01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥1॥
मूल
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥1॥
भावार्थ
बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री रामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्री रामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शान्ति नहीं पाता॥1॥
02 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुन्दर सुखद॥2॥
मूल
अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुन्दर सुखद॥2॥
भावार्थ
हे धीरबुद्धि! ऐसा विचारकर सम्पूर्ण कुतर्कों और सन्देहों को छोडकर करुणा की खान सुन्दर और सुख देने वाले श्री रघुवीर का भजन कीजिए॥2॥
03 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई॥
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी॥1॥
मूल
निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई॥
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी॥1॥
भावार्थ
हे पक्षीराज! हे नाथ! मैन्ने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु के प्रताप और महिमा का गान किया। मैन्ने इसमें कोई बात युक्ति से बढाकर नहीं कही है। यह सब अपनी आँखों देखी कही है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनन्त रघुनाथा॥
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं॥2॥
मूल
महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनन्त रघुनाथा॥
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं॥2॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी की महिमा, नाम, रूप और गुणों की कथा सभी अपार एवं अनन्त हैं तथा श्री रघुनाथजी स्वयं भी अनन्त हैं। मुनिगण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार श्री हरि के गुण गाते हैं। वेद, शेष और शिवजी भी उनका पार नहीं पाते॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजन्ता। नभ उडाहिं नहिं पावहिं अन्ता॥
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा॥3॥
मूल
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजन्ता। नभ उडाहिं नहिं पावहिं अन्ता॥
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा॥3॥
भावार्थ
आप से लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बडे जीव आकाश में उडते हैं, किन्तु आकाश का अन्त कोई नहीं पाता। इसी प्रकार हे तात! श्री रघुनाजी की महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है?॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा॥4॥
मूल
रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा॥4॥
भावार्थ
श्री रामजी का अरबों कामदेवों के समान सुन्दर शरीर है। वे अनन्त कोटि दुर्गाओं के समान शत्रुनाशक हैं। अरबों इन्द्रों के समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है। अरबों आकाशों के समान उनमें अनन्त अवकाश (स्थान) है॥4॥