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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उडात।
जुग अङ्गुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥1॥

मूल

ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उडात।
जुग अङ्गुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥1॥

भावार्थ

मैं ब्रह्मलोक तक गया और जब उडते हुए मैन्ने पीछे की ओर देखा, तो हे तात! श्री रामजी की भुजा में और मुझमें केवल दो ही अङ्गुल का बीच था॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि॥2॥

मूल

सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि॥2॥

भावार्थ

सातों आवरणों को भेदकर जहाँ तक मेरी गति थी वहाँ तक मैं गया। पर वहाँ भी प्रभु की भुजा को (अपने पीछे) देखकर मैं व्याकुल हो गया॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ॥
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥1॥

मूल

मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ॥
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥1॥

भावार्थ

जब मैं भयभीत हो गया, तब मैन्ने आँखें मूँद लीं। फिर आँखें खोलकर देखते ही अवधपुरी में पहुँच गया। मुझे देखकर श्री रामजी मुस्कुराने लगे। उनके हँसते ही मैं तुरन्त उनके मुख में चला गया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदर माझ सुनु अण्डज राया। देखउँ बहु ब्रह्माण्ड निकाया॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥2॥

मूल

उदर माझ सुनु अण्डज राया। देखउँ बहु ब्रह्माण्ड निकाया॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥2॥

भावार्थ

हे पक्षीराज! सुनिए, मैन्ने उनके पेट में बहुत से ब्रह्माण्डों के समूह देखे। वहाँ (उन ब्रह्माण्डों में) अनेकों विचित्र लोक थे, जिनकी रचना एक से एक की बढकर थी॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा॥
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥3॥

मूल

कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा॥
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥3॥

भावार्थ

करोडों ब्रह्माजी और शिवजी, अनगिनत तारागण, सूर्य और चन्द्रमा, अनगिनत लोकपाल, यम और काल, अनगिनत विशाल पर्वत और भूमि,॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा॥।
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किन्नर। चारि प्रकार जीव सचराचर॥4॥

मूल

सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा॥।
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किन्नर। चारि प्रकार जीव सचराचर॥4॥

भावार्थ

असङ्ख्य समुद्र, नदी, तालाब और वन तथा और भी नाना प्रकार की सृष्टि का विस्तार देखा। देवता, मुनि, सिद्ध, नाग, मनुष्य, किन्नर तथा चारों प्रकार के जड और चेतन जीव देखे॥4॥