01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पन्नगारि असि नीति श्रुति सम्मत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित॥1॥
मूल
पन्नगारि असि नीति श्रुति सम्मत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित॥1॥
भावार्थ
हे गरुडजी! वेदों में मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर अत्यन्त नीच से भी प्रेम करना चाहिए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटम्बर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम॥2॥
मूल
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटम्बर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम॥2॥
भावार्थ
रेशम कीडे से होता है, उससे सुन्दर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसी से उस परम अपवित्र कीडे को भी सब कोई प्राणों के समान पालते हैं॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा॥
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा॥1॥
मूल
स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा॥
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा॥1॥
भावार्थ
जीव के लिए सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुन्दर है जिस शरीर को पाकर श्री रघुवीर का भजन किया जाए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही॥
राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी॥2॥
मूल
राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही॥
राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी॥2॥
भावार्थ
जो श्री रामजी के विमुख है वह यदि ब्रह्माजी के समान शरीर पा जाए तो भी कवि और पण्डित उसकी प्रशंसा नहीं करते। इसी शरीर से मेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न हुई। इसी से हे स्वामी यह मुझे परम प्रिय है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना॥
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा॥3॥
मूल
तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना॥
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा॥3॥
भावार्थ
मेरा मरण अपनी इच्छा पर है, परन्तु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोडता, क्योङ्कि वेदों ने वर्णन किया है कि शरीर के बिना भजन नहीं होता। पहले मोह ने मेरी बडी दुर्दशा की। श्री रामजी के विमुख होकर मैं कभी सुख से नहीं सोया॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना॥
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं॥4॥
मूल
नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना॥
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं॥4॥
भावार्थ
अनेकों जन्मों में मैन्ने अनेकों प्रकार के योग, जप, तप, यज्ञ और दान आदि कर्म किए। हे गरुडजी! जगत् में ऐसी कौन योनि है, जिसमें मैन्ने (बार-बार) घूम-फिरकर जन्म न लिया हो॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखेउँ करि सब करम गोसाईं। सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं॥
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी॥5॥
मूल
देखेउँ करि सब करम गोसाईं। सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं॥
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी॥5॥
भावार्थ
हे गुसाईं! मैन्ने सब कर्म करके देख लिए, पर अब (इस जन्म) की तरह मैं कभी सुखी नहीं हुआ। हे नाथ! मुझे बहुत से जन्मों की याद है, (क्योङ्कि) श्री शिवजी की कृपा से मेरी बुद्धि को मोह ने नहीं घेरा॥5॥