059

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान॥59॥

मूल

अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान॥59॥

भावार्थ

ऐसा कहकर परम सुजान देवर्षि नारदजी श्री रामजी का गुणगान करते हुए और बारम्बार श्री हरि की माया का बल वर्णन करते हुए चले॥59॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब खगपति बिरञ्चि पहिं गयऊ। निज सन्देह सुनावत भयऊ॥
सुनि बिरञ्चि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा॥1॥

मूल

तब खगपति बिरञ्चि पहिं गयऊ। निज सन्देह सुनावत भयऊ॥
सुनि बिरञ्चि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा॥1॥

भावार्थ

तब पक्षीराज गरुड ब्रह्माजी के पास गए और अपना सन्देह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्माजी ने श्री रामचन्द्रजी को सिर नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके मन में अत्यन्त प्रेम छा गया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥2॥

मूल

हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥2॥

भावार्थ

ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान्‌ की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा॥
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई॥3॥

मूल

अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा॥
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई॥3॥

भावार्थ

यह सारा चराचर जगत्‌ तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब गरुड को मोह होना कोई आश्चर्य (की बात) नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी सुन्दर वाणी बोले- श्री रामजी की महिमा को महादेवजी जानते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बैनतेय सङ्कर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू॥
तहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहङ्ग सुनत बिधि बानी॥4॥

मूल

बैनतेय सङ्कर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू॥
तहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहङ्ग सुनत बिधि बानी॥4॥

भावार्थ

हे गरुड! तुम शङ्करजी के पास जाओ। हे तात! और कहीं किसी से न पूछना। तुम्हारे सन्देह का नाश वहीं होगा। ब्रह्माजी का वचन सुनते ही गरुड चल दिए॥4॥