01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनु खगेस कलि कपट हठ दम्भ द्वेष पाषण्ड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मण्ड॥1॥
मूल
सुनु खगेस कलि कपट हठ दम्भ द्वेष पाषण्ड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मण्ड॥1॥
भावार्थ
हे पक्षीराज गरुडजी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखण्ड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामस धर्म करिहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी बए न जामहिं धान॥2॥
मूल
तामस धर्म करिहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी बए न जामहिं धान॥2॥
भावार्थ
मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इन्द्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥2॥
02 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥1॥
मूल
अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥1॥
भावार्थ
स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुःखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोडी है और कठोर है, उनमें कोमलता नहीं है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नर पीडित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन सम्बदु पञ्च दसा। कलपान्त न नास गुमानु असा॥2॥
मूल
नर पीडित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन सम्बदु पञ्च दसा। कलपान्त न नास गुमानु असा॥2॥
भावार्थ
मनुष्य रोगों से पीडित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोडा सा जीवन है, परन्तु घमण्ड ऐसा है मानो कल्पान्त (प्रलय) होने पर भी उनका नाश नहीं होगा॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता॥3॥
मूल
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता॥3॥
भावार्थ
कलिकाल ने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। (लोगों में) न सन्तोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगने वाले हो गए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥4॥
मूल
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥4॥
भावार्थ
ईर्षा (डाह), कडुवे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गई। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पडे हैं। वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो गए॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दम दान दया नहिं जानपनी। जडता परबञ्चनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिन्दक जे जग मो बगरे॥5॥
मूल
दम दान दया नहिं जानपनी। जडता परबञ्चनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिन्दक जे जग मो बगरे॥5॥
भावार्थ
इन्द्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। मूर्खता और दूसरों को ठगना, यह बहुत अधिक बढ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो पराई निन्दा करने वाले हैं, जगत् में वे ही फैले हैं॥5॥