060

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमातुर बिहङ्गपति आयउ तब मो पास।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास॥60॥

मूल

परमातुर बिहङ्गपति आयउ तब मो पास।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास॥60॥

भावार्थ

तब बडी आतुरता (उतावली) से पक्षीराज गरुड मेरे पास आए। हे उमा! उस समय मैं कुबेर के घर जा रहा था और तुम कैलास पर थीं॥60॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन सन्देह सुनावा॥
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥1॥

मूल

तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन सन्देह सुनावा॥
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥1॥

भावार्थ

गरुड ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना सन्देह सुनाया। हे भवानी! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैन्ने प्रेमसहित उनसे कहा-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलेहु गरुड मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥
तबहिं होइ सब संसय भङ्गा। जब बहु काल करिअ सतसङ्गा॥2॥

मूल

मिलेहु गरुड मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥
तबहिं होइ सब संसय भङ्गा। जब बहु काल करिअ सतसङ्गा॥2॥

भावार्थ

हे गरुड! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँ? सब सन्देहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्सङ्ग किया जाए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनिअ तहाँ हरिकथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई॥
जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना॥3॥

मूल

सुनिअ तहाँ हरिकथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई॥
जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना॥3॥

भावार्थ

और वहाँ (सत्सङ्ग में) सुन्दर हरिकथा सुनी जाए जिसे मुनियों ने अनेकों प्रकार से गाया है और जिसके आदि, मध्य और अन्त में भगवान्‌ श्री रामचन्द्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई॥
जाइहि सुनत सकल सन्देहा। राम चरन होइहि अति नेहा॥4॥

मूल

नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई॥
जाइहि सुनत सकल सन्देहा। राम चरन होइहि अति नेहा॥4॥

भावार्थ

हे भाई! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब सन्देह दूर हो जाएगा और तुम्हें श्री रामजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम होगा॥4॥