01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ सङ्ग उडाउँ।
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाई करि खाउँ॥1॥
मूल
लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ सङ्ग उडाउँ।
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाई करि खाउँ॥1॥
भावार्थ
लडकपन में वे जहाँ-जहाँ फिरते हैं, वहाँ-वहाँ मैं साथ-साथ उडता हूँ और आँगन में उनकी जो जूठन पडती है, वही उठाकर खाता हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥2॥
मूल
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥2॥
भावार्थ
एक बार श्री रघुवीर ने सब चरित्र बहुत अधिकता से किए। प्रभु की उस लीला का स्मरण करते ही काकभुशुण्डिजी का शरीर (प्रेमानन्दवश) पुलकित हो गया॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहइ भसुण्ड सुनहु खगनायक। राम चरित सेवक सुखदायक॥
नृप मन्दिर सुन्दर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती॥1॥
मूल
कहइ भसुण्ड सुनहु खगनायक। राम चरित सेवक सुखदायक॥
नृप मन्दिर सुन्दर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती॥1॥
भावार्थ
भुशुण्डिजी कहने लगे- हे पक्षीराज! सुनिए, श्री रामजी का चरित्र सेवकों को सुख देने वाला है। (अयोध्या का) राजमहल सब प्रकार से सुन्दर है। सोने के महल में नाना प्रकार के रत्न जडे हुए हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई॥
बाल बिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई॥2॥
मूल
बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई॥
बाल बिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई॥2॥
भावार्थ
सुन्दर आँगन का वर्णन नहीं किया जा सकता, जहाँ चारों भाई नित्य खेलते हैं। माता को सुख देने वाले बालविनोद करते हुए श्री रघुनाथजी आँगन में विचर रहे हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अङ्ग अङ्ग प्रति छबि बहु कामा॥
नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना॥3॥
मूल
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अङ्ग अङ्ग प्रति छबि बहु कामा॥
नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना॥3॥
भावार्थ
मरकत मणि के समान हरिताभ श्याम और कोमल शरीर है। अङ्ग-अङ्ग में बहुत से कामदेवों की शोभा छाई हुई है। नवीन (लाल) कमल के समान लाल-लाल कोमल चरण हैं। सुन्दर अँगुलियाँ हैं और नख अपनी ज्योति से चन्द्रमा की कान्ति को हरने वाले हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ललित अङ्क कुलिसादिक चारी। नूपुर चारु मधुर रवकारी॥
चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किङ्किनि कल मुखर सुहाई॥4॥
मूल
ललित अङ्क कुलिसादिक चारी। नूपुर चारु मधुर रवकारी॥
चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किङ्किनि कल मुखर सुहाई॥4॥
भावार्थ
(तलवे में) वज्रादि (वज्र, अङ्कुश, ध्वजा और कमल) के चार सुन्दर चिह्न हैं, चरणों में मधुर शब्द करने वाले सुन्दर नूपुर हैं, मणियों, रत्नों से जडी हुई सोने की बनी हुई सुन्दर करधनी का शब्द सुहावना लग रहा है॥4॥