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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर॥1॥

मूल

जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर॥1॥

भावार्थ

यद्यपि बच्चा पहले (फोडा चिराते समय) दुःख पाता है और अधीर होकर रोता है, तो भी रोग के नाश के लिए माता बच्चे की उस पीडा को कुछ भी नहीं गिनती (उसकी परवाह नहीं करती और फोडे को चिरवा ही डालती है)॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि॥2॥

मूल

तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि॥2॥

भावार्थ

उसी प्रकार श्री रघुनाथजी अपने दास का अभिमान उसके हित के लिए हर लेते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे प्रभु को भ्रम त्यागकर क्यों नहीं भजते॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कृपा आपनि जडताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥1॥

मूल

राम कृपा आपनि जडताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥1॥

भावार्थ

हे हे गरुडजी! श्री रामजी की कृपा और अपनी जडता (मूर्खता) की बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिए। जब-जब श्री रामचन्द्रजी मनुष्य शरीर धारण करते हैं और भक्तों के लिए बहुत सी लीलाएँ करते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥
जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥2॥

मूल

तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥
जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥2॥

भावार्थ

तब-तब मैं अयोध्यापुरी जाता हूँ और उनकी बाल लीला देखकर हर्षित होता हूँ। वहाँ जाकर मैं जन्म महोत्सव देखता हूँ और (भगवान्‌ की शिशु लीला में) लुभाकर पाँच वर्ष तक वहीं रहता हूँ॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥3॥

मूल

इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥3॥

भावार्थ

बालक रूप श्री रामचन्द्रजी मेरे इष्टदेव हैं, जिनके शरीर में अरबों कामदेवों की शोभा है। हे गरुडजी! अपने प्रभु का मुख देख-देखकर मैं नेत्रों को सफल करता हूँ॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लघु बायस बपु धरि हरि सङ्गा। देखउँ बालचरित बहु रङ्गा॥4॥

मूल

लघु बायस बपु धरि हरि सङ्गा। देखउँ बालचरित बहु रङ्गा॥4॥

भावार्थ

छोटे से कौए का शरीर धरकर और भगवान्‌ के साथ-साथ फिरकर मैं उनके भाँति-भाँति के बाल चरित्रों को देखा करता हूँ॥4॥