01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ॥1॥
मूल
जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ॥1॥
भावार्थ
जो कभी न देखा था, न सुना था और जो मन में भी नहीं समा सकता था (अर्थात जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी), वही सब अद्भुत सृष्टि मैन्ने देखी। तब उसका किस प्रकार वर्णन किया जाए!॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एक ब्रह्माण्ड महुँ रहउँ बरष सत एक।
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अण्ड कटाह अनेक॥2॥
मूल
एक एक ब्रह्माण्ड महुँ रहउँ बरष सत एक।
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अण्ड कटाह अनेक॥2॥
भावार्थ
मैं एक-एक ब्रह्माण्ड में एक-एक सौ वर्ष तक रहता। इस प्रकार मैं अनेकों ब्रह्माण्ड देखता फिरा॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता॥
नर गन्धर्ब भूत बेताला। किन्नर निसिचर पसु खग ब्याला॥1॥
मूल
लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता॥
नर गन्धर्ब भूत बेताला। किन्नर निसिचर पसु खग ब्याला॥1॥
भावार्थ
प्रत्येक लोक में भिन्न-भिन्न ब्रह्मा, भिन्न-भिन्न विष्णु, शिव, मनु, दिक्पाल, मनुष्य, गन्धर्व, भूत, वैताल, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, सर्प,॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती॥
महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपञ्च तहँ आनइ आना॥2॥
मूल
देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती॥
महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपञ्च तहँ आनइ आना॥2॥
भावार्थ
तथा नाना जाति के देवता एवं दैत्यगण थे। सभी जीव वहाँ दूसरे ही प्रकार के थे। अनेक पृथ्वी, नदी, समुद्र, तालाब, पर्वत तथा सब सृष्टि वहाँ दूसरे ही दूसरी प्रकार की थी॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अण्डकोस प्रति प्रति निज रूपा। दाखेउँ जिनस अनेक अनूपा॥
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी॥3॥
मूल
अण्डकोस प्रति प्रति निज रूपा। दाखेउँ जिनस अनेक अनूपा॥
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी॥3॥
भावार्थ
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में मैन्ने अपना रूप देखा तथा अनेकों अनुपम वस्तुएँ देखीं। प्रत्येक भुवन में न्यारी ही अवधपुरी, भिन्न ही सरयूजी और भिन्न प्रकार के ही नर-नारी थे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता॥
प्रति ब्रह्माण्ड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा॥4॥
मूल
दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता॥
प्रति ब्रह्माण्ड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा॥4॥
भावार्थ
हे तात! सुनिए, दशरथजी, कौसल्याजी और भरतजी आदि भाई भी भिन्न-भिन्न रूपों के थे। मैं प्रत्येक ब्रह्माण्ड में रामावतार और उनकी अपार बाल लीलाएँ देखता फिरता॥4॥