01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ बिडम्बना कीन्हि न एहिं संसार॥1॥
मूल
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ बिडम्बना कीन्हि न एहिं संसार॥1॥
भावार्थ
इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने विडम्बना (मिट्टी पलीद) न की हो॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥2॥
मूल
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥2॥
भावार्थ
लक्ष्मी के मद ने किसको टेढा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया? ऐसा कौन है जिसे मृगनयनी (युवती स्त्री) के नेत्र बाण न लगे हों॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा॥1॥
मूल
गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा॥1॥
भावार्थ
(रज, तम आदि) गुणों का किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआ? ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोडा हो। यौवन के ज्वर ने किसे आपे से बाहर नहीं किया? ममता ने किस के यश का नाश नहीं किया?॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मच्छर काहि कलङ्क न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा॥
चिन्ता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥2॥
मूल
मच्छर काहि कलङ्क न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा॥
चिन्ता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥2॥
भावार्थ
मत्सर (डाह) ने किसको कलङ्क नहीं लगाया? शोक रूपी पवन ने किसे नहीं हिला दिया? चिन्ता रूपी साँपिन ने किसे नहीं खा लिया? जगत में ऐसा कौन है, जिसे माया न व्यापी हो?॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा॥
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥3॥
मूल
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा॥
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥3॥
भावार्थ
मनोरथ क्रीडा है, शरीर लकडी है। ऐसा धैर्यवान् कौन है, जिसके शरीर में यह कीडा न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की, इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड नहीं दिया)?॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा॥
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥3॥
मूल
यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा॥
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥3॥
भावार्थ
मनोरथ क्रीडा है, शरीर लकडी है। ऐसा धैर्यवान् कौन है, जिसके शरीर में यह कीडा न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की, इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड नहीं दिया)?॥3॥