01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक बार हर मन्दिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम॥1॥
मूल
एक बार हर मन्दिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम॥1॥
भावार्थ
एक दिन मैं शिवजी के मन्दिर में शिवनाम जप रहा था। उसी समय गुरुजी वहाँ आए, पर अभिमान के मारे मैन्ने उठकर उनको प्रणाम नहीं किया॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस॥2॥
मूल
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस॥2॥
भावार्थ
गुरुजी दयालु थे, (मेरा दोष देखकर भी) उन्होन्ने कुछ नहीं कहा, उनके हृदय में लेशमात्र भी क्रोध नहीं हुआ। पर गुरु का अपमान बहुत बडा पाप है, अतः महादेवजी उसे नहीं सह सके॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्दिर माझ भई नभबानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी॥
जद्यपि तव गुर के नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा॥1
मूल
मन्दिर माझ भई नभबानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी॥
जद्यपि तव गुर के नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा॥1
भावार्थ
मन्दिर में आकाशवाणी हुई कि अरे हतभाग्य! मूर्ख! अभिमानी! यद्यपि तेरे गुरु को क्रोध नहीं है, वे अत्यन्त कृपालु चित्त के हैं और उन्हें (पूर्ण तथा) यथार्थ ज्ञान है,॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही॥
जौं नहिं दण्ड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा॥2॥
मूल
तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही॥
जौं नहिं दण्ड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा॥2॥
भावार्थ
तो भी हे मूर्ख! तुझको मैं शाप दूँगा, (क्योङ्कि) नीति का विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता। अरे दुष्ट! यदि मैं तुझे दण्ड न दूँ, तो मेरा वेदमार्ग ही भ्रष्ट हो जाए॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥3॥
मूल
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥3॥
भावार्थ
जो मूर्ख गुरु से ईर्षा करते हैं, वे करोडों युगों तक रौरव नरक में पडे रहते हैं। फिर (वहाँ से निकलकर) वे तिर्यक् (पशु, पक्षी आदि) योनियों में शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्मों तक दुःख पाते रहते हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैठि रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई। रहु अधमाधम अधगति पाई॥4॥
मूल
बैठि रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई। रहु अधमाधम अधगति पाई॥4॥
भावार्थ
अरे पापी! तू गुरु के सामने अजगर की भाँति बैठा रहा। रे दुष्ट! तेरी बुद्धि पाप से ढँक गई है, (अतः) तू सर्प हो जा और अरे अधम से भी अधम! इस अधोगति (सर्प की नीची योनि) को पाकर किसी बडे भारी पेड के खोखले में जाकर रह॥4॥