत अधिक रगडे, तो उससे भी अग्नि प्रकट हो जाएगी॥8॥