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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौडी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥1॥

मूल

ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौडी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥1॥

भावार्थ

स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौडियों (बहुत थोडे लाभ) के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन
हम तुम्ह ते कछु घाटि।
“जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर”
आँखि देखावहिं डाटि॥2॥

मूल

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥2॥

भावार्थ

शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर त्रिय लम्पट, कपट-सयाने।
मोह द्रोह ममता-लपटाने॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर।
देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥1॥

मूल

पर त्रिय लम्पट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥1॥

भावार्थ

जो पराई स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। मैन्ने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥2॥

मूल

आपु गए, अरु तिन्हहू घालहिं+++(=गलयति)+++।
जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका।
परहिं, जे दूषहिं श्रुति+++(को)+++ करि तरका॥2॥

भावार्थ

वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निन्दा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पडे रहते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा+++(=मदिराकृत्)+++।
पनारि+++(=परनारी)+++ मुई+++(=मरी)+++, गृह सम्पति नासी। मूड मुडाइ होहिं सन्न्यासी॥3॥

मूल

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।
पनारि मुई गृह सम्पति नासी। मूड मुडाइ होहिं सन्न्यासी॥3॥

भावार्थ

तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं,
स्त्री के मरने पर
अथवा घर की सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर
सिर मुँडाकर सन्न्यासी हो जाते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥4॥

मूल

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥4॥

भावार्थ

वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥5॥।

मूल

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥5॥।

भावार्थ

शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता॥5॥