01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
भए बरन सङ्कर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥1॥
मूल
भए बरन सङ्कर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥1॥
भावार्थ
कलियुग में सब लोग वर्णसङ्कर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ सञ्जुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पन्थ अनेक॥2॥
मूल
श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ सञ्जुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पन्थ अनेक॥2॥
भावार्थ
वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पन्थों की कल्पना करते हैं॥2॥
02 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवन्त दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥1॥
मूल
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवन्त दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥1॥
भावार्थ
सन्न्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलवन्ति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥2॥
मूल
कुलवन्ति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥2॥
भावार्थ
कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोडकर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पडता॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुम्ब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दण्ड बिडम्ब प्रजा नितहीं॥3॥
मूल
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुम्ब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दण्ड बिडम्ब प्रजा नितहीं॥3॥
भावार्थ
जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुम्बी शत्रु रूप हो गए। राजा लोग पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना अपराध) दण्ड देकर उसकी विडम्बना (दुर्दशा) किया करते हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनवन्त कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक सन्त सही कलि सो॥4॥
मूल
धनवन्त कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक सन्त सही कलि सो॥4॥
भावार्थ
धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नङ्गे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे सन्त कहलाते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबि बृन्द उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥5॥
मूल
कबि बृन्द उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥5॥
भावार्थ
कवियों के तो झुण्ड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का आश्रयदाता) सुनाई नहीं पडता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पडते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते हैं॥5॥