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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं खल मल सङ्कुल मति
नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज देखें जरउँ
करउँ बिष्नु कर द्रोह॥1॥

मूल

मैं खल मल सङ्कुल मति नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह॥1॥

भावार्थ

मैं दुष्ट, नीच जाति और पापमयी मलिन बुद्धि वाला
मोहवश श्री हरि के भक्तों और द्विजों को देखते ही जल उठता
और विष्णु भगवान्‌ से द्रोह करता था॥1॥

02 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर नित मोहि प्रबोध,
दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजइ अति क्रोध,
दम्भिहि नीति कि भावई+++(=भावी)+++?॥2॥

मूल

गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजइ अति क्रोध दम्भिहि नीति कि भावई॥2॥

भावार्थ

गुरुजी मेरे आचरण देखकर दुखित थे। वे मुझे नित्य ही भली-भाँति समझाते, पर (मैं कुछ भी नहीं समझता), उलटे मुझे अत्यन्त क्रोध उत्पन्न होता। दम्भी को कभी नीति अच्छी लगती है?॥2॥

03 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक बार गुर लीन्ह बोलाई।
मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥
सिव सेवा कर, फल सुत सोई।
अबिरल भगति राम पद होई॥1॥

मूल

एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥
सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥1॥

भावार्थ

एक बार गुरुजी ने मुझे बुला लिया और बहुत प्रकार से (परमार्थ) नीति की शिक्षा दी कि हे पुत्र! शिवजी की सेवा का फल यही है कि श्री रामजी के चरणों में प्रगाढ भक्ति हो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामहि भजहिं तात सिव धाता।
नर पावँर+++(=पामर)+++ कै केतिक बाता॥
जासु चरन अज, सिव अनुरागी।
तासु द्रोहँ सुख चहसि अभागी॥2॥

मूल

रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता॥
जासु चरन अज सिव अनुरागी। तासु द्रोहँ सुख चहसि अभागी॥2॥

भावार्थ

हे तात! शिवजी और ब्रह्माजी भी श्री रामजी को भजते हैं
(फिर) नीच मनुष्य की तो बात ही कितनी है?
ब्रह्माजी और शिवजी जिनके चरणों के प्रेमी हैं, अरे अभागे!
उनसे द्रोह करके तू सुख चाहता है?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर कहुँ “हरि सेवक”, गुर कहेऊ।
सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ॥
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ।
भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥3॥

मूल

हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ॥
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥3॥

भावार्थ

गुरुजी ने शिवजी को हरि का सेवक कहा। यह सुनकर हे पक्षीराज! मेरा हृदय जल उठा। नीच जाति का मैं विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध पिलाने से साँप॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती॥
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥4॥

मूल

मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती॥
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥4॥

भावार्थ

अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य और कुजाति मैं दिन-रात गुरुजी से द्रोह करता। गुरुजी अत्यन्त दयालु थे, उनको थोडा सा भी क्रोध नहीं आता। (मेरे द्रोह करने पर भी) वे बार-बार मुझे उत्तम ज्ञान की ही शिक्षा देते थे॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहि ते नीच बडाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥
धूम अनल सम्भव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥5॥

मूल

जेहि ते नीच बडाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥
धूम अनल सम्भव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥5॥

भावार्थ

नीच मनुष्य जिससे बडाई पाता है, वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी का नाश करता है। हे भाई! सुनिए, आग से उत्पन्न हुआ धुआँ मेघ की पदवी पाकर उसी अग्नि को बुझा देता है॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई॥
मरुत उडाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई॥6॥

मूल

रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई॥
मरुत उडाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई॥6॥

भावार्थ

धूल रास्ते में निरादर से पडी रहती है और सदा सब (राह चलने वालों) की लातों की मार सहती है। पर जब पवन उसे उडाता (ऊँचा उठाता) है, तो सबसे पहले वह उसी (पवन) को भर देती है और फिर राजाओं के नेत्रों और किरीटों (मुकुटों) पर पडती है॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु खगपति अस समुझि प्रसङ्गा। बुध नहिं करहिं अधम कर सङ्गा॥
कबि कोबिद गावहिं असि नीति। खल सन कलह न भल नहिं प्रीति॥7॥

मूल

सुनु खगपति अस समुझि प्रसङ्गा। बुध नहिं करहिं अधम कर सङ्गा॥
कबि कोबिद गावहिं असि नीति। खल सन कलह न भल नहिं प्रीति॥7॥

भावार्थ

हे पक्षीराज गरुडजी! सुनिए, ऐसी बात समझकर बुद्धिमान, लोग अधम (नीच) का सङ्ग नहीं करते। कवि और पण्डित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्ट से न कलह ही अच्छा है, न प्रेम ही॥7॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं॥
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई॥8॥

मूल

उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं॥
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई॥8॥

भावार्थ

हे गोसाईं! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चाहिए। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग देना चाहिए। मैं दुष्ट था, हृदय में कपट और कुटिलता भरी थी, (इसलिए यद्यपि) गुरुजी हित की बात कहते थे, पर मुझे वह सुहाती न थी॥8॥