01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥1॥
मूल
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥1॥
भावार्थ
जो अमङ्गल वेष और अमङ्गल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥1॥
02 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥2॥
मूल
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥2॥
भावार्थ
जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैं, उन्हीं का बडा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥2॥
03 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥1॥
मूल
नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥1॥
भावार्थ
हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बन्दर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति सन्त बिरोधी॥
गुन मन्दिर सुन्दर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥2॥
मूल
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति सन्त बिरोधी॥
गुन मन्दिर सुन्दर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥2॥
भावार्थ
सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और सन्तों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुन्दर पति को छोडकर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिङ्गार नबीना॥
गुर सिष बधिर अन्ध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥3॥
मूल
सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिङ्गार नबीना॥
गुर सिष बधिर अन्ध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥3॥
भावार्थ
सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए श्रृङ्गार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अन्धे का सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥4॥
मूल
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥4॥
भावार्थ
जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पडता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे॥4॥