01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।
कम्पित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप॥1॥
मूल
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।
कम्पित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप॥1॥
भावार्थ
शिवजी का भयानक शाप सुनकर गुरुजी ने हाहाकार किया। मुझे काँपता हुआ देखकर उनके हृदय में बडा सन्ताप उत्पन्न हुआ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि दण्डवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि॥2॥
मूल
करि दण्डवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि॥2॥
भावार्थ
प्रेम सहित दण्डवत् करके वे ब्राह्मण श्री शिवजी के सामने हाथ जोडकर मेरी भयङ्कर गति (दण्ड) का विचार कर गदगद वाणी से विनती करने लगे-॥2॥
02 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥1॥
मूल
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥1॥
भावार्थ
हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित), (मायिक) गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर (अथवा आकाश को भी आच्छादित करने वाले) आपको मैं भजता हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निराकारमोङ्कारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥2॥
मूल
निराकारमोङ्कारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥2॥
भावार्थ
निराकार, ओङ्कार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुषाराद्रि सङ्काश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा। लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा॥3॥
मूल
तुषाराद्रि सङ्काश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा। लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा॥3॥
भावार्थ
जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गम्भीर हैं, जिनके शरीर में करोडों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गङ्गाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥4॥
मूल
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥4॥
भावार्थ
जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं, सिंह चर्म का वस्त्र धारण किए और मुण्डमाला पहने हैं, उन सबके प्यारे और सबके नाथ (कल्याण करने वाले) श्री शङ्करजी को मैं भजता हूँ॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥5॥
मूल
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥5॥
भावार्थ
प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मे, करोडों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शङ्करजी को मैं भजता हूँ॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6॥
मूल
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6॥
भावार्थ
कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्प का अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालने वाले कामदेव के शत्रु, हे प्रभो! प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजन्तीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7॥
मूल
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजन्तीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7॥
भावार्थ
जब तक पार्वती के पति आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अन्दर (हृदय में) निवास करने वाले हे प्रभो! प्रसन्न होइए॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥8॥
मूल
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥8॥
भावार्थ
मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो! बुढापा तथा जन्म (मृत्यु) के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखी की दुःख से रक्षा कीजिए। हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥9॥
मूल
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥9॥
भावार्थ
भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शङ्करजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढते हैं, उन पर भगवान् शम्भु प्रसन्न होते हैं॥9॥