064

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालचरित कहि बिबिधि बिधि मन महँ परम उछाह।
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्रीरघुबीर बिबाह॥64॥

मूल

बालचरित कहि बिबिधि बिधि मन महँ परम उछाह।
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्रीरघुबीर बिबाह॥64॥

भावार्थ

मन में परम उत्साह भरकर अनेकों प्रकार की बाल लीलाएँ कहकर, फिर ऋषि विश्वामित्रजी का अयोध्या आना और श्री रघुवीरजी का विवाह वर्णन किया॥64॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुरि राम अभिषेक प्रसङ्गा। पुनि नृप बचन राज रस भङ्गा॥
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन सम्बादा॥1॥

मूल

बहुरि राम अभिषेक प्रसङ्गा। पुनि नृप बचन राज रस भङ्गा॥
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन सम्बादा॥1॥

भावार्थ

फिर श्री रामजी के राज्याभिषेक का प्रसङ्ग फिर राजा दशरथजी के वचन से राजरस (राज्याभिषेक के आनन्द) में भङ्ग पडना, फिर नगर निवासियों का विरह, विषाद और श्री राम-लक्ष्मण का संवाद (बातचीत) कहा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥
बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥2॥

मूल

बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥
बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥2॥

भावार्थ

श्री राम का वनगमन, केवट का प्रेम, गङ्गाजी से पार उतरकर प्रयाग में निवास, वाल्मीकिजी और प्रभु श्री रामजी का मिलन और जैसे भगवान्‌ चित्रकूट में बसे, वह सब कहा॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना॥
करि नृप क्रिया सङ्ग पुरबासी। भरत गए जहाँ प्रभु सुख रासी॥3॥

मूल

सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना॥
करि नृप क्रिया सङ्ग पुरबासी। भरत गए जहाँ प्रभु सुख रासी॥3॥

भावार्थ

फिर मन्त्री सुमन्त्रजी का नगर में लौटना, राजा दशरथजी का मरण, भरतजी का (ननिहाल से) अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजा की अन्त्येष्टि क्रिया करके नगर निवासियों को साथ लेकर भरतजी वहाँ गए जहाँ सुख की राशि प्रभु श्री रामचन्द्रजी थे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए॥
भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेण्ट पुनि बरनी॥4॥

मूल

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए॥
भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेण्ट पुनि बरनी॥4॥

भावार्थ

फिर श्री रघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझाया, जिससे वे खडाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आए, यह सब कथा कही। भरतजी की नन्दीग्राम में रहने की रीति, इन्द्रपुत्र जयन्त की नीच करनी और फिर प्रभु श्री रामचन्द्रजी और अत्रिजी का मिलाप वर्णन किया॥4॥