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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड बहोरि॥1॥

मूल

ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड बहोरि॥1॥

भावार्थ

उनकी (भुशुण्डिजी की) बहुत प्रकार से प्रशंसा करके, सिर नवाकर और हाथ जोडकर फिर गरुडजी प्रेमपूर्वक विनम्र और कोमल वचन बोले-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिन्धु सादर कहहु जानि दास निज मोहि॥2॥

मूल

प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिन्धु सादर कहहु जानि दास निज मोहि॥2॥

भावार्थ

हे प्रभो! हे स्वामी! मैं अपने अविवेक के कारण आपसे पूछता हूँ। हे कृपा के समुद्र! मुझे अपना ‘निज दास’ जानकर आदरपूर्वक (विचारपूर्वक) मेरे प्रश्न का उत्तर कहिए॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्ह सर्बग्य तग्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा॥
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा॥1॥

मूल

तुम्ह सर्बग्य तग्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा॥
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा॥1॥

भावार्थ

आप सब कुछ जानने वाले हैं, तत्त्व के ज्ञाता हैं, अन्धकार (माया) से परे, उत्तम बुद्धि से युक्त, सुशील, सरल आचरण वाले, ज्ञान, वैराग्य और विज्ञान के धाम और श्री रघुनाथजी के प्रिय दास हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई॥
राम चरित सुर सुन्दर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी॥2॥

मूल

कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई॥
राम चरित सुर सुन्दर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी॥2॥

भावार्थ

आपने यह काक शरीर किस कारण से पाया? हे तात! सब समझाकर मुझसे कहिए। हे स्वामी! हे आकाशगामी! यह सुन्दर रामचरित मानस आपने कहाँ पाया, सो कहिए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं॥
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई॥3॥

मूल

नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं॥
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई॥3॥

भावार्थ

हे नाथ! मैन्ने शिवजी से ऐसा सुना है कि महाप्रलय में भी आपका नाश नहीं होता और ईश्वर (शिवजी) कभी मिथ्या वचन कहते नहीं। वह भी मेरे मन में सन्देह है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा॥
अण्ड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी॥4॥

मूल

अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा॥
अण्ड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी॥4॥

भावार्थ

(क्योङ्कि) हे नाथ! नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत्‌ काल का कलेवा है। असङ्ख्य ब्रह्माण्डों का नाश करने वाला काल सदा बडा ही अनिवार्य है॥4॥