092

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
सन्तन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ॥1॥

मूल

रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
सन्तन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी अपार गुणों के समुद्र हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है? सन्तों से मैन्ने जैसा कुछ सुना था, वही आपको सुनाया॥1॥

02 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन॥2॥

मूल

भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन॥2॥

भावार्थ

सुख के भण्डार, करुणाधाम भगवा्‌न भाव (प्रेम) के वश हैं। (अतएव) ममता, मद और मान को छोडकर सदा श्री जानकीनाथजी का ही भजन करना चाहिए॥2॥

03 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि भुसुण्डि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पङ्ख फुलाए॥
नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना॥1॥

मूल

सुनि भुसुण्डि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पङ्ख फुलाए॥
नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना॥1॥

भावार्थ

भुशुण्डिजी के सुन्दर वचन सुनकर पक्षीराज ने हर्षित होकर अपने पङ्ख फुला लिए। उनके नेत्रों में (प्रेमानन्द के आँसुओं का) जल आ गया और मन अत्यन्त हर्षित हो गया। उन्होन्ने श्री रघुनाथजी का प्रताप हृदय में धारण किया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना॥
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढावा॥2॥

मूल

पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना॥
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढावा॥2॥

भावार्थ

वे अपने पिछले मोह को समझकर (याद करके) पछताने लगे कि मैन्ने अनादि ब्रह्म को मनुष्य करके माना। गरुडजी ने बार-बार काकभुशुण्डिजी के चरणों पर सिर नवाया और उन्हें श्री रामजी के ही समान जानकर प्रेम बढाया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर बिनु भव निध तरइ न कोई। जौं बिरञ्चि सङ्कर सम होई॥
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता॥3॥

मूल

गुर बिनु भव निध तरइ न कोई। जौं बिरञ्चि सङ्कर सम होई॥
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता॥3॥

भावार्थ

गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्माजी और शङ्करजी के समान ही क्यों न हो। (गरुडजी ने कहा-) हे तात! मुझे सन्देह रूपी सर्प ने डस लिया था और (साँप के डसने पर जैसे विष चढने से लहरें आती हैं वैसे ही) बहुत सी कुतर्क रूपी दुःख देने वाली लहरें आ रही थीं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव सरूप गारुडि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक॥
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना॥4॥

मूल

तव सरूप गारुडि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक॥
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना॥4॥

भावार्थ

आपके स्वरूप रूपी गारुडी (साँप का विष उतारने वाले) के द्वारा भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी ने मुझे जिला लिया। आपकी कृपा से मेरा मोह नाश हो गया और मैन्ने श्री रामजी का अनुपम रहस्य जाना॥4॥