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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥1॥

मूल

हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥1॥

भावार्थ

श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोडकर (निष्काम भाव से) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहिं कलिकाल बरष बहु
बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस
तब मैं गयउँ बिदेस॥2॥

मूल

तेहिं कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥2॥

भावार्थ

हे पक्षीराज! उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षों तक अयोध्या में रहा। एक बार वहाँ अकाल पडा, तब मैं विपत्ति का मारा विदेश चला गया॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

गयउँ उजेनी, सुनु उरगारी।
दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥
गएँ काल कछु, सम्पति पाई।
तहँ पुनि करउँ सम्भु सेवकाई॥1॥

मूलम्

गयउँ उजेनी, सुनु उरगारी।
दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥
गएँ काल कछु, सम्पति पाई।
तहँ पुनि करउँ सम्भु सेवकाई॥1॥

मूल

गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥
गएँ काल कछु सम्पति पाई। तहँ पुनि करउँ सम्भु सेवकाई॥1॥

भावार्थ

हे सर्पों के शत्रु गरुडजी! सुनिए, मैं दीन, मलिन (उदास), दरिद्र और दुःखी होकर उज्जैन गया। कुछ काल बीतने पर कुछ सम्पत्ति पाकर फिर मैं वहीं भगवान्‌ शङ्कर की आराधना करने लगा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा।
करइ सदा तेहि काजु न दूजा॥
परम साधु परमारथ बिन्दक।
सम्भु उपासक नहिं हरि निन्दक॥2॥

मूल

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा॥
परम साधु परमारथ बिन्दक। सम्भु उपासक नहिं हरि निन्दक॥2॥

भावार्थ

एक ब्राह्मण वेदविधि से सदा शिवजी की पूजा करते, उन्हें दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थ के ज्ञाता थे, वे शम्भु के उपासक थे, पर श्री हरि की निन्दा करने वाले न थे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहि सेवउँ मैं कपट समेता।
द्विज दयाल अति नीति-निकेता॥
बाहिज-नम्र देखि मोहि साईं+++(=स्वामि)+++।
बिप्र पढाव पुत्र की नाईं+++(=न्यायेन)+++॥3॥

मूल

तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता॥
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढाव पुत्र की नाईं॥3॥

भावार्थ

मैं कपटपूर्वक उनकी सेवा करता। ब्राह्मण बडे ही दयालु और नीति के घर थे। हे स्वामी! बाहर से नम्र देखकर ब्राह्मण मुझे पुत्र की भाँति मानकर पढाते थे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भु मन्त्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिधि बिधि कीन्हा॥
जपउँ मन्त्र सिव मन्दिर जाई। हृदयँ दम्भ अहमिति अधिकाई॥4॥

मूल

सम्भु मन्त्र मोहि द्विजबर दीन्हा।
सुभ उपदेस बिबिधि बिधि कीन्हा॥
जपउँ मन्त्र सिव मन्दिर जाई।
हृदयँ दम्भ अहमिति अधिकाई॥4॥

भावार्थ

उन ब्राह्मण श्रेष्ठ ने मुझको शिवजी का मन्त्र दिया और अनेकों प्रकार के शुभ उपदेश किए। मैं शिवजी के मन्दिर में जाकर मन्त्र जपता। मेरे हृदय में दम्भ और अहङ्कार बढ गया॥4॥