01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि बिहङ्गपति बानी सहित बिनय अनुराग।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग॥1॥
मूल
सुनि बिहङ्गपति बानी सहित बिनय अनुराग।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग॥1॥
भावार्थ
पक्षीराज गरुडजी की विनय और प्रेमयुक्त वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी का शरीर पुलकित हो गया, उनके नेत्रों में जल भर आया और वे मन में अत्यन्त हर्षित हुए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास॥2॥
मूल
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास॥2॥
भावार्थ
हे उमा! सुन्दर बुद्धि वाले सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन अत्यन्त गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को भी प्रकट कर देते हैं॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोलेउ काकभुसुण्ड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी॥
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे॥1॥
मूल
बोलेउ काकभुसुण्ड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी॥
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे॥1॥
भावार्थ
काकभुशुण्डिजी ने फिर कहा- पक्षीराज पर उनका प्रेम कम न था (अर्थात् बहुत था)- हे नाथ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्री रघुनाथजी के कृपापात्र हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥
पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बडाई मोही॥2॥
मूल
तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥
पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बडाई मोही॥2॥
भावार्थ
आपको न सन्देह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ! आपने तो मुझ पर दया की है। हे पक्षीराज! मोह के बहाने श्री रघुनाथजी ने आपको यहाँ भेजकर मुझे बडाई दी है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥
नारद भव बिरञ्चि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥3॥
मूल
तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥
नारद भव बिरञ्चि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥3॥
भावार्थ
हे पक्षियों के स्वामी! आपने अपना मोह कहा, सो हे गोसाईं! यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारदजी, शिवजी, ब्रह्माजी और सनकादि जो आत्मतत्त्व के मर्मज्ञ और उसका उपदेश करने वाले श्रेष्ठ मुनि हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोह न अन्ध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥4॥
मूल
मोह न अन्ध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥4॥
भावार्थ
उनमें से भी किस-किस को मोह ने अन्धा (विवेकशून्य) नहीं किया? जगत् में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया हो? तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया? क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया?॥4॥