088

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहि सुख लाग पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ सन्तत मगन॥1॥

मूल

जेहि सुख लाग पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ सन्तत मगन॥1॥

भावार्थ

जिस सुख के लिए (सबको) सुख देने वाले कल्याण रूप त्रिपुरारि शिवजी ने अशुभ वेष धारण किया, उस सुख में अवधपुरी के नर-नारी निरन्तर निमग्न रहते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति॥2॥

मूल

सोई सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति॥2॥

भावार्थ

उस सुख का लवलेशमात्र जिन्होन्ने एक बार स्वप्न में भी प्राप्त कर लिया, हे पक्षीराज! वे सुन्दर बुद्धि वाले सज्जन पुरुष उसके सामने ब्रह्मसुख को भी कुछ नहीं गिनते॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला॥
राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बन्दि निजाश्रम आयउँ॥1॥

मूल

मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला॥
राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बन्दि निजाश्रम आयउँ॥1॥

भावार्थ

मैं और कुछ समय तक अवधपुरी में रहा और मैन्ने श्री रामजी की रसीली बाल लीलाएँ देखीं। श्री रामजी की कृपा से मैन्ने भक्ति का वरदान पाया। तदनन्तर प्रभु के चरणों की वन्दना करके मैं अपने आश्रम पर लौट आया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥2॥

मूल

तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥2॥

भावार्थ

इस प्रकार जब से श्री रघुनाथजी ने मुझको अपनाया, तब से मुझे माया कभी नहीं व्यापी। श्री हरि की माया ने मुझे जैसे नचाया, वह सब गुप्त चरित्र मैन्ने कहा॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा॥
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥3॥

मूल

निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा॥
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥3॥

भावार्थ

हे पक्षीराज गरुड! अब मैं आपसे अपना निजी अनुभव कहता हूँ। (वह यह है कि) भगवान्‌ के भजन बिना क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षीराज! सुनिए, श्री रामजी की कृपा बिना श्री रामजी की प्रभुता नहीं जानी जाती,॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥4॥

मूल

जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥4॥

भावार्थ

प्रभुता जाने बिना उन पर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ नहीं होती जैसे हे पक्षीराज! जल की चिकनाई ठहरती नहीं॥4॥