061

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतसङ्ग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ अनुराग॥61॥

मूल

बिनु सतसङ्ग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ अनुराग॥61॥

भावार्थ

सत्सङ्ग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना श्री रामचन्द्रजी के चरणों में दृढ (अचल) प्रेम नहीं होता॥61॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥
उत्तर दिसि सुन्दर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला॥1॥

मूल

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥
उत्तर दिसि सुन्दर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला॥1॥

भावार्थ

बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से श्री रघुनाथजी नहीं मिलते। (अतएव तुम सत्सङ्ग के लिए वहाँ जाओ जहाँ) उत्तर दिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥
राम कथा सो कहइ निरन्तर। सादर सुनहिं बिबिध बिहङ्गबर॥2॥

मूल

राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥
राम कथा सो कहइ निरन्तर। सादर सुनहिं बिबिध बिहङ्गबर॥2॥

भावार्थ

वे रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं और बहुत काल के हैं। वे निरन्तर श्री रामचन्द्रजी की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदर सहित सुनते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी॥
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई॥3॥

मूल

जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी॥
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई॥3॥

भावार्थ

वहाँ जाकर श्री हरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा। मैन्ने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा॥
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना॥4॥

मूल

ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा॥
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना॥4॥

भावार्थ

हे उमा! मैन्ने उसको इसीलिए नहीं समझाया कि मैं श्री रघुनाथजी की कृपा से उसका मर्म (भेद) पा गया था। उसने कभी अभिमान किया होगा, जिसको कृपानिधान श्री रामजी नष्ट करना चाहते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥
प्रभु माया बलवन्त भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥5॥

मूल

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥
प्रभु माया बलवन्त भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥5॥

भावार्थ

फिर कुछ इस कारण भी मैन्ने उसको अपने पास नहीं रखा कि पक्षी पक्षी की ही बोली समझते हैं। हे भवानी! प्रभु की माया (बडी ही) बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले?॥5॥