01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामचन्द्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवन्त अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥1॥
मूल
रामचन्द्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवन्त अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥1॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी के भजन बिना जो मोक्ष पद चाहता है, वह मनुष्य ज्ञानवान् होने पर भी बिना पूँछ और सीङ्ग का पशु है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राकापति षोडस उअहिं तारागन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥2॥
मूल
राकापति षोडस उअहिं तारागन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥2॥
भावार्थ
सभी तारागणों के साथ सोलह कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा उदय हो और जितने पर्वत हैं उन सब में दावाग्नि लगा दी जाए, तो भी सूर्य के उदय हुए बिना रात्रि नहीं जा सकती॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥1॥
मूल
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥1॥
भावार्थ
हे पक्षीराज! इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जीवों का क्लेश नहीं मिटता। श्री हरि के सेवक को अविद्या नहीं व्यापती। प्रभु की प्रेरणा से उसे विद्या व्यापती है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति बाढइ बिहङ्गबर॥
भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥2॥
मूल
ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति बाढइ बिहङ्गबर॥
भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥2॥
भावार्थ
हे पक्षीश्रेष्ठ! इससे दास का नाश नहीं होता और भेद भक्ति बढती है। श्री रामजी ने मुझे जब भ्रम से चकित देखा, तब वे हँसे। वह विशेष चरित्र सुनिए॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥
जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना॥3॥
मूल
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥
जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना॥3॥
भावार्थ
उस खेल का मर्म किसी ने नहीं जाना, न छोटे भाइयों ने और न माता-पिता ने ही। वे श्याम शरीर और लाल-लाल हथेली और चरणतल वाले बाल रूप श्री रामजी घुटने और हाथों के बल मुझे पकडने को दौडे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब मैं भागि चलेउँ उरगारी। राम गहन कहँ भुजा पसारी॥
जिमि जिमि दूरि उडाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥4॥
मूल
तब मैं भागि चलेउँ उरगारी। राम गहन कहँ भुजा पसारी॥
जिमि जिमि दूरि उडाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥4॥
भावार्थ
हे सर्पों के शत्रु गरुडजी! तब मैं भाग चला। श्री रामजी ने मुझे पकडने के लिए भुजा फैलाई। मैं जैसे-जैसे आकाश में दूर उडता, वैसे-वैसे ही वहाँ श्री हरि की भुजा को अपने पास देखता था॥4॥