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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।
जाऊँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं॥1॥

मूल

आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।
जाऊँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं॥1॥

भावार्थ

मेरे निकट आने पर प्रभु हँसते हैं और भाग जाने पर रोते हैं और जब मैं उनका चरण स्पर्श करने के लिए पास जाता हूँ, तब वे पीछे फिर-फिरकर मेरी ओर देखते हुए भाग जाते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानन्द सन्दोह॥2॥

मूल

प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानन्द सन्दोह॥2॥

भावार्थ

साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शङ्का) हुआ कि सच्चिदानन्दघन प्रभु यह कौन (महत्त्व का) चरित्र (लीला) कर रहे हैं॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥1॥

मूल

एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥1॥

भावार्थ

हे पक्षीराज! मन में इतनी (शङ्का) लाते ही श्री रघुनाथजी के द्वारा प्रेरित माया मुझ पर छा गई, परन्तु वह माया न तो मुझे दुःख देने वाली हुई और न दूसरे जीवों की भाँति संसार में डालने वाली हुई॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना॥
ग्यान अखण्ड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥2॥

मूल

नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना॥
ग्यान अखण्ड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥2॥

भावार्थ

हे नाथ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण है। हे भगवान्‌ के वाहन गरुडजी! उसे सावधान होकर सुनिए। एक सीतापति श्री रामजी ही अखण्ड मानवस्वरूप हैं और जड-चेतन सभी जीव माया के वश हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं सब कें रह ज्ञान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस॥
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी॥3॥

मूल

जौं सब कें रह ज्ञान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस॥
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी॥3॥

भावार्थ

यदि जीवों को एकरस (अखण्ड) ज्ञान रहे, तो कहिए, फिर ईश्वर और जीव में भेद ही कैसा? अभिमानी जीव माया के वश है और वह (सत्त्व, रज, तम इन) तीनों गुणों की खान माया ईश्वर के वश में है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परबस जीव स्वबस भगवन्ता। जीव अनेक एक श्रीकन्ता॥
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥4॥

मूल

परबस जीव स्वबस भगवन्ता। जीव अनेक एक श्रीकन्ता॥
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥4॥

भावार्थ

जीव परतन्त्र है, भगवान्‌ स्वतन्त्र हैं, जीव अनेक हैं, श्री पति भगवान्‌ एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत्‌ है तथापि वह भगवान्‌ के भजन बिना करोडों उपाय करने पर भी नहीं जा सकता॥4॥