076

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर।
उर आयत भ्राजत बिबिधि बाल बिभूषन चीर॥76॥

मूल

रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर।
उर आयत भ्राजत बिबिधि बाल बिभूषन चीर॥76॥

भावार्थ

उदर पर सुन्दर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं, नाभि सुन्दर और गहरी है। विशाल वक्षःस्थल पर अनेकों प्रकार के बच्चों के आभूषण और वस्त्र सुशोभित हैं॥ 76॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुन्दर॥
कन्ध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा॥1॥

मूल

अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुन्दर॥
कन्ध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा॥1॥

भावार्थ

लाल-लाल हथेलियाँ, नख और अँगुलियाँ मन को हरने वाले हैं और विशाल भुजाओं पर सुन्दर आभूषण हैं। बालसिंह (सिंह के बच्चे) के से कन्धे और शङ्ख के समान (तीन रेखाओं से युक्त) गला है। सुन्दर ठुड्डी है और मुख तो छवि की सीमा ही है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे॥
ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा॥2॥

मूल

कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे॥
ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा॥2॥

भावार्थ

कलबल (तोतले) वचन हैं, लाल-लाल होठ हैं। उज्ज्वल, सुन्दर और छोटी-छोटी (ऊपर और नीचे) दो-दो दन्तुलियाँ हैं। सुन्दर गाल, मनोहर नासिका और सब सुखों को देने वाली चन्द्रमा की (अथवा सुख देने वाली समस्त कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा की) किरणों के समान मधुर मुस्कान है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नील कञ्ज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुञ्चित कच मेचक छबि छाए॥3॥

मूल

नील कञ्ज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुञ्चित कच मेचक छबि छाए॥3॥

भावार्थ

नीले कमल के समान नेत्र जन्म-मृत्यु (के बन्धन) से छुडाने वाले हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक सुशोभित है। भौंहें टेढी हैं, कान सम और सुन्दर हैं, काले और घुँघराले केशों की छबि छा रही है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही॥
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिम्ब निहारी॥4॥

मूल

पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही॥
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिम्ब निहारी॥4॥

भावार्थ

पीली और महीन झँगुली शरीर पर शोभा दे रही है। उनकी किलकारी और चितवन मुझे बहुत ही प्रिय लगती है। राजा दशरथजी के आँगन में विहार करने वाले रूप की राशि श्री रामचन्द्रजी अपनी परछाहीं देखकर नाचते हैं,॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि सन करहिं बिबिधि बिधि क्रीडा। बरनत मोहि होति अति ब्रीडा॥
किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥5॥

मूल

मोहि सन करहिं बिबिधि बिधि क्रीडा। बरनत मोहि होति अति ब्रीडा॥
किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥5॥

भावार्थ

और मुझसे बहुत प्रकार के खेल करते हैं, जिन चरित्रों का वर्णन करते मुझे लज्जा आती है! किलकारी मारते हुए जब वे मुझे पकडने दौडते और मैं भाग चलता, तब मुझे पूआ दिखलाते थे॥5॥