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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

माया सम्भव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि॥1॥

मूल

माया सम्भव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि॥1॥

भावार्थ

माया से उत्पन्न सब भ्रम अब तुझको नहीं व्यापेङ्गे। मुझे अनादि, अजन्मा, अगुण (प्रकृति के गुणों से रहित) और (गुणातीत दिव्य) गुणों की खान ब्रह्म जानना॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि भगत प्रिय सन्तत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग॥2॥

मूल

मोहि भगत प्रिय सन्तत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग॥2॥

भावार्थ

हे काक! सुन, मुझे भक्त निरन्तर प्रिय हैं, ऐसा विचार कर शरीर, वचन और मन से मेरे चरणों में अटल प्रेम करना॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी॥
निज सिद्धान्त सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥1॥

मूल

अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी॥
निज सिद्धान्त सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥1॥

भावार्थ

अब मेरी सत्य, सुगम, वेदादि के द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह ‘निज सिद्धान्त’ सुनाता हूँ। सुनकर मन में धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बमम माया सम्भव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥2॥

मूल

बमम माया सम्भव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥2॥

भावार्थ

यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। (इसमें) अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं, क्योङ्कि सभी मेरे उत्पन्न किए हुए हैं। (किन्तु) मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥3॥

मूल

तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥3॥

भावार्थ

उन मनुष्यों में द्विज, द्विजों में भी वेदों को (कण्ठ में) धारण करने वाले, उनमें भी वेदोक्त धर्म पर चलने वाले, उनमें भी विरक्त (वैराग्यवान्‌) मुझे प्रिय हैं। वैराग्यवानों में फिर ज्ञानी और ज्ञानियों से भी अत्यन्त प्रिय विज्ञानी हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा॥
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं॥4॥

मूल

तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा॥
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं॥4॥

भावार्थ

विज्ञानियों से भी प्रिय मुझे अपना दास है, जिसे मेरी ही गति (आश्रय) है, कोई दूसरी आशा नहीं है। मैं तुझसे बार-बार सत्य (‘निज सिद्धान्त’) कहता हूँ कि मुझे अपने सेवक के समान प्रिय कोई भी नहीं है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति हीन बिरञ्चि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई॥
भगतिवन्त अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥5॥

मूल

भगति हीन बिरञ्चि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई॥
भगतिवन्त अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥5॥

भावार्थ

भक्तिहीन ब्रह्मा ही क्यों न हो, वह मुझे सब जीवों के समान ही प्रिय है, परन्तु भक्तिमान्‌ अत्यन्त नीच भी प्राणी मुझे प्राणों के समान प्रिय है, यह मेरी घोषणा है॥5॥